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दोहा -- पुदगल परिनामी दरन, सदा परिनमै सोय ।
याते पुदगल करमको, पुदगल कर्त्ता होय ॥ २० ॥ अडिल छंद --ज्ञानवन्त को भोग निर्जरा हेतु है । प्रज्ञानीको भोग बंध फल देतु है । यह अचरज की बात हिये नहिं आवही । वू कोऊ शिष्य गुरू समुझावही ॥ २१ ॥
सवैया इकतीसा - दया दान पूजादिक विषय कषायादिक दोहू कर्म भोग पैदुहूको एक खेतु है । ज्ञानीमृढ करम करत दीसे एकसे पै, परिनाम भेद न्यारो २ फल देतु है ॥ ज्ञान वन्त करनी करें पें उदासीन रूप, ममता न धरै ताते निजरा को हेतु है । वहे करतूति मूढ करै पै मगन रूप, अंध भयो ममता सो बंध फल लेतु है ।। २२ ।।
छप्पय छन्द--ज्यों माटीमहि कलस, होनकी शक्ति ध्रुव | दंड चक्र चीवर कुलाल बाहिज निमित्त हुव ॥ त्यो पुदंगल परवातु, पुंज बरगना भेष धरि । ज्ञानी बरनादिक सरूप विचरंत विविध परि । वाहिज निमित्त वहिरातमा, हि संसै अज्ञान मति । जगमांहि अहंकृत भावसों, करम रूप व्है परिनमति ॥ २३ ॥
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सवैया तेईसा - जे न करें नयपक्ष विवाद, धरै न विषाद अलीक न भाखे । जे उदद्वेग तजै घट अन्तर, शीतलभाव निरन्तर राखै ॥ जेन गुनी गुन भेद विचारत, आकुलता मनकी सब नाखे । ते जगमें घरि आतम ध्यान अखंडित ज्ञान सुधारस चाखै ॥ २४ ॥
सवैया इकतीसा --विवहार दृष्टि सो विलोकत बँध्यो सो दीसे, निहचे निहारत न बांध्यो यह किनही । एकपक्ष वंध्य
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