Book Title: Jambuswami Charitra
Author(s): Vimla Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 139
________________ श्री जम्बूस्वामी चरित्र १३५ पथ का अनुसरण करो और ममता को तजकर समता को धारण करो और वीतरागी पथ पर जाने के लिए आप सबकी सहर्ष आज्ञा दो। विधुच्चर चोर का प्रवेश इसी बीच एक घटना घटी। ५०० चोरों के नेता विद्युच्चर नामक चोर ने सोचा - "आज ही जम्बूकुमार का विवाह हुआ है, तो वहाँ बहुत धन-सम्पत्ति मिलेगी, इसलिए आज वहीं जाया जावे।" अतः वह चोरी की भावना से सेठ अर्हद्दास के महल में आया। लेकिन उसने देखा कि कुमार एवं रानियाँ विषय-कषाय को भूलकर धार्मिक तत्त्वचर्चा कर रहे हैं। तब वह सोचने लगा - “यह कैसा आश्चर्य ? अज्ञानी जगत तो इस रात को विषयों में पागल रहते हैं और इस कुमार को क्या हो गया ? भोग के समय योग कर रहा है। राग के बदले वीतरागता की वार्ताएँ हो रही हैं। ये राज्य-वैभव, ये भोग-सामग्री, ये चार-चार सुन्दर देवांगनाओं जैसी रानियाँ, उनकी हाव-भाव पूर्ण चेष्टाएँ भी इस सुमेरु कुमार को डिगा नहीं सकी। अहो आश्चर्य! महा-आश्चर्य! इसका क्या कारण है? मैं अवश्य इसे जानकर रहूँगा।" फिर वह अपने को धिक्कारता है - "अरे! जिसके पास न्याय-नीति से उपार्जित सब धन-संपदा एवं भोग उपलब्ध हैं, वह तो उसकी ओर आँख उठाकर भी नहीं देखता और मैं अन्याय एवं चोरी से परधन को लूटना चाहता हूँ, मुझे धिक्कार है। आज से मैं भी इन चौर्य कर्म आदि पापों को छोड़ता हूँ और अब जो कुमार की गति होगी, वही मेरी गति होगी।" - ऐसे विचारों में मग्न विद्युच्चर कुमार के कक्ष की खिड़की पर बैठा हुआ था। माता भी व्याकुल चित्त से घूम रही थी। वह देखती है कि यहाँ कोई व्यक्ति बैठा हुआ है। वह उसके पास पहुँचती है। विद्युच्चर चोर ने पहले ही आकर माता जिनमति के चरणों में प्रणाम किया और बोला - "हे माते! मैं विधुच्चर चोर हैं, मैं चोरी करने आपके यहाँ आया हुआ था। मैं पहले भी आपके महल से धन-सम्पदा चुरा कर ले गया हूँ, मगर आज कुमार एवं

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