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अर्थात् भाषा का वह प्रयोग, जिसमें धर्म का अतिक्रमण न हो, विनय कहलाता है । टीकाकार ने कहा है
बाच्या ।
विनथं शुद्धप्रयोगं विनीयतेऽनेन कर्मेति कृत्वा ।
अर्थात् भाषा के शुद्ध प्रयोग को विनय कहा है । असत्य और सत्यमृषा भाषा सर्वथा वर्जनीय है, तथा सत्य और असत्यमृषा भाषा, जो बुद्धों के द्वारा अनाचीर्ण है वह वर्जनीय है । असत्यामृषा ( व्यवहार भाषा ) के बारह प्रकार है उनमें दसवां प्रकार हैसंशय करणी । ' जो शाश्वत मोक्ष को भग्नकरे उस असत्यामृषा भाषा और सत्य भापा का भी धीर पुरुष प्रयोग न करे । शीलांकाचार्य ने कहा है ।
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- हा० टी० प २१३
तंत्र मृषा सत्यामृषा च साधुनां तावन्न वाच्या, सत्यापि या कर्कशादिगुणोपेता सा न
अर्थात् मृषा और सत्यमृषा भाषामुनि के लिए सर्वथा अवाच्य है । विशेषणयुक्त सत्य भाषा भी उसे नहीं बोलनी चाहिए ।
— आया • ४ । १० टीका
कर्कश आदि
सत्य भाषा का चौथा प्रकार रूप सत्य है - ( पण्ण० प० ११ ) जैसे प्रव्रजित रूपधारी को प्रव्रजित कहना 'रूप- सत्य - सत्यभाषा है । साधु नाम या गोत्र से आमंत्रित करे । दूसरे के लिए किये गये अथवा किये जा रहे सावद्य व्यापार को जानकर मुनि सावद्य वचन न बोले । छोटे या बड़े किसी भी जीव की घात करने वाली भाषा मुनि के लिए अवाच्य है । जिस भाषा के प्रयोग से महान् भूतोपघात हो उसे गुरुभूतोषघातिकी भाषा कहा जा सकता है ।
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प्राचीनकाल में व्यक्ति के दो नाम होते थे— गोत्र नाम और व्यक्तिगत नाम । व्यक्ति को इन दोनों नामों से सम्बोधित किया जाता था । जैसे भगवान महावीर के ज्येष्ठ शिष्य का नाम इन्द्रभूति था और आगमों में गौतम - इस गोत्रज नाम से प्रसिद्ध है । वायु को पुरुष लिङ्ग की अपेक्षा वात और स्त्रीलिङ्ग की अपेक्षा वातुली कहना - जनपद सत्य और व्यवहार सत्य भाषा की दृष्टि से यह सही है । वास्तव में साधु वह होता है जो निर्वाण - साधक - योग की साधना करे । अगस्त्यसिंह चूर्णि व जिनदास चूर्णि में अवधारिणी का अर्थ शंकित भाषा अर्थात् संदिग्ध वस्तु के बारे में असदिग्ध वचन बोलना किया है ।
प्रज्ञापना पद १३ के टीकाकार ने कहा है- "लेश्या परिणाम योग का परिणाम रूप है । क्योंकि 'योग परिणामो लेश्या" ऐसा शास्त्र का वचन है । अतः लेश्या परिणाम के बाद योग परिणाम कहा है । संसारी जीवों को योग का परिणाम होने के बाद उपयोग का परिणाम होता है अतः योग परिणाम के बाद उपयोग परिणाम कहा है ।
१. पण्ण० पद ११ । १६५ ।
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