Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Dadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
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श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे
शतक २.-उद्देशक '.
अस्थि पण से अंते, कालो णं जीवे न कयाइ न आसी, जाव- पर्यवरूप छे, वळी तेनो अंत नथी. तो हे स्कंदका ते प्रमाणे निचे, नत्थि पूण से अंते. भावओ णं जीवे अणता णाणपज्जवा, द्रव्यलोक अंतवाळो छे, क्षेत्रलोक अंतवाळो छे, काळलोक अंत अणंता दंसणपज्जया, अणंता चारित्तपज्जवा, अणंता अगुरुलहुप- विनानो छे अने भावलोक अंत विनानो छे-लोक अंतवाळो के जवा, नत्थि पुण. से अंते, सेत्त दवओ जीवे सते, खेत्तओ अने अंत विनानो पण छे. बळी हे स्कंदक | तने जे आ विकल्प जीवे सते, कालओ जीवे अणंते, भावओ जीवे अणंते. जे वि थयो हतो के, शुं जीव अंतवाळो छे के अंत विनानो छे! तेनो य ते खंदया । ( पुच्छा) इमेआरूवे चिंतिए जाव-किं सता पण आ खुलासो छे:-यावत्-द्रव्यथी जीव एक छे अने अंतवाळो सिद्धी, अणंता सिद्धी, तस्स वि य णं अयं अद्वे-मए खंदया। एवं छे, क्षेत्रथी जीव असंख्य प्रदेशवाळो छे अने असंख्य प्रदेशमा खलु चउव्विहा सिद्धी पण्णत्ता, तं जहा:-दव्वओ, खित्तओ, अवगाढ छे, तथा तेनो अंत पण छे. काळथी जीव कोइ दिवस न कालओ, भावओ. दव्वओ.णं 'एगा सिद्धी सअंता, खेत्तओ णं. हतो एम नथी, यावत्-नित्य छे अने तेनो अंत नथी. भावधी सिद्धी पणयालीसं जोयणसयसहस्साई आयाम-विक्खंभेणं, एगा जीव अनंत ज्ञानपर्यायरूप छे, अनंत दर्शनपर्यायरूप छे, अनंत जोयणकोडी बायालीसं च जोयणसयसहस्साई तीसं च जोयणस- अगुरुलघु पर्योयरूप छे अने तेनो छेडो-अंत-नथी. तो हस्साई दोणि य अउणापनजोयणसए किंचि विसेसाहिए परि- हे स्कंदक ! ए प्रमाणे द्रव्यजीव अंतवाळो छे, क्षेत्रजीव अंतवाळो छे. क्खेवेणं, अस्थि पण से अंते. कालओ णं सिद्धी न कयाइ न काळजीव अंत विनानो छे तथा भावजीव अंत विनानो छे. बळी
आसी, भावओ य जहा लोयस्स तहा भाणियव्वा. तत्थ दव्वओ हे स्कंदक ! तने जे आ विकल्प थयो हतो के, शुं सिद्धि अंतसिद्धी सअंता, खेत्तओ सिद्धी सअंता. कालओ सिद्धी अणंता, वाळी छे के अंत विनानी छे! तेनो पण आ उत्तर छे के:-हे भावओ सिद्धी अणंता. जे वि य ते खंदया। जाव-किं अणंते स्कंदक ! मैं सिद्धि चार प्रकारनी कही छे, ते आ प्रमाणे:-द्रव्यथी सिद्धे तं चेव, जाव-दब्वओ णं एगे सिद्ध सते. खेत्तओ णं सिद्धि एक छे अने अंतवाळी छे, क्षेत्रथी सिद्धिनी लंबाइ तथा सिद्धे असंखेजपएसिए, असंखेजपएसोगाढे अस्थि पण से अन्ते; पहोळाइ पीस्ताळीश लाख योजननी छे. अने तेनो परिधि एक कालोणं सिद्धे सादीए. अपज्जवसिए, नत्थि पण से अन्ते: क्रोड, बेताळीश लाख, त्रीश हजार, बसेंने ओगणपचास योजन भावओ णं सिद्ध अणंता णाणपज्जवा. अर्णता दसणपज्जवा, करता काइक विशेषाधिक छे. तथा तेनो अंत-छेडो-पण छे. जाव-अणंता अगरुलहयपज्जवा, नत्थि पण से अन्ते सेत्तं काळथी सिद्धि कोइ दिवस न हती एम नथी, कोइ दिवस नथी एम दव्वओ णं सिद्धे सअंते, खेत्तओ णं सिद्ध सोते. कालओ नथा अन काइ दिवस त नही हश एवु पण नथा. तथा गं सिद्ध अणंते, भावओ णं सिद्धे अणते.
सिद्धि भावलोकनी पेठे कहेवी. तेमा द्रव्यसिद्धि अने क्षेत्रसिद्धि अंतवाळी छे, तथा काळसिद्धि अने भावसिद्धि अंत विनानी छेसिद्धि अंतवाळी पण छे अने अंत विनानी पण छे. वळी हे स्कंदक! तने जे आ संकल्प थयो हतो के, सिद्धो अंतवाळा छे के अंत विनाना छे ! तेनो पण आ निवेडो छे:-अहीं बधु आगठनी पेठे कहेवू यावत्-द्रव्यथी सिद्ध एक छे अने अंतवाळा छे, क्षेत्रथी सिद्ध असंख्य प्रदेशवाळा छे अने असंख्य प्रदेशमा अवगाढ छे. तथा तेनो अंत पण छे. काळथी सिद्ध आदिवाळा छे अने अंत विनाना छे-तेनो अंत नथी. भावथी सिद्ध अनंत ज्ञानपर्यवरूप छे, अनंत दर्शनपर्यवरूप छे, यावत्-अनंत अगुरुलघु पर्यवरूप छे अने तेनो अंत नथी अर्थात् द्रव्यथी अने क्षेत्रथी सिद्ध अंतवाळा छे तथा काळथी अने भावथी सिद्ध अनंत-अंत विनाना छसिद्धो अंतवाळा पण छे अने अंत विनाना पण छे.
१. मूलच्छायाः-अस्ति पुनस्तस्य अन्तः, कालतो जीवो न कदाचिद् नासीत् , यावत्-नित्यः. नास्ति पुनस्तस्य अन्तः. भावतो जीवः अनन्ता झानपर्यवाः, अनन्ता दर्शनपर्यवाः, अनन्ताः चारित्रपर्यवाः, अनन्ता अगुरुलधुपर्यवाः, नास्ति पुनः तस्य अन्तः, तदेतद् द्रव्यतो जीवः सान्तः, क्षेत्रतो जीवः सान्तः, कालतो जीवोऽनन्तः, भावतो जीवोऽनन्तः. योऽपि च स स्कन्दक! (पृच्छा) अयम् एतद्रूपः चिन्तितो यावत्-कि सान्ता सिद्धिः, अनन्ता सिद्धिः, तस्याऽपि च अयम् अर्थः-मया स्कन्दक | एवं खलु चतुर्विधा सिद्धिः प्रज्ञप्ता, तद्यथाः-द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतः, भावतः, द्रव्यत एका सिद्धिः सान्ता, क्षेत्रतः सिद्धिः पश्चचत्वारिंशद् योजनशतसहस्राणि आयाम-विष्कम्भेण, एका योजनकोटिः, द्विचत्वारिंशत् च योजनशतसहस्राणि, त्रिंशत् च. योजनसहस्राणि, द्वे च एकोनपञ्चाशद्योजनशते किश्चिद् विशेषाधिके परिक्षेपेण, अस्ति पुनः तस्य अन्तः. कालतः सिद्धिन कदाचिद् नासीत्, भावतश्च यथा लोकस्य तथा भणितव्या. तत्र द्रव्यतः सिद्धिः सान्ता, क्षेत्रतः सिद्धिः सान्ता, कालतः सिद्धिः अनन्ता, भावतः सिद्धिः अनन्ता. योऽपि च स स्कन्दक! यावत्-किम् अनन्ताः सिद्धाः तचैव, यावत्-द्रव्यत एकः सिद्धः सान्तः, क्षेत्रतः सिद्धोऽसंख्येयप्रदेशिका, असंख्येयप्रदेशावगाढः, अस्ति पुनः तस्य अन्तः, कालतः सिद्धः सादिकः, अपर्यवसितः, नास्ति पुनः तस्य अन्तः, भावतः सिद्धः अनन्ता झानपयेवाः, अनन्ता दर्शनपर्यवाः, यावत्-अनन्ता भगुरुलघुकपर्यवाः, नास्ति पुनः तस्य अन्तः, तदेतद् द्रव्यतः सिद्धः सान्तः, क्षेत्रतः सिद्धः सान्तः, कालतः सिद्धोऽनन्तः, भावतः सिद्धोऽनन्तः-अनु.
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