Book Title: Vedang Prakash
Author(s): Dayanand Sarasvati Swami
Publisher: Dayanand Sarasvati Swami

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Page 7
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सौवरः॥ है । जो उदात्त स्वरहै । उस का कोई चिन्ह नहीं होता किन्तु बहुधा खरित वा अनुदात्त से पूर्व ही उदात्त रहता है। अनुदात्त वर्ण के नीचे जैसा ( क ) यह तिळ चिन्ह किया जाता है। और स्वरित के ऊपर (क) ऐसा खड़ा चिन्ह किया जाता है। दो वस्तु को मिला के जो बनता है उस का तीसरा नाम रखते हैं। जैसे श्वेत और काला ये रङ्ग अलग २ होते हैं परन्तु जो इन दोनों को मिलाने से उत्पन्न होता है उस को (कल्माष ) खाखी वा आसमानी कहते हैं इसी प्रकार यहां भी उदाप्त और अनुदात्तगुण पृथक् २ हैं परन्तु जो बूम दोनों को मिलाने से उत्पन्न हो उस को स्वरित कहते हैं ॥ ६ ॥ ७-तस्यादित उदात्तमर्द्धहस्वम् । अ०॥ १।२ । ३२ ॥ जो पूर्व सूत्र में स्वरित विधान किया है उस के तीन भेद होते हैं। स्वस्त्ररित, दीर्घखरित और प्लतस्वरित । सो इन स्वरित की आदि में आधी मात्रा उदात्त होती और सब अनुदात्त रहती हैं जैसे । कं। कन्या । शक्तिके'३ शक्तिके। यहां इखदीर्घ और प्लत तीनों क्रम से स्वरित हुए हैं । इस सूत्र में इस्त्र के कहने से यह सन्देह होता है कि दीर्घस्वरित और प्लतखरित में उदात्त का विभाग न होना चाहिये क्योंकि इस्वसंज्ञा से दीर्घ प्लतसंज्ञा भित्रकालिक है। इसीलिये अईहखशब्द के आगे प्रमाण अर्थ में मात्रचप्रत्यय का लोप महाभाष्यकार ने माना है कि इस का अद्धभाग मात्र अर्थात् आदि की आधी मात्रा व दीघ लत किसी में हो उदात्त हो जाती है। इस सूत्र के उपदेश करने में प्रयोजन यह है कि जो मिली हुई चीज होती है उस में नहीं जाना जाता कि कौनसा कितना भाग है। जैसे दूध और जल मिलादें तो यह नहीं विदित होता कि कितना दूध और कितना जल है तथा किधर दूध और किधर जल है इसी प्रकार यहां भी उदात्त और अनुदात्त मिले हुए हैं उसकारण जाना नहीं जाता कि कितना उदात्त और कितना अनुदात्त और किधर उदात्त और किधर अनुदान है । इसलिये सब के मित्र हो के पाणिनि महाराज ने इस सूत्र का उपदेश किया है जिस से ज्ञात होजावे कि इतना उदात्त इतना अनुदात्त तथा इधर उदात्त और इधर अनुदात्त है ( प्रश्न ) नो पाणिनि महाराज सब के ऐसे परम मित्रथे तो इस प्रकार की और बातें क्यों नहीं प्रसिद्ध कौं। जैसे स्थान करण प्रयत्न नादानप्रदान आदि ( उत्तर) जब व्याकरण अष्टाध्यायी बनाई गई थी उस से पूर्व ही शिक्षा आदि कई ग्रन्थ बन चुके थे। जिन में स्थान करण आदि का प्रकार लिखा है क्योंकि शब्द के उच्चारण में जितने साधन हैं वे मनुष्य को प्रथम हो जानने चाहिये । और जो बातें उन ग्रन्थों में लिख चुके थे उन को फिर अष्टाध्यायी में भी लिखते तो पिष्टपेषणदोषवत् पुनरुता दोष समझा - - - For Private And Personal Use Only

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