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राजपूताने के जैन-चीर साहि आलम का पुत्र गर्जन स्थान (गजनी ) में गर्म रहा था। मालवे का बादशाह होना और मांडू से विजय के लिये निकलना इस बात के स्पष्ट प्रमाण हैं, कि यह शाहि आलम्मक और हमारे . . मंडन मंत्री का आश्रयदाता आलम्मशाह एक ही थे । उपरोक्त शिलालेख के संपादक श्रीयुत राजेंद्रलाल मित्र महोदय का भी मत यही है कि यह शाह आलम्म हुशंगगोरी ही का नाम है । इसका उपनाम अल्पखाँ था और इसी का विद्वानों ने संस्कृत रूप शाहि
आलम बना दिया है । मित्र महोदय ने इस का नाम आलम्भक पढ़ा है और इसे मालवा के अतिरिक्त पोलकेश देश का भी राजा माना है, परंतु यह ठीक नहीं है। मंडन के ग्रन्थों तथा महेश्वर के मान्यमनोहा में इसका नाम स्पष्ट आलमसाह और लिम्मशाहि लिखा है । शिलालेख के बहुत से अक्षर दृटे हुए होने से "म" को
भ" पढ़ लेने के कारण यह भूल हुई है। आलमशाह ( हुशंगगोरी) को पालकेश देश का राजा मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि पालकेश" इस नाम के देश का कहीं भी वर्णन नहीं पाता । यह मुल ठीक पड़च्छेद न कर सकने के कारण हुई है। उन्होंने "मालव- . पालकेशक-नृमें ऐसा पदच्छेद समझ उपरोक्त अर्थ किया है, परंतु वस्तुतः पदच्छेद “मालव-पालकेशक नू' है, जिसका अर्थ "मालवाकीरक्षाकरनेवाले मुसलमान वादशाह के ऐसा होता है। - "उपरोक्त प्रमाणों से स्पष्ट है, कि यह आलम्मसाह दुशंगगोरी जपनाम अल्पखों ही है । हुशंगगोरी अपने पिता दिलावरस्खों की मृत्यु के बाद ई० सन् १४०५ (वि० सं० १४६२) में मालवे के
मालवा