Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Dadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
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श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे
- शतक १.-प्रश्नोत्थान. स्यादित्यत आह:-'गोयमसगत्ते णति गौतमसगोत्र इत्यर्थः. अयं च तत्कालोचितदेहमानापेक्षया न्यूनाधिकदेहोऽपि स्यादित्यत आहः-'सत्तुस्सेहे'त्ति सप्तहस्तोच्छ्यः . अयं च लक्षणहीनोऽपि स्यादित्यत आह:-'समचउरंससंठाणसंठिए'त्ति समम्-नाभेरुपरि अधश्च सकलपुरुषलक्षणोपेतावयवतया तुल्यम्, तच्च तत् चतुरस्रं च प्रधानं समचतुरस्रम् ; अथवा समाः शरीरलक्षणोक्तप्रमाणाऽविसंवादिन्यश्चतस्रोऽस्रयो यस्य तत् समचतुरस्रम् , अस्रयस्त्विह चतुर्दिग्विभागोपलक्षिताः शरीरावयवा इति. अन्ये त्वाः"समा अन्यूनाधिकाश्चतस्रोऽपि अस्रयो यत्र तत् समचतुरस्रम्, अस्रयश्च पर्यङ्कासनोपविष्टस्य जानुनोरन्तरम् , आसनस्य ललाटोपरिभागस्य चान्तरम् , दक्षिणस्कन्धस्य वामजानुनश्चान्तरम् , बामस्कन्धस्य दक्षिणजानुनश्चान्तरम्" इति. अन्ये त्वाइ:-"विस्तारोत्सेधयोः समत्वात् समचतुरस्रम् ," तच्च तत् संस्थानं चाऽऽकारः समचतुरस्रसंस्थानम् ; तेन संस्थितो व्यवस्थितो यः स तथा. अयं च हीनसंहननोऽपि स्यादित्यत आहः-'वजरिसहनारायसंघयणे'त्ति इह संहननम्-अस्थिसंचयविशेषः, वज्रादीनां लक्षणमिदम्-"रिसहो य होइ पट्टो वजं पण कीलिअं वियाणाहि, उभओ मक्कडबंधो नारायं तं वियाणाहि"त्ति. तत्र वजं च तत् कीलिकाकीलितकाष्ठसंपुटोपमसामर्थ्ययुक्तत्वात्, ऋषभश्च लोहादिमयपट्टबद्धकाष्टसंपुटोपमसामर्थ्यान्वितत्वाद् वज्रर्षभः, स चासौ नाराचं च उभयतो मर्कटबन्धनिबद्धकाष्ठसंपुटोपमसामोपेतत्वाद वज्रर्षभनाराचम् , तत् संहननम्-अस्थिसंचयविशेषोऽनुत्तमसामर्थ्ययोगाद् यस्यासौ वर्षभनाराचसंहननः. अन्ये तुः-"कीलिकादिमत्त्वमस्थ्नामेव वर्णयन्ति. अयं च निन्द्यवर्णोऽपि स्यादित्यत आह:-'कणयपुलयनिहसपम्हगोरे'त्ति कनकस्य सुवर्णस्य, 'पुलय'त्ति यः पुलको लवः, तस्य यो निकषः कषपट्टके रेखालक्षणः, तथा 'पम्ह'त्ति पद्मपक्ष्माणि केसराणि तद्वद् गौरो यः स तथा. वृद्धव्याख्या तु:-"कनकस्य न लोहादेः, यः पुलकः सारो वर्णातिशयः, तत्प्रधानो यो निकषो रेखा, तस्य यत् पक्ष्म बहलत्वम् , तद्वद् गौरो यः स तथा. अथवा कनकस्य यः पुलको द्रुतत्वे सति बिन्दुस्तस्य निकषो वर्णतः सदृशो यः स तथा, 'पम्ह'त्ति पद्मम् , तस्य चेह प्रस्तावात् केसराणि गृह्यन्ते, ततः पद्मवद् गौरो यः स तथा, ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः. अयं च विशिष्टचरणरहितोऽपि स्यादित्यत आहः
१४. [ 'तेणं' इत्यादि ] ते काले अने ते समये श्रमण भगवंत महावीरना [ 'जेटे'त्ति ] प्रथम ['अंतेवासित्ति] शिष्य-(प्रथम अने शिष्य) एबे पदवडे गौतमस्वामिनी समस्त संघनी नायकता सूचवी छे-['इंदभूइ'ति] के जेनुं माताए अने पिताए इंद्रभूति नाम पाडयुं हतुं अर्थात् जे ['नाम'ति] मामवडे इन्द्रभूति हता. विवक्षाथी श्रावक पण शिष्य होइ शके माटे कहे छे के, ['अणगारे'त्ति ] अनगार एटले जेने घर न होय ते. कोइ अनगार निंदितगोत्रवाळा पण होय माटे कहे छे, ['गोयमसगुत्ते णं' ति] गौतमगोत्रसहित. आ प्रकारना होवा छतां ते काळने विषे उचित देहपरिमाणनी अपेक्षाए न्यूनाधिक देहपरिमाणवाळा पण होय, माटे कहे छे, [ 'सत्तुस्सेहे'त्ति ] सात हाथनी उंचाइवाळा. आवा होवा छतां, हीन लक्षणवाळा पण होय ए शंकाना निवारणार्थ कहेछे के, [ 'समचउरंससंठाणसंठिएत्ति ] सम एटले नाभिनी उपर तथा नीचे पुरुषना सकल लक्षणसहित अवयववाळु होवाथी तुल्य, एवं जे चतुरस्र एटले प्रधान संस्थान, तेवडे व्यवस्थित, अथवा सम (शरीरलक्षणोक्तप्रमाणाविसंवादि ) अर्थात् शरीरना स्वरूप्रज्ञापक शास्त्रमा कहेल प्रमाण ( माप ) सहित चार अनि युक्त जे होय ते समचतुरस्र कहेवाय. अहीं अनि एटले चारे दिशाओना विभागोवडे उपलक्षित शरीरना अवयवो समजवा. बीजाओ तो कहे छे के:-"सम एटले अन्यूनाधिक चार अनि युक्त होय ते समचतुरस्र कहेवाय, अनि एटले पर्यकासने बेठेला पुरुषना बन्ने जानुनु अंतर, आसननुं अने ललाटना उपरना भागनुं अंतर, जमणो खभो अने डाबा जानुनुं अंतर, तथा डाबा सभा अने जमणा जानु- अंतर" (आ प्रमाणे बराबर चार अनियुक्त संस्थानवडे जे व्यवस्थित ते समचतुरस्रसंस्थान संस्थित कहेवाय.) अन्य तो कहे छे के:-"विस्तार अने उंचाइवडे सरखं होय ते समचतुरस्र," समचतुरस्र संस्थान (आकार ) वडे संस्थित एटले व्यवस्थित. आवा संस्थान युक्त होवा छतां हीनसंहननवाळा (हलका हाडकाना बांधावाळा ) पण होय, ए आशंकाना परिहार माटे शास्त्रकार कहे छे केः-[ 'बजरिसहनारायसंघयणे'त्ति ] अहीं संहनन एटले एक प्रकारनो हाडकानो समूह, वज्र, ऋषभ अने नाराच- लक्षण आ प्रमाणे समजवु:-"पाटाने 'ऋषभ' कहे छे, खीलिने 'वज्र' समजवू, आ बेना मर्कटबंधने 'नाराच' समजवू."
आ संहनन, खीलावडे बद्ध काष्टसंपुटसदृश सामर्थ्ययुक्त होवाथी वज्र, लोहादिमय पट्ट(पाटा) वडे बद्ध काष्टसंपुटसदृश सामर्थ्ययुक्त होवाथी ऋषभ, वज्ररूप जे ऋषभ ते वज्रर्षभ अने ते बन्ने तरफ मर्कटबन्धवडे बद्ध काष्टसंपुटनी तुल्य सामर्थ्ययुक्त होवाथी नाराच, ते वज्रर्षभनाराच कहेवाय. इंद्रभूति अनगार अत्युत्कृष्ट सामर्थ्य युक्त होवाने लीधे आप्रकारना अस्थिसमूहविशेषरूप संहननवाळा छे, 'माटे वर्षभनाराचसंहनन' ए विशेषण
ज्येष्ठ-अन्तेवासी. इंद्रभूति. अणगार. गौतमसगोत्र, सप्तोत्सेध. समचतुरनसंसान.
वर्षभनाराचतहनन.
१. प्र.छा:-ऋषभश्च भवति पट्टो वज्रं पुनः कीलिकां विजानीहि, उभयतो मर्कटबन्धो नाराचं तद् विजानीहि. इति. एतत्समानपाठोऽयम्-"रिसहो पट्टो य कीलिआ वजं, उभओ मक्कडबंधो नारायं" +++ "इह प्रवचने ++ ऋषभशब्देन परिवेष्टनपट उच्यते, वज्रशब्देन कीलिका अभिधीयते, ++ नाराचशब्देन उभयतो मर्कटबन्धो भण्यते". ( कर्म० १, गा० टी० ३८ पृ-४० (भा.):-अनु.
१. आ ( संस्थान ) शब्द साधारण रीते संस्कृत भाषामा संस्थितिनो सूचक छे, पण जैनपरिभाषामां तो ते 'शरीरना आकाररूप अर्थमां' वपराय छे. "संस्थानानि अवयवरचनात्मकशरीराकृतिस्वरूपाणि" (प्र. क. गा०टी० ३९.) “अवयव रचनारूप जे शरीरनी आकृतिओ तेने संस्थान कहे छे" (प्र. क. गा० टी०३९). अने आ शब्द 'साधारण आकार' अर्थमां पण जैनशास्त्रमा वपराय छे:-अनु.
२. आ ( संहनन ) शब्द संस्कृतभाषानो छे. तेनुं प्राकृत रूप 'संघयण' छे. साधारण रीते ते शब्दनो प्रयोग शरीरना पर्याय तरीके प्रसिद्ध छे. तेनो व्युत्पत्त्यर्थ 'ज्यां समूहरूपे अंगो रहे' ए प्रमाणे छे. जैनपरिभाषामां ते 'संहनन' शब्द शरीरनी अंदर रहेल हाडकांओनी रचनानो द्योतक छे:-कर्मग्रंथ "संघयणमट्ठिनिचओ" (कर्म. प्र. गा० ३७) “संहन्यन्ते दृढीक्रियन्ते (प्रथम ) मां श्रीदेवेन्द्रसूरिए कहां छे के, “जेनाथी शरीरना पुद्गलो मजबूत शरीरपुद्गला येन तत् संहननम्, तच्च अस्थिनिचयः कीलिकादिरूपाणामस्थ्नां कराय ते संहनन अर्थात् कीलिकादिरूप हाडकाओनी एक प्रकारनी रचना" निचयो रचनाविशेषोऽस्थिनिचयः” (श्रीदेवेन्द्रसूरि, कर्म०प्र० गा० टी-३७). (श्रीदेवेन्द्र० क० प्र० गा० ३७):-अनु०
३. या पाठने मळतो पाठ प्रथम कर्मग्रंथमा आडत्रीशमी गाथामां अने तेनी टोकामां आ प्रमाणे छ:-ऋषभ, पट्ट-वींटवानो पाटो-वज्र-कीलिका-खीलीबन्ने बाजुधी मर्कटबंध ते नाराच, ए प्रमाणे ए त्रणे शब्दोनो जिनप्रवचनमां अर्थ छे. (भा.):--अनु०
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