Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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मगधसीसूत्रे ' गोयमा ' हे गौतम ! 'ज णं ते अन्नउत्थिया' यत् खलु अन्ययूथिकाः ‘एवं आइक्खंति जाव परभवियाउयं च ' एवमाख्यान्ति यावत् परभविकायुष्कं च, इह यावत्पदेन भाषन्ते प्रज्ञापयंति प्ररूपयंति, एको जीव एकसमये द्वे आयुषी प्रकरोति इहभविकायुष्कं चेत्यादीनां संग्रहः । 'जे ते एवं आहेसु मिच्छा ते एवं आइंसु ' ये ते एवमुक्तवन्तो मिथ्या ते एवमुक्तवन्तः, परमतस्य मिथ्यात्वं चैवम्एकेनाध्यवसायेन परस्परविरुद्धयोरायुषोर्बन्धासंभवात् , यदप्युक्तं परतीथिकैः पर्यायान्तरकरणे पर्यायान्तरं करोति स्वपर्यायत्वात् , तन्न सम्यक्, सिद्धत्वपर्याय यह गौतम का प्रश्न है-(गोयमा ! जंणं ते अन्नउत्थिया एवं आईक्खंति. जाव परभवियाउयं च ) हे गौतम ! जो वे अन्ययूथिक जन ऐसा कहते हैं कि एक जीव एक ही समय में दो आयु का बंध करता है-एक इस भव सम्बन्धी आयु का और दूसरी परभवसम्बन्धी आयु का, सो (जे ते एवं आहंसु मिच्छा ते एवं आहंसु) जो उन्हों ने ऐसा कहा है वह उन्हों ने मिथ्या कहा है । " आइक्खंति जाव परभवियाउयं च" यहां जो “ यावत् " पद आया है वह पूर्व में कथित " भाषन्ते, प्रज्ञापयन्ति, प्ररूपयन्ति, एको जीवः एक समये द्वे आयुषी प्रकरोति, इह भविकायुकं च" इत्यादि पाठ का संग्राहक है ।
"उन्हों ने जो ऐसा कहा है सो मिथ्या कहा है " अब यही बात स्पष्ट की जाती है-एक ही अध्यवसाय से परस्पर विरुद्ध दो आयु का होना असंभव है। तथा ऐसा जो अभी २ इन्हों ने कहा है कि अपनी पर्याय होने के कारण जीव सम्यक्त्व और ज्ञान की तरह एक पर्याय के करने में दूसरी पर्याय को करता है सो ऐसा कहना भी उनका ठीक (गोयमा! ज णं ते अन्नउत्थिया एवं आइक्खंति, जाव परभवियाउय च) ગૌતમ! અન્ય તીર્થિકે એવું જે કહે છે કે એક જ સમયે (૧) આ ભવ સંબંધી આયુષ્યને અને(૨) પરભવ સંબંધી આયુષ્યને-એમ બે આયુષ્યને मध मांधे छे. (जे ते एव आहंसु मिच्छा ते एव आहेसु) तमो मेरे उस छ त मिथ्या छ, सत्य नथी. “आइक्खंति जाव परभवियाउयच" मी रे "यावत" ५४ छतनाथी पूवात "भाषन्ते, प्रज्ञापयन्ति, परूपयन्ति, एको जीवः एक समये द्वे आयुषी प्रकरोति, इह भविकायुष्कं च" त्यादि ने सर २१॥ .
અન્ય તીથિકેએ જે કહ્યું છે તે મિથ્યા છે” એજ વાતનું પ્રતિપાદન હવે કરવામાં આવે છે–એક જ અધ્યવસાયથી પરસ્પર વિરૂદ્ધ એવાં બે આયુ
ને બંધ થવે અસંભવિત છે. વળી પોતાની પર્યાય હોવાને કારણે જીવ; સમ્યકત્વ અને જ્ઞાનની માફક એક પર્યાય કરવામાં બીજા પર્યાય કરે છે એવું
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨