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अद्भुत संगम है, जिस कारण उनके भाव, विचार एवं अनुभूति में गहनता है। वे लौकिक जगत के महान् पथ प्रदर्शक भी हैं इसलिए ऋषभायण महाकाव्य में आध यात्मिक एवं लौकिक जगत से संबंधित विविध प्रतीकों को स्थान मिला है। प्रकृति के उपादान 'प्रतीक' के विशेष सहचर । पर्वत, नदी, सागर, सरोवर, वृक्ष, पुष्प, आकाश, तारा, सूर्य, चन्द्र, बादल आदि जहाँ अपना आध्यात्मिक अर्थ देते हैं, वहीं लौकिक अर्थ के भी वाहक बनते हैं ।
यदि संसार कामनाओं का पुंज है तो अतिक्रमण व्यक्ति की प्रवृत्ति । 'अतिक्रमण' मर्यादाहीनता का दूसरा नाम है । मानव की अतिक्रमण प्रवृत्ति का निरूपण कवि ने ‘कामवीचि' प्रतीक से किया है । लहरों (वीचि) में उन्माद होता है, प्रवाह होता है । उफान पर ये लहरें तटबंधों को तोड़ देती हैं, अतिक्रमणकारी भी नीति, नियमों को ताक पर रख देता है, ठीक वैसे ही जैसे 'कामी' पुरूष संपूर्ण लज्जा का परित्याग कर देता है :--
'काम वीचि से उद्वेलित जन देता, ज्यों लज्जा को त्याग । ऋ. पृ. 27. एक ही प्रतीक विविध संदर्भों में विविध अर्थ दिशाओं की ओर संकेत करते हैं । यहाँ 'वीचि' प्रतीक से भरत की 'आह्लादकारी कल्पना' की अभिव्यकित हुई है।
भाव वीचि माली में सहसा, एक वीचि का नभ में स्पर्श । ऋ. पू. - 214. व्यक्ति के जीवन में भाव ही मूल है। भावना के अनुरूप ही दृश्य अपना प्रभाव छोड़ते हैं । कवि ने भरत के चिंतन की अभिव्यक्ति, उर्मि, सागर, गागर, सितारा उपमान के द्वारा व्यक्त की है। ये उपमान प्रतीक रूप में अपना अर्थ भी खोलते चलते हैं। पूरी कविता में प्रतीकों के प्रभाव का बहुत ही सहज प्रयोग हुआ है :
आनन्द - उर्मि उत्ताल भाव - सागर में, किसने देखा है सागर को गागर में,
द्रुत गति से होगा विकसित राष्ट्र हमारा, चमकेगा मानव का सौभाग्य - सितारा ।
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ऋ. पृ. 184.