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सप्तम परिच्छेद
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[७-११]
[ कृतिकार-कामना] सार स्वरूप जिनेन्द्र का श्रेष्ठ शासन और कुमार्ग-विदारक जिनवाणी आनन्द देवे ॥१॥ विद्वान् समय और परिस्थिति के अनुसार सज्जन जलवृष्टि के समान आनन्द देवें ॥२॥ राजा-प्रजा की रक्षा करते हए और लोगों को न्यायमार्ग दर्शाते हुए आनन्द देवे ॥३॥ शान्ति होवे, पुष्टि होवे, तुष्टि होवे और पापों का विनाश होवे ॥४|| श्रेणिक नरक-निवास से बाहर निकले और संसार में रहकर जैनधर्म का प्रचार-प्रसार करे ।।५।। जिससे मत्सर-मोह दूर होते हैं वह शुभ ध्यान नियम पूर्वक धारण करो ॥६॥ वरिष्ठ आचार्य हेमचन्द्र के शिष्य-तप-तेज से महान् मुनि-श्रेष्ठ पद्मनन्दि, उनके पृथिवी पर श्रेष्ठ शिष्य देवनन्दि, राग-द्वेष, मोह-माया को नष्ट करनेवाले ग्यारह प्रतिमाधारी और शुभध्यान में उपशम-भावों को भानेवाले तथा काम की लोलुपता में शान्त-परिणामी सुखी रहें ।।७-१०॥ वहाँ जिनालय के पास एक सुन्दर घर में गौर वर्ण के दो पण्डित रहते हैं ॥११।। ( उनमें ) बड़ा जसमलु गुणों का भण्डार तथा दूसरा छोटा भाई तत्त्वों का जानकार है ।।१२।। ग्रन्थों के अर्थ का ज्ञाता, श्री पार्श्वनाथ की पूजा करनेवाला वह निरभिमानी ( छोटा भाई ) शान्तिदास आनन्दित रहे । इसके पश्चात् जिसका यश कहा गया है वह देवराज स्त्री, पुत्र और पौत्र सहित आनन्दित रहे ॥१३-१४।।
पत्ता-रोहतक नगर के सभी निवासी आनन्दित रहें। पार्श्वनाथ जिनेन्द्र के चरणों की शरण में नाना स्तुतियों से वन्दना करें ।।७-११।।
[७-१२] [ ग्रन्थ-रचना प्रेरक देवराज का वंश परिचय ] इसके पश्चात् दातार ( देवराज के वंश ) की संक्षेप से श्रेष्ठ नामावलि कहता हूँ ॥१॥ सुप्रसिद्ध अग्रवाल ( जाति ) अन्वय और सिंघल गोत्र के सज्जनों को संक्षेप से कहता हूँ ॥२॥ अपने तेज से जिनके द्वारा कुलसन्तति लाई गई | चलाई गयी वे वूल्हाणि नाम से कहे गये ॥३॥ ( इस सन्तति में ) गुणाकर चौधरी करमचंद की मनोहर भार्या दिउचंदही के तीन पुत्र उत्पन्न हुए। वे ऐसे लगते थे मानों तीनों पाण्डव- ( युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन ) ही यहाँ आये हों ॥४-५॥ पहला शास्त्रों के अर्थ रूपी रस का प्रेमी महणा धरती पर ऐसे उदित हुआ मानों चन्द्रमा का उदय
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