Book Title: Gyandhara Karmadhara
Author(s): Jitendra V Rathi
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 13
________________ ज्ञानधारा-कर्मधारा अन्तरंग में उठनेवाली रागादि वृत्तियाँ, छह द्रव्यों के विचाररूप विकल्प अथवा 'मैं शुद्धस्वरूपी हूँ' - ऐसा शुद्धस्वरूप के विचाररूप उठनेवाले शब्दरूप विकल्प इत्यादि समस्त कर्मबंधन के कारण समझना चाहिये। सम्यग्दृष्टि हो अथवा मिथ्यादृष्टि हो; दोनों को ही अन्तर्जल्प-बहिर्जरूप उठनेवाले समस्त विकल्प बंध के ही कारण हैं। यहाँ कोई कहता है कि एक ओर तो सम्यग्दृष्टि के भोग निर्जरा का हेतु कहने में आते हैं और दूसरी ओर सम्यग्दृष्टि का शुभभाव बन्ध का कारण कहा जाता है, इसका तात्पर्य क्या है ? समयसार के निर्जरा-अधिकार में सम्यग्दृष्टि के भोगों को निर्जरा का हेतु कहा। इसका तात्पर्य यह है कि भोग का भाव तो बंध का कारण है और स्वभावदृष्टि में जो निर्मलता प्रकट हुई, वह संवर-निर्जरा का कारण है। यह कथन दृष्टि की प्रधानता से किया गया है। भोगसम्बन्धी राग आता है; किन्तु दृष्टि की प्रधानता से उसकी भी निर्जरा हो जायेगी, यह समझना चाहिए। भोग का भाव तो सम्यग्दृष्टि को बन्ध का ही कारण हैं; किन्तु भूमिकानुसार वर्तनेवाले पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति, व्रततप आदि के पालनरूप भाव भी बंध के ही कारण हैं। इसप्रकार अनेक अपेक्षाओं से यहाँ उक्त बात कही गई है। यदि भोग निर्जरा के कारण होंवे तो कोई भी जीव भोगादिक को छोड़कर मुनिपना अंगीकार करने की भावना करेगा ही नहीं। सम्यग्दृष्टि के भोग निर्जरा के हेतु हैं - यह तो दृष्टि के जोर से किया गया कथन है। ___मैं शुद्ध, चैतन्य, आनंद का नाथ भगवान आत्मा हूँ' - ऐसी अन्तर्दृष्टि के जोरपूर्वक की गई प्रतीति सम्यग्दृष्टि को वर्तती है, तथापि कमजोरीवश रागादि भाव होते हैं। बालबोधिनी टीका पर गुरुदेवश्री के प्रवचन इसप्रकार सम्यग्दृष्टि को अस्थिरताजन्य बन्ध तो अवश्य है, किन्तु स्वभावदृष्टि होने से मिथ्यात्व का बन्ध नहीं है। प्रश्न :- तो क्या सम्यग्दृष्टि को मिथ्यात्व का बन्ध नहीं होता है ? उत्तर :- हाँ ! सम्यग्दृष्टि को मिथ्यात्व का बन्ध नहीं होता, किन्तु उसे भोग का भी बन्ध नहीं है - ऐसा जो निर्जरा अधिकार में कहा, इस बात में थोड़ी सूक्ष्मता है। मैं चैतन्य परमानन्द की मूर्ति हँ' - ऐसे निर्विकल्प परिणमनपूर्वक जीव को सविकल्प दशा में आनन्द का वेदन होता है। वहाँ सम्यग्दृष्टि जीव को भोग के परिणाम तो है, किन्तु साधक को उसमें सुखबुद्धि - हितबुद्धि नहीं है; उसे तो उसमें जहरबुद्धि वर्तती है। जिसप्रकार काला सर्प दिखाई दें तो डर लगता है, उसीप्रकार साधक जीव को अन्तर में शुभभाव का बड़ा डर लगता है। भोग का भाव तो पापबंध का ही कारण है; परन्तु सम्यग्दृष्टि को जो शुभभाव अर्थात् व्रत-तप-नियमादि सब बंध के ही कारण हैं। मात्र दृष्टि के जोर की अपेक्षा भोगों को निर्जरा का हेतु कहा गया है। __अहाहा ! सम्यग्दर्शन में आत्मानुभव और आत्मानन्द का ही स्वाद है, तथापि जितनी शुभक्रिया है अर्थात् व्रत-उपवास-तप इत्यादि है, वे समस्त कर्मबन्धन के ही कारण हैं। मिथ्यादृष्टि के व्रतादि बंध के कारण हैं और सम्यग्दृष्टि के व्रतादि बंध के कारण नहीं हैं - ऐसा यहाँ नहीं समझना, क्योंकि दोनों के ही व्रतादि परिणाम बंध के कारण हैं। यदि भोगों को निर्जरा का हेतु जानकर कोई स्वच्छन्दी हो जाये तो वह मिथ्यादृष्टि ही है। भोगों को निर्जरा का हेतु तो दृष्टि की विवक्षा से कहा गया है। सम्यग्दृष्टि के भोग अल्परस व अल्पस्थिति का ही बंध 13

Loading...

Page Navigation
1 ... 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54