Book Title: Samaysar Natak
Author(s): Banarsidas Pandit
Publisher: Banarsidas Pandit
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(५३) जानत जोबत जोई । देह प्रमान पे देहसुँ दुसरो, देह अचेतन चेतन साई ॥ देह धरप्रभु देहसँ भिन्न, रहे परछन्न लखे नहि कोई । लक्षन वेदि विचक्षन बूझत, अक्षीनसों परतक्ष न होई ॥ ७४ ॥
सवैया तेईसा-दह अचेतन प्रेत दरी रज, रेतभरी मल खेतकी क्यारी । व्याधि की पाट अराधिकी आट उपाधि की जोट समाधिसों न्यारी ॥ रेजिय दह करे सुख हानि इते परि तोहि तु लागत प्यारी । बेहतु तोहि तगि निदान पि, हिल जे क्यु न दहकि यारी ॥ ७५ ॥ दोहा-मुनु प्रानी सदगुरु कहै, देह खेहकी खानि ।
धरै सहज दुख दोषकों, करें मोक्ष की हानि ॥ ७६ ॥ सवैया इक्तीला-रेतकीसी गढ़ी किधों मही है मसान के. सी, अंदर अंधेरी जैसी कंदराह ललकी । ऊपरकी चमक दन कपट भवनकी, धोख लागे भली जैसी कली हे कलेलकी ॥
औगुनकी ओंडी महा भोंडी मोहकी कनोंडी, मायाकी मसूरतिहे मरसिंह नेलकी । एली देह याहिके सनेह याकी संगतिसों, व्है रही हमारी मति कोल केसे वैलकी ॥७॥ ___ सर्वेया इकतीसा-ठोर टार रकतके कुंड केसनिके झंड, हाइनिसों भरी जैसे थरी है जुरेलकी । थोरे से पकाके लगे ऐसे फटजाय मानो,कागदकी पुरी निधों चादरहे बैल की ॥ सचे भ्रमा वानि ठानि मुद्रनिसों पहिचानि,करै सुख हानि अरुखानि बदफैलकी। ऐसी देह वाहिके सनेह यानी संगतिसों, व्हरही हमारी मति कोल केसे चलकी ॥ ७ ॥
सवैयाइकतीसा-पाटीबंधे लोचनसा संकचे दबोचनिसों,

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