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2) पता नहीं क्यों आज अहेतुक, 'हर्ष - वीचि' उत्ताल हुई ? पृ. 34. उक्त उदाहरण में हर्ष (उपमेय) भाव पर वीचि (उपमान) का आरोप किया गया है अर्थात् हर्ष रूपी लहरें उत्ताल रूप में तरंगायित होने लगी ।
3) वलि वर्जित वपु, श्यामलतम कच
लोचन - कुवलय विहँस रहे ।
ऋषभ के यौवन का वर्णन है, जिसमें लोचन (उपमेय) पर कुवलय ( उपमान) का आरोप किया गया है अर्थात् ऋषभ के नेत्र कमलवत है। उत्प्रेक्षा :
(6)
जहाँ उपमेय की उपमान रूप में सम्भावना की जाय, वहाँ उत्प्रेक्षा
अलंकार होता है जैसे :
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1)
आत्मा के चिन्मय स्पंदन में, स्फुरित हुआ सहसा उल्लास । देखा सम्मुख भरतेश्वर को, मूर्त हुआ मानो आभास ।। ऋ. पृ. - 214 उक्त उदाहरण में भरत का चिंतन मुखरित हुआ है जिसमें उपमेय ( भरतेश्वर) में उपमान (आत्मा का चिन्मय स्पंदन ) की संभावना की गयी है । यहाँ उत्प्रेक्षा की अभिव्यक्ति सूक्ष्मरूप में की गयी है ।
2)
तरूवासी जग का संप्रवेश नगरी में, मानो सागर का सन्निवेश गगरी में ।
ऋ. पृ. 56 यहाँ सागर (उपमेय) के सन्निवेश की संभावना गगरी ( उपमान) के रूप में की गयी है। अर्थात् वृक्षों की गोद में निवास करने वाले, विस्तृत स्वच्छंद रूप से जीने वाले युगलों का प्रवेश नगर के सीमित दायरे में हुआ ।
अन्य उदाहरण :
3) आगमन तव भूत क्षण को, कर रहा प्रत्यक्ष है ।
हो रहा साक्षात मानो, प्रभु ऋषभ का कक्ष है ।।
.ч.-236.
पवन वेग सा आया मानो, होगा रण का उपसंहार । ऋ. पू. - 261. रस पल्लव इठलाते मानो, थिरक रही मीनाक्षी हो । ऋ. पू. - 148.
4)
5)
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