Book Title: Yuktyanushasanam
Author(s): Vidyanandacharya, Indralal Pandit, Shreelal Pandit
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti

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Page 11
________________ समझमें उस समय तक नन्दि, सेन, देव और सिंह इन चार संघोंका अस्तित्व ही न था। मंगराज नामक एक कर्नाटककबिका शक संवत १३५५ (वि० सं० १४९०) का एक विस्तृत शिला लेख मिला है जिसमें स्पष्ट शब्दोंमें लिखा है कि भगवान् अकलङ्कभट्टके स्वर्ग जानेके बाद उनकी परम्पराके मु. नियोंमें ये चार संघभेद हुए । और यह ठीक भी मालूम होता है । क्योंकि अकलंकदेवके समय तकके किसी भी ग्रन्थकर्ता के ग्रन्थमें इन संघोंका उल्लेख नहीं पाया जाता। जान पडता है, इनके 'नन्द्यन्त, नामसे ही ये नन्दिसंघके आचार्य समझ लिये गये हैं। १ विद्यानन्द स्वामीने अपने 'अष्टसहस्री, ग्रन्थमें भर्तृहरिके 'वाक्यपदीय' ग्रन्थका निम्नलिखित श्लोक उद्धत किया है:-- .. न सोऽस्ति प्रत्ययो लोके यः शब्दानुगमाहते। अनुविद्धमिवाभाति सर्व शब्ने प्रतिष्ठितम् ॥ .: चीन देशका सुप्रसिद्ध यात्री हुएनसंग वि० सं० ६८६ में भारत भ्रमण करने आया था और ७०२ तक इस देशमें रहा था। उसने अपनी यात्रा-पुस्तकमें लिखा है कि इससमय व्याकरण शास्त्रमें भर्तृहरि बहुत प्रसिद्ध विद्वान है। इससे मालूम होता है कि भर्तृहरि वि० सं० ७०. के लगभग जीवित थे और विद्यानन्द उनसे पीछे हुए हैं। २ प्रसिद्ध दार्शनिक कुमारिलभट्टने अपने श्लोकवार्तिक नामक ग्रन्थमें अलंकदेवकी अष्टशतीके वाक्योंको लेकर उनपर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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