Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 490
________________ ४७२ : जैन पुराणकोश एक राजा । पाण्डवों ने इसे मारकर इन्द्रवर्मा को राज्य प्राप्त कराया था । मपु० ७२.२०४-२०५ स्थूणागार-भरतक्षेत्र का एक श्रेष्ठ नगर-महावीर के सातवें पूर्वभव के जीव पुष्यमित्र ब्राह्मण की जन्मभूमि । मपु० ७४.७०-७१, ७६.५३५ स्थूलपुद्गल-पुद्गल का पांचवां भेद । वे पुद्गल जो पृथक्-पृथक् किये जाने पर भी जल के समान परस्पर में मिल जाते हैं। मपु० २४. १५३, वीवच० १६.१२२ दे० पुद्गल स्थूम-स्थूल-पुद्गल-पुद्गल का छठा भेद-पृथिवी आदि ऐसे स्कन्ध जो विभाजित किये जाने पर पुनः नहीं मिलते । मपु० २४.१५३, वीवच० १६.१२२, दे० पुद्गल स्थूलसूक्ष्म-पुद्गल-पुद्गल के भेदों में चौथा भेद । ऐसे पुद्गल छाया, चांदनी, आतप आदि के समान होते हैं। ये इन्द्रिय से देखे जा सकने के कारण स्थूल हैं किन्तु अविघाती होने से सूक्ष्म भी है अतः वे स्थूल सूक्ष्म पुद्गल कहलाते हैं। मपु० २४.१४९, १५२, वीवच० १६. १२१ दे० पुद्गल स्थेयान्-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१७६ स्थेष्ठ-भरतेश और सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.४३, २५.१२२ स्नातक-(१) साध का एक भेद-घातिया कर्मों को नाश कर केवलज्ञान प्रकट करनेवाले साधु । ये चार प्रकार के शुक्लध्यानों में उत्तरवर्ती दो परम शुक्लध्यानों के स्वामी होते हैं । मपु० २१.१२०-१८८ (२) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.११२ स्पर्श-(१) अग्रायणीयपूर्व की पंचम वस्तु के कर्मप्रकृति चौथे प्राभूत का तीसरा योगद्वार । हपु० १०.८२, दे० अग्रायणीयपूर्व (२) सम्यग्दर्शन से सम्यद्ध आस्तिक्य गुण की पर्याय । मपु० ९. स्थूणागार-स्रष्टा (४) मानुषोत्तर पर्वत की उत्तरदिशा का कूट-सुदर्शन देव की निवासभूमि । हपु० ५.६०५ (५) गन्धमादन पर्वत का छठा कूट । हपु० ५.२१ (६) कुण्डलगिरि की उत्तरदिशा का कूट-सुन्दर देव का आवास । हपु० ५.६९४ स्फटिकप्रभ-कुण्डलगिरि की उत्तरदिशा का कूट-विशालाक्ष देव का आवास । हपु० ५.६९४ स्फटिक साल-स्फटिक मणि से निर्मित समवसरण का तीसरा कोट । हपु० ५७.५६ दे० आस्थानमण्डल स्फुट-(१) जरासन्ध का पुत्र । हपु० ५२.३३ (२) एक नगर । इसे भानुरक्ष के पुत्रों ने बसाया था। हपु० ५.३७३ स्फुटिक-अनुदिश विमानों में आठवाँ विमान । हपु० ६.६४ स्फुरत्पीठ-एक पर्वत । इसका दूसरा नाम सुन्दरपीठ है। देव और विद्याधर राजाओं ने यहाँ एक हजार आठ कलशों से राम-लक्ष्मण का अभिषेक किया था । लक्ष्मण ने कोटिशिला यहीं उठाई थी । यहाँ के निवासी सुनन्द यक्ष ने लक्ष्मण को सौनन्दक खड्ग भी यहीं दिया था । मपु० ६८.६४३-६४६ स्मतरंगिणी-देवता से अधिष्ठित एक शय्या। गन्धर्वदत्ता जीवन्धरकमार' के पास इसी शय्या पर बैठकर आती-जाती थी। नंदाढ्य का जीवन्धरकुमार से मिलाप भी गन्धर्वदत्ता ने इसी शय्या के द्वारा कराया था। मपु०७५.४३१-४३६ स्मरायण-रावण का एक सामन्त । पपु० ५७.५४ स्मृति-जीव आदि तत्त्वों के यथार्थ स्वरूप का स्मरण । मपु० २१.२२९ स्मृत्यनुपस्थान-सामायिक शिक्षाव्रत का पाँचवाँ अतिचार-चित्त की एकाग्रता न होने से सामायिकविधि या पाठ का भूल जाना अथवा सामायिक के लिए नियत समय का स्मरण नहीं रखना । हपु० ५८.१८० स्मृत्यन्तराधान-दिग्व्रत का चौथा अतिचार-निश्चित की हुई मर्यादा का स्मरण न रखना अथवा उसका विस्मरण हो जाने पर किसी अन्य मर्यादा का स्मरण रखना। हपु० ५८.१७७ स्यन्दन-(१) रावण का हितैषी एक योद्धा । पपु० ५५.५ (२) राम का सामन्त । राम की सेना में ऐसे पाँच हजार सामन्त थे। पपु० १०२.१४६ स्यावाद-वाक्यों की सप्तभंग पद्धति से वस्तु-तत्त्व के यथार्थरूप का निरूपण । मपु०७२.१२-१३, दे० सप्तभंग स्रगांग-भोगभूमि के समय के कल्पवृक्ष । ये सब ऋतुओं के फूलों से युक्त अनेक प्रकार की मालाएं और कान के आभूषण धारण करते हैं। इनको ही माल्यांग कहते हैं। मपु० ९.३४-३६, ४२, ७.८०, ८८, वीवच० १८.९१-९२, दे० माल्यांग स्रष्टा-भरतेश और सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु०. २४.३१,२५.१३३ १२३ (३) स्पर्शन इन्द्रिय का विषय । यह आठ प्रकार का होता हैकर्कश, मृदु, गुरु, लघु, स्निग्ध, रूक्ष, शीत और उष्ण । मपु० ७५. ६२१ स्पर्शन-पाँच इन्द्रियों में प्रथम इन्द्रिय । शीत, उष्ण, गुरु, लघु आदि का ज्ञान इसी से होता है । पपु० १४.११३, दे० स्पर्श स्पर्शनक्रिया-साम्परायिक आस्रव की पच्चीस क्रियाओं में कर्मबन्ध की कारणभूत एक क्रिया-अत्यधिक प्रमादी होकर स्पर्श योग्य पदार्थ का बार-बार चिन्तन करना । हपु० ५८.७० स्पष्ट-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.२०१ स्पष्टाक्षर-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. २०१ स्फटिक-(१) सौधर्म युगल का अठारहवाँ पटल एवं इन्द्रक विमान । हपु० ६.४६ दे० सौधर्म (२) प्रथम नरक के खरभाग का तेरहवां पटल । हपु० ४.५४ (३) रुचकगिरि को उत्तरदिशा का प्रथम कूट । हपु० ५.७१५ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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