Book Title: Vedang Prakash Author(s): Dayanand Sarasvati Swami Publisher: Dayanand Sarasvati Swami View full book textPage 8
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - सौवरः॥ नाता । इसलिये जो बातें वहां नहीं लिखों वे यहां प्रसिद्ध की हैं। तथा गणना से भी व्याकरण तीसरा वेदाङ्ग है इसलिये पाणिनि जी महाराज ने सब कुछ अच्छा डी किया है। जो इस सूत्र का प्रयोजन और इस पर प्रश्नोत्तर लिखे है सो सब महाभाष्य में स्पष्ट कर के सौ सूत्र पर लिखे हैं *i.॥ ८-एकश्रुति दूरात्सम्बुद्धौ ॥ अ० ॥ १।२ । ३३॥ दूर से अच्छे प्रकार बल से बुलाने अर्थ में उदात्त अनुदात्त और स्वरित दून तीनों खरी का एकति अर्थात् एकतार श्रवण हो पृथक २ सुनने में न आवें ऐसा उच्चारण करना चाहिये । जैसे । आगक भो माणवक देवदास ३ । यहां उदात्तानुदात्तस्वरित का पृथक् २ श्रवण नहीं होता। दूरात् ग्रहण इसलिये है कि । आगच्छ भो भवदेव । यहां उदात्त अनुदात्त और स्वरितां का अलग २ (उच्चारण होता है ॥८॥ ९-उदात्तादनुदात्तस्य स्वरितः ॥ अ०॥८।४।६६ ॥ सब स्वरप्रकरण में यह सामान्य नियम समझना चाहिये कि जो उदात्त से 'परे अनुदात्त हो तो उस को स्वरित हो जाता है । जैसे । ऋतेन । यहां (ते ) उदात्त है उस से परे नकार अनुदात को स्वरित हो जाता है । ऋतेन । तथा। 'गाग्य':। यहां गा उदात्त है और (ग्य) अनुदात्त था उस को (ग्य') स्वरित हो जाता है। इसी प्रकार उदात्त से परे जहां २ स्वरित आता है वहां २ सर्वत्र असंख्य शब्दों में इसौ सूत्र से अनुदात्त को स्वरित जानना चाहिये। और जहां उदात्त से परे अनेक अनुदात्त हों वहां एक को स्वरित औरी को जो होना चाहिये सो आगे लिखेंगे । उदात्त से परे जो अनुदात्त उस से परे उदात्त वा स्वरित होने में विशेष इतना है कि-॥2॥ १०-नोदात्तस्वरितोदयमगार्यकाश्यपगालवानाम् ॥ अ०॥८।४।६७॥ उदात्त से परे जिस अनुदात को स्वरितविधान किया है यदि उस से परे * (तस्यादित.) इस सूत्र के व्याख्यान में काशिकाकार जयादित्य और भटोजिदीक्षित धादि लोगों ने लिखा है कि इस सूत्र में हुस्वग्रहण शास्त्रविरुद्ध है सो यह केवल उन को भूल है क्योंकि जो हुस्वग्रहण का कुछ प्रयोजन नहीं होता तो महाभाध्यकार अवश्य प्रसिद्ध कर देते उन्हों ने तो जो इस में सन्देह हो सकता है उस का समाधान किया है कि अईहस्व प्राब्द के व्यागे मात्रच् प्रत्यय का लोप जानो जिस से दीर्घ तत स्वरित में भी उदात्त का विभाग हो जावे । हस्वस्थाई मई हस्वम् । एक मात्रा का हस्त्र है उस की व्याधी मावा जो प्यादि में है वह उदात्त और शेष दस से परे सब अनुदात्त है यह बात इस (पर्वहस्व ) के ग्रहण हो से जानी गई। For Private And Personal Use OnlyPage Navigation
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