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ज्ञानधारा - कर्मधारा
के परिणमन के कारण मुझ में राग होने की वैभाविक योग्यता है । प्रश्न :- वैभाविक शक्ति से तात्पर्य क्या है ?
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उत्तर :- वैभाविक शक्ति त्रिकाल जीव में विद्यमान है और जो अन्तर में विभाव होते हैं, वे वर्तमान परिणमन के कारण अपनी योग्यता से होते हैं। मेरे स्वयं के विभावरूप परिणमन और तदनुसार मेरी योग्यता के कारण राग होता है। त्रिकाल शक्ति तो शक्तिरूप स्वतः विद्यमान है। वह शक्ति विभावरूप परिणमन नहीं करती।
जीव को राग हुआ, वह कर्म को लेकर या कर्म के कारण नहीं हुआ। बाह्य में जो झंझट या विकार दिखाई देते हैं, वे भी कर्म के कारण नहीं हैं। यहाँ तक कि समकिती को आत्मज्ञान के समय आत्मा के भानपूर्वक जो रागादि के आंशिक भाव होते हैं, वे भी वैभाविक शक्ति के विपरीत परिणमन के कारण अपनी स्वयं की योग्यता से होते हैं। वैभाविक शक्ति का परिणमन विकाररूप हुआ है - ऐसा नहीं समझना; क्योंकि वैभाविक शक्ति तो सिद्धों में भी विद्यमान है, यदि वैभाविक शक्ति का विकाररूप परिणमन माने तो सिद्धों के विभावभाव की विद्यमानता का प्रसंग आयेगा ।
प्रश्न :- क्या सिद्धों में भी वैभाविक शक्ति है ?
उत्तर :- हाँ भाई ! सिद्धों में भी वैभाविक शक्ति है; किन्तु वहाँ उस शक्ति का स्वभावरूप परिणमन हो रहा है। वैभाविक शक्ति है, इसलिए विभावरूप परिणमन हो - ऐसा नहीं है, अपितु यह वैभाविक शक्ति जब निमित्ताधीन होती है, तब उसका विभावरूप परिणमन होता है। कर्म के कारण विभावरूप परिणमन है ऐसा नहीं, इसी बात के निराकरण हेतु उक्त बात का स्पष्टीकरण किया है।
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ज्ञानी को भी कर्म का अत्यधिक जोर होने से (कर्म उदय में आने से) राग होता है; किन्तु यह निमित्त की अपेक्षा किया गया कथन है। पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा भी इसी बात को स्पष्ट करते हुए कहते
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बालबोधिनी टीका पर गुरुदेव श्री के प्रवचन
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हैं कि समस्त विभावरूप परिणमन स्वयं की योग्यता के कारण ही है। प्रवचनसार में ४७ नयों का वर्णन हैं, उसमें एक ईश्वरनय भी है। उसका अर्थ यह है कि जिसप्रकार पराधीनता वश धाय-माँ बालक का पालन-पोषण करती है; उसीप्रकार आत्मा स्वयं पराधीन होकर राग को करता है। कर्म पराधीनता करावे ऐसा नहीं है ।
यहाँ तो प्रत्येक बात को समझने की आवश्यकता है; किन्तु जीव को तत्त्व के यथार्थ निर्णय का ठिकाना ही नहीं है, अतः सत्य स्वरूप क्या है, परमात्मा क्या कहते हैं ? इसकी उसे खबर ही नहीं ।
अन्तर में विद्यमान वैभाविक शक्ति स्वयं की योग्यता से है। निमित्ताधीन होकर जो विकार जीव को हुआ, वह उसकी स्वतंत्र अवस्था है, कर्म स्वयं जीव को विकार नहीं कराते ।
सम्यग्दृष्टि अथवा ज्ञानी संतों को जो विकार होते हैं, उसमें चारित्र मोह का उदय बहिरंग निमित्त है तथा स्वयं की योग्यता अन्तरंग निमित्त है । प्रत्येक बोल से जीव व कर्मों में पृथक्ता सिद्ध की हैं। कहा भी है - कर्म विचारे कौन, भूल मेरी अधिकाई ।
अग्नि सहे घनघात, लोह की संगति पाई ।। मोक्षमार्ग प्रकाशक में भी पण्डित टोडरमलजी कहते हैं कि "जो जिन आज्ञा को मानते हैं, वे जीव कर्म से राग होना माने - ऐसी अनीति उनके संभव नहीं है।"
वास्तव में ज्ञानी जीव कर्म के कारण राग होना माने - ऐसी अनीति उनके संभव ही नहीं है। जगत के जीव इस बात को यूँ ही उड़ा देते हैं, इसे एकान्त समझते हैं। वे कहते हैं कि यह सोनगढ़ वाले तो खोजखोजकर विकार की स्वतन्त्रता सिद्ध करते हैं; किन्तु भाई ! आचार्य अमृतचन्द्र श्लोक में जो कह रहे हैं, हम वही बात बता रहे हैं। तीर्थंकर देव के शासन विरूद्ध यहाँ कुछ भी नहीं है।
आत्मज्ञान प्रगट होने पर जीव को राग का स्वामित्वपना छूट गया