Book Title: Yuktyanushasanam
Author(s): Vidyanandacharya, Indralal Pandit, Shreelal Pandit
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti

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Page 13
________________ ( ४ ) भट्टाकलंक - श्रीपाल - पात्र केसरिणां गुणाः । विदुषां हृदयारूढा हारायन्तेऽतिनिर्मलाः ॥ ४९ ॥ इससे मालूम होता हैं कि वि० सं० ८९५ के लगभग विद्यानन्द स्वामीकी अच्छी ख्याति हो चुकी थी । 1 भट्टाकलंक, विद्यानन्द, प्रभाचन्द्र, माणिक्यनन्दि, आदि सब समकालीन विद्वान् थे । इनमें सबसे पहले अकलङकदेव हैं। क्योंकि इनके किसी भी ग्रन्थ में विद्यानन्द आदिका उल्लेख नहीं है । किन्तु प्रभाचन्द्रने न्याय कुमुदचन्द्रोदय में लिखा है कि मैने अकलङ्कदेवके चरणोंसे बोध प्राप्त किया, साथ ही उन्होंने विद्यानन्दका भी उल्लेख किया हैं । इससे अकलंक और विद्यान - न्दको उनका पूर्ववर्ती मानना चाहिए। इसके सिवाय माणिक्यनन्दि भी उनसे पूर्ववर्ती है । क्योंकि उनका प्रमेयकमलमार्तण्ड माणिक्यनन्दिके परीक्षामुख नामक ग्रन्थका ही भाग्य है । परन्तु माणिक्यनन्दी, अकलंक और विद्यानन्दका स्मरण करते हैं, अतएव वे उनसे पछिके हैं। इस तरह हम इन आचार्योंका क्रम इस तरह मानते हैं - १ अकलंक, २ विद्यानन्द, ३ माणिक्यनन्दि और ४ प्रभाचन्द्र । ये सभी अपने समय के महान् तार्किक विद्वान थे । मल्लिषेण प्रशास्तिसे मालूम होता है कि भट्टाकलंकदेव राष्ट्रकूट (राठौर) राजा साहसतुङ्गकी सभा में गये थे । साहसतुंगका दूसरा नाम कृष्णराज था। डा० भाण्डारकरने अनेक प्रमाणोंसे इसका राज्यकाल वि० सं०८१० से ८३२ तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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