Book Title: Dhyan Darpan
Author(s): Vijaya Gosavi
Publisher: Sumeru Prakashan Mumbai

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Page 14
________________ जल शान्त हो गया, आदमी अपना मुंह देख सकता है। आत्मा को हम समुद्र मान लें। उसके भीतर यह राग और द्वेष का इतना बड़ा बवंडर है कि कोई भी व्यक्ति अपने भीतर देख नहीं सकता। जब यह तूफान, कल्लोल शांत हो जाता है, उस समय ही व्यक्ति आत्मा को देख सकता है। रागद्वेष के कल्लोल वाला आदमी उसे कभी नहीं देख सकता है, जैसा आचार्य पूज्यपाद कहते हैं - रागद्वेषादि कल्लोलैरलोलं यन्मनोजलम् । स पश्यतात्मनस्तत्वक्तत्वं नेतरो जनः।। अगर आत्मा का साक्षात्कार करना है, आत्मप्रदेशों तक पहुंचना है, आत्मा का जो अस्तित्व है, उसके जो चैतन्यमय प्रदेश हैं, वहां तक पहुंचना है, तो विस्तार को धीरे-धीरे कम करना होगा। यह अज्ञानी प्राणी संसार से डरता है, किन्तु उससे उसे छुटकारा नहीं मिलता है और निरंतर मोक्षसुख को चाहता है, किन्तु चाहने मात्र से मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती। फिर भी, भय और काम से वशीभूत होकर वह व्यर्थ ही संसार के कष्ट को पाता है, परन्तु जो जान जाता है, वह संसार से पार हो जाता है। शरीर हमारा द्वार है, एक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है। एक घड़ा है और घड़े में पानी है। प्रश्न है कि घड़े का महत्व है या उसके अन्दर के पानी का? पानी तो महत्वपूर्ण है ही, किन्तु घड़ा नहीं हो, तो पानी कहाँ से? हम आधार को, साधन को गौण नहीं कर सकते। आधेय का अपना मूल्य है और आधार का अपना मूल्य है। आत्मा है- आधेय, शरीर है- आधार। हमें शरीर को देखना है और इसलिए देखना है कि उसे देखे बिना आत्मा का दर्शन नहीं हो सकता। जो व्यक्ति देखना जानता 12/ध्यान दर्पण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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