Book Title: Dhyan Darpan
Author(s): Vijaya Gosavi
Publisher: Sumeru Prakashan Mumbai

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Page 29
________________ आकुलता को उत्पन्न करने वाली श्रुतज्ञान की बुद्धियों को समेटकर श्रुतज्ञान को भी आत्मा के सम्मुख करें, तब अत्यन्त विकल्पशून्य होकर, उसी समय अपने निजरस से ही व्यक्त होकर, आदि - अंत से रहित होकर, अनाकुल केवल एक संपूर्ण विश्व के ऊपर तैरने वाले- ऐसे अखण्ड वीतराग विज्ञानमय परमात्मस्वरूप समयसार (निजात्मा) का जब अनुभव किया जाता है, तब आत्मा का अस्तित्व सम्यक् प्रकार से देखा जा सकता है। पहले आत्मा के आगमरूप मतिज्ञान को ज्ञानमात्रा में मिलाकर तथा श्रुतज्ञानरूपी नयों के विकल्पों को मिटाकर, श्रुतज्ञान को भी निर्विकार करके एक अखण्ड प्रतिमास का अनुभव करना ही 'सम्यग्दर्शन' और 'सम्यग्ज्ञान' के नाम को प्राप्त करता है। समयसार की गाथा में लिखा है कि जिस प्रकार पानी वस्त्र पर लगे मैल का शोधन करता है, अग्नि लौह पर लगे हुए कीट का अपनयन करती है और सूर्य धरती पर पड़े कीचड़ का शोषण करता है, वैसे ही जीवरूपी वस्त्र, लोह और धरती पर लगे कर्ममल, कलंक और पंक का शोधन, शोषण करने में ध्यानरूप जल, अनल और सूर्य समर्थ हैं। जैसे रोग का निदान चिकित्सा से होता है, वैसे ही कर्मरूपी रोग का शमन भी ध्यान, अनशन आदि योगों से किया जाता है। जिस प्रकार पवन से प्रेरित अग्नि ईंधन को जलाती है, वैसे ही ध्यान पवन से कंपित कर्मरूपी बादल अन्तर्ध्यान हो जाता I आचार्य रामसेन लिखते हैं स्वाध्यायात् ध्यानमध्यास्तां ध्यानात् स्वाध्यायमामनेत् । ध्यानं स्वाध्यायसम्पत्या, परमात्मा प्रकाशते ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only ध्यान दर्पण / 27 www.jainelibrary.org

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