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पंचम परिच्छेद ___ संधि-५
[५-१] [ अमरसेन-वइरसेन का मिलन, कुशल-क्षेम-वार्ता एवं वेश्या के गधी बनाये जाने का वइरसेन द्वारा हेतु बताया जाना ]
ध्रुवक इसी बोच नगर के लोग अपने मन में हर्षित हो वहाँ आये जहाँ राजाओं से पूजित राजा अमरसेन अपने भाई सहित स्थित थे। पुरवासियों ने उन्हें नमन किया । पश्चात् भाई ( अमरसेन ) कहता है ।। ____ बहुत दिनों के पश्चात् राजा मन में आनन्दित होकर चिन्तामणि तुल्य कुमार से मिलता है ।।१।। राजा श्री अमरसेन अमृत तुल्य मोठी वाणी से अपने भाई से कहता है-तुम्हारे प्रसाद से ( मैंने ) सूखपूर्वक कंचनपुर का राज्य पाया ( और ) पृथिवी पर प्रसिद्ध राजाओं का पूज्य हुआ ।।२-३।। हे धर्म वीर ! वन में मुझे छोड़कर भोजन के कार्य से नगर में कहाँ गये थे ? ॥४|| मेरे पास शीघ्र लौट करके नहीं आये, तुम्हारे बिना मैं निराश होकर बैठ गया ।।५।। ( मैंने ) नगर के साथ उपवन, पर्वत, गुहा, नदी-तीर और जिन-मन्दिर खुजवाये ॥६॥ कहीं नहीं पाया। हे धीर ! कहीं क्या पर्वत पर या किसी गहरे समुद्र में रहे ॥७॥ आई की बात सुनकर वइरसेन कहता है-सुनो, तुम्हारे नगर में छिप करके रहा है, ऐसा जानो ।।८।। अपना रहस्य किसी से प्रकट नहीं किया। वेश्या के साथ अपने रत्नों का उपभोग किया ।।९।। उसके (वइरसेन के ) वचन सुनकर राजा हर्षित हुआ । अति हर्ष से संतोष अंगों में नहीं समाया ।।१०।। इसके पश्चात् राजा पूछता है--किस गुण (विधि अथवा कारण) से वेश्या को गधी बनाया है-सत्य बात कहो ।।११।। कहा भी है--अति लोभ नहीं करना चाहिये । अति लोभ से आकृष्ट होकर लोभ का त्याग नहीं करनेवाली वेश्या गधो होती है ।।छ।। इसे चौराहे के बीच बाँध करके लक्ष्मी का भण्डार वह वइरसेन कहता है-हे राजन् ! स्त्री का प्रपंच सुनिये । अति लोभ से इसने मुझे ठगा है ॥१३॥ इसने शरद के मेघों का स्पर्श करनेवाली चोटी के ऊपर से मेरा आम्र फल निकाल कर ले लिया, मुझे हाथ पकड़कर घर से निकाला तो भी मैंने इस मिथ्यावादिनी वृद्धा को क्षमा किया ॥१४-१५।। आम्र फल के प्रभाव से सूर्योदय होने पर कुल्ला करके उगलने पर सूर्य के समान दीप्तिमान पाँच रत्न गिरते हैं ॥१६-१७॥
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