Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 460
________________ ४४२ जैन पुराणको सिद्धसाध्य - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु० २५. १०८ सिद्धसेन - सूक्तियों के रचयिता एक आचार्य । हरिवंशपुराण में इनका नामोल्लेख स्वामी समन्तभद्र के पश्चात् हुआ है और महापुराण में पहले इन्होंने वादियों को पराजित किया था। म० १.२९०४३, ० १.२८-२९ हपु० सिद्धस्तूप - समवसरण के स्तूप । ये स्फटिक के समान निर्मल प्रकाशमान होते हैं । हपु० ५७.१०३ सिद्धात्मा - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. १४५ सिद्धान्तविसौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत भदेव का एक नाम मपु० २५. १०८ 1 सिद्धा पतन - ( १ ) जम्बूद्वीप में स्थित अनादिनिधन जम्बूवृक्ष को उत्तरदिशावर्ती शाखा पर स्थित अकृत्रिम जिनमन्दिर । हपु० ५.१८१ (२) जम्बूद्वीप के अनादिनिधन शामती वृक्ष की दक्षिण शाला पर स्थित अविनाशी जिनमन्दिर । हपु० ५.१८९ सिद्धायतनकूट - (१) विजयार्ध पर्वत के नौ कूटों में प्रथम कूट । इस पर पूर्व दिशा की ओर "सिद्धकूट" नाम से प्रसिद्ध एक अकृत्रिम जिनमन्दिर है। • ५.२६, २० (२) हिमवत् कुलाचल के ग्यारह कूटों में प्रथम कूट । हपु० ५.५३ (३) महाहिमवत् कुलाचल के आठ कूटों में प्रथम कूट । हपु० ५.७१ 1 (४) निषध पर्वत के नौ कूटों में प्रथम कूट । हपु० ५.८८ (५) के नौ कूटों में प्रथम फूट ०५.१९ (६) रुक्मी पर्वत के आठ कूटों में प्रथम कूट । हपु० ५.१०२ (७) शिखरी पर्वत के ग्यारह कूटों में प्रथम कूट । हपु० ५.१०५ (८) ऐरावतक्षेत्र में विजयार्ध पर्वत के नौ कूटों में प्रथम कूट । हपु० ५.११० (९) गन्धमादन पर्वत के सात कूटों में प्रथम कूट । हपु० ५.२१७ सिद्धार्थ (१) मरवाह हुए ग्यारह अंगों में दस के पूर्वोके भारी ग्यारह मुनियों में छठे मुनि पु० २.१४१-१४५ ७६.५२२, हपु० १.६२-६३, वीवच० १.४५-४७ (२) एक देव | इससे प्रतिबोधित होकर बलदेव ने दीक्षा ली थी । हपु० १.१२१, पापु० २२.८८, ९८-९९ (३) बलदेव का भाई और कृष्ण का सारथी । देव होने पर इसने प्रतिज्ञानुसार स्वर्ग से आकर कृष्ण की मृत्यु के समय बलदेव को सम्बोधा था । हपु० ६१.४१, ६३.६१-७१ (४) एक वन । इसमें अशोक, चम्पा, सप्तपर्ण, आम और वटवृक्ष ये ती देव ने यहीं दीक्षा ली थी। मपु० ७१.४१७ ० ९.९२-९३ (५) हस्तिनापुर के राजा श्रेयांस का द्वारपाल । मपु० २०.६९, Jain Education International हपु० ९.१६८ (६) भगवान् महावीर का पिता । यह जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में विदेह देश के कुण्डपुर नगर के नाथवंशी राजा सर्वार्थ और रानी श्रीमती का पुत्र था । इसकी पत्नी राजा चेटक की पुत्री प्रियकारिणी थी, जिसका अपर नाम त्रिशला था। यह तीन ज्ञान का धारी था । मपु० ७५.३-८, हपु० २.१, ५, १३-१८, वीवच० ७.२५-२८ (७) तीर्थङ्कर शंभवनाथ द्वारा व्यवहृत शिविका-पालकी । मपु० ४९.१९, २७ (८) कौशाम्बी नगरी के राजा पार्थिव तथा रानी सुन्दरी का पुत्र । इसनें दीक्षा लेकर तोर्थङ्कर प्रकृति का बन्ध किया था तथा आयु के अन्त में समाधिपूर्वक देह त्याग कर यह अपराजित विमान में अहमिन्द्र हुआ । मपु० ६९.२-४, १२-१६ ( ९ ) भरतक्षेत्र के काशी देश की वाराणसो नगरी के राजा अकम्पन का मन्त्री । मपु० ४३.१२१-१२७, १८१-१८८ (१०) द्रौपदो को उसके स्वयंवर में आये राजकुमारों का परिचय करानेवाला पुरोहित । मपु० ७२.२१० (११) एक नगर । यहाँ का राजा नन्द था । तीर्थङ्कर श्रेयांसनाथ ने इसके यहाँ आहार लिये थे। देशभूषण और कुलभूषण का जन्म इसी नगर में हुआ था । मपु० ५७.४९-५०, पपु० ३९. १५८-१५९ (१२) तीर्थंकर नेमिनाथ के पूर्वभव का जीव प५० २०. २३-२४ सिद्धसाध्य-सिद्धार्थक (१३) एक महास्त्र । लक्ष्मण ने इसी अस्त्र से रावण के "विघ्नविनायक" अस्त्र को नष्ट किया था। पपु० ७५.१८-१९ (१४) भरत के साथ दीक्षित अनेक राजाओं में एक राजा । पपु० ८८.३ (१५) एक क्षुल्लक | यह महाविद्याओं में इतना अधिक निपुण था कि दिन में तीन बार मेरु पर्वत पर जिन प्रतिमाओं की वन्दना कर लौट आता था । यह अणुव्रती था। अष्टांग महानिमितज्ञ था । इसने अल्प समय में ही सीता के दोनों पुत्रों को शस्त्र और शास्त्रविद्या ग्रहण करा दी थी । लवणांकुश को बलभद्र और नारायण होने का लक्ष्मण के उत्पन्न भ्रम को इसी ने दूर किया था। सीता की अग्नि परीक्षा के समय भुजा ऊपर उठाकर इसने कहा था पाताल में प्रवेश कर सकता है, किन्तु सीता शील में कोई लांछन नहीं लगा सकता । इसने अग्नि परीक्षा को रोकने के लिए जिनवन्दना और तप की भी शपथ थो । पपु० १००.३२-३५, ४४-४७, १०३.३९-४१, १०४.८१-८६ कि "हे राम ! मेरु के (१६) समवसरण में कल्पों के मध्य में रहनेवाले इस नाम के दिव्य वृक्ष | ये कल्पवृक्षों के समान होते हैं । मपु० २२.२५१-२५२, वीवच० १४.१३३-१३४ (१७) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१०८ सिद्धार्थ (१) विजयार्च पर्वत की उत्तरगी का अठारहवाँ नगर मपु० १९.८० - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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