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ज्योतिअंग, चित्रांग, चित्ररस, मणिअंग, गेहाकार, अनग्न कल्पवृक्ष उनकी आवश्यकताओं को पूरा करते। यह निहायत 'अकर्म युग' था।
काल परिवर्तन ध्रुव सत्य है तीसरे काल चक्र से कल्पवृक्ष युगलों की आवश्यकताओं की पूर्ति में कार्पण्य करने लगे। कुछ अभाव की स्थिति बनने लगी। स्वत्वहरण, छीना-झपटी, अतिक्रमण आदि दुर्बल वृत्तियों का विकास होने लगा। युगल व्यवस्था के लिए चिंतित हुए और अभाव की पूर्ति हेतु 'कुलकर' व्यवस्था का जन्म हुआ। श्वेताम्बर जैन ग्रंथों में सात कुलकरों-विमल वाहन, चाक्षुषमान्, यशस्वी, अमिचंद्र, प्रसेनजित, मरूदेव और नाभि का नामोल्लेख किया गया है। ऋषभायण में इनका समुचित वर्णन है किंतु दिगम्बर परंपरा में चौदह कुलकरों की मान्यता है ।(9) 'नाभि' को अंतिम कुलकर दोनों ने माना है। सभी 'कुलकरों' ने 'कुल' व्यवस्था को सुचारू रूप से संचालित करने हेतु 'दण्डनीति' व्यवस्था विकसित की जिससे समाज में 'हाकार', 'माकार' एवं धिक्कार दण्डनीति समयानुक्रम से विकसित होती गयी।
द्वितीय सर्ग 'ऋषभावतार' से संबंधित है। प्रकृति दिव्य पुरूषों के अवतार की सूचना किसी न किसी रूप में देती ही है। माँ मरूदेवा का 'स्वप्न' इस संकेत का वाहक है। समय पर माँ मरूदेवा की कुक्षि से 'ऋषभ' और 'सुमंगला' का युगल रूप में जन्म हुआ। कवि की अवतारवाद की धारणा ऋषभ के अवतार से पुष्ट होती है। इधर काल अनुक्रम में 'अवसर्पिणी' का प्रभाव उत्तरोत्तर बढ़ रहा था। असमय काल अपनी बाँहे फैला रहा था। ताल के फल गिरने से नर बालक की अकाल मृत्यु युगलों के लिए बहुत पीड़ादायक थी क्योंकि वे कालमृत्यु से परिचित थे, अकाल मृत्यु से नहीं।
समय के साथ-साथ ऋषभ, सुमंगला युवा हुए। युगल परम्परा के अनुसार प्रारंभ में ये भाई बहन के रूप में होते थे, संयममय जीवन जीते थे, यौवनकाल में इनका रूपान्तरण पति-पत्नी के रूप में हो जाना था। उधर सुनन्दा जिसका युगल साथी असमय में ही मृत्यु का वरण कर लिया था, उसका एवम् सुमंगला का पाणिग्रहण संस्कार ऋषभ के साथ संपन्न हुआ। यहीं से समाज में बहुविवाह अथवा बहुपत्नीवाद परंपरा का जन्म हुआ। कालान्तर में सुमंगला