Book Title: Vaani Vyvahaar Me
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 35
________________ वाणी, व्यवहार में... ५७ खुद सुधरे नहीं और लोगों को सुधारने गए। उससे लोग उल्टे बिगड़े। सुधारने जाएँ तो बिगड़ेंगे ही। खुद ही बिगड़ा हुआ हो तो क्या हो? खुद को सुधारना सबसे आसान है। हम नहीं सुधरे हों और दूसरे को सुधारने जाएँ, वह मीनिंगलेस है। डाँटने से मनुष्य स्पष्ट नहीं कहता है और कपट करता है। ये सारे कपट डाँटने से ही जगत् में खड़े हुए हैं। डाँटना, वह सबसे बड़ा अहंकार है, पागल अहंकार है। डाँटा हुआ कब काम का कहलाता है? पूर्वग्रह बिना डाँटै वह। किसी जगह पर अच्छी वाणी बोलते होंगे न? या नहीं बोलते हो? कहाँ पर बोलते होंगे? जिसे बॉस माना है, उस बॉस के साथ अच्छी वाणी बोलते हैं और अन्डरहैन्ड को झिड़कते रहते हैं। पूरे दिन 'तूने ऐसा किया, तूने वैसा किया' कहते रहते हैं। तो उसमें पूरी वाणी सब बिगड़ जाती है। अहंकार है इसके पीछे। इस जगत् में कुछ कहा जाए ऐसा नहीं है। जो बोलते हैं, वह अहंकार है। जगत् पूरा नियंत्रणवाला है। १०. पालो - पोसो 'पौधे' इस तरह, बगीचे में... एक बैंक का मैनेजेर कहता है, 'दादाजी, मैं तो कभी भी वाइफ या बेटे या बेटी को एक अक्षर भी नहीं बोला हूँ। चाहे जैसी भूलें करें, चाहे जो करते हों, पर मैं नहीं बोलता हूँ।' वह ऐसा समझा कि दादाजी, मुझे अच्छी-सी पगड़ी पहनाएँगे! वह क्या आशा रख रहा था, समझ में आया न?! और मुझे उस पर बहुत गुस्सा आया कि आपको किसने बैंक का मैनेजर बनाया है? आपको बेटी-बेटे सँभालने भी नहीं आते और पत्नी को भी सँभालकर रखना नहीं आता ! तो वह तो घबरा गया बेचारा। पर मैंने उसे कहा, 'आप अंतिम प्रकार के बेकार मनुष्य हो। इस दुनिया में किसी काम के आप नहीं हो।' वह व्यक्ति तो मन में समझा कि मैं ऐसा कहूँगा तो ये 'दादा' मुझे बड़ा इनाम दे देंगे। अरे पागल, इसका इनाम होता होगा? बेटा उल्टा कर रहा हो, तब उसे हमें 'क्यों ऐसा किया? अब ऐसा मत करना।' ऐसा नाटकीय बोलना वाणी, व्यवहार में... चाहिए। नहीं तो बेटा ऐसा ही समझेगा कि मैं जो कुछ करता हूँ वह करेक्ट ही है। क्योंकि पिताजी ने एक्सेप्ट किया है। कई लोग बच्चों से कहते हैं, 'तू मेरा कहना नहीं मानता है।' मैंने कहा, 'आपकी वाणी पसंद नहीं है उसे। पसंद हो तो असर हो ही जाता है।' और वह पापा कहता है, 'तू मेरा कहना नहीं मानता है।' अरे मुए, पापा होना तुझे आया नहीं। इस कलियुग में दशा तो देखो लोगों की! नहीं तो सत्युग में कैसे फादर और मदर थे! एक व्यक्ति मुझे उन्नीस सौ बावन में कह रहा था कि 'यह गवर्नमेन्ट खराब है और जानी ही चाहिए।' ऐसा उन्नीस सौ बावन से उन्नीस सौ बासठ तक बोलता रहा। इसलिए फिर मैंने उसे कहा कि, 'रोज आप मुझे यह बात करते हो, पर वहाँ कुछ बदलाव होता है? यह आपका बोला हुआ वहाँ फला है क्या?' तब वह कहता है, 'नहीं। वह नहीं फला।' तब मैंने कहा, 'तो किसलिए गाते रहते हो? आपसे तो रेडियो अच्छा।' अपना बोला हुआ नहीं फलता हो तो हमें चुप हो जाना चाहिए। हम मूर्ख हैं, हमें बोलना नहीं आता है, इसलिए चुप हो जाना चाहिए। अपना बोला हुआ फलता नहीं और उल्टे अपना मन बिगड़ता है, अपना आत्मा बिगड़ता है। ऐसा कौन करेगा फिर? प्रश्नकर्ता : बेटा बाप का नहीं माने तो क्या करना चाहिए? दादाश्री : 'अपनी भूल है' ऐसा मानकर छोड़ देना चाहिए! अपनी भूल हो, तब ही नहीं मानेगा न! बाप होना आता हो, उसका बेटा नहीं माने, ऐसा होता होगा?! पर बाप होना आता ही नहीं न! प्रश्नकर्ता : एक बार फादर हो गए फिर क्या पिल्ले छोड़ेंगे? दादाश्री : छोड़ते होंगे? पिल्ले तो पूरी ज़िन्दगी डॉग और डॉगिन को, दोनों को देखते ही रहते हैं, कि ये भौंक रहा है और ये (डॉगिन) काटती रहती है। डॉग भौंके बिना रहता नहीं है। पर अंत में दोष उस डॉग का निकलता है। बच्चे अपनी माँ की तरफदारी करते हैं। इसलिए मैंने एक

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