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ज्ञानधारा-कर्मधारा अर्थात् निश्चित ही मेरा यह कोढ़ मिट जायेगा। इसप्रकार भक्ति करते हुए मुनिराज को पूर्व पुण्य का उदय आया और उनका कोढ़ मिट गया।
वादिराज मुनि कहते हैं कि हे नाथ ! मैं पूर्व के दुःखों को याद करता हूँ तो मुझे अन्तर में डर लगता है। जिसप्रकार युद्ध में डर लगता है, उसीप्रकार भूतकाल के दुःखों को याद करके डर लगता है; क्योंकि आज तक नरक-निगोद में बहुत दुःख सहन किए है, उन्हें स्मरण करनेमात्र से ही अंसख्य वेदना होती है। ___ यहाँ अज्ञानी को कोई दरकार नहीं है। पूर्व में कितने ही दुःख सहन किए थे, किन्तु अब जो थोड़ी-बहुत अनुकूलता मिली है, पाँच-पच्चीस लाख रुपये मिले हैं, स्त्री आदि ठीक मिली है तो यह जीव सुख मानता है। वास्तव में इस धूल में सुख नहीं है। हे भाई ! तूने तो दुःखरूपी पर्वत से ही अपना मस्तक फोड़ लिया है, तो तुझे सुख की प्राप्ति कैसे होंगी?
वादिराज मुनि कहते हैं कि हे प्रभु ! मेरा आत्मा अतीन्द्रिय आनन्द के सागर से पूर्ण भरा हुआ है, उसे भूलकर मैंने अनन्त दुःख सहन किये। मैंने आपकी भक्ति की, इसकारण शरीर का कोढ़ चला गया, ऐसा नहीं है। यह कोढ़ तो पुण्य के कारण गया है। लाख भक्ति करें तो भी यह न जाये। यह तो सहज मिलान हुआ है, फिर भी शरीर में थोड़ा-सा कोढ़ बचा है, जिससे विद्वेषियों का कहना भी झूठ नहीं हुआ। __ अहाहा ! यह कोढ़रूप वर्तमान दुःख भी ज्ञानी को नहीं है। दुःख तो परवस्तु है। कोढ़ तो शरीर की अवस्था है, उसे ज्ञानी ज्ञेयरूप जानते हैं। शरीर में जो रोग हुआ, वह आत्मा में नहीं है। मैं तो शरीर अवस्था से भिन्न नीरोगी-निराकुल आनन्दकन्द प्रभु हूँ - ऐसा ज्ञानी जानता है।
जिससमय व्रत-भक्ति आदिरूप शुभपरिणाम हैं, उससमय बंध है और उसीसमय आत्मा के आश्रय से जितना ज्ञान हुआ, उतनी अबंधदशा है, इसप्रकार एक ही समय और एक ही काल में ज्ञानी जीवों के दोनों
बालबोधिनी टीका पर गुरुदेवश्री के प्रवचन अवस्थाएँ वर्त रही हैं। निष्कर्ष स्वरूप हम यह कह सकते हैं कि -
१) सर्वज्ञ परमात्मा को मात्र अबंध (मोक्ष) रूप परिणाम है। २) मिथ्यादृष्टि को मात्र बंधरूप ही परिणाम है । तथा ३) साधक को एक ही समय बंध-अबंधरूप दोनों परिणाम हैं।
साधक जीव विचार करता है कि - हे प्रभु ! शुभभाव प्रकट हो, वह मेरा दोष है। उससे मेरे आनन्द में कमी आती है। शुभभाव में आते ही मैं दोष में आ जाता हूँ। ___ अहाहा ! ये शुभभाव तो ज्ञेयरूप हैं। समकिती को दृष्टि अपेक्षा इनकी निर्जरा कही है और चारित्र की अपेक्षा से बंध ही है।
१) अपने ज्ञान स्वभाव का ज्ञान हुआ, उस अपेक्षा से राग भी ज्ञान में परज्ञेय है।
२) सम्यग्दृष्टि के राग को दृष्टि अपेक्षा निर्जरा का कारण कहा है। ३) चारित्र अपेक्षा यही राग विष के समान होने से बंध का कारण है।
व्रत-पूजा-भक्ति आदि और आत्मद्रव्य का शुद्धत्व परिणमन - ये दोनों एक ही जीव में एक ही समय अस्तिरूप हैं। भगवान आत्मा का शुद्ध परिणमन पर्याय में है, उससमय रागादिरूप अशुद्धता भी है; किन्तु दोनों की एक जीव में एक ही समय अस्ति है।
जिनागम के अन्य शास्त्रों में यह भी कहा गया है कि सम्यग्दृष्टि को मात्र शुद्धपरिणाम ही है, अशुद्ध परिणाम नहीं हैं; किन्तु यह बात अनेक अपेक्षाओं से कही गई हैं।
यहाँ शुद्ध परिणाम को स्वज्ञेय में लिया है; क्योंकि द्रव्य और गुण शुद्ध हैं, अतः द्रव्य-गुण का अनुभव हुआ, वहाँ शुद्ध परिणमन है। अशुद्ध परिणाम आत्मा के द्रव्य-गुणरूप परिणाम नहीं हैं; अतः सम्यग्दृष्टि को अशुद्ध परिणाम नहीं हैं - ऐसा कहा जाता है।
इसीप्रकार सम्यग्दृष्टि को दुःख नहीं है, यह बात भी अनेक अपेक्षाओं
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