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मेवाड़ के जैन चीर गये, अकबर के होश-हवास जाते रहे । राणाजी और वीर भामाशाह अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित होकर जगह जगह आक्रमण करते हुये यवनों द्वारा विजित मेवाड़ को पुनः अपने अधिकार में करने लगे। पं० मावरमल्लजी शर्मा सम्पादक दैनिक हिन्दु संसार ने लिखा है:-"इन घावों में भी भामाशाह की वीरता के हाथ देखने का महाराण को खूब अवसर मिला और उससे वे बड़े प्रसन्न हुये है।" ___..."इसी प्रकार महाराणा अपने प्रवल पराक्रान्त वीरों की सहायतास बरावर आक्रमण करते रहे और संवत् १६४३ तक उन का चित्तोड़ और माण्डलगढ़ को छोड़कर समस्त मेवाड़ पर फिर से अधिकार होगया । इस विजय में महाराणा की साहस प्रधान वीरता के साथ भामाशाह की उदार सहायता और राजपूत सैनिकों का आत्म-चलिदानही मुख्य कारण था । आज भामाशाह नहीं है किन्तु उसकी उदारता का वखान सर्वत्र बड़े गौरव के साथ किया जाता है।"
"प्रायः साढ़े तीनसौ वर्ष होने को आये, भामाशाह के वंशज आज भी भामाशाह के नाम पर सम्मान पा रहे हैं । मेवाड़ राजधानी उदयपुर में भामाशाह के वंशज को पंच पंचायत और अन्य विशेष उपलक्षों में सर्व प्रथम गौरव दिया जाता है। समयके उलट
--श्री ओझाजी ने भी लिखा है -महाराणा. मामाशाह की बड़ी खातिर करता था और वह दिवैर के शाही थाने पर हमला करने के समय भी राजपूतों के साथ था । राजपूताने का इति. पृ. ७४३ ।