Book Title: Vaani Vyvahaar Me
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 22
________________ वाणी, व्यवहार में... हो तो बंद हो जाएगा। मैंने एक भाई से कहा था दादर में। वह भाई कहता है, 'दादा को बदनाम कर दूंगा', ऐसा कह रहा था। वह आया तब मैंने कहा, 'बोलो न कुछ।' उसे फिर से कहा, 'बोलो न कछ।' तब उसने तो साफ-साफ कहा, 'यहाँ तक आ रहा है पर बोला नहीं जाता।' ले बोल न?! ये बोलनेवाले आए!! यहाँ तक आ रहा है पर बोला नहीं जाता, मुझे साफ-साफ कहा, इसलिए समझ गया। एक अक्षर भी नहीं बोल सकते, मेरा हिसाब चुक गया है। फिर तेरी बिसात ही क्या है? ३२ वाणी, व्यवहार में... खाते हो। प्रश्नकर्ता : सामनेवाला व्यक्ति उल्टा बोले तब अपने ज्ञान से समाधान रहता है, पर मुख्य सवाल यह रहता है कि हमसे कडवा निकलता है, तो उस समय हम यदि इस वाक्य का आधार लें तो हमें उल्टा लायसेन्स मिल जाता है? ६. वाणी के संयोग, पर-पराधीन प्रश्नकर्ता : आप ऐसा कहते हो कि, 'स्थूल संयोग, सूक्ष्म संयोग, वाणी के संयोग पर हैं और पराधीन हैं।' तो वह समझाइए। दादाश्री : स्थूल संयोग मतलब आपको चलते-फिरते हवा मिलती है, फलाना मिलता है, मामा मिलते हैं, काका मिलते हैं, साँप मिलता है, वे सारे स्थूल संयोग हैं। किसीने बड़ी-बड़ी गालियाँ दी ऐसा भी मिलता है। यानी ये बाहर के संयोग मिलते हैं, वे सारे स्थूल संयोग हैं। सूक्ष्म संयोग मतलब भीतर मन में जरा विचार आते हैं, टेढे आते हैं. उल्टे आते हैं, खराब आते हैं, अच्छे आते हैं अथवा ऐसे विचार आते हैं कि 'अभी एक्सिडेन्ट हो जाएगा तो क्या होगा?' वे सारे सूक्ष्म संयोग। भीतर मन में सब आते ही रहते हैं। और वाणी के संयोग मतलब हम बोलते रहते हैं या कोई बोले और हम सुनें, वे सारे वाणी के संयोग! 'स्थूल संयोग, सूक्ष्म संयोग और वाणी के संयोग पर हैं और पराधीन हैं।' इतना ही वाक्य खुद की समझ में रहता हो, खुद की जागृति में रहता हो तो सामनेवाला व्यक्ति चाहे जो बोले तो भी हमें जरा भी असर नहीं होता। और यह वाक्य कल्पित नहीं है। जो एक्जेक्ट है वह कह रहा हूँ। मैं आपको ऐसा नहीं कहता हूँ कि मेरे शब्दों का मान रखकर चलो। एक्जेक्ट ऐसा ही है। हक़ीक़त आपको समझ में नहीं आने से आप मार दादाश्री : इस वाक्य का आधार ले ही नही सकते न?! उस समय तो आपको प्रतिक्रमण का आधार दिया है। सामनेवाले को दुःख हो जाए वैसा बोला गया हो तो प्रतिक्रमण कर लेना चाहिए। और सामनेवाला चाहे जो बोले, तब वाणी पर है और पराधीन है, इसका स्वीकार किया। इसलिए आपको सामनेवाले से दु:ख रहा ही नहीं न? अब आप खुद उल्टा बोलो, फिर उसका प्रतिक्रमण करो, इसलिए आपके बोल का आपको दुःख नहीं रहा। इसलिए इस प्रकार सारा हल आ जाता है। प्रश्नकर्ता : कई बार नहीं बोलना हो, फिर भी बोल लिया जाता है। फिर पछतावा होता है। दादाश्री : वाणी से जो कुछ बोला जाता है, उसके हम 'ज्ञाता-दृष्टा' हैं। पर जिसे वह दुःख पहुँचाती है, उसका प्रतिक्रमण 'हमें बोलनेवाले' के पास से करवाना पड़ेगा। हमें तो कोई गालियाँ सुनाए तो हम समझें कि यह 'अंबालाल पटेल' को गालियाँ दे रहा है। पुद्गल को गालियाँ दे रहा है। आत्मा को तो जान ही नहीं सकता, पहचान ही नहीं सकता न! इसलिए हम स्वीकार नहीं करते, 'हमें' छूता नहीं है। हम वीतराग रहते हैं। हमें उस पर राग-द्वेष नहीं होता। हमारे, 'ज्ञानी' के प्रयोग कैसे होते हैं कि हरएक क्रिया को 'हम' 'देखते हैं'। इसलिए मैं इस वाणी को रिकॉर्ड कहता हूँ न! यह रिकॉर्ड बोल रहा है उसे देखता रहता हूँ कि 'रिकॉर्ड क्या बज रहा है और क्या नहीं!' और जगत् के लोग तन्मयाकार हो जाते हैं। संपूर्ण निर्तन्मयाकार रहें,

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