Book Title: Samaysar Natak
Author(s): Banarsidas Pandit
Publisher: Banarsidas Pandit
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( ९४ )
सवैया तेईसा - जैसे काहू नगरके वासी द्वे पुरुष भूले, तामें एक नर सुष्ट एक दुष्ट उरको । दोउ फिरे पुरके समीप परे कुवटमें, काहू ओर पंथिककों पृछे पंथपुरको ॥ सोतो कहे तुह्मारो नगर हे तुमारे ढिग, मारग दिखावे समुझावे खोज पुरको । एते पर सुष्ट पहिचाने में न माने दुष्ट, हिरदे प्रवान तैसे उपदेश गुरुको ॥ ३० ॥
सवैया इकतीसा - जैसे काहू जंगल में पावसको समो पाई अपने सुभाई महा मेघ वरषतु है । आमल कषाय कटु तीन मधुर बार, तैसो रस वाढें जहां जैसो दरषतु है ॥ तैसो ज्ञान वंत नर ज्ञानको बखान करे, रसको उमाहो है न काहू परपतु है । वहे धुनि सुनि कोउ गह कोउ रहे, सोई, काहू को विषाद होई कोउ हरषतु है ॥ ३१ ॥
दोहा - गुरु उपदेश कहा करे, दुराराधि संसार |
वसे सदा जाके उदर, जीव पंच परकार ॥ ३२ ॥ डूंघा प्रभु घूंघा चतुर, सूंघा रोचक शुद्ध । उघा दुरबुद्धी विकल, घूंघा घोर अबुद्ध ॥ ३३ ॥ जाकी परम दशाविषे, करम कलंक न होइ । डूंघा अगम अगाध पद, वचन अगोचर सोइ ॥ ३४ ॥ जे उदास व्है जगतसों, गहे परम रस पेम । सो चूंघा गुरुके बचन, चूधे बालक जेम ॥ ३५ ॥ जो सुबचन रुचिसों सुन, हिए दुष्टता नांहि । परमारथ समुझे नही, सो संघा जगमांहि ॥ ३६ ॥ जाकों विकथा हित लगे, आगम अंग अनिष्ट । सो उंघा विषई विकल, दुष्ट रिष्ट पापिष्ट || ३७ ॥

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