Book Title: Jain Puran kosha
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 480
________________ ४६२ : जैन पुराणकोश में दूसरा नगर । पपु० ५.३७१-३७२ (२) एक राजा । इसने नमस्कार करते हुए रावण की अधीनता स्वीकार की थी। पपु० १०.२४-२५ (३) लंका एक द्वीप । यह बहुत समृद्ध था । पपु० ४८.११५ ११६ (४) सुबेलगिरि का एक नगर । वनवास के समय राम यहाँ आये थे । पपु० ५४.७० सुबेलगिरि - एक पर्वत । लंका जाते समय राम वेलन्धर पर्वत से चलकर इस पर्वत पर आये थे । यहाँ के सुवेल नगर का राजा सुवेल विद्याधर था जिसे राम ने सरलता से ही जीत लिया था । पपु० ५४.६२-७१ सुवेषा- तीसरे बलभद्र भद्र की माता । पपु० २०.२३८-२३९ (१) एक राजा यह प्रतिक्षेम का पुत्र और व्रात का पिता था । हपु० ४५.११ (२) एक मुनि । कीचक के जीव कुमारदेव की माता सुकुमारिका ने विष मिला आहार देकर इन्हें मार डाला था। हपु० ४६.४८-५१. (३) एक मुनि । इनसे राजा सुषेण ने जिन दीक्षा धारण की थी । महापुर के राजा वायुरथ ने इनसे धर्मोपदेश सुना था, तथा राजा मित्रनन्दि और सुदत्त सेठ ने दीक्षा ली थी । मपु० ५८.७०-८१, ५९.६४-७०, ६१.१००-१०६ । यह दक्ष का पिता था । पुत्र दक्ष को राज्य देकर (४) तीर्थङ्कर मुनिसुव्रतनाथ का पुत्र इसकी माता प्रभावती थी। इसने अपने अपने पिता तीर्थकर मुनिसुव्रत से दीक्षा लेकर मुक्ति प्राप्त की थी । राम के ये दीक्षा गुरु थे । पपु० २०.२४६-२४७, २१.४८, ११९. १४-२७, हपु० १६.५५, १७.१-२ (५) तीसरे बलभद्र भद्र के पूर्वजन्म के दीक्षागुरु । पपु० २० २३४ (६) तीर्थंकर मुनिसुव्रतनाथ का अपर नाम पपु० १.१४ ५. २१५० (७) आगामी ग्यारहवें तीर्थंकर । हपु० ६०.५५९ (८) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. १७१ सुव्रता - (१) धातकी खण्ड द्वीप के पुष्कलावती देश की पुण्डरीकिणी नगरी के राजा सुमित्र की रानी। प्रियमित्र इसका पुत्र था । मपु० ७४-२३६-२३७, वीवच० ५.३६-३८ (२) तीर्थंकर धर्मनाथ की जननी । पपु० २०.५१ (२) पातको लण्ड द्वीप के गन्धित देश को अयोध्या नगरी के राजा अर्हदास की पटरानी । यह वीतभय बलभद्र की माता थी । हपु० २७.१११-११२ (४) एक आर्थिका । भरतक्षेत्र में हस्तिनापुर नगर के राजा गंगदेव की रानी नन्दयशा ने इन्हीं से दीक्षा ली थी । मपु० ७१.२८७-२८८, ० २३.१४१-१४३, १६५ (५) एक आर्थिक यशोदा की पुत्री ने व्रतपर मुनि से अपना Jain Education International सुर-सुषमा सुवा पूर्वभव सुनकर इन्हीं आर्यिका से दीक्षा ली थी । मपु० ७०.४०५४०८, हपु० ४९.१, १३-२१ (६) एक आर्यिका । जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में शंख नगर के वैश्य देविल की पुत्री ने इन्हें आहार दिया था । मपु० ६२.४९४-४९८ सुव्यक्त-- राक्षसवंशी राजा । यह सुमुख का पुत्र और अमृतवेग का पिता' था। पपु० ५.३९२-३९३ सुशर्मा - भरतक्षेत्र में अरुण ग्राम के कपिल ब्राह्मण की स्त्री । राम, लक्ष्मण और सीता इसके घर आये थे । पपु० ३२.७-९ सुशान्ति कुरुवंशी एक राजा यह द्वीपायन का पुत्र और शान्तिभद्र का पिता था। हपु० ४५.३० सुत -- (१) विजयार्ध पर्वत में रथनूपुरचक्रवाल नगर के राजा ज्वलनजटी विद्याधर का मंत्री । इसने राजपुत्री स्वयंप्रभा को विवाहने के लिए विद्याधर अश्वग्रीव का नाम प्रस्तावित किया था । मपु० ६२. २५, ३०, ५७-६२, पापु० ४.१८ (२) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु० २५. १२० । हपु० १९.१७४ सुबङ्जा - षड्जग्राम की पाँचवीं जाति सुषमा अवसर्पिणी का दूसरा काल इसका समय तीन कोड़ा कोड़ी सागर है । इस काल में मनुष्य चार हजार धनुष ऊंचे होते हैं । स्त्री-पुरुष दोनों साथ-साथ युगल रूप में जन्मते हैं । इनको आयु दो पल्य की होती हैं। इस काल में मनुष्य दो दिन के अन्तर से कल्पवृक्ष' से प्राप्त बहेड़े के बराबर आहार करते हैं । मपु० ३. ४५-५०, पपु० ३. ४९-६३ हपु० ७. ५८-६९, वीवच० १८.८७, ९५ ९७ सुषमा. दुषमा - अवर्सार्पणी का तीसरा काल इसकी स्थिति दो कोड़ाकोड़ी सागर होती है । इस समय मनुष्यों की आयु एक पल्य, शरीर की ऊँचाई एक कोश और वर्ण श्याम होता है। वे एक दिन के अन्तर से आँवले के बराबर भोजन करते हैं। ज्योतिरंग जाति के कल्पवृक्षों का प्रकाश इस समय मन्द हो जाता है । मपु० ३.५१-५७, पपु० २०.८१, वीवच० १८.८७, ९८-१०० सुषमा- सुषमा अवर्षापणी का प्रथम काल । इसका समय चार कोड़ा-कोड़ी सागर है। इस समय मनुष्यों की आयु तीन पल्य और शरीर की ऊंचाई छः हजार धनुष की होती है। मनुष्यों के शरीर वज्र के समान सुदृढ़ एवं अस्थि बन्धनों से युक्त होते हैं। उनके शरीर का वर्ण तपाये हुए सोने के समान होता है। वे मुकुट, कुण्डल, हार, करधनी, कड़ा, बाजूबन्द और यज्ञोपवीत सदा धारण किये रहते हैं । ये तोन दिन बाद कल्पवृक्षों से प्राप्त बदरीफल के बराबर आहार लेते हैं। इन्हें रोग मल-मूष आदि की वाचा एवं मानसिक पीड़ा नहीं होती । इन्हें पसीना नहीं आता। इनकी अकालमृत्यु नहीं होती । इच्छा करते ही इन्हें समस्त भोगोपभोग की सामग्री कल्पवृक्षों से प्राप्त हो जाती है । इस काल में मद्यांग, तूर्याङ्ग, विभूषांग, स्रगांग, ज्योतिरंग, दोपांग, गृहांग, भोजनांग, पात्रांग और वस्त्रांग ये दस प्रकार के कम्पयूल रहते हैं। पुरुषों का मरण जिम्हाई पूर्वक और For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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