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ज्ञानधारा-कर्मधारा
बालबोधिनी टीका पर गुरुदेवश्री के प्रवचन
द्रव्यस्वभाव के अवलंबन से जो निर्मल परिणति प्रकट हुई, वह अपने स्वरूप में रहती है और परद्रव्य के अवलंबन, देव-गुरु-शास्त्र की भक्ति, व्रत-तप-दया-दान इत्यादि भाव जो कमजोरीवश उत्पन्न होते हैं, वे अपने भावस्वरूप अर्थात् विकाररूप रहते हैं। विकार विकार में है और अविकारी परिणाम अविकाररूप है।
अहाहा ! जब तक शुभराग क्रिया का परिपूर्ण त्याग नहीं होता, तबतक विकारी भाव होते हैं। पुण्य परिणाम, कर्मविरति इत्यादि से परिपूर्ण निवृत्ति न हो, तबतक शुभराग आते हैं और होते भी हैं।
आत्मद्रव्य शुद्ध हुआ अर्थात् आत्मपरिणति शुद्ध हुई है। वहाँ पूर्वोक्त क्रिया रूप शुभभाव का त्याग (सम्यक् पाकं न उपैति) परिपक्वता को प्राप्त नहीं हुआ, अत: जबतक राग का पूर्ण त्याग नहीं है, तबतक राग आता है, यह राग बंध का कारण है, फिर भी उसके व ज्ञान के होने में कोई विरोध नहीं है।
अभी तो इस जीव के श्रद्धा का ही ठिकाना नहीं है, फिर सम्यग्दर्शन कैसे होगा? अज्ञानी की तो प्ररूपणा ही सदैव विपरीत है। व्रत-तपउपवास, त्याग-क्रियाकाण्ड, भक्ति-पूजा, दया करो, महाव्रतादि पालन करो इससे धर्म होगा - ऐसी उसकी दृष्टि ही मिथ्या है। ____ अरे भाई ! अनादिकाल से आजतक शुभभाव करते हुए मुझे लाभ होगा ऐसा विचार करके तूने अपनी आत्मा को बिगाड़ा ही है।
जिसने मिथ्यात्वभाव का ग्रहण किया है, पुण्य-पाप मेरी वस्तु है, पुण्य से मुझे लाभ होगा - ऐसा मान रखा है, उसने मिथ्यात्वरूपी सिंह पाल रखा है। यह तूझे खा जायेगा । तेरी आत्मशांति को नष्ट कर देगा, अत: चेत और आत्मा का ध्यान कर।
आत्मानन्द में मस्त जीव को व्रत-भक्ति-पूजारूप जो शुभराग की क्रियायें है, उन्हें कार्य अर्थात् कर्म कहा गया हैं।
आत्मा शुद्ध चैतन्यमूर्ति प्रभु है, उसकी दृष्टि और अनुभूति होते ही ज्ञानी का मिथ्यात्व टल जाता है। दृष्टि में आत्मद्रव्य शुद्ध है, तदनुसार उसकी प्रतीति भी हुई है। आत्मद्रव्य की शुद्ध प्रतीति होने पर पर्याय में भी शुद्धता हुई है। वही शुद्धत्वरूप शक्ति सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान में व्यक्त हुई है तथा भगवान आत्मा के भण्डार में जो शुद्धता की शक्ति पड़ी है, उसी में से सम्यग्दर्शन की व्यक्तता हुई है। ___ आत्मद्रव्य शुद्ध होने पर भी राग की क्रिया अभी बाकी है। साधक को व्रत-तप-पूजा भक्ति आदि का विकल्प आता है; परन्तु इन क्रियाओं का उसे त्याग है। अपने आनन्द-स्वरूप दृष्टि का उसे भान है तदनुसार ज्ञाता-दृष्टारूप परिणाम भी अन्तर में विद्यमान है; परन्तु क्रियाकांडरूप राग से अभी पूर्ण निवृत्ति नहीं है।
मिथ्यात्व का तो अभाव हुआ है, परन्तु जितने प्रमाण में राग का अभाव होना चाहिए, उतने प्रमाण में राग का अभाव नहीं हुआ है। आत्मा शुद्ध चैतन्यमूर्ति त्रिकाल शुद्ध है, उस पर आरूढ़ होकर जो अनुभूति अर्थात् सम्यग्दर्शन-ज्ञान हुआ, वहाँ मिथ्यात्व का नाश तो हुआ है; किन्तु शुद्धता वर्तमान पर्याय में थोड़ी प्रकट हुई है अर्थात् राग से पूर्ण निवृत्ति नहीं है। ___अहाहा ! सम्यग्दृष्टि ज्ञानी को भी जबतक राग की क्रिया है, तबतक बंध है । यद्यपि मिथ्यात्वरूप बंध उसे नहीं है; किन्तु चारित्रमोहरूप बंध है। ज्ञानी का जितना लक्ष्य अभी राग और क्रियाकांड में है, उतना उसे बंध है; क्योंकि ज्ञानी को भी दया-दान-व्रत-भक्ति-पूजा, भगवान का नामस्मरण इत्यादि रागरूप कार्य होते है।
वास्तव में तो भगवान आत्मा ने अपने शुद्धस्वरूप के अनुभवपूर्वक मिथ्यात्व का त्याग किया है; किन्तु उसे शुद्धस्वरूप में जितनी स्थिरता होनी चाहिए, वह अभी प्रगट नहीं हुई है। रागादिरूप अशुभ परिणामों
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