Book Title: Gyandhara Karmadhara
Author(s): Jitendra V Rathi
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 15
________________ ज्ञानधारा-कर्मधारा के ही कारण हैं। पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति रूप व्यवहार, निर्दोष आहार लेना इत्यादि समस्त क्रियाएँ बंध ही कराती हैं। ये समस्त क्रियाएँ अंशमात्र भी कर्मक्षय का कारण नहीं है अर्थात् ये ये शुभक्रियाएँ जब समकिती को ही मोक्ष का कारण नहीं है, तब मिथ्यादृष्टि को मोक्ष का कारण कैसे हो सकती हैं अर्थात् कदापि नहीं हो सकती। मिथ्यादृष्टि को तो अबतक मोक्ष का कारण ही उत्पन्न नहीं हुआ है; फिर उसके कर्मक्षय कैसे होगा ? अहाहा ! शुभभाव में शुद्धता का अंश कहा है, तब ज्ञान से ज्ञान निर्मल होता है, अशुद्धतारूप चारित्र निर्मल नहीं होता यह बताने के लिए शुद्ध अंश कहा है; परन्तु ग्रंथिभेद किए बिना, रागरूप एकत्वबुद्धि का नाश किए बिना ये शुद्ध अंश कार्यकारी नहीं है। सम्पूर्ण दिन पाप कार्य में लगे रहें, उसे यह बात कैसे समझेगी ? हे भाई ! तुझे निजात्मा की शरण प्राप्त हुई है। अन्तर चिदानन्द आत्मा की दृष्टि हुई है। अतीन्द्रिय आनन्द का वेदन हुआ है, तब निश्चित ही यह भाव मोक्ष का कारण है। अहाहा ! अपने शुद्धस्वरूप के आश्रय से जितनी निर्मलता प्रकट हुई, वह मोक्ष का कारण है और शेष समस्त शुभक्रियाएँ बंध का कारण है। वस्तु का स्वरूप ही ऐसा है, इसमें किसी पर के सहारे या मदद की आवश्यकता नहीं है। तीर्थंकर भगवंतों ने ऐसा ही वस्तुस्वरूप प्रतिपादित किया हैं, उसमें कहीं कुछ नहीं किया। जिसे निज शुद्ध चिदानन्द आत्मा का ज्ञान-भान ही नहीं है, जो पुण्य की क्रिया में ही धर्म मानता है, वह मिथ्यादृष्टि है। उसके व्रतादिरूप समस्त परिणाम बंध के ही कारण हैं। दशलक्षण, अष्टाह्निका आदि धर्माराधना के पर्व हैं। ऐसे समय में बालबोधिनी टीका पर गुरुदेवश्री के प्रवचन विशिष्ट प्रकार से अपने पूर्णानन्दस्वरूप प्रभु की ओर दृष्टि करे तो शांति प्राप्त होती है। जितनी शांति (वीतरागता) की प्राप्त होगी, उतना मोक्ष का कारण है और जितना लक्ष्य बाहर की ओर जाता है, फिर वह पंच परमेष्ठी का ही लक्ष्य क्यों न करें; सब बंध का ही कारण हैं। प्रश्न :- फिर सिद्धपने की प्राप्ति कैसे होगी ? उत्तर :- सिद्धत्व की प्राप्ति नहीं करना है, मात्र अन्तर आत्मा में रमणता करनी है, उसमें ही ठहरना है। प्रश्न :- आत्मा में रमणता करने से मोक्ष की प्राप्ति होगी ? उत्तर :- हाँ ! आत्मा में ही रमना-जमना है। अपने निज आत्मघर में ही आना है। हे भाई ! आजतक तुमने इतने दुःख सहे हैं कि उनको सुननेमात्र से रोना आ जाये; किन्तु तू इन सब बातों को भूल गया है। आत्मा के आनन्द स्वभाव को भूलकर, पुण्य-पाप के भावों को धर्म मानकर मिथ्यात्व का सेवन कर रहा है। इस मिथ्यात्व के फल में तू नरक-निगोद में गया। अहाहा ! यह दुःख की धारा किसप्रकार बढ़ी, उसका एकबार विचार तो कर ! भावलिंगी संत वादिराज मुनि के शरीर में कोढ़ हुआ था। तब तत्कालीन अन्य राजा जैन श्रावकों से कहता है कि तुम्हारे साधु को कोढ़ है और श्रावक कहते हैं कि महाराज ! हमारे मुनिराज के कोढ़ नहीं है। श्रावकगण मुनिराज के पास जाकर उनसे उक्त बात कहते हैं, इसपर मुनिराज श्रावकों से शांति रखने के लिए कहते हैं और प्रभु की भक्ति प्रारंभ करते हुए कहते हैं कि - हे प्रभु ! जब आप माता के गर्भ में आते हो तो सम्पूर्ण नगर के गढ़ सोने व कंगूरे रत्नों के समान बन जाते हैं। स्वर्ग के इन्द्रादि समस्त देव आप की सेवा करते है, उसीप्रकार हे प्रभु ! मैं आप को अपने हृदय में धारण करता हूँ, स्थापित करता हूँ, फिर मुझे यह कोढ़ कैसे रहेगा? 15

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