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रत्नो की तेजस्विता 'सूर्य' के प्रतीक के रूप में देखते ही बनती है'रत्न प्रवर मणि और काकिणी, सूर्य सदृश्य तेजस्वी। ऋ.पृ.-165.
'सूर्य' का प्रयोग कवि ने 'सबलता' के लिए और 'बादल' का प्रयोग 'निर्बल जन' के लिए तथा 'धागा' का प्रयोग 'अवरोध' प्रतीक के रूप में कियाहै। युद्ध में भरत की ओर से देवगण मेघमुख को चेतावनी देते हुए युद्ध से विरत कर देते हैं :
मैत्री का दायित्व निभाया, किंतु सूर्य के आगे, बादल कब तक बुन सकता है, अंधकार के धागे। ऋ.पृ.-176.
'सूर्य' एवं 'बादल' से संबंधित अन्य उदाहरण भी दृष्टव्य है :- बादल रवि के रश्मिजाल से, निर्हेतुक टकराया।
ऋ.पृ.-177. - सूरज के सम्मुख कब धन तम ने देखा ?
ऋ.पृ.-179. - उत्सुकता का सूर्य उदित है, चेता प्रमुदित और प्रशांत। ऋ.पृ.-189. - अरी रात! तुम क्यों आओगी? उदित हुआ है भू पर सूर्य। ऋ.पृ.-190. - द्वन्द्व उपस्थित चांद-सूर्य में, यह दोनों हाथों का द्वन्द्व। ऋ.पृ.-197.
उक्त उदाहरण में 'सूर्य', 'बादल', 'तम' और 'चंद्र' का नवीन (प्रयोग) प्रतीक के रूप में प्रयोग हुआ है। यहाँ 'सूर्य', 'महातेज' और 'शक्ति' का प्रतीक है तो बादल अपेक्षाकृत अशक्ति का। तीसरे उदाहरण में 'सूर्य', 'उत्सुकता' के रूप में तथा चौथे उदाहरण में 'पूर्ण प्रकाश' के रूप में उभरा है। सूर्य के साथ चाँद की उपस्थिति 'भाई-भाई' के प्रतीक को मुखर करती है। इस प्रकार पूरे महाकाव्य में 'सूर्य' के साथ अन्य प्रतीक अपना प्रासंगिक अर्थ देते हुए प्रतीत होते हैं।
काव्य में प्रायः पर्वत, निर्झर, मीन, सिंह, चीता, हाथी, मधुकर, मृग, तरू, वानर, कोयल, केका, उद्यान, काँटा आदि का प्रतीकात्मक प्रयोग प्रारंभ से ही होता रहा है। आचार्य महाप्रज्ञ ने आवश्यकतानुसार उक्त प्रतीकों को ऋषभायण महाकाव्यमें परम्परागत एवं नवीन संदर्भो से जोड़ा है जिससे भाव प्रवाह में गहनता आ गयी है, जैसे :
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