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माधि सोइ शिवरूप, और दौर धूप पुदगल परछांहि है ॥ ४३ ॥
सवैया तेईसा - मोक्षरूप सदा चिनमूरति बंधमई करतूतिकही है। जावतकाल नसै वह चेतन, तावत सो रसरीति गही है ॥ श्रातम को अनुभव जबलौं, तबलों शिवरूप दसा नही है। अंध भयो करनी जब ठानत, बंध विथा तब फैलि रही है ॥ ४४ ॥
सोरठा - अंतर दृष्टि लखाउ, अरु सरूपकोमाचरण |
ए परमातम भाउ, शिवकारन एई सदा ॥ ४५ ॥ करम शुभाशुभदोई, पुद्गलपिंडविभावमल ।
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इनसों मुगति न होइ नांही केवल पाइए ॥ ४६ ॥ सवैया इकतीसा - कोउ शिष्य कहै स्वामी अशुभ क्रिया शुद्ध शुभ क्रिया शुद्ध तुम ऐसी क्यों न चरनी। गुरु कहै .: जवलों क्रियाको परिणाम रहे, तबलों चपल उपयोग योग धरनी । धिरता न चात्रै तोलों शुद्ध अनुभौ न होइ, यातेदोऊ क्रिया मोपपंथ की कतरनी । बंध की करैया दोउ दुहू में न भली कोऊ, बाधक विचार में निषिद्ध कीनी करनी ॥ ४७ ॥
सवैया इकतीसा - मुक्ति के साधककों वाधक करम सब, आतमा अनादि को करम मांहि लुक्यो है । एते परि कहै जो कि पाप चुरो पुराय भलो, सोइ महामूढ मोच मारगसों चुक्यो है ॥ सम्यक सुभाव लिये हिये में प्रगव्यो ज्ञान, उ र उमँग चल्यो काहूपे न रुक्यो है । आरसी सो उज्वल वनारसी कहत आए, कारन सरूप के कारजकों दुक्यो है४=
सवैया इकतीसा --जोलों अष्टकर्म को विनास नाहीं सर्वथा टोलों अंतरातमा में धारा दोई वरनी। एक ज्ञानधारा एक