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पंचम परिच्छेद
१९९ सुनो ।।९॥ हे स्वामी ! हमारा पूर्वभव कहकर हमारे हृदय का सन्देह दूर करो ॥१०॥ ऐसा सुनकर संशय दूर करनेवाले ( वे मुनि ) कहते हैंहे राजन् ! सुनो ! दुःखहारी तुम्हारा (पूर्वभव ) कहता हूँ ॥११।। इस जम्बूद्वीप में लवण-समुद्र से सुशोभित श्रेष्ठ भरतक्षेत्र है ॥१२॥ वहाँ धनधान्य और स्वर्ण-सम्पदा के घर मनोहर नगर हैं ।।१३।। उनमें लोक में प्रसिद्ध ऋषभपुर नाम का श्रेष्ठ और सुन्दर नगर है ।।१४॥
घत्ता-उस प्रधान नगर का स्वभाव से विनयवान अरिमर्दन नाम का राजा था। देवांगना के समान सुन्दर उस विशुद्ध नृपति की देवलदे नाम की पटरानी ( थी) ॥५-९॥
[५-१०] [ अमरसेन-वइरसेन का पूर्वभव-वृत्त ] पृथिवी पर प्रधान वह राजा अपने सूविध मन्त्री से मन्त्रणा ( सलाह) करके पुरजनों की सेवा करता है ॥१॥ उस नगर में अभयंकर नामक ऋद्धियों से सम्पन्न ( एक ) व्यापारी रहता है ।।२॥ व्यवहार में कुशल उसकी स्त्री मिथ्यात्व का त्याग करके जैनधर्म में आसक्त थी।।३।। उसके घर धण्णंकर और पूण्णंकर (नाम के) दो कर्मचारी भाई रहते हैं।४।। बड़ा भाई वहाँ घर का काम करता है और छोटा भाई उपवन में धन की रक्षा करता है ॥५।। सेठ अभयंकर अर्हन्त का भक्त था। वह सुखपूर्वक घर में विचार करते हुए रहता है ॥६।। अहो ! संसार में पुण्य का अन्तर होता है, पुण्य से देव, मनुष्य, फणीन्द्र और मोक्ष पद ( भी ) प्राप्त होता है ॥७॥ हे भाई ! पाप के फल का अन्तर देखो दोनों भाई मरकर घर के दुःखी कर्मचारी हुए ॥८॥ वहाँ सेठ के घर दोनों भाई विचारते हैं-कि हम न्यायनोति से काम में रहें | काम करें ॥९|| संसारी जीव भवसागर में पड़ा है, जिनधर्म (धारण ) किये बिना ( वह ) बाहर नहीं निकलता है ॥१०॥ ऐसा विचार करके जैनधर्म के भक्त वे दोनों भाई शुभ ध्यान में चित्त से लीन हो जाते हैं ।।११।। ऐसा प्राणी संसार-सागर में नहीं डूबनेवाला कहा गया है। वे दोनों भाई व्यापारी के पास क्रीडा करते हैं ॥१२।। किसी दूसरे दिन सेठ वहाँ जाता है, दोनों भाइयों को जैनधर्म में देखता है ।।१३।। वह सुखपूर्वक इनका उपकार करता है, ( उन्हें ) किए अशुभ कर्मों की रति से निकालता है ।।१४।। दोनों भाइयों को वहाँ स्नान कराके शुभ्रवस्त्र पहिना कर-॥१५॥
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