Book Title: Amarsenchariu
Author(s): Manikkraj Pandit, Kasturchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 288
________________ परिशिष्ट-१ २७५ ४६. तिय गुज्झु ण दिउजइ । ३७ स्त्री को गुप्तभेद प्रकट न करे। ४७. ते सोय धण्ण गुणगण सुणंति । १।१०।९ वे श्रोत धन्य हैं जो गुणों को सुनते हैं। ४८. ते पाणि सहल प्या रयति । १।१०।८ वे हाथ सफल हैं जो पूजा रचाते हैं। ४९. ते णयण धण्ण तव जुइ णियंति । १।१०।९ वे नेत्र धन्य हैं जो जिनेन्द्र-छवि का दर्शन करते हैं। ५०. तं वित्त वि तुव पययुज्ज लग्गु । १।१०।११ वह द्रव्य धन्य है जो जिनेन्द्र की पाद-पूजा में लगता है। ५१. थिर होइ कित्ति थिरकम्म धुवे । ४।५।१ स्थायी कीर्ति स्थायी कार्यों से होती है । ५२. थिर सत्तुह मित्ती भाय किए । ४।५।२ स्थिर मित्रता शत्रु को भाई बनाने से होती है। ५३. थिरु दाण सूपत्तहं भव्व दिए। ४।५।२ भव्य जनों द्वारा सुपात्र को दिया दान स्थिर होता है। ५४. दया मूल-धम्म । १।१७।१ धर्म का मूल दया है। ५५. दोणक्खरु भणइ सा लोयहावि । ३।३।१७ लोभाकृष्ट होकर दीन वचन न कहे। ५६. दुज्जण चल्लणीव सम सीसइ । ११८१३ दुर्जन पुरुष चलनी के समान होते हैं। ५७. दुज्जणु विसयकसायं रक्तई । ११८।६ दुर्जन विषय और कषायों में रत रहते हैं। ५८. दुज्जण सप्पह एक अवत्थइ । १।८।२ दुर्जन और सर्प की समान स्थिति होती है। ५९. देवेहि लिहायउ विहि लिहिओ। तं फेडण कुइ ण समत्थु हुउ ।। २।१।१३ विधि का लेख बदलने में कोई समर्थ नहीं हआ है। ६०. धम्मत्थ कज्जि पिय सुगयहेय । २।११।११ धर्मार्थकार्य में प्रेम सुगति का कारण होता है। ६१. न चलंत चलाओ लहइ कोइ । १।१६।१६ चला-चली में कुछ भी प्राप्ति नहीं होती। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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