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पूर्व कर्मने जिस प्राणीका, अन्त लिखा जब भाई । free तब ही अन्त होय है, यह निश्चय उर लाई || छोड़ शोक मरनेपर प्रियके, सादर धर्म करीजे । गया निकल जब साँप तासुकी, लीक पीट क्या कीजे १ ।। १० दुख नाशनको मूढ जगतमें, रुर्दनकर्म विस्तारैं । ताहि कर्मवश दूर न दुख हो, नहिं ते सुख निर्धारें ॥ तिन मूढनको मृदशिरोमणि, हम निश्चय कर मानें । पाप और दुख हेत, इष्टके, मरत शोक जे ठानें ॥ ११ ॥ नहिं जाने क्या नाहिं सुनै तू, नहिं क्या सन्मुख देखै ? | 'कलीत निःसार जगत सब, इन्द्रजाल हो जैसे' || इष्ट मरण पर शोक करै क्या, मनुषाकार पशू रे ! जातै नित्य परम पद पावै, सो किंचित कर तू रे ॥ १२ ॥ 'कर्मणा विलिखित यस्यावसान यदा, तज्जायेत तदैव तस्य भविनो ज्ञात्वा तदेतद्ध्रुवम् । शोक मुञ्च मृते प्रियेऽपि सुखद धर्म कुरुष्वादरात्, सर्पे दूरमपागते किमिति भोस्तद्वृष्टिराहन्यते ॥ १० ॥ ये मूर्खा भुवि तेsपि दुखहतये व्यापारमातन्वते, सामाभूदथवा स्वकर्मवशतस्तस्मान्न ते तादृशा । मूर्खान्मूर्खशिरोमणीन्ननु वय तानेवमन्यामहे ये कुर्वन्ति शुच मृते सति निजे पापाय दुखाय च ॥ ११ ॥ कि जानासि न कि शृणोषि ननु किं प्रत्यक्षमेवेक्षसे, नि शेष जगदिन्द्रजालसदृश रम्भेव सारोज्झितम् । कि शोक कुरुषेऽत्र मानुषपशो लोकान्तरस्थे निजे, तत्किं - चित्कुरु येन नित्यपरमानन्दास्पद गच्छसि ॥ १२ ॥ जातो जनो म्रियत
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१ आदरसहित - प्रीतिपूर्वक । २ सापके चलनेसे जो पृथ्वीपर निशान बन जाता है, लकीर । ३ सापा वा स्यापा । ४ केलेके थभ समान । ५ इन्सानकी शकलके हैवान ।