Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 420
________________ ४०२ : जैन पुराणकोश शिक्षा-हिताहित का विवेक । यह विनय-सम्पत्ति से प्राप्त होता है। मपु० ३१.२-३ शिक्षाव्रत-मुनिधर्म के अभ्यास में हेतु रूप गृहस्थों के चार व्रत (१) तीनों संध्याओं में सामायिक करना (२) प्रौषधोपवास करना (३) अतिथि पूजन करना और (४) आयु के अन्त में सल्लेखना धारण करना। महापुराण में इन्हें क्रमशः समता, प्रौषधविधि, अतिथिसंग्रह तथा मरण समय में लिया जाने वाला संन्यास नाम दिये गये हैं। मपु० १०.१६६, हपु० २.१३४, १८.४५-४७ शिखण्डी-यादवों का पक्षधर एक अर्धरथ राजा। यह द्रुपद राजा का पुत्र था। इसने कौरव-पाण्डव युद्ध में नौवें दिन भीष्मपितामह को पराजित किया था। हपु० ५०.८४, पापु० १९.२०२-२०३, २४२ २४९ शिखरनल-विजयार्घ पर्वत का एक उद्यान । ज्योतिःप्रभ नगर का राजा सम्भिन्नरथनूपुर के राजा अमिततेज के साथ यहाँ विहार करने आया था। मपु० ६२.२४१-२४३ शिखरिकूट-शिखरी कुलाचल का दूसरा कूट । हपु० ५.१०५ दे० शिखरी शिखरी-जम्बूद्वीप में पूर्व-पश्चिम लम्बा छठा कुलाचल। यह पर्वत हेममय है । इसके क्रमशः ग्यारह कूट हैं--(१) सिद्धायतनकूट (२) शिखरिकूट (३) हैरण्यवतकूट (४) सुरदेवीकूट (४), रक्ताकूट (६) लक्ष्मीकूट (७) सुवर्णकूट (८) रक्तवतीकूट (९) गन्धदेवीकूट (१०) ऐरावतकूट और (११) मणिकांचनकूट । हपु० ५.१०५-१०८, दे० कुलपर्वत 'शिखापद-(१) एक नगर । इन्द्र विद्याधर अपने एक पूर्वभव में यहाँ कुलवान्ता नाम से प्रसिद्ध हुआ था। पपु० १३.५५ (२) एक देश । लवणांकुश और मदनांकुश कुमारों ने यहाँ के राजा को पराजित किया था। पपु० १०१.८३, ८६ शिखावीर-रावण का एक सामन्त । पपु० ५७.४८ शिखि-विश्वावसु और ज्योतिष्मती का पुत्र । श्रमण होकर इसने महा तप किया था। आयु के अन्त में निदानपूर्वक मरकर यह असुरों का अधिपति चमरेन्द्र हुआ । पपु० १२.५५-५६ शिखिकण्ठ-आगामी छठा-प्रतिनारायण । हपु० ६०.५७० शिखिभूधर-धान्यपुर नगर का समीपवर्ती इक पर्वत । मपु० ७६.३२२ ३२४ शिखी-(१) काम्पिल्य नगर का एक ब्राह्मण । इषु इसकी स्त्री तथा एर पुत्र था । पपु० २५.४२-४३ (२) सीता-स्वयंवर में सम्मिलित हुआ एक राजकुमार । पपु० २८.२१५ 'शिरः प्रकम्पित-चौरासी लाख महालता प्रमित काल । मपु० ३.२२६, हपु० ७.३० दे० काल-१० शिरस्त्र-सिर की रक्षा करनेवाली सैनिकों की टोपी । सैनिक इसका व्यवहार करते थे। मपु ३१.७२, ३६.१४ शिक्षा-शिवगुप्त शिरीष-तीर्थकर सुपार्श्वनाथ का बोधिवृक्ष । पपु० २०.४३ शिलाकपाट-अंजना के पिता राजा महेन्द्र का द्वारपाल । अंजना के आने पर राजा महेन्द्र को अंजना के आने की सूचना देते हुए इसी ने उन्हें अंजना के ससुराल से निष्कासित किये जाने का वृत्त सुनाया था। पपु० १७.३३-३७ शिलापट्ट-एक शिलाखण्ड । यह शिला पुरिमताल नगर के निकट शकट उद्यान में एक वटवृक्ष के नीचे विद्यमान थी। वृषभदेव इसी शिला पर ध्यानस्थ हुए थे। मपु० १७.१९०, २०.२१८-२२१ शिलीमुख-(१) रावण का गजरथारोही योद्धा । पपु० ५७.५५ (२) राम के समय का एक अस्त्र-बाण । पपु०५८.३४ शिल्पकर्म-तीर्थकर वृषभदेव द्वारा बताये गये आजीविका के छः कर्मों में छठा कर्म । हस्त-कौशल से जीविकोपार्जन करना शिल्पकर्म कहलाता है । चित्रकला, पत्रच्छेदन आदि शिल्पकार्य के भेद है। हपु० १६.१७९-१८२, हपु० ९.३५ शिल्पपुर-एक नगर । नरपति यहाँ का राजा था। चक्रवर्ती श्रीपाल ने यहाँ के राजा की रतिविमला पुत्री को विवाहा था। हपु० ४७. १४४--१४५ शिवंकर-(१) विदेहक्षेत्र का एक वन । पुण्डरोकिणी नगरी के राजा प्रजापाल ने अपने पुत्र लोकपाल को राज्य देकर इसी वन में शीलगुप्त मुनि के पास संयम धारण किया था। मपु० ४६.१९-२०, ४८ (२) विजयाध पर्वत की उत्तरश्रेणी के साठ नगरों में बारहवाँ नगर । मपु० १९.७९ शिव-(१) भरतेश और सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.४४, २५.७४, १०५ (२) राम का एक योद्धा । पपु० ५८.१४, १७ (३) समवसरण के तीसरे कोट के दक्षिण द्वार का एक नाम । हपु० ५७.५८ (४) लवणसमुद्र की दक्षिण दिशा में पाताल विवर के समीप स्थित उदक पर्वत का अधिष्ठाता देव । हपु० ५.४६१ शिवकुमार-(१) एक राजकुमार । श्रोपाल के पास आते हो इसके मुख की वक्रता ठीक हो गयी थी । मपु० ४७.१०० (२) जम्बूद्वीप के पूर्व विदेहक्षेत्र में पुष्कलावती देश के वीतशोक नगर के राजा महापद्म और रानी वनमाला का पुत्र । यह सागरदत्त मुनि से अपना पूर्वभव सुनकर विरक्त हो गया था। जल में कमल के समान घर में रहकर बारह वर्ष तक कठिन तप करते हुए आयु के अन्त में संन्यास-मरण से देह त्याग कर यह ब्रह्मस्वर्ग में विद्युन्मालो देव हुआ। मपु० ७६.१३०-१३१, २००-२०९ शिवकोटि-प्रभाचन्द्र आचार्य के उत्तरवर्ती आचार्य । ये आचार्य भगवती आराधना के कर्ता थे। मपु० १.४७-४९ शिवगुप्त-(१) एक महामुनि । राजा भगीरथ ने कैलाश पर्वत पर इन्हीं मुनि से दीक्षा ली थी। मपु० ४८.१३८-१३९ (२) चक्रवर्ती सनत्कुमार के दीक्षागुरु । मपु० ६१.११८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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