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ज्ञानधारा-कर्मधारा दो मुनियों को मात्र इतना विकल्प आया कि वे हमारे सहोदर, एक घर में जन्मे, साधर्मी और बड़े भाई हैं, उनका क्या हुआ होगा ? बस ! इस विकल्पमात्र से उनकी राग से निवृत्ति नहीं हुई।
प्रश्न :- यह विकल्प तो अन्य के संबंध में आया, अपने संबंध में नहीं ? फिर राग से निवृत्ति क्यों नहीं हुई ?
उत्तर :- वह विकल्प स्व के प्रति नहीं आया; क्योंकि स्वयं तो आत्मानन्द में ही मग्न थे; परन्तु अन्तर में थोड़े समय के लिए स्वरूपस्थिरता नहीं हो पायी, सो उतने विकल्प मात्र से उनका केवलज्ञान रूक गया। नकुल और सहदेव सर्वार्थसिद्धि में गए और केवलज्ञान से ३३ सागर कालपर्यन्त दूर हो गये। इतना-सा राग हुआ और मुक्ति से वंचित हो गये, राग से निवृत्ति नहीं हुई, अतः समकिती अथवा मुनि हो, जबतक राग से परिपूर्ण निवृत्ति नहीं है, तबतक अन्तर बंध अवश्य है।
हे भाई ! यह तो वीतरागी प्रभु का मार्ग है और प्रभु शब्द परमात्मा का सूचक है। प्रभु का वीतरागतास्वरूप मार्ग ही मेरा है - ऐसा स्वीकार कर और उसे ही अंगीकार कर।
उन दो मुनिराजों को इतना-सा साधर्मीपने का राग आया तो ३३ सागर का आयुष्य बँध गया। वह राग संसारस्वरूप नहीं था, तथापि ३३ सागर का आयुष्य बँध गया । एक सागर में १० कोड़ाकोड़ी पल्योपम
और एक पल्योपम के असंख्यातवें भाग में असंख्य अरबों वर्ष होते हैं, उतने वर्षों तक केवलज्ञान दूर हो गया।
प्रश्न :- इतने से राग की इतनी बड़ी सजा ?
उत्तर :- हाँ भाई ! यह राग का ही फल है। तीन मुनिराज तो मोक्ष गये और दो सर्वार्थसिद्धि में गये । अब आगे तैंतीस सागर काल व्यतीत होने पर मनुष्य होंगे। मुनि बनकर, केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष जायेंगे।
मनुष्यावस्था में भी उन जीवों को कम-से-कम आठ वर्ष पूर्व तो
बालबोधिनी टीका पर गुरुदेवश्री के प्रवचन केवलज्ञान नहीं हो सकता। देखो ! इतने से राग में प्रवृत्ति हुई और उस राग से निवृत्ति न होने से बंध हुआ। वह भी साधारण बंध नहीं, अपितु एक भव इस दुःखरूप संसार का बढ़ गया।
प्रश्न :- इतने-से राग का यह फल ?
उत्तर :- हाँ भाई ! जरा विचार तो कर ! इतने से राग का फल कि एक भव और बढ़ गया; किन्तु तू तो अनादि से ही राग करते आ रहा है, फिर तेरे कितने भव हुये होंगे तथा और कितने भव होना बाकी होंगे? यहाँ बाह्य अशुभराग की बात नहीं है; बल्कि छठवें गुणस्थान में झूलनेवाले उन दो मुनिराजों को अपने से बड़े अन्य मुनिराजों के प्रति साधर्मीपने का विकल्प आया और देखो ! थोड़ा-सा पर की ओर लक्ष्य गया तो दो भव बढ़ गए । एक भव स्वर्ग और एक मनुष्य का हो गया।
यह बात वीतराग मार्ग के बिना अन्यत्र कहीं नहीं हो सकती। वीतरागी देव कहते हैं कि हे प्रभु ! आत्मज्ञान होने पर यदि तुझे मेरे (पंच परमेष्ठी के) स्मरण का राग आये तो वह बंधन का ही कारण है।
इस राग के कारण अनेक भव धारण करने पड़ सकते हैं और भव का होना यही इस जीव को कलंक है।
ज्ञानस्वरूपी भगवान आत्मा भव और भाव दोनों से रहित है; अत: जीने का भाव और भव - ये दोनों ज्ञानियों को कलंक लगते है। ___ योगीन्दुदेव कहते हैं कि - भगवान आत्मा आनन्द की मूर्ति है, उसे इस दुःखरूप संसार में भव लेना पड़े यह तो कलंक है।
ज्ञानी जीव को जबतक राग की क्रिया का परिपक्व त्याग नहीं है, तबतक उसे बंध है; फिर अशुभराग का तो कहना ही क्या ? मुनिराज को पर की दया पालने का भाव नहीं हैं, मात्र मुनिपने का विकल्प है; किन्तु जब ध्यान में लीन होते हैं, तब यह विकल्प भी नहीं रहता। ___ भावार्थ यह है कि जबतक अशुद्धपरिणाम हैं, तबतक जीव को विभावरूप परिणाम हैं।
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