Book Title: Gyandhara Karmadhara
Author(s): Jitendra V Rathi
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 26
________________ बालबोधिनी टीका पर गुरुदेवश्री के प्रवचन ५१ ५० ज्ञानधारा-कर्मधारा और प्रतीति हुई है, उसे स्व-कार्य अर्थात् स्व-चारित्र, आनन्द, केवलज्ञान के लिये किसी भी परसाधन की आवश्यकता या अपेक्षा नहीं है। दृष्टि में द्रव्य कहो या पर्याय में कार्य कहो, दोनों बातें एक ही हैं; यहाँ परद्रव्य की रंचमात्र भी अपेक्षा नहीं है। द्रव्य अर्थात् निज भगवान आत्मा ! जो एक समय में पूर्णानन्द का नाथ है तथा जिसे अपने कार्य या निर्मल पर्याय की प्राप्ति के लिये अन्य साधनों की राह नहीं देखना पड़ता। ___ 'मैं द्रव्य हूँ' - ऐसी जिसे प्रतीति नहीं है, राग और पर्याय की ही प्रतीति है, उसके लिए द्रव्य कभी भी साधन नहीं है; किन्तु जिसे परमात्म-पूर्णानन्दस्वरूप निज द्रव्य की प्रतीति हुई है, उसे अपने निर्मल कार्य के लिए अन्य साधनों की राह नहीं देखना पड़ता। यहाँ व्यवहार की समस्त अपेक्षाओं को उड़ाकर अपने निज कार्य के लिये द्रव्य स्वयं ही पर्याप्त है - ऐसा कहा । वास्तव में द्रव्य वही है, जिसे अपने कार्य अर्थात् पर्याय की शुद्धता के लिए अन्य साधनों की राह नहीं देखना पड़े। द्रव्य पदार्थ अर्थात् आत्मा। जिसप्रकार लक्ष्मी का व्यापार करने के लिए अन्य लक्ष्मीवान व्यक्ति की जरूरत नहीं पड़ती। उसीप्रकार भगवान आत्मद्रव्य, पूर्णानन्दनाथ, शुद्धचैतन्यघनरूप द्रव्यपदार्थ को अपने स्वयं के सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र और केवलज्ञान के कार्य हेतु अन्य साधनों की राह नहीं देखना पड़ता; क्योंकि द्रव्य स्वयं अपने लिए साधन और साध्य है - ऐसा सर्वज्ञ भगवान की वाणी में आया है। अहाहा ! सम्यग्दर्शन हुआ, वहाँ द्रव्य की प्रतीति हुई है। द्रव्य है तो ऐसा कार्य हुआ। कार्य के होने में प्रतीति होती है। द्रव्य के कार्य अर्थात् चारित्र-आनन्द-केवलज्ञान इत्यादि में परद्रव्य की जरूरत ही नहीं है। द्रव्य स्वयं परिपूर्ण भगवान आत्मा है। भगवान आत्मा तो अमर्यादित शक्ति का भण्डार प्रभु वस्तु स्वयं है। इस वस्तु के कार्य के लिए पर्याय को द्रव्य की जरूरत है। जहाँ दृष्टि में द्रव्य आया, वहाँ अन्य किसी साधन की जरूरत नहीं है। ___लोग कहते हैं कि व्यवहार से निश्चय होता है; किन्तु बापू ! तुझे इसकी खबर ही नहीं है। भगवान आत्मा तो वीतराग-निर्विकार स्वरूप है, उसमें विद्यमान वीतरागभाव के कारण वीतरागता का कार्य होता है, व्यवहार के कारण नहीं। स्वयं पदार्थ प्रभु ज्ञायकभाव, उसकी शुद्धतापूर्वक जो भाव हुआ, वह शुद्धता है। इस शुद्धता के कार्य में किसी पर की अपेक्षा नहीं है; क्योंकि शुद्धता के कार्य हेतु शुद्धद्रव्य का होना आवश्यक है। हे प्रभु ! तू कौन है ? कैसा है ? इसका तुझे भान होना चाहिए। अपरिमित अनंत ज्ञान-दर्शन-चारित्र आदि एक-एक शक्ति से भरा प्रभु तू स्वयं है। एक-एक शक्ति अर्थात् गुणों का गोदाम हैं और एक-एक शक्ति में अनन्त सामर्थ्य भरा हुआ है - ऐसी अनंत शक्तियाँ तेरे अन्तर में तेरी प्रभुता के कारण विद्यमान हैं। एक-एक शक्ति अनन्त प्रभुता स्वरूप गुणों से भरी हुई है। आत्मा में प्रभुत्व नाम का एक गुण है - इस प्रभुत्व गुण का स्वरूप अनंतगुणों में व्याप्त है। प्रभुत्वगुण उन शक्तियों में नहीं है; किन्तु प्रभुत्वगुण का रूप एक-एक शक्ति में व्याप्त है। ऐसी संख्या अपेक्षा जिसमें अनंत शक्तियाँ विद्यमान हैं - ऐसा शक्तियों का पिण्ड भगवान आत्मा तू स्वयं है। अहाहा ! जिसे द्रव्य के अस्तित्व का स्वीकार है, उसे अपने स्वरूप का स्वीकार करने के लिए अन्य वस्तु की आवश्यकता नहीं है। द्रव्य का स्वीकार हो तो राग की मंदता स्वत: होती है। अहो ! इसमें देव-शास्त्र-गुरु की सहायता हो - ऐसा नहीं हैं। प्रश्न :- पर्याय को द्रव्य की जरूरत है या नहीं ?

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