Book Title: Rajputane ke Jain Veer Author(s): Ayodhyaprasad Goyaliya Publisher: Hindi Vidyamandir Dehli Catalog link: https://jainqq.org/explore/010056/1 JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLYPage #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. 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Page #2 -------------------------------------------------------------------------- Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिव जैन वी लेखक अयोध्याप्रसाद गोयलीय Page #4 -------------------------------------------------------------------------- Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजपूताने के जैनवीर (सचित्र, ऐतिहासिक ) लेखक -- योध्याप्रसाद गोयलीय दास' भूमिका लेखक रायबहादुर महामहोपाध्याय पं० गौरीशंकर होराचन्द श्रोका प्रथमावृत्ति प्रकाशक हिन्दी विद्या मन्दिर पहाड़ी धीरज, देहली !! } चैत्र १९९० विक्रम वीरं नि० सं० २४५९ अप्रैल १९३३ ई० -गायादत्त प्रेस, लोथ मारकेट देहली । मूल्य दो रुपया Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R लेखक की रचनायें १ संगठन का विगुल २ दास पुष्पाञ्जली -३ दास कुसमाजली ४ उजलेपोश बदमाश पृ० ३२ ६४ 39 , १६ , ३२ " " ८० ३२ ५ अबलाओं के आँसू ६ विश्वप्रेम और सेवा धर्म७ जैनवीरोंकाइतिहास और हमारापतन १६०,, " ८ मौर्य साम्राज्य के जैन-वीर पृ० १७६ ९ राजपूताने के जैन-वीर १० गुजरात के जैन- वीर ११ दक्षिण के वीर अप्रकाशित " मूल्य एक आना " चार आना " एक आना " एक आना १, चार आना एक आना चार आना 22 93 39 १२ सम्राट् खारवेल १३ अहिंसा और कायरता १४ हमारा उत्थान और पतन "" १५ अग्रवाल जाति का विशाल इतिहास,, उक्त रचनाओं का सर्वाधिकार लेखक के आधीन है हिन्दी विद्या मन्दिर " छह आना दो रुपया 39 पहाड़ी धीरज, देहली। Page #7 -------------------------------------------------------------------------- Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AISE 4 पाप . .. PN . rx.25 MORE: RA PAARCH HALENDARIA ANAND appLANAKA-... - .. -- ६८.... CUSTHANI : AAJN STATURE MAIL PEPE - - A JAAN SS 0 AIL.DIRG FONA PATI .. EPC CE ग HamroPram MES - गुरू यति ज्ञानचन्दजी और उनके शिष्य राजस्थान के अमर लेखक कर्नल जेम्स टॉड Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण --- महात्मा टॉड ने राजस्थान का इतिहास लिखकर . भारत का उपकार किया है । उनको सब जानते हैं, पर जो वास्तव में उसके मूल हैं, जिन्हें कर्नल टॉड ने स्पष्ट रूप में अपना ऐतिहासिक गुरु स्वीकार किया है, जिनके पाण्डित्य की उसने भूरि-भूरि प्रशंसा की है; पर जिन्होंने स्वयं अपने को परिचित और प्रसिद्ध बनाने की कभी चिन्ता नहीं की, जो अद्यावधि हम सब के निकट श्रज्ञात् हैं । और जिनका वास्तव में इतना उपकार हम सब पर है कि उनकी स्मृति में ग्रन्थमाला निकाल कर, पुरातत्त्व विभाग आदि खोल कर भी हम उऋण न हो सकें, जिनका स्मारक हम खड़ा कर सकें तो भी थोड़ा है, और जिनको भूलकर ही हम, उलूक वाहन लक्ष्मी के उपासकों ने अपनी 'कृतज्ञता का परिचय दिया है ? जो लेखक के इस श्रम के स्रोत और इस पुस्तिका के यथार्थ जनक हैं; उन स्वर्गीय राजस्थानीय. यती श्री ज्ञानचन्दजी जैन की पवित्र स्मृति में एक भक्त "दास" द्वारा समर्पित । Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धन्यवाद हिन्दी विद्या मन्दिर के स्थापन में धर्मनिष्ठ महावीरप्रसादजी जैन और आयर्वेदाचार्य भाई मामनचन्द प्रेमी ने अत्यन्त परिश्रम किया है। और निम्न दानी महानुभावों ने इस संस्था के प्रकाशन विभाग में द्रव्य की सहायता दी है, इस कृपा के लिये हम उनके अत्यन्त कृतज्ञ हैं। -व्यवस्थापक .' ५०] श्री० लाला कांशीराम हंसराज ओसवाल, सदर देहली। ५०1" " धमण्डीलाल नन्हेमल कसेरे " । " " कुंजीलाल कुन्दनलाल भाड़वी,नयावाजार: श्री० वाव गिरधरलाल रिटायर्ड पोष्टमास्टर. देहली.। ५०) श्री० लाला मुन्नूमल साहब जौहरी देहली। ५०) जैनसमाज पानीपत मा० ला० रूपचन्द गार्गीय । ३६) श्री० लाला जैनीलाल काराजी चावड़ी बाजार देहली। " चौधरीबलदेवसिंह सर्राफ दरीवाकलां देहली। २४ " बाबू नेमिदास शिमलेवाले लाला अमानतराय निरंजनसिंह कटरा धूलिया । " कबूलसिंह मंगतराय पहाड़ी धीरज देहली। " मालीरामसाँवलदासघण्टेवाले हलवाई है। रखनलाल सुलवानसिंह जौहरी देहली। ' १०. " कुड़ियामल बनारसीदास सूतवाले सदर"। " नाहरसिंह १० ॥ " दौलतराम गार्गीय कटरा धूलिया देहली। " " देशराज करोड़ीमल " १० " " गंगाराम गगनमल " " 5. चन्दुलाल : . देहली। " :शिवनाथराय पहाड़ीधीरज देहली ५) ” बाबू रामचन्द्र जैन बी०ए०" " " उमरावसिंह कटरा धूलिया देहली .. ६) जैनसमाज छपरौली जि०मेरठ मा० ला० मंगतरायजैन। 195 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची पृष्ठ - १५-१६ १७-२८ २९-३४४ विषय भूमिका वक्तव्य गजपूताने के जैन-बीर . . . राजस्थान-परिचय . . . १. मेवाड़ मेवाड-परिचय . . उदयपुर-राज्य . . १. चित्तौड़गढ़ . . २. जैनकीर्तिस्तम्भ . . ३. महावीरस्वामी का मंदिर . ४. जैन मन्दिर . . ५. सतवीसदेवला . . ६. शान्तिनाथ का मन्दिर . ७. उदयपुर . . ८. केशरियानाथ . . .९. ऋषभदेव का मन्दिर । १०..बीजोल्या जैन मन्दिर . ३५-१६८ ३७-६० ३७-६० ३९-४५ ४१ ४१ ४२ ४८५५ ५५-६६ ५६५७ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ L ११. देलवाड़ा के जैनमन्दिर. ५७-५८ १२. केरड़ा ५९-६० मेवाड़गौरव ६१-६५ मेवाड़ के वीर ६६-१६८ १. राणी जयतल्लदेवी. . ६६-६८ २. कर्माशाह . . ६८-७४ ३. आशाशाह की वीरमाता . ७४.७९ ४. भारमल (भामाशाह का घराना) ८० ५. ताराचन्द ८१-८३ ६. भामाशाह ८३-१०० ७. जीवाशाह १०० ८. अक्षयराज ९. संघवी दयालदास . . १०२-११७ १०. कोठारी भीमसी . ११८-१२२ - ११. मेहता अगरचन्द १२३-१२६ (भामाशाह की पुत्री का वंश) सेवक का कर्तव्य (कहानी) १२७-१३५ १२. मेहता देवीचन्द , . १३६-१३७ १३. मेहता शेरसिंह , . १३७-१४३ १४. मेहता गोकुलचन्द : " . १४३-१४४. • १५. मेहता पन्नालाल , . १४४-१४७ १६. मेहताविरूशाह(नाथजीकावंश)१४८. . Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७. मेहता चीलजी . , . १४८ १८. मेहता जालजी ... १४८ १९. मेहता नाथजी . " : १४९ २०. मेहता लक्ष्मीचन्दजी, . २१. मेहताजोरावरसिंहजी, . १५० २२. मेहता जवानसिंहजी, . १५० .२३. मेहता पत्रसिंहजी " . १५२-१५३ .२४. सरूपरया वंश . . १५४-१५६ २५. मेहता सरवणजी . . १५७ (ब्योढ़ीवाला खान्दान) २६. मेहता सरीपतजी , . १५८ २७. मेहता मेघराजजी , , १५८ २८. मेहता भालदासजी " . १५८-१६० २९. मेहता सोमचंद गांधी , १६१-१६४ ३०. सतीदास गांधी . . १६४ राणों केसमकालीन जैनमन्त्री १६५-१६८ . २. मारवाड़ मारवाइ-परिचय ... . १७१-१८२ . १. मिनमाल . , , , १७३ .. २. मांडोर .. . . . १७४ ३. नाडोल . . . . . १७४ ..४. मांगलोद . .. .. . १६९-२३८. Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [<] ५. पोकरन ६. रायपुर - रेनपुर ७. सादड़ी नगर ८. कापरदां ९. वरलाई १०. जसवन्तपुरा ११. ओसिया १२. बाड़मेर १३. पालीनगर १४. सांचारे १५. नाणा १६. वेलार १७. सेवाड़ी १८. वाणेराव १९. वरंकानां २०. साँडेराय २१. कोरटा २२. जालौर २३. केकिय २४. बादलू २५. क्लोवरां २६. सुरपुरा . • " • a D - = · १७५ १७५ E ક્ १७६ ફુદ્ Yo {e E १७९ १७९ १७९ १७९ १८९ ce ૮૦ ce ce १८०. २८१ १८१ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८५ [९] २७. नदसर २८. जसोल . . १८१ २९. नगर . . १८१ ३०. खेड़ ३१. तिवरी ३२. फलौदी . . १८२ मारवाड़ के वीर . . १८३-१९० १.हरिश्चन्द (मण्डोरके प्रतिहारराजा) १८४ २. रजिल , . . १८४ ३. नरमट " . . १८४ ४. नागभट ५. तात , . . ६. भोज ७. यशोवर्द्धन ८. चन्दुक , ९. शीलकः ., . . १०. मोट , १८६ ११. भिलादित्य, . . १८६ १२. कक . . १८६ १३. बाउक . . . १८७ १४. कवक " . . १८७-१९० १५. हरिवर्मन (राठौड़ राजा) , १९१ १६. विदग्धराज , . १९१ १७. मम्मट " १८. धवल . . १९३ १९२ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ १९८ [१०] . १९. बालाप्रसाद : ., १९४ २०. मेहता महाराज (जोधपुर राज- . वंश के जैन-बीर), १९५ २१. , रायचन्द : . १९६ २२. वृद्धभान .. १९७ २३. ,, कृष्णदास १९७ २४. , आसकरण , . १९८ २५. देवीचन्द २६. ., चैनसिंह : २७. " अचलोजी - . १९९ २८. , जयमल्ल , . १९९ २९, नेणसी : २००-२०९ ३०." सुन्दरदास , . २०९ ३१. करमसी('क्षत्राणीकाआदर्श'कहानी)२०५ ३२., बैरंसी " . २१० ३३., संग्रामसिंह , . २११ .३४.., सांवन्तसिंह , . २१२ ३५. राव सुरतराम , . २१३ ३६. मेहता:सवाईरामः ., . २१६ ३७. सरदारमल. . . २१६ . .३८., ज्ञानमल . . २१६ ३९." नवमल: . .. .. . . २१७२१८ ४०. भाना भण्डारी : .. (चौहान वंशीय जैन वीर) २१९-२२२ ४१. रघुनाथ : :. २२२..... Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [११] [??]. ४२. खिमसी ४३. विजयं A ४४. अनुपसिंह ४५. पोमसिंह, • ४६. सूरतराम ४७. गंगाराम :४८. रतनसिंह · ४९. लक्ष्मीचन्द ५०. पृथ्वीराज ५१. वहादुरमल . ५२. किशन मूल १. सगर f २. वोहित्य ३. श्रीकरण : ,, ४. समधर ५. तेजपाल ६ वील्हा ७. कडूवा:: ८. जैसल "3 ९. बच्छराज १०. करमसिंह १.१.. वरसिंह 17 "} ५३. इन्द्रराज सिंघवी .. 31' ३. जागल - चीकानेर यीकानेर - परिचय चच्द्रावनों का उत्थान और पतन "1 a 3. · R २२३ ं ं २२३ २२३ २२४ २२४ २२४ २२५ २२५ २२६ २२६ २२६-२२७ २२८-२३८ २३९-२७० २४१. · २४२-२६९ २४२ २४४ • २४४ २४५. २४६. २४६ २४६ : २४८·:: २४८ .. २४९ २४९ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. नगराज १३. संग्रामसिंह १४. कर्मचन्द ४. जैसलमेर [१२] १५. भागचन्द १६. लक्ष्मीचन्द वीर नारी (कहानी) १७. अमरचन्द्र सुराना जैसलमेर - परिचय साहित्य भण्डार जैसलमेर के वीर ५. मेवाड़ा - अजमेर अजमेर - परिचय अजमेर के वीर ५. सहणपाल ६. नेणा ... ७. दुसाज ८. बीका ... १. मेहता स्वरूपसिंह २. मेहता सालिमसिंह . ९. मंड et : ... 606 &a 1 200 • २८३-३१० २८५-२८७ .२८८-३१० २८८-२८९ १. धनराज सिंघवी २. आभू (मंत्री मंडन का वीर वंश) २९० ३. अभयद ४. बड • ... ... ... · ... • · · · २५० २५० २५१ २६० २६० २६४-२६९ २७० २७१-२८२ . २७३ २७४-२७८ २७९-२८२ २७९-२८० . २८१-२८२ २९१ २९२ २९३ २९४ २९४ २९५ २९६ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१३] १०. चाहड़ ११. बाहड़ १२. देहड़ १३. पद्मसिंह १४. आहलू ६. आबू श्राव परिचय सिंहावलोकन सहायक ग्रन्थ-सूची लोकमम ... ... ... ... १५. पाहू १६. मंडन और उसके प्रन्थ ... ... ८ आबू देलवाड़ा मन्दिर ९. आंबू देलवाड़ा मन्दिर का एक दृश्य ... dee आबू पर्वत के प्रसिद्ध जैन मन्दिर राजस्थान की जैन जन-संख्या ... 0.0 ६. हीरविजयसूरि और अकबर बादशाह ७. जैसलमेर - शान्तिनाथ - मन्दिर चित्र चित्र-सूची १. यति ज्ञानचन्दजी और कर्नल टॉड २. जैन कीर्तिस्तम्भ ३. राणा प्रताप और भामाशाह (तिरंगा) ४. भामाशाह का मृत्यु स्मारक ५. दयालदास का जैनमन्दिर ... ... २९९ २९९ २९९ ३०० ३०० ३०१ ३०१-३१० ३११-३३१ ३१३ ३१४-३३१ ३३२ ३३३-३४४ ३४५-३४६ ३४७-३५५ पृ० ३ ४१ ८९ ९७ २४४ २५८ ૨૦૩ ३१३ ३२९ . Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FOF प्रत्येक सभ्य जाति में वीर पुरुषों का सदा से सम्मानहोताचला आता है और आगे भी होता रहेगा। वीरता किसी जाति । विशेष की सम्पचि नहीं है। भारत में प्रत्येक जाति में वीर पुरुष हुए हैं, परन्तु इतिहास के अभाव में उनमें से अधिकाँश के नाम तक लोग भूल गये हैं । राजपूताना सदा से वीरस्थल रहा है, उस के प्रत्येक भागमें वहाँ की वीर संतानों ने अपने देश व स्वाधीनता की रक्षा के लिये तथा परोपकार की वृत्ति से प्रेरित हो अनेकों बार अपना रक्त बहाया है, जिसकी स्मारक शिलाएँ जगह जगह पर खड़ी हुई हैं, जो उनकी वीर गाथाओं को प्रकट कर रही हैं। जैनधर्म में दया प्रधान होते हुए भी वे लोग अन्य जातियों से पीछे. नहीं रहे हैं । शताब्दियों से राजस्थान में मंत्री आदि उच्च पदों पर बहुधा जैनी रहे हैं और उन्होंने अपने दायित्वपूर्ण पद को निभाते हुए अनेकों कार्य ऐसे किये हैं, जिनसे इस देश की प्राचीन तक्षण कला की उत्तमता की रक्षा हुई है। उन्होंने देश की आपत्ति के समय महान सेवाएँ की हैं, जिनका वर्णन इतिहास में मिलता है। उनमें से अनेकों के चरित्र वो अब तक मिले ही नहीं हैं और जो . मिलते हैं वे भी अपर्ण, जिनका इतिहास पर विशेष प्रभाव नहीं पड़ सकता । इस अवस्था में जो कुछ सामग्री प्राप्त है, उस ही के : पर निर्भर रहना पड़ता है। क्योंकि अब तक जैन जगत् में का अनुराग बहुत कम उत्पन्न हुआ है। जिस प्रकार गुजरात के प्रसिद्ध जैन वीर विद्वान और दानी : Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१५]. मंत्री वस्तुपाल के कई चरित्र ग्रन्थ संस्कृत में मिलते हैं, वैसे राजपताने के जैन-चीरोंके नहीं मिलते, यदि मिलते हैं तो नाममात्रके। राजपताने में यह नियम प्राचीन काल से ही चला आता है कि राजकर्मचारी चाहे जैन हो चाहे ब्राह्मण, तो भी उसको यथा अवसर युद्ध में भाग लेना पड़ता था । इसी से राजपूताने के कई जैन-वीरोंने युद्धके अवसरों पर यथासाध्य अपने प्राणों का उत्सर्ग किया है यह निर्विवाद है। उनके चरित्रों को एक ही स्थल पर संग्रह करना साधारण कार्य नहीं है । इसके लिये पुरातन शिलालेखों एवं प्राचीन पुस्तकों को पढ़कर उनका आशय जानना भी श्रम साध्य कार्य है, जिसका महत्त्व वे ही लोग जानते हैं, जिनको यह कार्य करना पड़ता है। श्री अयोध्याप्रसादजी गोयलीय ने ऋतिपय छपी हुई पस्तकें और कुछ इधर उधर जाकर अप्रकाशित पुस्तकों के आधार पर राजपूताने के कई जैन वीरों के चरित्रों को बटोर कर यह पस्तक तैयार की है। सामग्री का अभाव होने के कारण कई प्रसिद्ध जैन वीरों का उल्लेख ही नहीं हुआ है। तो भी गोयलीयजी का परिश्रम सराहनीय है। उन्होंने राजपताने में जितने भी प्रसिद्ध जिनालय हैं, उनका यथासाध्य वर्णन किया है, जिससे जैन यात्री भी लाम उठा सकेंगे। राजपताना के लिये गोयलीयजी का यह प्रारंभिक कार्य है। कार्य साधारण नहीं है। परन्तु इसमें संदेह नहीं कि उन को परिश्रम भी बहुत करना पड़ा है। यह संग्रह आगे बढ़ने पर शिक्षाप्रद होकर जैन जगत में स्फूर्ति पैदा करेगा और इससे कई अज्ञात् जैन वीरों के चरित्र प्रकाश में आवेंगे। प्रारंभिक कार्य त्रटियों से खाली नहीं होता। गोयलीयजी से भी कई स्थलों पर त्रटियें होना स्वाभाविक है। जिनमें से कुछ का हम यहाँ पर उल्लेख करना आवश्यक समझते हैं । ये त्रुटिये दोष Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१६] दृष्टि से नहीं दिखलाई जाती, प्रत्युत् इस भाव से, कि आगामी: संस्करण में ऐसी त्रुटियें न रहें। __ (क) पृ०८० में भारमल कावड़िया को महाराणा सांगा ने वि० सं० १६१० (६० स०१५५३) में अलवर से बुलवा कर:रण: थंभोर का किलेदार नियत करना लिखा है। परन्तु :महाराणा. साँगा का देहांत वि० सं० १५८४ (ई० स० १५२८) में हो चुका. था। ऐसी दशा में भारमल को वि० सं० १६१० में महाराणाः सांगा का अलवर से बुलाकर रणथंभोर का किलेदार बनाना : इतिहास से विरुद्ध है। (ख) पृ० १९५ में लिखा है कि राठोड़ राव सीहाजी के पुत्र . आस्थानजी ने सं० १२३७ में मारवाड़ आकर परगने मालानी के गांव के खेड़ में अपना राज्य स्थापित किया। प्रथम तो संवत् में ही भूल है. राव सीहाजी का देहांत वि० सं० १३३० में होना. उनके मृत्यु स्मारक लेख से सिद्ध है, जो छप.चुका है। फिर उनके:: पत्र का वि०सं० १२३७ में राज्य पाना क्यों कर संभव हो सकता है ? दूसरा आस्थानजी के लिये परगने मालानी के गांव के खेड़ में राज्य स्थापित करना लिखा । इसका कुछ भी अभिप्राय समझ.. में नहीं आता। यदि इस जगह खेड़ गांव. या प्रदेश.. लिखा जाता, तो ठीक होता और वास्तविक अभिप्राय भी निकल.आता। .. : इस ही प्रकार कहीं कहीं.उद्धृत किये हुए संस्कृत के शिला-; लेखों में भी असावधानी हुई है, जो खटकती हुई है। लेखक ने... कहीं-कहीं धार्मिक प्रवाह में वहकर खींचतान भी की है. इतना.. होते हुए भी पुस्तक उपादेय है । आशा है .प्रत्येक जैनधर्मावलंबी... इस पुस्तक को अपने पुस्तकालय में स्थान देकर लेखक के. उत्साह को बढ़ावेंगे, ताकि इसके आगे के भाग भी:प्रकाशित हो सकें। 4.१३.५-३३. गौरीशंकर हीराचंद ओमा. Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्तव्य। नहीं मिलनकशे ताय शुनदिन दास्ता मेरी । खमोशी गुफ्तग है, जवानी है जयां मेरी ॥ मेरा रोना नहीं, रोना है यह सारे गुलिस्तां का । ' वह गुल हूँ मैं,खिज़ा हर गुलकी है गोया खिजां मेरी॥ . -"इक्रवाल" अल्पवयस्क और अनुभवहीन होने के नाते मुझे इतिहास के सम्बन्ध में अपनी सम्मति प्रकट करने का अधिकार नहीं, तो भी मैं मान्य रवीन्द्रनाथ के शब्दों में कहूँगा कि, "सव देशों के इतिहास एक ही ढङ्ग के होने चाहिये यह कुसंस्कार है । इस कुसंस्कार को छोड़ विना काम नहीं चल सकता । जो आदमी 'रथ चाइल्ड' का जीवन-चरित्र पढ़ चुका है,वह ईसा की जीवनी पढ़ते समय ईसा के हिसाब-किताब का खाता और डायरी तलब कर सकता है और यदि ईसा की जीवनी में उनके हिसाब-किताब का खाता तथा डायरी वह न पावेगा तो, उसे ईसा के प्रति अश्रद्धा होगी। वह कहेगा कि जिसके पास एक पैसे का भी सुभीता न था, उसकी जीवनी कैसी ? ठीक इसी तरह भारतवर्ष के राष्ट्रीय दातर से उसके राजाओं की वंशमाला और जय-पराजयके कागज़ पत्र न पाकर लोग निराश हो जाते हैं और कहने लगते हैं कि Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजपूताने के जैन-चीर "जहाँ राजनीति नहीं, वहाँ इतिहास का क्या ज़िक्र ?" वे सचमुच ही धान के खेत में बैंगन ढूंडने जाते हैं और वहाँ बैंगन न पाकर धान की गिनती अन्न में ही नहीं करते । सब खेतों में एक ही चीज़ नहीं होती, यह समझकर जो लोग स्थान के अनुसार उपयुक्त खेत से उपयुक्त अन्न की आशा करते हैं, वे ही समझदार समझे जाते हैं।" - "यह सर्वश्रा ठीक है. कि आज कल. इतिहास का जो अर्थ किया जाता है (अर्थात् दूसरों के साथ मुकाविला तथा संग्रामों का वर्णन आदि) उस अर्थ में भारतवर्ष का इतिहास नहीं पाया जाता। प्राचीन काल में आर्यावर्त कभी इस प्रकार का देश. न था, जो दूसरों से युद्ध करके अपनी उन्नति करता। भारतीयों की उन्नति की अपनी विशेष रेखा थी। यह निश्चय करने के पूर्व कि भारतवर्ष का कोई इतिहास है या नहीं,हमें यह जानना चाहिये कि भारतवर्ष के इतिहास की कौनसी रेखा है ? उस रेखा का निश्चय करके उस के अनुसार इतिहास लिखा जा सकता है "+l.. - भारतवासी सदा से अध्यात्म-प्रेमी रहे हैं, यही कारण है कि उनके सम्बन्ध में मार-काट, खून-खराबे का वर्णन नहीं मिलता। उन्होंने इस रक्तरंजित पृष्ट के लिखने में आवश्यकता से अधिक उपेक्षा रक्खी है। भारतमें युद्ध न हुए हों, अथवा भारतवासी इस दंगका इतिहास लिखना ही नहीं जानते थे। यह बात नहीं। भारत ___ स्वदेश पृष्ट ३३ । .. .. . " + भारतवर्ष का इतिहास पृ. २.०० Pra Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में महाभारत जैसे मंसार प्रसिद्ध युद्ध और व्यास, वालमीक, तुलसी, जिनसेनाचार्य जैसे इतिहासकार हुये हैं। पर, भारत के युद्धों और विदेशों के युद्धों में पृथ्वी श्राफाश का अन्तर रही है। राज्य लिप्सायलिये मगही मानाओं को पत्रहीना कर देना, बालफ यालिमानों को अनाथ बना देना; मती नारियों को भरी जवानी में वैधव्य का दुःख देना, देशभर में घोर भय फैला देना, भारतवासियों ने पाप समझा। हाँ श्रात्म-रक्षा के लिये, सतीत्व रक्षा के लिये और धर्मबजा के लिये युद्ध अवश्य किये हैं। वह भी उस समय जबफि युद्ध करने के सिवाय और कोई दूसरा उपाय ही नहीं था। भारतवानियों ने युद्ध शान्ति-भंग के लिये नहीं, अपितु शान्तिरता के लिये किये हैं। जो जानि मुम्न मै शान्ति की गोद में निद्रा लेती रही हो, उस भारतवासियों ने कभी छेड़ा होनिधिन्न हदयों में प्रातक पहुँचाया होगमा उदाहरण एक भी नहीं मिलना । इसी प्रकार भारतीय उक्त इतिहासकारों और विदेशीय इतिहासकारों के दृष्टिकोण में भी पर्याप्त अन्तर रहा है। भारतीय मन्थफारों ने कभी अपने साहित्य से किसी देश व जाति को पराधीन एवं प्रतिभा और साहसहीन बनाने की दुरच्छा नहीं की, अपितु जो भी लिग्वा वह प्राणीमात्र की कल्याण-कामना को लंकर लिया । यही कारण है कि आज अनेक भारतीयपंथ संसार की प्रत्येक भाषा में अनवादित होकर पूर्वकालीन भारतीयों की प्रखर प्रतिभा का परिचय दे रहे हैं। जैनधर्म पूर्ण रूपेण श्रात्मा का धर्म है, इसीलिये जैनधर्मानु Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजपताने के जैनचीर याई भी अध्यात्म-प्रेमी रहे हैं । इनके यहाँ षट् द्रव्य (१ जीव, २ पुद्गल, ३ धर्म,४ अधर्म,५ आकाश और ६ काल) का विषद् विवेचन मिलता है । जैन-आचार्यों ने जिस विषय पर भी लिखा है वह अपने ढंग का अनूठा और बेजोड़ है, पर अध्यात्म पर सबसे अधिक लिखा है । जैनाचार्यों ने युद्ध आदि रागात्मक विषयों के वर्णन में हिन्दू-मन्थकारों की अपेक्षा और भी अधिक उदासीनता रक्खी है । पौराणिक काल को जाने दीजिये,अशोक का प्रतिद्वन्दी सम्राट् खारवेल जोकि प्रसिद्ध जैनधर्मी हुअा है,उसके सम्बन्ध में जैनप्रन्थों में एक शब्द भी नहीं मिलता। इसी प्रकार मान्यखेटका राठौड़ वंशी राजा अमोघवर्ष भी जैनी हुआ है और यह प्रसिद्ध अन्यकार जिनसेनाचार्य का शिष्य था, फिर भी स्वयं जिनसेनाचार्य ने अथवा और किसी ने इसके विषय में कुछ नहीं लिखा । ऐसे अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं । यदि इन राजाओं के सम्बन्ध के शिलालेख आदि न मिलते तो आज इतिहास के पृष्ठों में इनका अस्तित्व तक न होता। फिर भी जैनधर्म के शिलालेखों, स्थविरावलियों, पटावलियों और प्रन्थों में भारतवर्ष के इतिहास की सामग्री विखरी हुई . + द्वाश्रयकाव्य, परिशिष्टपर्व, कीर्तिकौमुदी, वसन्तविलास, धर्मा युदय, वस्तुपाल-तेजपाल-प्रशस्ति, सुकृतसंकीर्तन, हग्मीरमद मदन, कुमार विहार-प्रशति, कुमारपाल-चरित्र, प्रभावक-चरित्र, प्रवन्धचिन्तामणि, श्रीतीर्थकल्प, विचारश्रेणी, स्थविरावली, मच्छप्रबन्ध, महामोहपराजय नाटक, कुमुदचन्द्र प्रकरण, प्रबन्धकोष, तीर्यमालाप्रकरण, उपदेशसप्ततिका, गुर्वावलि, महावीर प्रशरित, पंचाशतिप्रबोध सम्बन्ध, सोमसौभाग्यकाव्य, गुणगणरत्नाकरकाव्य, प्रवचनपरीक्षा, जगद्गुरुवान्य, Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्तव्य. . पड़ी है। पर आज हमें इससे सन्तोष नहीं हो सकता । अध्यात्मवाद की जगह अब आधिभौतिकवाद (पुद्गलवाद ) ने लेली है । अतएवं आधिभौतिक वाद का मुकाबिला करने के लिए अथवा आधिभौतिक संसार में इज्जत-श्राबरू से जीने के लिए हमें आधिभौतिकवादियों जैसा इतिहास निर्माण करना ही होगा । यहीसमय का तकाजा है। ___ प्रस्तुत पुस्तक में अधिकांश खून-खराबे और मार-काट का ही वर्णन पढ़ कर पाठक मुझे अशान्त, क्रूर-हृदय, युद्ध-प्रेमी सममेंगे,पर बात इससे बिल्कुल भिन्न है । मैं पूर्णतया शान्ति, अहिंसा और विश्वप्रेम का उपासक हूँ। मैं युद्ध से होने वाले कुपरिणामों से अनभिज्ञ नहीं, युद्ध सभ्य जाति और सभ्य देशों के लिये कलंक है, मैं कभी देश के होनहार बालकों के मस्तिष्क में यद्ध सम्बन्धी संस्कार नहीं भरना चाहता । मेरी अभिलाषा है कि संसार से शस्त्रवाद का नाम ही उठजाय, आत्मिक बल के आगे शारीरिक बल का प्रयोग करना ही लोग भूल जाँय ! पर, यह तभी हो सकता है, जब सबल राष्ट्र बलवती जातियाँ-निर्बल राष्ट्रों-अल्प संख्यक जातियों को हड़प जाने की दुरेच्छा का अन्त करदें। उपदेश तरंगिणी, हरिसौभाग्यकाव्य, श्रीविजयप्रशस्ति काव्य; श्रीभानुचन्दचरित्र, विजयदेवमहात्म्य, दिगविजय महाकाव्य, देवानन्दाभ्युदयकाव्य, झगडुचरित्र, सुवृतसागर, भद्रबाहुचरित्र आदि इन संस्कृत-प्राकृत अन्थों के अतिरिक भाषा के रास भी बहुत से मिलते हैं जो ऐतिहासिक वृत्तान्तों से भरे पड़े हैं । जैसे:-विमलमंत्री का रास, यशोभद्रसूरि रास, कुमारपाल रास, हरिविजय कां रास आदि। - - - - - - - - - - उपदेश तरंगिणागविजय महाकाव्य माइत अन्योक Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ राजपूताने के जैन धीर .. -हमारा धर्म शेर वनकर दूसरों को हड़पाजाने की आज्ञा नहीं देता, परन्तु वह भेड़-वने रहने की शिक्षा का भी विरोधी है। शेर और भेड़:का कभी मेल हो ही नहीं सकता। भेड़ कितनी ही दया समानाधिकार, विश्वप्रेम आदि का रोना रोये, उसका जीवन सुरक्षित रह नहीं सकता। भेड़ जब तक भेड़ बनी रहेगी उसे खाने के लिये संसार में शेर पैदा होते ही रहेंगे । अतः दूसरों को हड़प.जाने के लिये नहीं, अपितु अपनी आत्म-रक्षा के लिये सभी को सजग रहना चाहिये। . . . . . . . . जैनियों पर उनके अहिंसा प्रेमी होने के कारण, अनेक महा परुषों:(१) ने कायरता का दोष लगाया है और अब वह (जैनी) कायर कहलाते कहलाते वास्तव में कायर भी हो गये हैं। उसी कायरता को हटाने के लिये मैंने "जैन वीर-चरितालि" के संकलन करने का प्रयत्न किया है। ताकि जैन समझ सकें कि हमारे पुरखाः चुपचाप: भेड़ों की तरह बध स्थल में नहीं चले जाते थे। ।। ...दूसरों के द्वारा अपनी निन्दा निरन्तर सुनते रहने, से-जातीय इतिहास में अनेक बीभत्स घटनाएँ उपस्थित होती देखी गई हैं । 'महाभारत की कथा में वर्णित है कि, कर्ण को बलहीन करने के लिये उसके सारथी पाण्डव-हितैषी, मद्-नरेश शल्य ने उसकी बहुत निन्दा की थी। दूसरों के मुँह से रात-दिन अपनी निन्दा सुनते रहने से साधारणत: सब.को आत्मग्लानि उपस्थित होती है, लोगों के मन में भ्रान्ति उत्पन्न हो जाती है कि हम अकर्मण्य और हीनशक्ति हैं। ऐसी मान्ति बहुत दिनों तक स्थायी रहने से उन लोगों की बुद्धि नष्ट होने और चरित-बल घटने लगता है। इसी से अपनी जाति की निन्दा सुनना.. पाप अर्थात अवनति जंचक कहा जाता है। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्तव्य २३ बल्कि उन्हें भी आत्म-रक्षा करना आता था । वह भी धर्म और जाति की प्रतिष्ठा बनाये रखने के लिये प्रारणों का तुच्छ मोह छोड़ कर जूझ मरते थे । . जो बन्धु मेरे स्वतंत्र और धार्मिक विचारों से परिचित हैं, संभव है वें मेरी इस "वीर- चरितावलि" में जैन शब्द लगा हुआ देख कर चौके और कहें कि "यह मंजुहवी दीवानंगी कैसी ? " ऐसे महानुभावों से निवेदन है कि जैनी भी संसार के एक अंग हैं, उनका अंग भी यहीं की मिट्टी-पानी से बना है । इनके पुरखाओं ने भी अनेक लोक-हित कार्य किये हैं। पर, दुर्भाग्य से वर्तमान जैन अपने स्वरूप से परिचित नहीं; तभी वह कर्तव्य विमुख हो बैठे हैं। उनका भी इस समय कुछ कर्तव्य हैं, वह भी देश के एक अग हैं । कोई शरीर कितना ही वलशाली क्यों न हो, जयंतक उसका एक भी अंग दूषित रहेगा तब तक वह पूर्ण रूपेण सुखी नहीं बन सकतां । इसी बात को लक्ष करके यह सब लिखा गया है। पर जहाँ तक मैं समझता हूँ मैंने इन निबन्धों में मज़हबी दीवानगी को फटकने तक नहीं दिया है। जैन और जैनेतरं दोनों ही इसका कसा उपयोग कर सकते हैं। बकौल "इक़बाल" साहब' के मैंने इस बात का पूरा ध्यान रखा है : मेरी ज़बाने कलम से किसी का दिल न दुखे । बौद्धों की सत्ता भारत से उठ गई है, बौद्ध भारत में नहीं होने के बराबर हैं, फिर भी उनके सम्बन्ध में थियेटरों, सिनेमाओं समाचार-पत्रों और पुस्तकों द्वारा काकी प्रकाश पड़ता है; किन्तु Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजपूताने के जैन-धीर जैनी भारत में रहते हुये भी उनके सम्बन्ध में कोई कुछ नहीं लिखता, उनके गौरव-प्रतिष्ठाश्रादि को जाने दीजिये, उनके अस्तित्व से भी बहुत कम परिचत हैं। इसके कई कारण हैं । बौद्ध संसार में सबसे अधिक है, बलशाली भी खूब हैं और राज्य सत्ता : भी उनके हाथ में हैं, इस लिये उनकी ओर संसार का ध्यान श्राकर्षित होना ज़रूरी है । इसके विपरीत जेनसमाज राज्य सत्ता खो बैठी है, अपने सहयोगियों-अनुयाइयों को निरन्तर निकालते रहने के कारण अल्प संख्या में अपने जीवन के शेष दिन पूरे कर रही है। उसका स्वयं बाह्य आडम्बरोंके सिवा इस ओर ध्यानही नहीं है, लव ऐसी. मरणोन्मुख साथही चिड़चिड़ीसमाज के सम्बन्ध में कोई क्यों और कैसे लिख सकता है। अपने पास इतिहास के अनेक साधन रहते हुये भी उन्हें कंजूस के धन की तरह अनुपयोगी बना रक्खा है । जैन समाज के. श्रीमान स्वों के प्रलोभन । और जरासी वाह-वाही के लिये करोड़ों रुपया प्रतिवर्ष रथयात्रा, विम्वप्रतिष्ठा, दीक्षा-महोत्सवों में व्यय करते हैं और साहित्यनिर्माण में इस लिये कुछ उत्साह नहीं रखते क्योंकि वह समझते हैं कि इस से परलोक में कोई लाभ नहीं । परलोक और पुण्य के प्रलोभन से किसी भी कार्य के करने का जैनधर्म में निषेध है . और गीता में भी किष्काम-फल की इच्छा न रखते हुये-कार्य करने का उल्लेख है। ... फिरका बन्दी हैं कई और कई जाते हैं। क्या जमाने में पनपने की यही बाते हैं।' a......................... . . Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्तव्य याद करते हैं जो लोग जन्नत की तमन्ना में । इबादत तो नहीं है, इक तरह की वह तिजारत है ॥ - 'अज्ञात' प्रतिष्ठा अथवा पुण्य-धन्ध के लालच को लेकर किसी कार्य के करने में समुचित फल की प्राप्ति नहीं होती । तो भी जो व्यक्ति तिजारत को ध्यान में रखते हुये धर्म कार्य करते हैं; उन्हें ध्यान रखना चाहिये कि साहित्य के प्रचार का जैनधर्म ने सबसे अधिक महत्व माना है। जैनधर्म में कथित आहारदान, श्रपधिदान, अभवदान का फल भोगने के लिये यह आत्मा किसी भी योनि में रहता हुआ अपने किये हुये दानों का फल प्राप्त कर सकता है; पर "ज्ञानदान " का फल पाने के लिये उसे नियम से मनुष्ययोनि में ही आना होगा; क्योंकि मनुष्य के सिवा और कोई जीव इसका उपयोग नहीं कर पाता । श्रतएव जैन समाज के श्रीमानों ! यदि तुम्हें सदैव मनुष्य बनना है-नारकी - पशु नहीं बनना है तो सव आडम्बरों को छोड़ कर ज्ञान-दान करना सीखो, भविष्य सुधारने के लिये उत्तम साहित्य निर्माण करो; अन्यथा बकौल "चकबस्त" साहव - मिटेगा दान भी और प्रावक भी जायेगी । तुम्हारे नाम से दुनियां की शर्म आयेगी ॥ २५ . मैं मन्दिर आदि बनवाने को बुरा नहीं समझता, मैंने स्वयं प्रस्तुत निबन्ध में प्राचीन मन्दिरों का बड़े गर्व से वर्णन किया है; पर इस समय उनकी और अधिक आवश्यकता नहीं । आज Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ राजपूताने के जैन- वीर कितने ही प्राचीन मन्दिर धराशायी हो रहे हैं, अनेक जगह मूर्ति की पूजन प्रचालन करने वाले मनुष्यों की जगह चूहे और नौल रह गये हैं, अनेक विशाल मन्दिर अपने सच्चे उपासकों का अभाव देखकर दहाड़ मारकर रो रहे हैं फिर भी, उनके करुण क्रन्दन ** को सुनते हुये अनावश्यक नये नये मन्दिर बनवाने, प्रतिमायें स्थापित करवाने में क्या लाभ है ? यह हमारे श्रीमानों के अंतरंग बात सिवाय सर्वज्ञदेव के और कौन जान सकता है ? " इतिहास से नीच और कमीन लोगों को मुहब्बत नहीं होती - जिनके पुरखाओं ने कभी कोई आदर्श उपस्थित नहीं किये, वे कभी अपने पुरखाओं को याद नहीं करते । ऐसे ही लोग इतिहास से घृणा करते हैं। पर आश्वर्य तो यह है कि जिनके पुरखाओं-बाप दादों ने अनेक लोकोत्तर कार्य किये वह भी आज इस ओर से उदासीन हैं । 2 लोग कहते हैं. भूतकालीन बातों - गढ़े मुद्दों को उखाड़ने से क्या लाभ ? भूत को छोड़ कर वर्तमान की सुध लेना चाहिये । पर, मेरा विश्वास है कि हरएक क़ौम और देश का, वर्तमान और भविष्य भूत पर ही निर्भर है। जिसका भूत अन्धकार में है उसका वर्तमान और भविष्य कभी उज्ज्वल हो ही नहीं सकता । जिस मकान की नींव दृढ़ नहीं, वह बहुत दिनों तक गगन से बात नहीं कर सकता। इसीलिये भूतकालीन बातें सभी सुनना चाहते बालक बालिकायें, युवा-युवतियाँ, वृद्ध और बुद्धाएँ सभी फुर्सत के वक्त कहानी कहते और सुनते हैं। भूतकालीन बातें "220" 1. . : Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ? - वक्तव्य सुनना मनुष्य की कुंदरती क़ितरत है । अतः जिसके पास अपने यहाँ को भूतकालीन बातें नहीं होतीं वे दूसरों की सुनकर अपना शौक पूरा करते हैं। इसी लिये संसार की प्रत्येक जाति अपना भूतकालीन इतिहास निर्माण करती हैं, ताकि उसके पुत्रों को दूसरों का मुँह देखना न पड़े । क्यों हुी अच्छा ही यदि हमारी समजं भी अपने घर की चीज को बर्तने का प्रयास प्रारम्भ करदे । महात्मा गान्धी भी भूतकालीन हरिश्चन्द्रं जैसी कहानियों से ही प्रभावित होकर मिस्टर से महात्मां हुये हैं । ::: किस अजमत माजी को नं मुहमि संमभो । कोमें जाग उठनी हैं अक्सर इन्हीं अकसानों से ॥ "खाँ" यह मैं मानता हूँ कि प्रस्तुत पुस्तक को कोई भी समझदार व्यक्ति महत्व नहीं दे सकता और वास्तव में महत्व देने योग्य भी नहीं इतिहास और साहित्य की दृष्टि से भी इसमें अनेक भही और मोटी भूलों का रहना सम्भव है। इस एक प्रकार से समस्त राजपुतान के जैन-वीरों का इतिहास भी नहीं कह सकते । इसमें कोटा, बूंदी, जयपुर आदि कई राजपूतानान्तरगत स्थानों का उल्लेख नहीं किया जा सका है। पर, इसमें मेरा तनिक भी दोप नहीं है । रात-दिन परिश्रम करके जितना भी मैं उपलब्ध साहित्य प्राप्त कर सका और गुणियों के जूतों में बैठकर जो भी मैं जान सका, वह सब मैंने प्रस्तुत पृष्ठों में बुखेर देने की चेष्टा की है। साधनाभाव और अनुभवहीनता के कारण जो पुस्तक में त्रुटियाँ रह गई हैं उनका मैं ज़िम्मेदार नहीं । हाँ, प्रमाद और पक्षपात को J } Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ राजपूतानेके.जैन चीर :मैंने पास तक नहीं फटकने दिया है जो भी कुछ लिखा है सत्य को लेकर लिखा है । संभव है मेरा यह प्रयास असफल रहा हो, फिर भी मैं इतना अवश्य कहूँगा कि. .. मैंने लिखा है इमे खुने जिगर से अपने । ___ इसके संकलन करने में जो दुर्दिन देखने पड़े हैं, भगवान करे मेरे सिवा वह दिन कोई और न देखे । दिल एक प्रकारसे टूट सा गया है अपने वचनानुसार ज्यों त्यों करके आज यह कृति. मुझे पाठकों के कर कमलों में भेट करते हुए हर्ष होता है। यद्यपि इसमें अनेक त्रुटियाँ हैं, मैं इसे जैसा चाहता था, वैसा न लिख सका । यदि विद्वान् पाठकों ने पुस्तक में रही हुई त्रुटियों की ओर मेरा ध्यान आकर्षित किया और इसके लिये साहित्य सम्बन्धी साधन जुटाने की उदारता दिखाई तो संभवतया उनके सुधार का प्रयत्न किया जायगा। अन्त में भावना है कि: हर दर्दमन्द दिल को रोना मेरा रुलादे। बेहोश जो पड़े हैं शायद उन्हें जगादे ॥ "इकबाल" राष्ट्रीय औषधालय गाली वरना, सदर देहली। . दास प्र.प्र. गोयलीय . २४-२-३३. कैफियत ऐसी है नाकामी की इस तसवीर में। जो उतर सकती नहीं आईनये तहरीर में ।।.. :- "इकवाल". Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजपूताने के जैन-वीर Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान ... .... जहाँ वीरता मूर्तिमन्त हो हरती थी भूतल का भार । जहाँ धीरता हो पाती थी धर्म-धुरीण कण्ठ का हार ।। जहाँ जाति-हित बलि-वेदी पर सदा वीर होते बलिदान । जहाँ देश का प्रेम बना था सुरपुर का सुखमय-सोपान॥ जिस अवनी के बाल चन्द ने काटे बलवानों के कान । चमेकी जहाँ वीर बालाएँ रण-भू में करवाल समान ।' किए जहाँ के नृप-कुल-मण्डल ने कितने लोकोत्तर काम । जिस लीलामय रङ्ग-अवनि में उपजे नाना लोक-ललाम ॥ जिस के एक-एक रज-कण पर लगी राजपती की छाप । जिस का वातावरण समझता रण में पीठ दिखाना पाप। जिसके पत्ते मर्मर रख कर, रहे पढ़ाते प्रभुता-पाठ । जिसके जीवन-संचारण से हरित हुआ था उकठा काठ॥ -"हरिऔध' rers. Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुड़के देखो दोस्तो ! इस राजपूती शान को।. . मिटते मिटते मिट गये, लेकिन तु छोड़ा पान को॥ -अज्ञात् "राजपूनाने में कोई छोटा सा राज्य भी ऐसा नहीं है, जिस में थमोपली जैसी रण-भूमि नहो और शायद ही कोई ऐसा नगर मिले, जहां लियोनिडास जैसा वीर पुरुष. उत्पन्न न हुआ हो।" -जेम्स राह . . तो इस रन-प्रभा भारतभूमि का चप्पा-चप्पां धर्म-धीरों के पवित्र बलिदान से दैदीप्यमान है। यहाँ का प्रत्येक परमाणु अपने सीने में स्वतंत्रता की आग सुलगाये हुये पड़ा है, फिर भी राजपूताने का निर्माण तो खास कर शहीदों की हड्डियों और रक्त से मिलकर हुआ है । भारत के उन दुर्दिनों में जब कि वह परतंत्रता के बन्धन में जकड़ा जा चुका था, उसकी चोटी-बेटीन की रक्षा का कोई उपाय नहीं था, तब-यहाँ की आन पर मर मिटने के लिये राजपूताने ने जो आत्मोत्सर्ग किया था, वह चिथड़ों के .inwww .commmmmmmi............ + चमकता है शहीदों का लहू परदे में कुदरत के । - शाक का हुस्न क्या है, शोशिये रंग हिना क्या है...।। - - --- - - - - - - - Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ राजपूताने के जैन- चीर वने काग़ज़ पर लिखने की चीज़ नहीं । आज इस परतन्त्रता चुन में भी, जब राजपूताने की अभूतपूर्व वीरता, धीरता, त्याग और शौर्य का वर्णन पढ़ते हैं तो आँखें मस्ती में नाचने लगती है, हृदय मारे स्वाभिमान के उछलने लगता है, छाती फूल उठती हैं, रोमाँच sted हैं और ऐसा भान होने लगता है कि हम भी सीना तान कर निकलने का अधिकार रखते हैं। वर्तमान में इस इतिहास प्रसिद्ध राजपूताने में १९ देशी रियांलतें, लावा और कुशलगढ़ नामक दो खुदमुख्तियार ठिकाने तथा ब्रिटिश इलाका - अजमेर ( मेरवाड़ा) और आबू पहाड़ सम्मलित । इसका क्षेत्रफल १, ३१, ६९८ वर्गमील है और इसमें करीब १|| करोड़ लोग बसते हैं । निन्न लिखित तालिका में राजपूताने की सब रियासतों के नाम उनके क्षेत्रफल और वर्तमान शासकों की जाति का विवरण दिया जाता है । संख्या नाम रियासत १ जोधपुर (मारवाड़) २ . बीकानेर (जांगल ) ३ जैसलमेर (माड) ४ जयपुर ( ढूंढाड ) ५ उदयपरं (मेवाड़) ६ कोटा ( हाड़ोती) राजा की जाति राडौठ राजपत 33 " भाटी यादव कछवाहा गहलोत हाडा चौहान क्षेत्रफल ३५,०१६ वर्गगील २३,३१५ १६,०६१ - १५,५१९ P १२,७५६ ५,६८४ 1.9. :: 39 " "" Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संख्या- नाम रियासत. ७: अलंबर ८ टोंक ९ बून्दी (हाड़ोती) १० भरतपुर ११ सिरोही १२ १३ १४ १५ बाँसवाड़ा डूंगरपुर करौली धौलपुर ..... राजस्थान, १६ प्रतापगढ़ १७ किशनगढ़ राजा की जाति कछवाहा पठान मुसलमान२,५५३ हाडा चौहान २,२२० १८ झालावाड़ १९ शाहपुरा २० कुशलगढ़ (खुद सु०) २१ लावा (,” ” ) २२ अजमेर (मेरवाड़ा) २३ आबू पहाड़ 17 यादव जाट गहलोत राठौड़ जाट १९८२ देवड़ा चौहान १,९५८ गहलोत १,६०६ झाला गहलौत राठौड़ कछवाहा अङ्गरेज ३३ क्षेत्रफल . .:. : "J ३,१४१ वर्गमील, १,४४७ १,२४२ १,१५५ ૮૮૬ ८५८ ८१० ४०५ ३४० १९ २,७११ ६ . .. " " 93 "} 39 125 99 39 33 "" " 35 33 33 "" उक्त २३ रियासतों में से प्रस्तुत पुस्तक में उन्हीं रियासतों का उल्लेख किया जायगा जिनमें कि जैन- वीरोंकी की गई सेवाओं का अभी तक थोड़ा बहुत विवरण उपलब्ध हो सका. : के Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४. राजपूताने के जैन वीर सम्पर्ण इतिहास में मेवाड़ (उदयपुर रियासत.) का इतिहासासन से अधिक गौरवपूर्ण और प्रतिभाशाली है । श्रतएव प्रस्तुत पुस्तक का श्रीगणेश इसीरियासत से प्रारम्भ किया जाता है । १५ नवम्बर सन् ३२ LOOD Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवाड़. “Mewar with all faults, I love thee still” मेवाड़ ! तुममें हज़ार दोष होने पर भी मैं तुझे स्नेह करता हूँ । 99 - जेम्सटॉड Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CHECRETRIETTE पवित्र तीर्थ GOLYSIOGRASSHOURS905IGRASSAGESSISPOTTERY अरे, फिरत कत, वावरे ! भटकत तीरथ भरि। अन्यौं न धारत सीस पै सहज सूरपग-धूरि ।। वसत सदा ता भूमि पै, तीरथ लाख करोर। लरत मरत जहँ वाकुर, विरमि वीर वर जोर ॥ नगी जोति जहँ जूम की, खगी खड्ग खुलि भूमि।। रंगा रुधिर सौं धूरि सो, धन्य धन्य रण-भूमि ॥ तह पुष्कर, तहँ सुरसरी, तहँ तीरथ, तप, याग। उठ्यों सुवीर-कबन्ध जहँ वहई पुण्य, प्रयाग ।। संगर-सोहैं सूरि जहँ, भये मिरत चक-चूरि ।। बड़भागन ते मिलति वा रण-आँगन की धूरि।। -श्री वियोगीहरि JAIRAT RETREATIHARSERE HTDGRASSIGFISCRIME TRAISRAEES Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवाड़-परिचय उदयपुर रेजिडंसी या मेवाड़ में ४ राज्य हैं । उदयपुर, बाँसवाड़ा - डूंगरपुर और परतापगढ़। इसकी चौहही उत्तर में अजमेर मेरवाड़ा और शाहपुर, उत्तर-पूर्व में जैपुर और बून्दी । पूर्व में कोटा, और टोंक, दक्षिण में मध्यभारत, पश्चिम में अरावली पहाड़ । सन् १९०१ में यहाँ जैनी ६ फी सदी थे। * उदयपुर-राज्य * "राजपूताने के दक्षिणी विभाग में २३°४९' से २५°२८' उत्तर अक्षांश और ७०°१' से ७५°४९' पूर्व देशान्तरके बीच फैला हुआ है । उसका क्षेत्रफल १२६९१ वर्गमील है। उदयपुर राज्य के उत्तर में अजमेर मेरवाड़ा और शाहपुरे (लिये) का इलाका; पश्चिम में जोधपुर और सिराही राज्य, नैऋत्य कोण में ईडर, दक्षिण में डंगरपुर, बाँसवाड़ा और प्रतापगढ़ राज्य, पूर्व में सिंधियों का परगना नीमच, टोंकका परगना, नींबाहेड़ा और बून्दी तथा कोटा राज्य हैं, और ईशानकोण में देवली के निकट जयपुर का इलाका आ गया है। इस राज्य के भीतर ग्वालियर का परगना गंगापर जिसमें १० गाँव हैं और आगे पूर्व में इन्द्रौर का परगना नंदवास (नंदवाय) आ गय है, जिसमें २९ गाँव हैं।" राजपूताने के प्राचीन जैन स्मारक पृ० १३८ । + राजपूताने का इतिहास पृ० ३०६ । . Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजपूताने के जैन-वीर " मेवाड़ में पर्वत श्रेणियाँ अधिक हैं यह हरा भरा सुहावना प्रदेश है । साल भर बहने वाली मेवाड़ में एक भी नदी नहीं है। यहाँ छोटी बड़ी झीलें बहुत हैं । जिनमें कई अत्यन्त दर्शनीय और मन-मोहक हैं । मेवाड़ का जलवायु सामान्य रीति से आरोग्यप्रद समझा जाता है । भूमि की ऊँचाई के कारण यहाँ सर्दी के दिनों में न तो अधिक सर्दी और उष्णकाल में न अधिक गर्मी होती है । यहाँ की समतल भूमि पैदावारी के लिये बहुत अच्छी है ।' मेवाड़ के प्रसिद्ध किले चित्तौड़गढ़, कुंभलगढ़ और माण्डलगढ़ हैं, इनके सिवा छोटे-मोटे गढ़ और गढ़ियाँ भी अनेक हैं । बाम्बे बड़ौदा एन्ड सेण्ट्रल इण्डिया रेल्वे की अजमेर से खंडवा जानेवाली छोटी नाप वाली रेल की सड़क मेवाड़ में होकर निकलती है और उस के रूपाहेली से लगाकर शंभुपुरा तक के स्टेशन इस राज्य में हैं। चित्तौड़गढ़ जंक्शन से उदयपुर तक ६९ मील रेल की सड़क उदयपर राज्य की तरफ से बनाई गई है, जो उदयपुर- चित्तौड़गढ़ रेल्वे कहलाती हैं । और दूसरी लाइन अभी हाल में 'भावली' 'जंक्शन से निकली है जो मारवाड़ जंक्शन तक जायेगी। ३८ } उदयपुर राज्य की जन संख्या सन् १९३१ (वि०सं० १९८७ ) १५६६९१० थी जिसमें जैनियों की संख्या ६६,००१ थी। मेवाड़ प्राकृतिक दृश्य में अपने ढंग का निराला है। काश्मीर के बाद सुन्दरता में मेवाड़ का स्थान है। राजपूताने में सब से अधिक चान्दी, ताम्बा, लोहा, ताम्बड़ा ( रक्तं मणि) अमरक आदि की खानें मेवाड़ में हैं । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवाड़-परिचय चित्तौड़गढ़ मेवाड़ (उदयपुर-राज्य) की वर्तमान राजधानी उदयपुर में है किन्तु इससे पूर्व मेवाड़ की राजधानी चित्तौड़गढ़ थी। "चिचौड़गढ़ बॉम्बे वड़ौदा एण्ड सेंट्रल इण्डिया रेल्वे की अजमेर से खंडवा जानेवाली शाखा पर चित्तौड़गढ़ जंकशन से दो मील पूर्व में एक विलग पहाड़ी पर बना हुआ है । यह किला मौर्य वंश के राजा चित्रांगद ने बनवाया था जिससे इसको चित्रकूट कहते हैं विक्रम संवत् की आठवीं शताब्दी के अन्त में मेवाड़ के गुहिल वंशी राजा पापा ने राजपूताने पर राज्य करने वाले मौर्यवंश के अन्तिम राजा मान से यह किला अपने हस्तगत किया। फिर मालवेके परमार राजा मुंज ने इसे गुहिलवंशियों से छीनकर अपने राज्य में मिलाया। वि०सं० की बारहवीं शताब्दी के अंत में गुजरात के सोलंकी राजा जयसिंह (सिद्धराज) ने परमारों से मालवे को छीना, जिस के साथ ही यह दुर्ग भी सोलंकियों के अधिकार में गया । तदनन्तर जयसिंह के उत्तराधिकारी कुमारपाल के भतीजे अजयपाल को परास्त कर मेवाड़ के राजा सामन्तसिंह ने वि०सं० १२३१ (ई० स० ११७४ ) के आसपास इस किले पर गुहिलवंशियों का आधिपत्य जमाया । उस समय से आज तक यह इतिहास प्रसिद्ध दुर्ग प्रायः -यद्यपि बीच में कुछ वर्षों तक +इन सोलंकी राजाओंका विस्तृत परिचय लेखक की शुजरात के जैनवीर" । नामक पुस्तक में मिलेगा । जो शीघ्र छपेगी। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० . .. राजपूताने के जैन-धीर मुसलमानों के अधीन भी रहा था-गुहिलवंशियों (सीसोदियों) . के ही अधिकार में चला आता है । . चित्तौड़गढ़ जंकशन से किले के ऊपर तक पक्की सड़क बनी . हुई है। स्टेशन से खाना होकर अनुमान सवा मील जाने पर गम्भीरी नदी आती है । जिस पर अलाउद्दीनखिलजी के शाहजादे खिज़रखाँ का बनवाया हुआ पाषाण का एक सुद्ध पल है । पुल : से थोड़ी दूर जाने पर कोट से घिरा हुआ चित्तौड़ का करवा. आता है । जिसको तलहटी कहते हैं |" .'. यहाँ की मनुष्य-संख्या सन् १९३१ में ८०४१ थी । दिगम्बर जैनियों का एक शिखरवन्द मन्दिर एक चैत्यालय और श्वेताम्बर जैनों के दो मन्दिर यहाँ बने हुये हैं। कस्बे में जिले की कचहरी. है जिसके पास से किले की चढ़ाई प्रारम्भ होती है। यहीं से किले पर जाने के लिये पास मिलता है। .. .. ... "चित्तौड़का दुर्ग समुद्र की सतहसे १८५० फुट ऊँचाई वाली सवा तीन मील लम्बी और अनुमान आध मील चौड़ी उत्तरदक्षिण-स्थित एक पहाड़ी पर बना हुआ है और तलहटी से किले की ऊँचाई ५०० फुट है । पहाड़ी के ऊपरी भाग में समान भूमि आ जाने के कारण वहाँ कई एक कुंड, वालाव, मन्दिर, महल आदि बने हुए हैं। और कुछ . जलाशय तो दुष्काल में भी नहीं सूखते । पहले इस दुर्ग पर आबादी बहुत थी, परन्तु अब तो * राजपूताने का इ० पहली वि० पृ० ३४९-५० । । राजपूताने का इ०.५० जि० पृ० ३५० : Page #47 -------------------------------------------------------------------------- Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - PRETTE : ACECASSES . .. . .. . .. .. ..... .. : : TOR: . ....... .... . ..... जैन-कीर्तिस्तम्भ, चित्तौड़दुर्ग Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवाड़-परिचय पहाड़ी के पश्चिमी सिरे के पास अनुमान २०० घरों की ही वस्ती रह गई है और शेष सव मकानों के गिर जाने से इस समय वहाँ खेती हुआ करती है" । इस किले में कितनी ही प्राचीन इमारतें आज भी उस गौरवमयी अतीत काल की पवित्र स्मृति में खड़ी हुई हैं। यहाँ स्थानाभाव के कारण श्री ओझाजी कृत राजपूताने के इतिहास पहिली जिल्द से केवल जैन स्थानों का परिचय दिया जाता है :३-जैनकीर्तिस्तम्भ- चित्तौड़-दुर्ग पर सात मंजिल वाला जैन कीर्तिस्तम्भ है। जिसको दिगम्बर सम्प्रदाय के बघेरवाल .महाजन ने सा (साह सेठ) नाम के पुत्र जीजा ने वि०सं० की चौदहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में बनवाया था। यह कीर्तिस्तम्भ आदिनाथ का स्मारक है । इसके चारों पार्श्व पर आदिनाथ की एक-एक विशाल दिगम्बर (जैन) मूर्तियाँ खुदी हुई हैं। इस कीर्तिस्तम्भ के ऊपर की छत्री विजली गिरने से टूट गई और स्तम्भ को बड़ी हानि पहुँचो थी, परन्तु महाराणा.फतह. सिंह ने अनुमान ८०००० रुपये लगाकर ठीक वैसी ही छत्री पीछे वनवादी जिससे स्तम्भ की भी मरम्मत हो गई है। (पृ०३५२) २-महावीर स्वामी का मन्दिर जैन कीर्तिस्तम्भके पासही महा वीर स्वामीका मन्दिर है, जिसका जीर्णोद्धार महाराणा कुम्मा के समय वि० सं० १४९५ (ई० स० १४३८ ) में ओसवाल * राजपूताने का इ० ५० जि० पृ. ३५७ । . . . - - OURNA - Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजपूताने के जैनचोर महाजन गुणराज ने कराया था; इस समय यह मन्दिर टूटी फूटी दशा में पड़ा हुआ है ।" (पृ. ३५२) : ३-जैनमन्दिर चित्तौडदुर्ग पर 'गोमुख' नाम का प्रसिद्ध तीर्थ है, जहाँ दो दालानों में वीन जंगह गोमुखों से शिव-लिंगों पर पानी गिरता है ।...इन दालानों के सामने ही 'गोमुख'नामक नल का सुविशाल कुंड है जहाँ लोग स्नान करते हैं । गोमुख के निकट महाराणा रायमल के समय का बना हुआ एक छोटा सा जैनमन्दिर है, जिसकी मूर्ति दक्षिण से यहाँ लाई गई थी, क्योंकि उस मूर्ति के ऊपर प्राचीन कनड़ी लिपि का लेख है और नीचे के भाग में उस मूर्ति की यहाँ प्रतिष्ठा किये जाने के सम्बन्ध में वि० सं० १५४३ का लेख पीछे से नागरी लिपि में खोदा गया है। (पृ० ३५४) ४-सतवीस देवला-चित्तौडदुर्ग पर पुराने महलों का 'वडीपोल' नामक द्वार आता है । इस द्वार से पूर्व में कई एक जैनमन्दिर टूटी फूटी दशा में खड़े हैं और उनमें से 'सतवीस देवला' (सत्ताईस मन्दिर) नामक जिनालय में खुदाई का काम बड़ा ही सुन्दर हुआ है । इसी के पास आज कल महाराणा फत इसिंह के नये महल बने हुए हैं। (पृ०३५६) . ५-शान्तिनाथका मन्दिर चित्तौड़ दुर्ग पर पुराने राजमहलों के निकट उत्तर की तरफ सुन्दर खुदाई के कामवाला एक छोटा ‘सा मन्दिर है, जिसको अंगारचवरी कहते हैं। इसके मध्य में एक छोटी सी वेदी पर चार स्तम्भ वाली छत्री बनी हुई tho Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवाड़ - परिचय : ४३ · लोग कहते हैं कि यहाँ पर राणा कुम्भा को राजकुमारी का विवाह हुआ था, जिसकी यह चंवरी है । वास्तव में इतिहास:: के अन्धकार में इसकी कल्पना की सृष्टि हुई है, क्योंकि एक स्तम्भं पर खुदे हुए निं० सं० १५०५ ( ई० स० १४४८ ) के शिला लेखों से ज्ञात होता है कि राणा कुम्भा के भंडारी ( कोषाध्यक्ष ) वेलांक ने जो शाह केल्हा का पुत्र था, शान्तिनाथ का यह जैनमन्दिर बदवाया और उसकी प्रतिष्ठा खरतर गच्छ के आचार्य जिनसेनसूरि ने की थी । जिस स्थान को लोग चवरी 'बतलाते हैं 'वह वास्तव में उक्त मूर्ति की वेदी है और संभव है कि मूर्ति चौमुख (जिसके चारों ओर एक एक मूर्ति होती है) हो । (पृ०३५६) "" 2 यह इतिहास- प्रसिद्ध दुर्ग, भारत के ही नहीं वरन् समस्त संसार के फ़िलों में शिरमौर है । इसी किले के लिये यह कहावत प्रसिद्ध है कि- "गढ़ तो चित्तौड़गढ़ और सब गढ़या हैं"। यह दुर्ग, अपनी सुन्दरता अथवा मजबूती के कारण विख्यात् नहीं है । सुन्दरता और मज़बूती में तो यह किला शायद संसार के किलों की श्रेणी में भी न रखा जा सके, और अब तो यह खण्डहर हो गया है । रसिक यात्रियों के मनोरंजन के लिये यहाँ कुछ भी शेष 'नहीं है । पर जो स्वतन्त्रता के उपासक हैं, उनका यह महान् तीर्थ है, इसका प्रत्येक अणु उनका देवता है, इसकी रज को मस्तक पर * लगाने से वह कृत्कृत्य होजाते हैं और इसकी शौख गाथा सुनतेर उन्मत्त हो नाचने लगते हैं अथवा सर धुन कर रोने लगते हैं | vi Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजपूताने के जैन-वीर श्रीयुत ठाकुरप्रसादजी शर्मा ने चित्तौड़ की यात्रा करते हुये भावावेश में क्या खूब लिखा है : ४४ I. 2 " हिम पर्वत से अधिक उच्च है, गौरवयत यह पर्वत ठाम । महा तुच्छ है इसके सन्मुख, स्वर्ण- मेरु कैलाश ललाम ॥ १ ॥ सब से ऊपर वहाँ हमारी, कीर्ति ध्वजा फहराती है । पग-पग पर पावन पृथिवी, वर-वीर- कथा बतलाती है ॥ २ ॥ पूर्वज - वीर अस्थियों का है, यह अभेद्य गढ बना हुआ । है सर्वत्र प्रबल सिंहों के, उष्ण रक्त से सना हुआ ॥ ३ ॥ शुचि सवला रमणी - गणने, निज जौहर यहीं दिखाया था । निज शरीर भस्मावशेप से पावन इसे बनाया था ॥ ४ ॥ युद्ध - समय रमणी प्रियतम से, कहती यही वचन गम्भीर । "धर्म - विजय अथवा शूरों की मृत्यु प्राप्त कर च्याना वीरं ||५|| जो कायर हो, कार्य किये बिन, कहीं भाग तुम आओगे । तो प्रवेश उस अधम देह से, नाथ ! न गृहं में पाचोगे ॥ ६॥ इन सब पत्थर के टुकड़ों को, भक्ति सहित तुम करो प्रणाम । यही रुधिर सुरसरि में बहकर बने राष्ट्र के सालिगराम ॥७॥ तनिक कृपा कर हमें बताओ, हे इतिहास- निपुण देवेश !' चलते समय वीर जयमल ने, तुम्हें दिया था क्या सन्देश ||८|| हे चित्तौड़ ! जगत में केवल, तू सर्वस्व हमारा है। दुखी, निराश्रित भारत को, बस तूही एक सहारा है ॥९॥ तेरे लिये सदा हम हैं, संसार छोड़ने को तैय्यार । : तेरे बिना रसातल को, चला जायगा यह संसार ॥१०॥ J .. . Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवाड-परिचय अहो ! यह वही पूज्यस्थल है, जहाँ खड़े थे लाखों वीर । गौरव-रक्षा हेतु हुये थे, पर्वत सम दृढ़ मनुज शरीर ॥ ११ ॥ शत्रु-सैन्य-सागर की लहरें, आई इसे हटाने को । मुका न वह पर चूर हुआ, चिरजीवित द्वीप बनानेको ॥१२॥ इसी धूल में यहाँ नहाकर, होऊँगा मैं महा पवित्र । । खुदा रहेगा सदा हृदय पर, पावन वीर भूमि का चित्र ॥१३॥ शीश झुकाऊँगा मैं उसको, सायं प्रातः दोनों काल । कठिन काल आने पर उसका, ध्यान करूँगा मैं तत्काल॥१४॥ होकर यह स्वर्गीय चन्द्र-सम, सुखद किरण फैलाता है । नीच कुटिलता पृथिवी पर, प्रवल प्रताप बढ़ाता है ।। १५ ।। निज कर्तव्य पूर्ण करने का, यह हम को देता उपदेश । स्वार्थ-सिद्धि-हित आत्म-त्याग का देता ईश्वरीय संदेश ।।१६।। वीर देवियों की सुख-शैया, चिता हृदय में जलती है। . . सिंह-मूर्ति अति प्रवल काल की, दृष्टि संग ही चलती है ॥१०॥ युद्ध-नाद सुस्पष्ट यहाँ पर, अभी सुनाई देता है । मधुर गानका एक शब्द फिर, इन सब को ढक लेता है।॥१८॥ हे! दृढ़ साहसयुक्त वीरंगण! तुम्हें कोटिशःवार प्रणाम्। कव फिर भारतमें होंगे नर, तुमसे नीति-निपुण गुण-धाम।।१९।। "हम से कुटिल नीच पुरुषोंको, है सतकोटि बार धिकार। रक्षा होगी वमी. हमारी जव, तुम फिर लोगे अंवतार Rail ::. :. : ekia -.. .. .. . श्री गोविन्दसिंहजी पंचौली चित्तौड़गढ़ की कृपा से प्राप्त ! Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ राजपूताने के जैनवीर ...... ..रयपर.. "मेवाड़ की राजधानी पहिले चित्तौड़गढ़ थी परन्तुं बहुगढ़ सुदृढ़ होने पर भी एक ऐसी, लम्वी पहाड़ी पर बना हुआ है। नो अन्य पर्वत श्रेणियों से:पृथक आगई है। अतएव शत्रु उसका घा डालकर हिले वालों के पास वाहर सेरसद श्रादि का. पहुँचना सहज ही बन्द कर सकता है। यही कारण था कि यहाँ कई बार बड़ी बड़ी लड़ाइयों में जिले के लोगों को भोजनादि सामग्री खतम हो जाने पर विवश दुर्ग के द्वार खोल कर शत्रु सेना से युद्ध करने के लिये बाहर जाना पड़ा। इसी असुविधा का अनुभव करके महाराणा उदयसिंह ने चारों तरफ पर्वतों से घिरे हुये सुरक्षित स्थान में उदयपुर नगर बसाकर उसे मेवाड़ की राजधानी बनाया। उदयपुर शहर पीछोला तालाब के पूर्वी किनारे की उत्तर दक्षिण-स्थित पहाड़ी के दोनों पार्श्व पर बसा हुआ है। इसके पूर्व तथा उत्तर में समान भूमि आगई है। जिधर नगर बढ़ता जाता है। शहर पराने ढंग का बना हुआ है और एक बड़ी सड़क को ' छोड़कर बहुधा सब रास्ते व गलियाँ तंग हैं। इस की चारों तरफ शहर पनाह है, जिसमें स्थान स्थान पर चुनें बनी हुई हैं। नगर के - उत्तर तथा पूर्व में जहाँ. शहर पनाह पर्वतमाला से दूर है। एक . चौड़ी खाई कोटा के पास पास खुदी हुई है। शहर के दिक्षिणी भाग में पहाड़ी की ऊँचाई पर पीछोले के किनारे पराने राजमहल बड़े ही सुन्दर और प्राचीन शैली के बने हुये हैं। पुराने महलों में Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवाड़-परिचय मुख्य छोटी चित्रशाली, सूरज चौपाड़, पीतमनिवास, मानिकमहल, मोती महल, चीनी को चित्रशाली, दिलखुशाल, बाड़ीमहल ( अमरविज्ञास) मुख्य हैं। पुराने महत्तों के आगे जी तर्ज का शंभु-निवास नाम का नया महल और उसके निकट महाराणा फतहसिंह का बनवाया हुआ शिवनिवास नामक सुविशाल महल लाखों रुपयों की लागत से तैयार हुआ है । राजमहल शहर के सब से ऊँचे स्थान पर बनाये जाने के कारण और इनके नीचे ही विस्तीर्ण सरोवर होने से उनकी प्राकृतिक शोभा बहुत बढ़ी चढ़ी है" का " 20 शहर में अनेक देखने योग्य स्थान हैं जिन्हें यहाँ स्थानाभाव के कारण नहीं लिखा जा सकता । यहाँ की मनुष्य संख्या सन् १९३१ में ४४०३५ के करीब थी । दिगम्बरों के ८ शिखरवन्द मंदिर तथा ५ चैत्यालय हैं और उन सबमें ६८५ के करीब धर्मशास्त्र हैं। श्वेताम्बरों के छोटे बड़े सय ३५ मन्दिर हैं । इन में कितने ही मन्दिर अत्यन्त सुन्दर बने हुए हैं। + राजपूताने का ६० पृ० ३२९ । + दि० जैन डिरेक्टरी पृ० ४६९ । + जैन तीर्य गाइड पृ० १५९ । उदयपुर राज्य में अनेक प्राचीनं स्थानं देखने योग्य हैं किन्तु यहाँ स्थानाभाव के कारण मान्य श्रोमाजी कृत राजपूताने के इतिहास से केवल प्राचीन जैनमन्दिरों का उल्लेख किया जाता है Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ राजपूताने के जैन-चीर केशरियानाथ (ऋषभदेव)- "उदयपुर से ३९ मील दक्षिण में खैरवाड़े की सड़क के निकट कोट' से घिरे हुये धूलदेव नामक कृस्वे में ऋषभदेव का प्रसिद्ध जैनमन्दिर है। यहाँ की मूर्ति पर केशर बहुत चढ़ाई जाती है । जिससे इनको केसरियाजी या केसरियानाथ भी कहते हैं। मूर्ति काले पत्थर की होने के कारण भील लोग इनको कालाजी कहते हैं। ऋषभदेव विष्णु के २४ अवतारों में से.. आठवें अवतार होने से हिन्दुओं का भी यह पवित्र तीर्थ माना जाता है। भारतवर्ष के श्वेताम्वर तथा दिगम्बर जैन एवं मारवाड़, मेवाड़, डूंगरपुर, बाँसवाड़ा, ईडर आदि राज्यों के शैव, वैष्णव आदि यहाँ यात्रार्थ आते हैं। भील लोग कालाजी को अपना इष्टदेव मानते हैं और उन लोगों में इनकी भक्ति यहाँ तक है कि केसरियानाथ पर चढ़े हुये केसर को जल में घोलकर पी लेने पर वे चाहे जितनी विपत्ति उनको सहन करनी पड़े-झूठ नहीं बोलते।" .. "हिन्दुस्तान भर में यही एक ऐसा मन्दिर है, जहाँ दिगम्बर तथा श्वेताम्बर जैन और वैष्णव, शैव, भील एवं तमाम सच्छूद्र जान कर समान रूप से मूर्ति का पूजन करते हैं। प्रथम द्वार से, जिस पर नझारखाना बना है, प्रवेश करते ही बाहरी परिक्रमा का __+यहाँ पूजन की मुख्य सामग्री केसरही है और प्रत्येक यात्री अपनी इच्छा- . नुसार कैसर चढ़ाता है। कोई कोई जैन तो अपने बचों आदि को कैसर से तोलकर वह सारी केसर चढ़ा देते हैं। प्रात:काल के पूजन में जल प्रक्षालन, दुग्ध प्रक्षालन, .. अतर लेपन आदि होने के पीछे केसर का चढ़ना प्रारम्भ होकर एक बजे तक . चढ़ती ही रहती है। . . Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवाड़-परिचय चौक श्राता है, वहीं दूसरा द्वार है, जिस के बाहर दोनों ओर फाले पत्थर का एक-एक हाथी खड़ा हुन्ना है । उत्तर की तरफ के हायी के पास एक हवनकुंड बना है, जहाँ नवरात्रि के दिनों में दुर्गा का हवन होता है । उक्त द्वार के दोनों ओर के ताफों में से एक में ब्रह्मा की और दूसरे में शिव की मूर्ति है, जो पीछे से विठलाई गई हो, ऐसा जान पड़ता है। इस द्वार से इस सीढ़िया चढ़ने पर मन्दिर में पहुँचते हैं और उन सीढ़ियों के ऊपर के मंडप में मध्यम फ़द के क्षार्थी पर बैठी हुई मरुदेवी (ऋषभनाथ फी माता) की मूर्ति है। सीढ़ियों से आगे बांई ओर 'श्रीमद्भागवत' का चबूतरा बना है, जहाँ चातुर्मास में भागवत की कथा बचती है। यहाँ से तीन सौदियाँ पदने पर एक मंडप पाता है, जिसको ९ स्तम्भ होने के कारण 'नौचौकी' कहते हैं । यहाँ से तीसरे द्वार में प्रवेश किया जाता है । उक्त धार के बाहर उत्तर के ताक में शिव की और दक्षिण ताफ में सरवती की मूर्ति स्थापित है । इन दोनों फे यासनों पर वि० सं० १६७६ के लेख खुदे हैं। तीसरे द्वार में प्रवेश करने पर खेला मंडप (अन्तराल) में पहुँचते हैं, वहाँ से आगे निज मन्दिर (गर्भगृह) अपभदेव की प्रतिमा स्थापित है। गर्भगृह के ऊपर ध्यजादंड सहित विशाल शिखर है और खेला मंडप, नीचांकी तथा मरुदेवी पाले मंडप पर गुंबज है । मन्दिरके इत्तरी, पश्चिमी और दक्षिणी पार्श्व में देवकुलिकाओं की पंक्तियाँ हैं जिनमें से प्रत्येक के मध्य में मंडप सहित एक-एक मंदिर घना है। देवकुलिकाओं और मन्दिरों के बीच भीतरी परिक्रमा.है।" Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० राजपूताने के जैन-चीर ... . .. "इस मन्दिर के विषय में यह प्रसिद्धिःहै कि पहिले यहाँ. ईंटों का बना हुआ एक जिनालयः था, जिसमें टूट जाने पर उसके जीर्णोद्धार रूप पाषाण का यह नया मन्दिर बना ! यहाँ के शिलालेखों से पाया जाता है कि इस मन्दिर के भिन्न भिन्न विभाग अलग अलग समय के बने हुए हैं। खेल मंडप की दीवारों में.. लगे हुये दो शिलालेखों में से एक वि०सं०-१४३१ वैशाख सुदी ३ बुधवार का है, जिसका आशय यह है कि दिगम्बर .सम्प्रदाय के काष्टासंघ के भट्टारक श्री धर्मकीर्ति के उपदेशसे साह (सेठ) वीज़ा के बेटे हरदानने इस जिनालय का जीर्णोद्धार कराया । उसी मंडप में लगे हुये वि० सं०.१५७२.वैशाख सुदी ५ के शिलालेख से ज्ञात होता है कि काष्टासंघ के अनुयाई काछलूगोत्र के कड़ियापोइया और उसको भरमी के पुत्र हाँसा ने धूलीव (धूंलेव) गाँव में श्री ऋषभनाथ को प्रणाम कर भट्टारक श्री जसकीर्ति (यशकीति) के समय मंडप तथा नौचौको वनवाई। इन दोनों शिलालेखों से ज्ञात होता है कि गर्भगृह (निजमन्दिर) तथा उसके आगे का खेला मंडप वि० सं० १४३१ में और नौचौकी तथा एक ओर मंडप वि० सं० १५७२ (ई०स० १५१५) में बने । देव कुलिकाएँ पीछे से बनी हैं क्योंकि दक्षिण की देव कुलिकाओं की पंक्ति के. . मध्य में मंडप सहित जो मन्दिर है, उसके द्वार के समीप दीवार __ + तीनों ओर की देवकुलिकाओं की पंक्तियों के मध्य में बने हुये. मंडर बाल तीनो मन्दिरों को वहाँ के पुजारी लोग नैमिनाथ के मन्दिर कहते हैं, परन्तु इस मन्दिर के शिलालेख तथा इसके भीतर की मूर्ति के आसन पर के लेखं से निश्चित है कि यह तो ऋषभदेव का ही मन्दिर है। बाकी के दो मन्दिर किन तीर्थंकरों के हैं, यह उनमें कोई लेखं न होने से ज्ञात नहीं हुआ. .. Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवाड़ - परिचय ५.१: में लगे हुये शिलालेख से स्पष्ट है कि काष्टासंघ के नदीतट गच्छ और विद्यागण के भट्टारक श्री सुरेन्द्रकीर्ति के समय में बघेरवाल जाति के गोवाल गोत्री संघवी (संघपति) आल्हा के पुत्र भोज के कुटुम्बियों ने यह मन्दिर बनवा कर प्रतिष्ठा महोत्सव किया ‡ । इस मन्दिर से आगे की देवकुलिका की दीवार में भी एक शिलालेख लगा हुआ है, जिस का आशय यह है कि वि० सं० १७५४ पौष वदि ५ को काष्ठासंघ के नदीतटगच्छ और विद्यागण के भट्टारक सुरेन्द्रकीर्ति के उपदेश से हूँबड़ जाति की वृद्ध शाखावाले विश्वेश्वर गोत्री साह आल्हा के वंशज सेठ भूपत के वंश वालों ने यह लघु प्रासाद बनवाया । इन चारों शिलालेखों से ज्ञात होता है कि ऋषभदेव के मन्दिर तथा कुलिकाओं का अधिकाँश काष्टांसंघ के भट्टारकों के उपदेश से उनके दिगम्बरी अनुयाइयों ने बनवाया था । शेष सब देवकुलिकाएँ किसने बनवाई, इस विषय का कोई लेख नहीं मिला । " “ऋषभदेव की वर्तमान् मूर्ति बहुत प्राचीन होने से उसमें कई जगह खड़े पड़ गये थे, जिससे उनमें कुछ पदार्थ भर कर उनको ऐसा बना दिया है कि वे मालूम नहीं होते । यह प्रतिमा डूंगरपुर राज्य की प्राचीन राजधानी बड़ौदे ( वटपद्रक ) के जैन- मन्दिर से लाकर यहाँ पधराई गई है । बड़ौदे का पुराना मन्दिर गिर गया है और उसके पत्थर वहाँ वटवृक्ष के नीचे एक चबूतरे पर चुने हुये हैं। पभदेव की प्रतिमा बड़ी भव्य और तेजस्वी है, इसके साथ + यह शिलालेख प्राचीन जैन इतिहास के लिये बड़े काम का है, क्योंकि इसमें नदी तट गच्छ की उत्पत्ति तथा उक्त गच्छ के आचायौकी नम परम्परा दी हुई है । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२. राजपूतानें के जैनवीर के विशाल परिकर में इन्द्रादि देवता बने हैं और दोनों पार्श्व परं. दो नग्न काउंसगिये (कायोत्सर्ग स्थिति वाले - पुरुष ) खड़े हुये हैं ।' मूर्ति के चरणों के नीचे छोटी छोटी ९ मूर्तियाँ हैं, जिनको लोग 'नवग्रह' या 'नवनाथ' बतलाते हैं । नवमहों के नीचे १६ स्वप्ने खुदे हुये हैं, जिनके नीचे के भाग में हाथी, सिंह, देवी आदि की मूर्तियाँ और उनके नीचे दो बैलों के बीच में देवी की एक मूर्ति बनी हुई है । निजमन्दिर की बाहरी पार्श्व के उत्तर और दक्षिण के ताक तथा देव कुलिकाओं के पृष्ठ भागों में भी नग्न मूर्तियाँ विद्यमान हैं । . मूलसंघ के बलात्कार गरणवाले कमलेश्वर गोत्री गांधी विजयचंद्र ने वि० सं० १८८३ ( ई० स०० १८०६) में इस मन्दिर के चौतरफ एक पक्का कोट बनवाया । वि०स०१८८९ (इ०स० १८३२) में जैसलमेर ( उस समय उदयपुर के ) निवासी ओसवाल जाति की वृद्ध शाखावाले बाफण गोत्री सेठ गुमानचन्द 'बहादुरमल के कुटुम्बियों ने प्रथम द्वार पर का नकारखाना बनवाकर वर्तमान ध्वजादंड चढ़ाया ।. इस मन्दिर के खेला मंडप में तीर्थकरों की २२: और देवकुः लिकाओं में ५४ मूर्तियाँ विराजमान हैं । देवकुलिकाओं में वि०सं० १७५६ की बनी हुई विजयसागर सूरि की मूर्ति भी है और पश्चिम की देवकुलिकाओं में से एक में अनुमान ६ फुट ऊँचा ठोस पत्थर का एक मन्दिर सा वना हुआ है, जिस पर तीर्थंकरों की 4 : बहुतसी छोटी-छोटी मूर्तियाँ खुदी हुई हैं। इसको लोग गिरनार i Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 मेवाड़ - परिचय ५३. जी का विम्व कहते हैं । उपर्युक्त ७६ मूर्तियों में से १४. पर लेख: नहीं है । लेखवाली मूर्तियों में से ३८ दिगम्बर सम्प्रदाय की और ११ श्वेताम्वरों की हैं। शेष पर लेख अस्पष्ट होने या चूना लग जाने के कारण उनका ठीक २ निश्चय नहीं हो सकाः । लेखः वाली मूर्तियाँ वि० सं० १६११ से १८६३ तक की हैं और उन पर खुदे हुये लेख जैनों के इतिहास के लिये बड़े उपयोगी हैं । · नौचौकी मंडप के दक्षिणी किनारे पर पाषाण का : एकः छोटासा स्तम्भ खड़ा है, जिसके चारों ओर तथा ऊपर नीचे छोटे छोटे १० ताक खुदे हैं । मुसलमान लोग इस स्तम्भ को मसजिद का चिन्ह मानते हैं और उसके नीचे की परिक्रमा में खड़े रहकर वे लोवान जलाते, शीरनी (मिठाई) चढ़ाते और धोक देते हैं +1 उदयपुर-राज्य के अधिकार में जो विष्णु मन्दिर हैं, उनके समान यहाँ भी विष्णु के जन्माष्टमी, जलझूलनी, आदि त्यौहार मन्दिर की तरफ से मनाये जाते हैं। चौमास में इस मन्दिर में श्रीमद्भागवत की कथा होती है, जिस की भेट के निमित्त राज्य की तरफ से ताम्रपत्र- कर दिया गया है और ऋषभनाथजी के भोग के लिये एक गाँव भी भेट हुआ था । मन्दिर के प्रथम द्वार, के पास खड़े हुये महाराणा संग्रामसिंह ( दूसरे ) के शिलालेख में बेगार की मनाई करने, ऋषभदेवजी की रसोई का काम नाथजी + मुसलमान लोग मन्दिरों को तोड़ देते थे, जिससे उनके समय के बने हुये बड़े मन्दिरों आदि में उनका कोई पवित्र चिन्ह इस अभिप्राय से बना दिया जाता था कि उसको देखकर वे उनको न तोड़े । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजपूताने के जैनवीर के सुपुर्द करने तथा उस सम्बन्ध का ताम्रपत्र अखेहजी नाथजी (भंडारी) के पास होने का उल्लेख है। पहिले अन्य विष्णुमंदिरों के समान यहाँ भी भोग लगता था और भोग तैयार होने के स्थान को 'रसोड़ा' कहते थे । अब तो इस मन्दिर में पहले की तरह भोग नहीं लगता और भोग के स्थान में भंडार की तरफ से होने वाले पूजा प्रक्षाल में फल और सूखे मेवे आदि के साथ कुछ मिठाई रखदी जाती है। महाराणा साहव इस मन्दिर में द्वितीय द्वार से नहीं, किन्तु वाहरी परिक्रमा के पिछले भाग में बने हुये एक छोटे द्वार से प्रवेश करते हैं। क्योंकि दूसरे द्वार के ऊपर की छत में पाँच शरीर और एक सिर वाली एक मूर्ति खुदी हुई है, जिसको लोग 'छत्रभंग' कहते हैं । इसी मूर्ति के कारण महाराणा साहब इसके नीचे होकर दूसरे द्वार से मन्दिर में प्रवेश नहीं करते। मन्दिर का सारा काम पहले भंडारियों के अधिकार में था और इसकी सारी आमद उनकी इच्छानुसार खर्च की जाती थी परन्तु पीछे से राज्य ने मन्दिर की आय में से कुछ हिस्सा उनके लिये नियत कर वाक्री के रुपयों की व्यवस्था करने के लिये एक जैन कमेटी में बनादी है और देवस्थान के हाकिम का एक नायव मन्दिर के प्रवन्ध के लिये वहाँ रहता है। मन्दिर में पूजन करने वाले यात्रियों के लिये नहाने धोने का अच्छा प्रवन्ध है.। पूजन करवं समय स्त्री-पुरुषों. के पहनने के * इसके.सदस्य श्वेताम्बरी और दिगग्वरी दोनों होते हैं।-गोयलीय। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवाड़-परिचय लिये शुद्ध वस्त्र भी वहाँ हर वक्त तैयार रहते हैं और जिन को आवश्यकता हो उनको वे मिल सकते हैं। मन्दिर एवं धनाढ्यों की तरफ़ से कई एक धर्मशालायें भी बन गई हैं। जिससे यात्रियों को धूलेव में ठहरने का बड़ा सुभीता रहता है। ___ उदयपुर से ऋषभदेव तक का सारा मार्ग बहुधा भीलों ही की वस्ती वाले पहाड़ी प्रदेश में होकर निकलता है, परन्तु वहाँ पक्की सड़क बनी हुई है और महाराणा साहब ने यात्रियों के आराम के लिये ऋषभदेव के मार्ग पर काया, वारापाल तथा टिडीगाँवों में पक्की धर्मशालाएँ बनवा दी हैं। परसाद में भी पुरानी कंची धर्मशाला बनी हुई है । मार्ग निजेन बन तथा पहाड़ियों के वीच होकर निकलता है तो भी रास्ते में स्थान स्थान पर भीलों की चौकियाँ विठला देने से यात्रियों के लुट जाने का भय बिल्कुल नहीं रहा । प्रत्येक चौकी पर राज्य की तरफ से नियत किये हुये कुछ पैसे देने पड़ते हैं । ऋषभदेव जाने के लिये उदयपुर में बैलगाड़ियाँ तथा ताँगे मिलते हैं और अब तो मोटरों का भी प्रबन्ध हो गया है । (पृ० ३४४-४९) . ऋषभदेव का मन्दिर- .. . . माण्डलगढ़ किले में सागर और सागरी नाम के दो जलाशय हैं, जिनका जल दुष्काल में सूख जाया करता था, इस लिये वहाँ के अध्यक्ष (हाकिम ) महता अगरचन्द्र ने सागर में दो कुए . .:: .. सरकारी हस्पताल और औषधालय हैं जहाँ दवा मुंपत दीजाती है। एक वाचनालयं भी है। गोयलीय ! .. Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजपताने के जैन-चीर खुदवा दिये, जिनमें जल कभी नहीं टूटता... यहाँ एक ऋषभदेव का जैनमन्दिर है। (पृ० ३६१) वीजोल्या में जैनमंदिर बीज़ोल्यों के कस्बे से अग्निकोण में अनुमान एक मील के अंतर पर एक जैनमन्दिर है, जिसके चारों कोनों पर एक-एक छोदा मन्दिर और बना हुआ है। इन मन्दिरों को पंचायतन कहते है और ये पाँचों मन्दिर कोट से घिरे हुये हैं। इनमें से मध्य का अर्थात् मुख्य मन्दिर पार्श्वनाथ का है। मन्दिर के बाहर दो चतुउस स्तम्भ बने हुये हैं, जो भट्टारकों की नसियाँ हैं । इन देवालयों से थोड़ी दूर पर जीर्ण-शीर्ण दशा में रेवतीकुण्ड' हैं । पहले दिगम्बर सम्प्रदाय के पोरवाड़ महाजन लोलाक ने यहाँ पाश्वनाथ का तथा सात अन्य मन्दिर बनवाये थे, जिनके टूट जाने पर ये पाँच मन्दिर बनाये गये हैं। यहाँ पर पुरातत्त्ववेताओं का ध्यान विशेष आकर्षित करने वाली दो वस्तुएँ हैं, जिनमें से एक तो लोलाक का खुदवाया हुआ अपने निर्माण कराये हुये देवालयों के सम्बन्ध का शिलालेख और दूसरा 'उन्नतिशिखरपुराण' नामक दिगम्बर जैनमन्थ है। बीजोल्यां के निकिट भिन्न २ आकृति के चपटे कुदरती चट्टान अनेक जगह निकले हुए हैं । ऐसे ही कई घवान इन मन्दिरों के पास भी हैं, जिनमें से दो पर ये दोनों खुदवाये गये हैं। विक्रम संवत् १२२६ फाल्गुण वदि ३. का चौहान राजा सोमेश्वर के समय का लोलाक का खुदवाया हुआ शिलालेख इतिहास के लिये बड़े महत्त्व का है, क्योंकि उसमें सामन्त Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवाड़ - परिचय ५७ से लगाकर सोमेश्वर तक सांभर और अजमेर के चौहान राजाओं की वंशावली तथा उनमें से किसी किसी का कुछ विवरण भी दिया है । इस लेख में दी हुई चौहानों को वंशावली बहुत शुद्ध है क्योंकि इसमें खुदे हुए नाम शेखावाटी के हर्षनाथ के मन्दिर में लगी हुई वि० सं० १०३० की चौहान राजा सिंहराज के पुत्र विप्रहराज के समय की प्रशस्ति, किनसरिया ( जोधपुर राज्य में ) से मिले हुए सांभर के चौहान राजा दुर्लभराज के समय के वि० सं० १०५६ के शिलालेख तथा 'पृथ्वीराजविजय' महाकाव्य में मिलने वाले नामों से ठीक मिल जाते हैं। उक्त लेख में लोलाक के पूर्व पुरुषों का विस्तृत वर्णन और स्थान-स्थान पर बनवाये हुए उनके मन्दिरादि का उल्लेख है । अजमेर के चौहान राजा पृथ्वीराज ( दूसरे) ने मोराकुरीगाँव और सोमेश्वर ने रेवणागाँव पार्श्वनाथ के उक्त मन्दिर के लिये भेट किया था । " उन्नतिशिखरपुराण" भी लोलाक ने उसी संवत् में यहाँ खुदवाया था और इस समय इस पुराण की कोई लिखित प्रति कहीं विद्यमान नहीं है । वीजोल्यां के राव कृष्णसिंह ने इन दोनों चट्टानों पर पक्के मकान बनवा कर उनकी रक्षा का प्रशंसनीय: कार्य किया है। ... ( पृ० ३६२-६४ ) देलवाड़ा के जैनमन्दिर · एकलिंगजी चार मील उत्तर में देलवाड़ा (देवकुल पाटंक) गाँव वहाँ के झाला सरदार की जागीर का मुख्य स्थान है । यहाँ पहले बहुत से श्वेताम्बर जैनमन्दिर थे; उनमें से तीन अब तक विद्यमान हैं, जिनको वसही ( वसति ) कहते हैं । इनमें से एंक Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ राजपूताने के जैनवीर आदिनाथ का और दूसरा पार्श्वनाथ का है। इन मन्दिरों तथा. इनके तहखानों में रक्खी हुई 'भिन्नर तीर्थंकरों, प्राचार्यों एवं उपाध्यायों की मूर्तियों के आसनों तथा पाषाण के भिन्न २ पट्टों आदि पर खुदे हुये लेख वि० सं० १४६४ से १६८९.तक के हैं । पहले यहाँ अच्छे धनाढ्य जैनों की श्रावादी थी और प्रसिद्ध सोमसुन्दरिसरि का जिनको 'वाचक' पदवी वि० सं० १४५० (ई० स०१३९३) में मिली थी, कई बार यहाँ आगमन हुआ, उनका .यहाँ बहुत कुछ सम्मान हुश्रा और उनके यहां आने के प्रसंग पर उत्सव भी मनाये गये थे, ऐसा 'सोमसौभाग्य' काव्य से पाया जाता है। कुछ वर्ष पूर्व यहाँ के एक मन्दिर का जीर्णोद्धार करते समय मन्दिर के कोट के पीछे के खेत में से १२२ जिन प्रतिमाएँ तथा दो एक.पाषाण पर निकले थे। ये प्रतिमाएँ मुसलमानों के बदाइयों के.समय मन्दिरों से उठाकर यहाँ गाढ दी गई हों, ऐसा अनुमान होता है। महाराणा लाखा के समय से पूर्व का यहाँ कोई शिलालेख नहीं मिलता । महाराणा मोकल और कुम्मा के समय यह स्थान. अधिक सम्पन्न रहा हो, ऐसा उनके समय की बनी हुई कई मूर्तियों के लेखों से अनुमान होता है । देलवाड़ें के बाहर एक कलाल के मकान के सामने के खेत में कई विशाल मूर्तियाँ गढ़ी हुई हैं, ऐसी: खबर मिलने पर मैंने वहाँ खुद्वाया तो चार घड़ी, २ मूर्तियाँ निकली, जो खंडित थी और उनमें से कोई भी महाराणा कुम्भा के समय से: पूर्व की न थीं-1 (HR३६६ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "मैवाइ-परिचय करड़ा का जैनमन्दिर-- ___ उदयपुर-चित्तौड़गढ़-रेल्वे के करेंड्रा स्टेशन के पास ही श्वेत पापाण का बना हुआ पार्श्वनाथ का विशाल मन्दिर है । मन्दिर के मण्डप की दोनों तरफ छोटे २ मण्डप वाले 'दों और मन्दिर बने हुए हैं। उनमें से एक मंडप में अरबी का एक लेख हैं, जो पीछे से मरम्मत कराने के समय वहाँ लगा दिया गया हों, ऐसा. अनुमान होता है। मंडप में जंजीर से लटकती हुई घंटियों की आकृतियाँ बनी हैं, जिस पर से लोगों ने यह प्रसिद्धि की है कि इस मन्दिर के बनाने में एक बनजारे ने सहायता दी थी, जिस में उसके बैलों के गले में वान्धी जाने वाली जंजीरं सहित.घंटियों की आतियाँ यहाँ अंकित की गई हैं, परन्तु यह भी कल्पना मात्र है, क्योंकि जैन, शैव, वैष्णवों के अनेक प्राचीन मन्दिरों के थंभों पर ऐसी आकृतियाँ बनी हुई मिलती हैं । जो एक प्रकार की सुन्दरता का चिन्ह मात्र था । मंडपके ऊपरीभाग में एक ओर मसजिद की आकृति बनी हुई है जिसके विपय में लोग यह प्रसिद्ध करते हैं कि जव वादशाह अकवर यहाँ आया था, तब उसने इस मन्दिर में यह मसजिद की आकृति इस अभिप्रायसें बनवादी थी कि भविष्य में मुसलमान इसे न तोड़ें, परन्तु वास्तव में मन्दिर के निर्माण कराने वालों ने मुसलमानों का यह पवित्र चिन्ह इसी विचार से वनवाया है कि इसको देखकर वे मन्दिर को न तोड़ें, जैसा कि मुसलमानों के समय के बने हुए अन्य मन्दिरादि के सम्बन्ध में ऊपर उल्लेख किया गया है । मन्दिर में श्यामवर्ण पाषाण की बनी Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजपूताने के जैनवीर हुई पार्श्वनाथ की एक मूर्ति है, जिस पर खुदे हुए लेख से पाया. जाता है कि वह वि० सं० १६५६ में बनी थी। लोग यह भी कहते हैं कि यहाँ मूर्ति के ठीक सामने के एक भाग में एक छिद्र था, जिसमें होकर पौष शुक्ला १० को सूर्य की किरणें इस प्रतिमा पर पड़ती थी, उस समय यहाँ एक बड़ा भारी मेला भरता था, परन्तु महाराणा संरूपसिंह के समय से यह मेला वन्द हो गया । पीछे से जीर्णोद्धार कराते समय उधर की दीवार ऊँची बनाई गई, जिस से अव सूर्य की किरणें मूर्ति पर नहीं गिरतीं। थोड़े पूर्व इस मंदिर की फिर मरम्मत होकर सारे मन्दिर पर चूना पोत दिया गया जिससे इसके श्वेत पाषाण की शोभा नष्ट हो गई है। कई देशी एवं विदेशी श्वेताम्बर जैन यहाँ यात्रार्थ आते हैं और एक धर्मशाला भी यहाँ वन गई हैं।" (पृ० ३६७-६८) . २० नवम्बर सन् ३० । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवाड़ - गौरव कुछ बात है जो हस्ती मिटती नहीं हमारी । सदियों रहा है दुश्मन, दौरे जहाँ हमारा ॥ - "इकबाल " galingingg विदेशीय- गुलाम, खिलजी, तुरालक, सैयद, पठान, और मुग़ल-वंश के बादशाहों ने अपने अपने समय में भारत पर आक्रमण करके साम्राज्य स्थापित किये। वह आन्धी की तरह समस्त भारत में फैल गये, अच्छे अच्छे सत्ताधीश उखाड़ कर फेंक दिये गये किन्तु मेवाड़ चट्टान के समान अचल बना रहा, उसने अनेक आपत्ति के प्रलयकारी भोंके सहन किये, तथापि वह अपनी मान-मर्यादा से तनिक भी विचलित नहीं हुआ । समस्त भारत में आतङ्क फैलाने वाले बादशाहों के साम्राज्य तो क्या, भाज उनके वंशजों के पास गज़ भर जमीन भी नहीं है, पर मेवाड़ अपनी • उसी मर्यादा पर आज भी विद्यमान है, जो आज से १३०० वर्ष Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ राजपूताने के जैनवीर पूर्व था। उसका एक एक अणु इस प्राचीन पद्य की साक्षी दे . रहा है कि _ 'जो हद राखै धर्म को, तिहिं राखे कार' राजपूताने के आधुनिक प्रसिद्ध इतिहास-वेता श्री० ओमाजी . लिखते हैं: "इस छोटे से राज्य ने जितने वर्षों तक उस समय के सब से अधिक सम्पन्न साम्राज्य का वीरता पूर्वक मुजाविला किया, वैसे उदाहरण सम्पूर्ण संसार के इतिहास में बहुत कम मिलेंगे। __ केवल राजपताने की रियासतों के ही नहीं, परन्तु संसार के अन्य राज्यों के राजवंशों से भी उदयपुर का राजवंश: अधिक प्राचीन है। उदयपर का राजवंश वि० सं० ६२५ (ई० स०५६८) के आसपास से लगाकर आज तक समय के अनेक हेर फेर सहते हुये भी उसी.प्रदेश.पर राज्य करता. चला आ रहा है । १३५० से. भी अधिक वर्ष तक एक ही प्रदेश पर राज्य करने वाला..संसार + उकाबी शान से झपटे थे, जो बे वालों पर निकले. I. . सितारे शाम के खूने शक में डूवः कर निकले ।। . हुये मदपून: दरिया: जेर, : दरिया तैरने वाले । तमांचे मौज.के खाते थे.जो.बनकर गुहर निकले ॥. गुवारे रहगुज़र हैं, कीमया पर नाज़ था जिनको ।. जवीने खाक पर रखते थे, जो अक्सीर गर निकले। हमारा नमरोकासिद पयामें जिन्दगी लाया । "खवर देतीथीं जिनको बिजलियाँवह वेखवर निकले। . . . . ... ."-इकबाल": . Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवाड़ - गौरव ६३ में शायद ही कोई दूसरा राजवंश होगा । प्रसिद्ध ऐतिहासिकफ़रिश्ता ने इस वंश की प्राचीनता के विषय में लिखा है :"राजा विक्रमादित्य ( उज्जैन वाले) के धांद राजपूतों ने उन्नति की । मुसलमानों के भारतवर्ष में आगमन से पूर्व यहाँ पर बहुत से स्वतंत्र राजा थे, परन्तु सुलताने राहमूद गज़नवी तथा उसके वंशजों ने बहुतों को अपने आधीन किया । तदनन्तर शहाबुद्दीन गौरी ने अजमेर और दिल्ली के राजाओं को जीता । बाक़ी रहे सहे को तैमूर के वंशजों ने अपने आधीन किया । यहाँ तक कि विक्रमादित्य के समय से जहाँगीर तक कोई पुराना राजवंश न रहा ; परन्तु राणा ही ऐसे राजा हैं, जो मुसलमान धर्म की उत्पत्ति से पहले भी विद्यमान थे और आज तक राज्य करते हैं ।' केवल प्राचीनता में ही नहीं; अन्य बहुत सी बातों के कारण मेवाड़ (उदयपुर) का इतिहास बहुत महत्वपूर्ण है। मेवाड़ का इतिहास अधिकांश में स्वतंत्रता का इतिहास है। जब तत्कालीन सभी हिन्दू . राजा मुग़ल साम्राज्य की शासन सत्ता के सामने अपनी स्वतंत्रता स्थिर न रख सके और उन्होंने अपने सिर झुका लिये, तब भी नाना प्रकार के कष्ट और अनेक आपत्तियाँ सहते हुये भी मेवाड़ ने. ही सांसारिक सुख-सम्पत्ति और ऐश्वर्य का त्याग करके भी अपनी स्वतंत्रता और कुल - गौरव की रक्षा की। यही कारण है क़ि आज भी मेवाड़ (उदयपुर) के महाराणा ! हिन्दुच्चा सूरज' कहलाते हैं ।" +. 1. उदयपुरः राज्य का इतिहास भू० पृ० २ । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजपूताने के जैन वीर अपनी धन और मान पर स्थिर रहने वाले जिस मेवाड़ ने लगातार ८०० वर्ष तक विदेशीय बादशाहों से युद्ध करके लोहा लिया और समस्त संसार में अपना आसन ऊँचा किया है। उसी मेवाड़ के मंत्री, कोषाध्यक्ष दण्ड-नायक आदि जैसे ज़िम्मेदारी के पदों पर अनेक जैनधर्मावलम्बी प्रतिष्ठित होते रहे हैं । जब कि . उस युद्ध-काल के समय में अच्छे २ कुलीन राजपूत नरेश, वाद'शाहों की ओर मिल रहे थे; विश्वासघात और षड्यन्त्रों का बाज़ार गर्म था। भाई को भाई निगल जाने की ताक में लगा हुआ था, सगे से सगे पर भी विश्वास करने के लिये दिल नहीं ठुकता था । तब ऐसी नाजुक परिस्थिति में ऐसे प्रतिष्ठित और जोखिमदारी के पदों पर पुश्त दर पुश्त आसीन होते रहना क्या कुछ कम गौरव और ईमानदारी का प्रमाण है ? " ६४ राजपूताने में जहाँ आठसौ वर्ष तक प्रलयकारी युद्ध होता रहा, पल-पल में मान-मर्यादा के चले जाने का भय बना रहता था ज़रा से प्रलोभन में आजाने या दाव चूक जाने से सर्वस्व नष्ट हो जाने की सम्भावना बनी रहती थी, तब वहाँ इन नर-रत्नों ने कैसे२ आदर्श, वीरता, त्याग आदि के उदाहरण दिखाये, वह आज संसार सागर में विलीन हैं। इसका कारण यही हैं कि आज से 4 ' कुछ दिन पूर्व हमारे यहाँ केवल राजाओं और बादशाहों के जीवन चरित्र लिखने की परिपाटी थी । सर्व साधारण में कोई कितना ही वीर, सदाचारी प्रतिष्ठित और महान क्यों न होता ; पर, उसके जीवन सम्बन्धी घटनाओं के लिखने की कोई आवश्य Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवाड़-गौरव कता महसूस ही नहीं करता था। यही कारण है कि आज तक भारत के अनेक नररत्नों के सम्बन्ध में ऐतिहासिक मतभेद चला आता है जैसा चाहिये वैसा उनका परिचय ही नहीं मिलता। यही हाल राजपूताने के जैन-चीरों के सम्बन्ध में है। ये विचारे प्रधान, मंत्री, कोषाध्यक्ष, दण्डनायक आदि सब कुछ रहे, अनेक महान कार्य किये, फिर भी इनके सम्बन्ध में कुछ लिखा नहीं मिलता । अस्तु प्रसंगवश जहाँ कहीं थोड़ा बहुत उल्लेख मिलता है, उस से ही पूर्वापर सम्बन्ध मिलाकर पाठक जान सकेंगे कि उन्होंने क्या कुछ कार्य किये। ४ अक्टवर सन् १ . สอนลงลงละลม Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवाड के वीर . . . . राणी जयतलदेवीः . . मेवाड़ का राज्यवंश शैव है इस शिशोदयावंश में शिव की ' उपासना होती रही है किन्तु कुछ उल्लेख ऐसे भी मिले हैं जिन से प्रकट होता है कि इस राज्यवंश में जैनधर्म के प्रति भी आदर रहा है । यहाँ तक कि कुछ राणा और राणियाँ तो जैनधर्म के उपासक प्रकट रूप में भी रहे हैं। एक बार रा० रा. वासुदेव गोविन्द आपटे बी.ए. ने अपने व्याख्यान. में कहा था-"कर्नल टॉड साहब के राजस्थानीय इतिहास में उदयपर के घराने के विषय में ऐसा लिखा गया है कि कोई भी जैनयति उक्त संस्थान में जव शुभागमन करता है, तो रानी साहिवा उसे योग्य सत्कार प्रबन्ध करती हैं, इस विनय प्रबन्ध की प्रथा वहाँ . अब तक जारी है।" उक्त विद्वान का कथन सर्वथा सत्य है। +जैनधर्म का महत्व प्र० मा० पृ०३१ । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवाड़ के बीर इस गये युजरे जमाने में भी जब कि जैनियों का कोई विशेष प्रभाव नहीं है, महाराणा फतहसिंह (प्रताप के सुयोग्य वंशधर जिनका दो वर्ष पूर्व स्वर्गवास हो गया है) ने श्रीकेशरिया के मंदिर में करीब ढाई लाख की भेट दी थी, उसी समयका श्री ऋषभनाथ को नमस्कार करते हुये युवराज भूपालसिंह (वर्तमान महाराणा) सहित चित्र भी मिलता है प्रसिद्ध वक्ता मुनि चौथमल.के उपदेश से अपने यहाँ कुछ पशुबध पर प्रतिबन्ध भी लगाया था। लिखने का तात्पर्य केवल इतना है कि शैवधर्मी की इस वंश में मान्यता होते हुये भी जैन धर्म को भी इस राज्यघराने में काफी आदर मिला है। यही कारण है कि उक्त राज्य में प्रायः जैनधर्मी ही मुख्यता से मंत्री और कोषाध्यक्ष रहे हैं, जैन यतियों ने प्रशस्त्रियाँ लिखी हैं और कितने ही इस घराने की ओर से जैन मन्दिर निर्माण हुये हैं। . जो प्रकटरूप से जैनधर्मी हुये हैं यहाँ उन्हीं का उल्लेख किया जायगा। राणी जयतल्लदेवी महाराणा तेजसिंह (वि०सं०१३२२ ई० सन् १२६५) की पटरानी और वीरकेसरी समरसिंहकी माता थी। इसकी जैनधर्म .पर पूर्ण श्रद्धा थी। इसने अनेक जैन मन्दिर बनवाये। श्री० श्रोमाजी लिखते हैं:- "तेजसिंह की राणी जयतलदेवीने जो समरसिंह की माता थी, चित्तौड़ पर श्याम पाश का मन्दिर बनवाया था।" "आँचलगच्छ की पट्टावलि से पाया . जाता है कि उक्त गच्छ के प्राचार्य अमितसिंह सूरी के उपदेश से है राजपूताने का इ० पृ० ४७३ । Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ राजपूताने के जैन-वीर रावल समरसिंह ने अपने राज्य में जीव-हिंसा रोक दी थी। समरसिंह की माता जयतलदेवी की जैनधर्म पर श्रद्धा थी, अंतः उसके आग्रह से या उक्त सूरी के उपदेश से उसने ऐसा किया हो यह सम्भव है। .. .... ... : ... उक्त दो अवतरणों से प्रकट है कि सणी जयतल्लदेवी जैनधर्मावलम्बनी थी, उसने समरसिंहजैसे.शूरवीरको प्रसव किया था जो ऐतिहासिक क्षेत्र में अपनी वीरता के लिये काफी प्रसिद्ध है। २० अक्तूबर सन् ३२...::. . : .:. . कमाशाह. . वानरेश राणा संग्रामसिंह के पराक्रमकारी पुत्र रत्नसिंहः के मंत्री कर्माशाह (कर्मसिंह) ने अपने जीवन में क्या: क्या लोकोत्तर कार्य किये, इसका कोई विवरण उपलब्ध नहीं होता। केवल. एपिमाफिया इण्डिका -31:४२-४ा में उसके सम्बन्ध का शत्रुञ्जयतीर्थः (:काठियावाड़ में पालीतारणा के पास )... पर से मिला हुआ. एक शिलालेख प्रकट हुआ था। जिसकी कि मुनि जिनविजयजी ने अपने "प्राचीन जैन-लेखसंग्रह (द्वितीय भाग) पृ०:१-७ में अंकित किया है । यह लेख शत्रुञ्जया पर्वत के ऊपर बने हुये मुख्य मन्दिर के द्वार के लाई ओरः एक स्थस्म पर मोढ़ी शिला: पर संस्कृत:-लिपि में खुदा हुआ है। इस लेख में। * राजपूताने का इ० पृ० ४७७ ४७७ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवाड़ के वीर केवल ५४ पंक्ति हैं और प्रत्येक पंक्ति में ४० से ५० अक्षर अंकित हैं । इस लेख में विक्रम संवत् ३६८७ में चित्रकूट (चित्तौड़) निवासी ओसवाल-कुल-मणि कर्माशाह द्वारा शत्रुजय का पुनरुद्धार तथा नवीन प्रतिष्ठा कराये जाने का वर्णन है ।। प्रारम्भ में इस शिलालेख की गद्य पंक्तियों में लिखा है कि "संवत् १५५७ में जिस समय कर्माशाह ने प्रतिष्ठा कराई तब उस समय गुजरात में सुलतान वहादुरशाह राज्य करता था और वहादुरशाह की ओर से सौराष्ट्र.(सोरठ-काठियावाड़) का राज्यकारोवार सूबेदार मझादरवान (अगेरमुमाहिंदखान) चलाता था। पद्य १ से ७ में मेदपाट (मेवाड़) की राजधानी चित्रकूट (चित्तौड़) और उसके १ कुंभराज, राजमल्ल, ३ संग्रामसिंह, और ४ रत्नसिंह इन चार राजाओं का उल्लेख है । प्रतिष्ठा-समय राणा रत्नसिंह राज्य करता था । ८ से २२ तक के श्लोकोंमें कर्माशाह के वंश और कुटुम्ब का संक्षिप्त वर्णन हैं। यथाः-गोपगिरि (वर्तमान ग्वालियर) में श्री आमराज एक राजपूत निवास करते थे। वह वप्पमट्टिसूरि जैनाचार्य के उपदेश से प्रभावित हो कर जैनधर्म में दीक्षित हो गये। उनकी वैश्यकुलोत्पन्न सहधर्मिणों की कूख से एक पुत्र रत्न हुआ जो राजकोठारी--(भण्डारी) प्रसिद्ध हुआ और वह श्रोसवाल जाति में सम्मलित किया गया। । इसी वंश में पीछे एक सारणदेव प्रसिद्ध पुरुष हुआ जिसको ९वीं पीढ़ी में इस तीर्थोद्धार के कर्ता कर्माशाह ने जन्म लिया।' वे पीढ़ी निम्न प्रकार हैं: Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजपूताने के जैन वीर * वंश वृक्ष * . सारणदेव . . . रामदेव भवनपाल श्रीभोजराज ठकरसिंह खेता नरसिंह तोलाशाह . . .(त्री तारादे उपनाम लीलू) रत्नाशाह पोमाशाह गणाशाह दशरथभोजशाह कर्माशाह सहवि(पुत्री) रजमलदे पद्मादे गउरादे देवलदे भावलदे कमलदें ... | पाहसदे गारवदे दूरमदे हर्षभदेः कपरदे श्रीरंग माणिक हीरा देवा. कोल्हा मंडन.. : Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१ मेवाड़ के धीर .. कर्माशाह का पिता तोलाशाह महाराणा साँगा का परम मित्र था। महाराणा ने उसे अपना अमात्य बनाना चाहा परन्तु उसने आदर पूर्वक उसका निषेध कर केवल श्रेष्टी पद ही स्वीकार किया वह बड़ा न्यायी, विनयी, दाता, ज्ञाता, मानी और धनी था। याचकों को हाथी, घोड़े, वस्त्र, आभूषण आदि बहुमूल्य चीजे दे देकर कल्पवृक्ष की तरह उनका दारिद्र नष्ट कर देता था। जैनधर्म का पूर्ण अनुरागी था। धर्मरत्नसूरि संघ के सहित यात्रा करते करते जव चित्रकूट में थाये तव सूरिजी का आगमन सुनकर महाराणा साँगा अपने हाथी, घोड़े, सैन्य और वादिन वगैरह लेकर उनके सन्मुख गये। सूरिजी को प्रणाम कर उनका सदुपदेश श्रवण किया। बाद में बहुत आडम्बर के साथ संघ का प्रवेशोत्सव किया और यथायोग्य सब संघजनों को निवास करने के लिए वासस्थान दिये। तोला शाह भी अपने पुत्रों के साथ संघ की यथेष्ट भक्ति करता हुआ सूरिजी की निरन्तर धर्म देशना सुनने लगा । राणा भी सरिजी के पास आते थे और धर्मोपदेश सुना करते थे। सूरिजी के उपदेश से संतुष्ट होकर राणा (साँगा) ने पाप के मूल भूत शिकार आदि दुर्व्यसनों को त्याग दिया। ___ वहाँ पर एक पुरुषोत्तम नामक ब्राह्मण था जो बड़ा 'गर्विष्ठ विद्वान और दूसरों के प्रति असहिष्णुता रखने वाला था । सूरिजी ने उसके साथ राजसभा में सात दिन तक वादविवाद कर उसे - - - - - -- Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ राजपूताने के जैन-वीर पराजित किया इस बात का उल्लेख एक दूसरी प्रशस्ति में भी किया हुआ है। यथा- कीर्त्या च वादेन जितो महीपान द्विधा द्विजो पै रिह चित्रकूटे | जितत्रिकूटे नृपतेः समक्ष महोभिरहयान तुरङ्गः संख्यैः ॥ कर्माशाह मंत्री होने से पूर्व कपड़े का व्यापार करता था | बंगाल और चीन वगैरह देशों से करोड़ों रुपयों का माल उस की दुकान पर जाता जाता था । इस व्यापार में उसने अपरिमित रूप में द्रव्य की प्राप्ति की थीः । शाहजादा बहादुरखान ने भी कर्माशाह की दुकानः से बहुतसा कपड़ा खरीदा था । जो पीछे से बहादुर शाह के नाम से प्रसिद्ध हुआ । शाहजादे की अवस्था में जव, वह उधर आया तो आवश्यकता होने पर कर्माशाह ने एक लाख रुपये बिना किसी शर्त के दिये । इसी उपकार के बदले में उसने जब बादशाह हुआ शत्रुरंजय के उद्धार करने की तथा मंदिर बनाने की इजाजत दी । कर्माशाह ने करोड़ों रुपयें. इसमें खर्च किये जिसका वर्णन प्रशस्ति में मिलता है। शिलालेखों एवं प्रशस्तियों में कर्माशाह का नाम कर्मसिंह भी मिलता है । इसके पूर्वजों के नाम भी सिंहान्तक हैं। लिखने का अभिप्राय यह है कि जव से क्षत्रियों के नाम सिंहान्तक इतिहास में पाये जाते हैं तब ही से जैन मंत्रियों (महाजुनों ) के भी मिलते हैं ।... पं० गौरीशंकरजी ने कर्मसिंह को महाराणा रत्नसिंह का. मंत्री लिखा है । वह समय लड़ाइयों का था अतएव वह अवश्य, वीर . Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . मेवाड़ के वीर होना चाहिये। प्रशस्ति में लिखा है :'श्री रत्नसिंह राज्ये राज्य व्यापार भार धौरेयः ।। अर्थात् वह रत्नसिंह के राज्य में राज्य और व्यापार दोनों में धूरी था। इसके पिता तोलाशाह साँगा के परम मित्र थे। साँगा जैसे वीर प्रकृति के पुरुष की मित्रता वीर ही से हो सकती है। राणारलसिंह के दरबार में कर्माशाह का अत्यधिक मान था । वह राज-काज में प्रवीण और राणा रत्नसिंह का प्रधानथा। ___२४ से ३२ पद्य में कहा है कि कर्माशाह ने सुगुरु के पास श्री शत्रुजयतीर्थ का माहात्म्य सुन कर उस के पुनरुद्धार करने की इच्छा प्रकट की और गुजरात के सुलतान बहादुरशाह के पास से उद्धार कराने के सम्बन्ध में स्फुरन्मान (फर्मान) लेकर कर्माशाह ने अगणित द्रव्य व्यय करके सिद्धाचल का शुभ उद्धार किया। १५८७ और शक सं० १४५३ वैशाख कृष्ण ६ को अनेक श्रावक और अनेक मुनि आचार्यों के सम्मेलन में कल्याणकारी प्रतिष्ठा कराई। . ___ पीछे के पद्यों में कर्माशाह के इस कार्य के करने के लिये उस की प्रशंसा लिखी हुई है। . : इस उद्धार.के काम के लिये तीन सूत्रधार (सुथार) अहमदाबाद से और. १९ चित्तौड़ से गये थे। मुसलमानों के समय में नवीन मन्दिर तो क्या प्राचीन मन्दिर ही नहीं रहने पाते थे। फिर Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजपूताने के जैन-चीर भी ऐसी विपरीत स्थिति में कर्माशाह ने शत्रुक्षय का जीर्णोद्धार कराया, इससे उसकी निर्भयता, राज्यप्रतिष्ठा और जैनधर्म के प्रति अट श्रद्धा का परिचय मिलता है। . . . ... ... . [१३ जनवरी सन् ३३] . .... ... आशाशाह की वीरमाता ... जननी जन तो भक्त जन या दाता या सूर । . नहीं तो रहना वांझ ही वृथा गवा मत नूर॥ . ... .. .. . . . . . . . .. . . -अज्ञात . शाशाशाह की वीरमाता का नाम ऐतिहासिक विद्वानों को ... ज्ञात नहीं, वह कीमती मोती की भान्ति अन्तस्थलमें छुपा हुआ है, फिर भी उसकी प्रखर आमा संसार को वलात् अपनी ओर आकर्षित कर रही है। अपने जीवन में उसने क्या क्या लोकोपयोगी और वीरोचित कार्य किये ? उसका निर्मल चरित्र और कोमल स्वभाव कितना बढ़ा चढ़ा था ? वह सब कुछ अन्धकार में विलीन हो गया है। तो भी उसके जीवन का केवल एक कार्य ही ऐसा है जो हमारी आँखें खोलता है और उसकी मनोवृत्ति पर काफी प्रकाश डालवा है । पूर्व युग में सर्व साधारण. के विषय में कुछ लिखा जाय, ऐसी भारत में प्रथा ही न थी, केवल राजे महाराजों के गीत गाये जाते थे, यही कारण है कि हम इस वीर माता के लोकोत्तर कार्यों से अनभिज्ञ हैं। हमें अपनी इस अज्ञानता पर तरस आता है। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवाड़ के वीर इस देवी ने हिन्दु-कुल-तिलक महाराणा प्रताप के पिता उदयसिंह की जय कि वह निरावालक था-प्राण-रक्षा की थी, उस निरामय को अपने फुटम्ब का मोह छोड़ कर आश्रय दिया था। यही कारण है कि राणा उदयसिंह के सम्बन्ध में लिखते हुये टॉड साहव को अपने राजस्थान में प्रसन्न वश इस देवी का उल्लेख भी दो लाइन में करना पड़ा है। चित्तौड़ के राज्यासन पर बैठते ही दासी-पत्र बनवीर का हृदय बदल गया, उसे वे पिये ही दो बोतल का नशा रहने लगा। स्वार्थपरता कृतज्ञता को धर दवाती है। लोभ दया को स्थिर नहीं रहने देता । जो बनवीर विक्रमाजित को गद्दी से उतार कर राज्य प्राप्त करना घोर पाप समझता था, वही वनवीर राज्यासन पर बैठते ही सदा निष्कंटक राज्य करते रहने की कूट नीति सोचने लगा। वह राज्य के यथार्य उत्तराधिकारी यालक उदयसिंह को अपने पथ में काँटा समझ कर उसे मिटा देने के लिये क्रूर रात्रि की बाट जोहने लगा। धीरे २रात्रि हो गई । कुमार उदयसिंह ने मो. जनादि करके शयन किया । उनकी धाई विस्तरे पर बैठ सेवा करने लगी । कुछ विलम्ब के पीछे रणवास में घोर आर्तनाद और रोने का शब्द सुनाई आने लगा। इस शब्द को सुन कर + यह बनवीर दासी पुत्र था और उदयसिंह का रिश्ते में चाचा लगता था। राणा संग्रामसिंह के स्वगांसीन होने पर रसके पुत्र प्रमशः रत्नसिंह और विक्रमाजित मेवाड़ के अधीश्वर हुये, किन्तु विक्रमानित अयोग्य या इसलिये मेवाड़ हितैषी सरदारों ने विप्रमाणित को हटा कर बालक उदयसिंह के बालिला होने तक बनवीर को चित्तौड़ के राज्याशन पर अभिशित कर दिया था। A Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६. राजपूताने के जैन चीर पन्ना धायःविस्मित हुई। वह डर से उठना ही चाहती थी कि इतने में ही वारी (नाई) राजकुमार की जूठन आदि उठाने को वहाँ आया और भय विह्वल भाव से कहने लगा "बहुत बुरा हुआ सत्यानाश होगयां, वनवीर ने राणा विक्रमार्जित को मार डाला।" धाई का हृदय काँप-गया, वह समझ गई कि निष्ठुर-हृदय चनवीर केवल विक्रमाजित को ही मारकर चुप न होगा, वरन् उदयसिंह के मारने को भी आवेगा। उसने तत्काल बालक उदयसिंह को जिसकी अवस्था इस समय १५ वर्षे की थी; किसी युक्ति से वाहर निकाल दिया और उसके पलंग पर उसी अवस्था के अपने पुत्र को सुला दिया। इतने में ही रक्त-लोलुपी पिशाच-हृदय वनवीर आ पहुँचा और बालक उदयसिंह को खोजने लगा। तब पन्ना धाय ने इस रक्त लोलुप को अपने पुत्र की ओर संकेत कर दिया, उस चाण्डाल ने उसी को राजकुमार समम उसके कोमल हृदय में खंजर भोंक दिया । बालक सदैव को सो गया, पन्ना धाय ने अपने स्वामी के हितार्थ अपने बालक का बलिदान करके उफ ! तक न की । अपने पुत्र के मारे जाने पर पन्ना धाय महलों से निकल कर उदयसिंह के पास जा पहुँची ! आगे टॉड् साहब लिखते हैं कि कुमार को साथ लेकर पन्ना धाय ने वीरवाघजी के पुत्र सिंहराव के पास जाकर रहने की प्रार्थना की, वनवीर के भय से उसने राजकुमार की रक्षा करना स्वीकार नहीं किया. और . अत्यन्त शोकयुक्त होकर वोला--" मैं तो बहुतेरा चाहता हूँ कि राजकुमार की रक्षा करूँ परन्तु बनवीर इस बात को जान कर Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवाड़ के वीर वंश सहित मेरा संहार कर डालेगा। मुझ में इतना सामध्ये नहीं कि उसका सामना करूँ।" इसके उपरान्त पन्ना देवल को छोड़े कर डूंगरपुर' नामक स्थान में गईं और वहाँ के रावल ऐशकर्ण (यशकण) के पास राजकुमार को रखना चाहा, परन्तु उसने भी भयके मारे राजकुमार को नहीं रक्खा । तदुपरान्त विश्वासी और हितकारी भीलों के द्वारा रक्षित हों भारावली के दुर्गम पहाड़ और ईडर के कूट मार्गों को लाँघ कर, कुमार को साथ लिये हुये पन्ना कुँभलमेरु दुर्ग में पहुँची। यहाँ पर पन्ना की बुद्धिमानी से काम हो गया। देंपरा गोत्र कुल में उत्पन्न हुआ पाशांशाह देपरा नामक एक जैन उस समय कुंभलमेर में किलेदार था, पन्ना में उससे मिलना चाहा; आशाशाहने प्रार्थना स्वीकार करके विश्रामगृह में पन्ना को बुलाया। वहाँ पहुँचते ही धात्री नें वालक उदयसिंह को आशाशाह की गोद में विठोकर कहा- 'अपने राजा के प्राणं बचाइये परन्तु आशाशाह ने अप्रसन्न और भीत होकर कुमार को गोद से उतारना चाहा, आशा की माता भी वहीं पर थी, पुत्र की ऐसी कायरता देखकर उसको फटकारते हुए उपदेशं पूर्ण शब्दों में चोली "आशा! क्या तूं मेरा पुत्र नहीं हैं ? क्या मैंने तुमे व्यर्थ में ' पालपोस कर इतना बड़ा किया हैं ? धिकार है तेरे जीवन को! क्या ही अच्छा होता जो तू मेरे उर में जन्म ही न लेता, तेरें भार' से पृथ्वी बोगों मरती है । जो मनुष्य विपत्ति में किसी के काम नहीं टाइ राजस्थानं द्वि० रवं० अ० ९ पृ० २४५-४६ । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ राजपूताने के जैन वीर आता, निरपराधियों और बेकसों को अत्याचारियों के चंगुल से सामर्थ्य रहते हुये भी नहीं बचा सकता, निराश्रयों को आश्रय नहीं दे सकता, ऐसे अधम को संसार में जीने का अधिकार नहीं । , जिन हाथों से लोरियाँ गा-गा कर तुझे इतना बड़ा किया, आज उन्हीं हाथों से तेरा जीवन समाप्त कर दूँ ।" इतना कहकर वह भूखी शेरनी की भांति आशाशाह पर झपट पड़ी और चाहती थी कि ऐसे नराधम, भीरु, कायर और अधर्मी पुत्र का गला घोट दूँ, कि आशाशाह अपनी वीर माता के पावों में गिर पड़ा, उसकी भीरुता हिरन होगई । वह घुटने टेक अश्रुविन्दुओं से अपनी वीर माता के चरण कमलों का अभिषेक करने लगा | वह मातृ-भक्त गद् गद् कण्ठ से बोला · myday माँ ! तुम्हारा पुत्र होकर भी मैं यह भीरुता कर सकता था? क्या सिंहनी - पुत्र शृगाल के भय से अपने धर्म से विमुख हो सकता है? क्या प्राणों के तुच्छ मोह में पड़कर मैं शरणागत की रक्षा न करके अपने धर्म से विमुख होसकता था? मेरी अच्छी अम्मा ! क्या वास्तव में तुम्हें यह भ्रम होगया था ?" आशाशाह के वीरोचित शब्द सुनकर वीर माता का हृदय उमड़ आया, वह उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरने लगी । आशाशाह माता का यह व्यवहार देखकर मुस्करा कर बोला :"माँ यह क्या? कहाँ तो तुम मेरा जीवन समाप्त कर देना चाहती थीं और कहाँ.... "" वीर-माता बात काट कर बोली, बेटा क्षत्राणियों का अद्भुत Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवाड़ के वीर न्वभाव होता है। वह कर्तव्य-विमुख पुत्र या पति का मुंह देखना नहीं चाहती, किन्तु कर्तव्य-परायण की वह बलैयाँ लेती हैं, उनके लिये मिट जाती हैं।" वीर आशाशाह ने कुमार उदयसिंह को अपना भतीजा कहके प्रसिद्ध किया और युवा होने पर आशाशाह ने उदयसिंह को अन्य सामन्तों की सहायता से चिचोड़ का सिंहासन दिला दिया। जबकि मेवाड़ के पड़े-बढ़े सामन्त, राज्य से बड़ी बड़ी जागीर पाने वाले चित्तौड़के यथार्थ उत्तराधिकारी कुमार उदयसिंह को शरण न दे सके, तब एक जैन कुलोत्पन्न महिला ने जो कार्य किया वह अवश्य ही सराहने योग्य है । आज भी इस सभ्यता के युग में जब कि हर प्रकार की शिकायतों के लिये न्यायालय खुले हुए हैं राजद्रोही को शरण देने वाला दण्डनीय होता है । तब उस जमाने में जब कि राजा ही सर्वेसर्वा होता था, वह विना किसी अदालत के अपनी इच्छानुसार मनुष्यों के प्राण हरण कर सकता था तय ऐसे संकटके समयमें भी उस महिलारत्न ने जो कार्य कर दिखाया था, वह आदर्श है। यदि इसी प्रकार आज भी जैन-माताएँ अपने पत्रों को सत्यासत्य कर्तव्य का बोध कराती रहें तो शीघ्र ही इस दुखिया भारत का बेड़ा पार हो जाये। अभयदान पै वारिये; अमित यज्ञ को दान । -श्रीवियोगिहरि [२४ अक्टूबर सन् ३२] नोट-यह ऐख नैनप्रकाश दिसम्बर सन् २८ में प्रकाशित होचुका है अब मुल परिवर्तन करके पुनः लिखा गया है। : - Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजपूताने के जैन-धीर : भामाशाह का घराना ... भारमल .. आरमल कावड़िया गोत्रोत्पन्न ओसवाल जाति का महाजन : था। मेवाड़ के प्रसिद्ध शूरवीर महाराणा साँगा ने इसको वि० सं० १६१० ई० स० १५५३में अलवर से बलाकर रणथम्भोर का किलेदार नियत किया था। पीछे से जव हाड़ा सूरजमल बून्दीवाला वहाँ का किलेदार नियत हुआ, उस समय भी रणथम्भोर का बहुत सा काम इसी के हाथ में था+राणा उदयसिंह के शासन काल में यह उनके प्रधान पद पर प्रतिष्ठित हुआ। इसके सम्बन्ध की युद्ध-घटनाओं का अभी तक कोई विवरण उपलब्ध नहीं हुआ है। फिर भी महाराणा संग्रामसिंह जैसे प्रसिद्ध युद्ध-प्रिय व्यक्ति द्वारा इसका अलवर से बुलाया जाना, रणथम्भोर जैसे किले का किलेदार नियत होना और फिर किलेदार से एकदम राणा उदयसिंह का मंत्री होना ही इसके वीरत्त्वं और राज्य-नीतिज्ञ होने के काफी प्रमाण हैं। इसी को मेवाड़ोद्धारक भामाशाह और ताराचन्द्र के भाग्यशाली पिता होने का गौरव प्राप्त हुआ था। . :: . . . सूर-सुतहिं. जंगजन्म-संग, सहज जंग जागीर । समर-मरण में सब मिल्यौ, अरु खिताब रण-धीर ।। . , -वियोगिहरि २५ अक्टूबर सन् ३२] +राजपूताने का इ० ती० ख०.११४३ । . Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवाड़ के वीर नाराचंद खण्ड-खण्ड है जाय बरु, देतु न पाछे पैड़। लरत सूरमा खेत को मरत न छोड्तु मेड़ ॥ -वियोगिहरि वीर ताराचन्द राणा उदयसिंह के प्रधान भारमल का सुयोग्य पुत्र और मेवाडोद्धारक भामाशाह का भाई था। यह स्वभाव से ही वीर प्रकृति का मनुष्य था। हल्दी-घाटी का युद्ध फैसा भयानक हुआ? इसकी साक्षी इतिहास के पृष्ठ पकार २ कर दे रहे हैं ।। २१ हजार राजपतों ने मेवाड़ की स्वतंत्रता के +स इतिहास प्रसिद्ध हल्दीघाटी के प्रति श्री. सोहनलाल द्विवेदी ने लिखा है :रागिनि-सी बीहड़ वन में, कहाँ छिपी बैंठी एकान्त । मातः आज तुम्हारे दर्शन को, मैं हूँ व्याकुल उद्धान्त। तपस्विनी, नीरव निर्जन में, कौन साधना में तल्लीन । बीते दिन की मधुरस्मृति में, ज्या तुम रहती हो लवलीन।। * जगतीतल की समरभूमि में, तुम पावन हो लाखों में। दर्शन दो, तव चरण-धुलि, ले लँ मस्तक में, आँखों में। तुम में ही हो गवे वतन के लिए अनेकों वीर शहीद । तुम सा तीर्थस्थान कौन, हम मतवालों के लिए पुनीत ।। आजादी के दीवानों को, क्या जग के उपकरणों में। मन्दिर मसजिद गिरजा सब तो, वसे तुम्हारे चरणों में। . Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजपूताने के जैत-वीर लिए भारतीय श्रान के लिये अपने प्राणों की आहुति दे दी किन्तु देश का दुर्भाग्य कि वह इसे स्वतंत्र न कर सके । हो भी कैसे ? जब कि राजपूत-कुलंगार शक्तसिंह (राणा प्रताप के भाई) और आमेराधिपति मानसिंह जैसे शत्रु का पक्ष लेकर अपने देशवासियों से लड़ रहे थे। इसी संसार-प्रसिद्ध युद्ध में वीर ताराचंद भी राणा प्रताप के साथ था और प्राणों के. तुच्छ मोह को कहाँ तुम्हारे आँगन में खेला था वह माई का लाल । वह माईका लाल, जिसे पा करके तुम हो गई निहाल ।। वह माई का लाल, जिसे दुनिया कहती है वीर प्रताप । ' कहाँ तुम्हारे आँगन में; उसके पवित्र चरणों की छाप । उसके पद-रज की कीमत क्या हो सकता है यह जीवन । स्वीकृत है वरदान मिले, लो चढ़ारहा अपना कण ।। तुमने स्वतंत्रता के स्वर में, गाया प्रथम-प्रथम रण-गान । · दौड़ पड़े रजपूत वाँकुरे, सुन-सुन कर आतुर आह्वान II इल्दी घाटी; मचा तुम्हारे आँगन में भीषण संपाम ।। रजमें लीन होगये, पल में अराणित राजमुकुट अभिराम ३. युग-युग बीत गये,तब तुमने खेला,था अद्भुत रणरंग। एक बार फिर भरो, हमारे हृदयों में, माँ वही उमंग ॥; गाओ, माँ, फिर एक बार तुम, वे मरने के मीठे गान। हम मतवाले हों स्वदेशके चरणों में हँस-हँस बलिदान... .. राजपूताने का इ० ख०-तीव:पृ-७६३ । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवाड़ के वीर छोड़ कर अपने प्रतिद्वन्दियों से जूम.करं अत्यन्त वीरता पूर्वक युद्ध किया। हल्दीघाटी के युद्ध के पश्चात् यह मालवें की ओर चला गया। वहाँ शाहबापाखों ने जा घेरा, उसके साथ युद्ध करता हुआ वसी के पास जा पहुंचा और वहाँ घायल होने के कारण बेहोश होकर गिर पड़ा। वसी के रावं सांईदास देवड़ा, घायलें वाराचन्द को उठाकर अपने किले में ले गया और वहाँ उस की" अच्छी परिच- की । ताराचन्द 'गोड़वाई प्रदेश का हाकिम (गवर्नर) भी रहा था और हल्दी घाटी के युद्ध से पूर्व वह सादडी, में रहता था। उसने सादड़ी के बाहर एक बारहदरी और बावड़ी धनवाई उसके पास ही ताराचन्द उसकी चार खियाँ एक खवास छः गायने एक गवैया और उस गवैये की औरत की मूर्तियाँ पत्थरों पर खुदी हुई हैं। [२५ अक्टूबर सन् ३२] भामाशाह कहत महादानी उन्हें चाटुकार मतिर । पीठहुँ को नहिं देत जे, कपणदान रण-सूर ।' -वियोगहरि स्वाधीनता की लीलास्थली वीरअसवा मेवाड़-भूमि के ' इतिहास में भामाशाह का नाम स्वर्णाक्षरों में अङ्कित है। हल्दीघाटी का युद्ध कैसा भयानक हुआ, यहः पाठकों ने राज० पू० का इ० ती० ख० पृ. ७४३१ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ राजपूताने के जैन-चीर मेवाड़ के इतिहास में पढ़ा होगा। इसी युद्ध में राणा प्रताप की । ओर से वीर भामाशाह और उसका भाई ताराचन्द भी लड़ा. था, २१ हजार राजपूतों ने असंख्य यवन-सेना के साथ युद्ध करके स्वतंत्रता की वेदी पर अपने प्राणों की आहुति दे दी, किन्तु दुर्भाग्य कि वे मेवाड़ को यवनों द्वारा पद्दलित होने से.न. बचा सके । समस्त मेवाड़ पर यवनों का आतङ्क छा गया। युद्ध-परित्याग करने पर राणा प्रताप मेवाड़ का पुनरुद्धार करने की प्रवल आकांक्षा को लिये हुये वीरान जंगलो में भटकते. फिरते. थे। उनके ऐशोआराम. में पलने योग्य वच्चे, भोजन के लिये उनके चारों तरफ रोते रहते थे। उनके रहने के लिये कोई सुरक्षित स्थान न था। अत्याचारी मुगलों के आक्रमणों के कारण वना बनाया भोजन राणाजी को पाँचवार छोड़ना पड़ा था। इतने पर भी धान पर मिटने वाले समर केसरी प्रताप विचलित नहीं हुये। वह अपने पुत्रों और सम्बन्धियों को हल्दीघाटी का यह विख्यात युद्ध १८ जून सन् १५७६ ईस्वी को एक घी दिन चढ़े आरम्भ हुआ था और उसी दिन सायंकाल तक समाप्त होगया था। (चान्द वर्ष ११ पूर्ण संख्या १२२ पृ० ११८ ) और अब हर्ष है कि । कुछ वर्षों से ज्येष्ठ शुल्ला ७ का इस स्वतन्त्रता बलिदान दिवस की पवित्र स्मति में कुछ कर्म-वीरों ने वहाँ मेले का आयोजन करके किसी कवि के निग्न उदगारों की पूर्ति की है• शहीदों के मजारों पर जुड़ेंगे हर वरस मेले । · वतनपर मरने वालों का यही वाक्की निशां होगा। * राजपूताने का इतिहास तीसरा खण्ड पृ० ७४३ ।- . Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवाड़ के वीर प्रसन्नता पूर्वक रणक्षेत्र में अपने साथ रहते हुये देखकर यही कहा करते थे कि "राजपूतों का जन्म ही इसलिये होता है।" परन्तु उस पर्वत जैसे स्थिर मनुष्य को भी आपत्तियों के प्रलयकारी झोकों ने विचलित कर दिया। एक दफा जंगली अन्न के आटे की रोटियाँ बनाई गई और प्रत्येक के भाग में एक एक रोटी-आधी सुबह और आधी शाम के लिये-आई । राणा प्रताप राजनैतिक पेचीदा उलझनों के सलमाने में व्यस्त थे, वे मातृ-भूमि की परतंत्रता से दुखी होकर गर्म निश्वास छोड़ रहे थे कि, इतने में लड़की के हृदय-भेदी चीत्कार ने उन्हें चौंका दिया। वात यह हुई कि एक जंगली बिल्ली छोटी लड़की के हाथ में से रोटी को छीन कर लेगई, जिससे कि वह मारे भूख के चिल्लाने लगीं। ऐसी ऐसी अनेक आपत्तियों से घिरे हुये, शत्रु के प्रवाह को रोकने में असमर्थ होने के कारण, वीर चूडामणि प्रताप मेवाड़ छोड़ने को जव उद्यत हुए तब भामाशाह राणाजी के स्वदेश-निर्वासन के विचार को सुनकर रो उठा । इस करुण दृश्य को कविवर लोचनप्रसादजी पाण्डेय ने (खंडवा से प्रकाशित ५ जून सन् १९१३ की प्रभा में) इस प्रकार चित्रित किया था: "राणा मेवाड़-स्वामी अहह ! कर रहे आज हैं देश त्याग, वंशं, ख्याति, प्रतिष्ठा-हित दुख बन के, ले रहे सानुराग ।" पाते ही. वृद्ध मंत्री वह वणिक, अहो! वृत्त ऐसा दुरन्त, 'घोड़े पें हो सवार प्रखर गति चला शाहमामां तुरन्त ।। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजपूताने के जैन चीर जाते-जाते उठे यों, बणिक-हृदय में आप ही भाव नाना-- क्यों जाते हैं। कहाँ हो विवश? पड़ गये लोभ में तो नरागारी: आशा तो है न होगी, इस तरह उन्हें हीनता से विरक्ति, है आर्थों की प्रतिष्ठा अविचल उनकी प्रात्सदा आत्मशक्ति। "हा! अर्थाभाव.ही के हित नृपातजना चाहते हैं स्वदेश!" ऐसा. मैंने किसी- को उसदिन कहते.था सुना. हाय छेशः! हिन्दु-सूर्य प्रतापी प्रखरतर कहाँ शक्तिशाली: प्रताप? पीडा-बीड़ा प्रपूर्ण प्रबल अति कहाँ निन्ः अर्थान्नताप.॥ . जो ऐसी ही अवस्था इस समय हुई प्राप्त, आगे कदापिः. तो तस्वाभाविकी रें! बरिणक, कृपणता चिचलानान पापी!. हे. हे मेवाड़-माता! चल अनुपम तू दे मुझे आज ऐसा, . सेवा में त्याग-युक्त प्रकट कर सकूँ चीर सत्पुत्र जैसा ॥ : . (४). जो तू आधीन होके यवन नृपति के क्लेश नाना: सहेगी. वो क्या आधीनता का अनल न हमको नित्यहीमाँ दुहेगी? . खोके स्वातंत्र्य रूपी मणि हम दुःख के, घोर काली निशामें,, जावेंगे क्यान हा! हा! तज कुल-गरिमा, मृत्युहीकी दिशा में! जो श्री-मेवाड़-भू के शुचितरः कुल के गर्व का कीर्ति केतु जावेगा टूटा तो क्या फ़िर धन जन त सोच हो, लाम हेतुः । लेलेंगे क्रूरता से हर कर रिप जो सौख्य की वस्तुः सारी , : मारे मारे फिरेंगे, तब हम, मधु की मक्षिका ज्यों दुखारी ।। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवाड़ के पार जावेगी मात में, जो निकलं कर सभी हाथ से, हा! हमारे, तो क्या निर्जीव प्राणी हम सब हैं व्यर्थ ही प्राण धारे ? ऐसा होने न देंगे प्रण कर अपने प्राण, का दान देके, होंगे सेवा चुकाते, अमर निहत हो युद्ध में कीति लेके । आवेगा काम तेरा, कब यह धन हा!रे! कृतघ्नी कठोर, भामा! धिक्कार लाखों तव धन बल को निन्धरे नीच घोर !" भामा ने यो स्वयं ही कटु वचन कहे खेद पाके अपार, आँखों से छूटने त्यों अहह ! फिर लगी रक्त-पर्णाश्रुधार । स्वामी को शीघ्रता से, वन-चन फिरता ढूंढता शाह भामा, पाता अत्यन्त पीड़ा, लख गति नप के कर्म की हाय! वामा.। सिन्धु-प्रान्तस्थ सीमा पर जब पहुँचा तो वहाँ दूर ही से, देखा कौटुम्बियों के युत, नरवर को खिन्नता त्यागं जीसें ।। घोड़े से भूमि पै श्रा, घर कर हय को रास मंत्री चला यो, माता मेवाड़-मग्ने स्वसुत निकट है दूत भेजां भला ज्यो.! जाको मेवाड़-मौर। प्रभुवर-पद पैं शीश मंत्री मंकाय घोला यो नम्रता से नयन-युगल से शोक-आँसू 'वहा के: "हो जावेगी अनाथा: प्रभुवर ! जननी, जन्म-भूमि प्रसिद्ध, त्यागेंगे आप यों, जो कुसमय उसको हो विपत्यान-विद्ध !! राणाको चित्तमें.यों विषम विषमयी क्यों हुई आत्म-पलानी? धेरै संसार को श्रांजलंद पटलं तो सूर्य"की कन हानी? . . .. . " Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ ... राजपूनाने के जैन-वीर योद्धा थे साथ में, थे धन जन, न रहा साधनों का प्रभाव मंत्री! मैंने दिखाये तब तक अपने ज्ञान शक्ति प्रभाव । हों कैसे, भोजनों का दुख जब हम को सालता रोज हाय! रक्षा वंश-प्रतिष्ठा तब अब अपनी, है कहो, क्या उपाय ? (१३) रोते हैं राजपुत्र, क्षुधित दुखित हो, अम्ब की ओह देख! छाती जाती फटी है तब इस शठ की हाय ! रे कर्म रेख!! ऐसी दीन दशा में कबतक रिपु से युद्ध हाहा! करूँगा ? क्या श्री स्वाधीनता कोअकवर कर में सौंप, स्वाहा करूँगा ? (१४) . . पीछे पीछे सदा ही अहह ! फिर रही शत्रु-सेना हमारे। धीरे धीरे कुटुम्बी सुभट हत हुये युद्ध में हाय सारे ॥ सामग्री एक भी है, समर-हित नहीं पास में और शेष, भागी भागी प्रजा भी, समय फिर रही, भोगती घोर क्लेश!! हे मंत्री ! सामना मैं कर अब सकता शत्रुओं का न और, जाता हूँ मातृ-भू को तजकर, इस से दुःख में अन्य ठौर । मेरी प्यारी प्रजा को. अमित दुःख. मिले नित्य मेरे निमित्त, तौभी स्वातंत्र्यरूपी, वह अहह नहीं पासकी श्रेष्ठ वित्त !! क्या.ही निश्चिन्ततासे भय तज रिप कासिन्धु केपार जाके हे हे मंत्री ! रहूँगा 'सुख सहित नया-रक्षित स्थान पाके। मेवाड़ोद्धार हेतु प्रमुदित करके राज्य की स्थापना में, भीलों की सैन्य लूंगा अगणित धन के साथ ही मेंबना मैं ।। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " . F KAR . ग.. ........ . . .. . . ": .: . . " .. APAL AL A.NA A . IY.. 4. : . . ..". UN . . " . ... ... ... .... .. ENTRETAR राणा प्रताप और भामाशाह Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवाड़ के जैन-चोर ब्रीड़ा-पीड़ा निराशा भरित वचन ये, भूप.के वृद्ध मंत्रीशोकात होगया हा! श्रवण कर, गई टूटसी. प्राण-तंत्री पैरों में वृद्ध मंत्री गिरकर नृप के वृक्ष छिन्न.लता, से, श्री राणा से लगा यों तब, फिर करने प्रार्थना नम्रता से ।। (१८) स्वामी हो आप नामी इस अनवर की देह के अन्नदाता, खाया है अन्न मैंने तव, अवतक हूँ आपका अन्न खाता, है द्वारा देह की जो रुधिर, वह घना अन्न से श्राप ही के, स्वामी हो आप मेरे, तन, धन, जन के भूमि सभी के ॥ मेरा सर्वत्व हो है तन-सहित प्रभो ! भूपते ! आपका ही, भागी हूँगा न दूँ जो तन धन नप के हेतु, मैं पाप का ही। जूता मैं श्री पदों के हित यदि वनवा देह की चर्म से दूँ, तो भी है हाय ! थोड़ा यदि तव ऋण को मूढ़ मैं धर्म से+॥ (२०) है ही क्या शक्ति ऐसी प्रभूवर ! मुममें दे सकूँ जो सहाय! सिंहों की गीदड़ों से कब विपद घटी बोलिये, हाय ! हाय !! तो भी है पास मेरे कुछ धन जिसको सौंपता आपको मैं, पाके सो भूप ! लौटे, नहीं सह सकता मात-भ-ताप को मैं ।। (२१) कीजे रता प्रजा की इस धन-चल से देश की जाति की भी, कीजे हे भूप! रक्षा इस धन-बल से वंश की, ख्याति की भी। होगी सर्वेश को जो अतुलित करुणा, वात सारी बनेगी, जीतेंगे शत्रुओं को, विषम विपद में शीघ्र सारी कटेगी। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० राजपूताने के जैन-वीर (२२) जो या काम स्वामी ! यह धन, अपने देश-रक्षा हितार्थ, हो जाऊँगा सर्वश, प्रभुवर ! ऋण से छूट के मैं कृतार्थ ॥ हूँ रांगा ! वैश्य तौ भी यदि वल रहता वृद्ध होता नहीं मैं, तो लेके खड़ग जाता समर-हित जहाँ शत्रु होते वहीं मैं । (२३) मंत्री हूँ, वृद्ध हूँ मैं, अहित न कभी मैं कहूँगा नरेश ! होगा कष्ट-प्रदाता, डरकर, रिंपु से त्यागना व्यर्थ देश । हे स्वामी ! लौटियेगा पितरगण का सोचके स्वाभिमान, जाने दूँगा हा ! मैं प्रभुवर ! न कभी आपको अन्य स्थान !! ! ( २४ ) जाना देखो तो, जन्म भू है रुदन कर रही, हा ! हत ज्ञान होके : शक्ति, श्री, बुद्धि, विद्या, रहित वह हुई आपको आज खोके, माता को दुख रूपी अगम जलधि में मूर्छिता छोड़ जाना: मैंने यही है ऋण इस युग में पूर्णता से चुकाना ॥ (२५) वोले यों बात कारी सुन सचिव की वीर श्रीमान् राणा, हा ! मां मेवाड़ भूमे ! मृतक समझ के तू मुझे भूल जाना । जो नाना आपदाएँ नित नई तुम पै एक से एक आई, मेरी ही मूर्खता से श्रहह ! सकल ही रे गईं हैं बुलाई ॥ ( २६ ) मंत्री की स्वामी भक्ति प्रकट लख तथा देख के आत्म-त्याग, बोले राणा प्रतापी, वचन नर पुनः तुष्ट हो सानुराग । 'मंत्री पा होगया मैं सुचतुर तुमसा श्राज भामा ! कृतार्थ: भेजा क्या नात-भू ने रचकर तुमको देश- रक्षा हितार्थ ॥ + +- श्री गोविन्दसिंह जी पंचौली चित्तौड़गढ़ की कृपा से प्राप्त । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवाड़ के जैन वीर हल्दीघाटी के युद्ध के बाद भामाशाह कुम्भलमेरु की प्रजा को लेकर मालवे में रामपुरे की ओर चला गया था, वहाँ भामाशाह और उसके भाई ताराचन्द ने मालवे पर चढ़ाई करके २५ लाख रुपये तथा २० हजार अशर्फियाँ दण्ड स्वरूप वसूल कीं इस संकटावस्था में उस वीर ने देश-भक्ति तथा स्वामिभक्ति से प्रेरित होकर, कर्नल जेम्सटॉड के कथनानुसार, राणा प्रताप को जो धन भेट किया था, वह इतना था कि २५ हजार सैनिकों का १२ वर्ष तक निर्वाह हो सकता था। इस महान उपकार करने के कारण महात्मा भामाशाह मेवाड़ के उद्धारकर्ता कहलाये गये || भामाशाह के इस अपूर्व त्याग के सम्बन्ध में भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्रजी ने लिखा है:-- जा धन के हित नारि तजै पति, पूह तजै पितु शीलहि सोई । भाई सों भाई लरै रिपु से पुनि, मित्रता मित्र तजै दुख जोई । ता धन को वनिया है गिन्यो न, दियो दुख देश के भारत होई । तुम्हारोई है, स्वारथ अ तुमरे सम और न या जग कोई ॥ देशभक्त भामाशाह का यह कैसा अपूर्व स्वार्थ त्याग है ? ' . · -- -देखो टाड राजस्थान, जि० १ पृ० ३४९ ॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९९ राजपूतों के जैन वीर जिस धन के लिये केकई ने राम को १४ वर्ष के लिये घनवास भेजा, जिस धन के लिये पाण्डव और कौरवों ने २० अचौहणी सेना कटवा डाली, जिस धन के लिये बनवीर ने बालक उदयसिंह की हत्या करने की असफल चेष्टा की, जिस धन के लिये मारवाड़ के कई राजाओं ने अपने पिता और भाइयोंका संहार किया, जिस धन के लिये लोगों ने मान वेचा, धर्मः चेचा, कुलगौरव बेचा सांथ ही देश की स्वतंत्रता बेची; वही धन भामाशाह ने देशोद्वार के लिये प्रतापको अर्पण कर दिया। भामाशाहका यह अनोखा त्याग धनलोलुपी मनुष्यों की बलात् आँखें खोल कर उन्हें देशभक्ति का पाठ पढ़ाता है। भारमल के स्वर्गवास होने पर राणा प्रताप ने भामाशाह को अपना मंत्री नियत किया था। हल्दीघाटी के युद्ध के बाद जब भामाशाह मालवे की ओर चला गया था तब उसकी अनुपस्थिति में रामा सहाणी महाराणाके प्रधान का कार्य करने लगा था । भामाशाह के आने पर रामा से प्रधान का कार्य - भार लेकर पुनः भामाशाह को सौंप दिया गया उसी समय किसी कविका कहा 'गया प्रचीन पद्य इस प्रकार है: भामो परधानी करे रामो कींधो रद्द * । भामाशाह के दिये हुये रुपयों का सहारा पाकर राणा प्रताप ने फिर बिखरी हुई शक्ति को बटोर कर रणभेरी बजादी । जिसे सुनते ही शत्रुओं के हृदय दहल गए। कायरों के प्राण पखेरू उड़ +-- राजपूताने का इतिहास ती० ख०:- पृ. ७४३ । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवाड़ के जैन चीर गये, अकबर के होश-हवास जाते रहे । राणाजी और वीर भामाशाह अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित होकर जगह जगह आक्रमण करते हुये यवनों द्वारा विजित मेवाड़ को पुनः अपने अधिकार में करने लगे। पं० मावरमल्लजी शर्मा सम्पादक दैनिक हिन्दु संसार ने लिखा है:-"इन घावों में भी भामाशाह की वीरता के हाथ देखने का महाराण को खूब अवसर मिला और उससे वे बड़े प्रसन्न हुये है।" ___..."इसी प्रकार महाराणा अपने प्रवल पराक्रान्त वीरों की सहायतास बरावर आक्रमण करते रहे और संवत् १६४३ तक उन का चित्तोड़ और माण्डलगढ़ को छोड़कर समस्त मेवाड़ पर फिर से अधिकार होगया । इस विजय में महाराणा की साहस प्रधान वीरता के साथ भामाशाह की उदार सहायता और राजपूत सैनिकों का आत्म-चलिदानही मुख्य कारण था । आज भामाशाह नहीं है किन्तु उसकी उदारता का वखान सर्वत्र बड़े गौरव के साथ किया जाता है।" "प्रायः साढ़े तीनसौ वर्ष होने को आये, भामाशाह के वंशज आज भी भामाशाह के नाम पर सम्मान पा रहे हैं । मेवाड़ राजधानी उदयपुर में भामाशाह के वंशज को पंच पंचायत और अन्य विशेष उपलक्षों में सर्व प्रथम गौरव दिया जाता है। समयके उलट --श्री ओझाजी ने भी लिखा है -महाराणा. मामाशाह की बड़ी खातिर करता था और वह दिवैर के शाही थाने पर हमला करने के समय भी राजपूतों के साथ था । राजपूताने का इति. पृ. ७४३ । Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजपुताने के जैन-चीर फेरे अथवा कालचक्र की महिमा से भामाशाह के वंशज आज मेवाड़ के दीवानपद पर नहीं हैं और न धन का बल ही उनके पास रह गया है । इसलिये धन की पूजा के इस दुर्घट समय में उनकी प्रधानता, धन-शक्ति सम्पन्न उनकी जाति विरादरी के अन्य लोगों को अखरती है। किन्तु उनके पुण्यश्लोक पूर्वज भामाशाह के नाम का गौरव ही ढाल वनकर उनकी रक्षा कर रहा है। भामाशाह के वंशजों की परम्परागत प्रतिष्ठा की रक्षा के लिये संवत् १९१२ में तत्सामयिक उदयपुराधीश महाराणा सरुपसिंह को एक आज्ञापत्र निकालना पड़ा था, जिसकी नकल न्यों की त्यों इस प्रकार है: . श्री रामोजयति , श्रीगनेशजीप्रसादात् श्रीएकलिंगजी प्रसादात् भाले का निशान [सही] स्वस्तिश्री उदयपुर सुभसुथाने महाराजाधिराज महाराणाजी श्रीसरुपसिंघजी आदेशात् कावड्या जेचन्द कुनणो वीरचन्दकस्य अमं थारा बड़ा वासा भामो कावड्यो ई राजन्हे साम ध्रमासुकाम चाकरी करी जी की मरजाद ठेठसू य्या है म्हाजना की जातम्हे वावनी त्या चौकाकोजीमण वा सीगपूंजा होवे जीम्हे पहेलीतलक । थारे होतो हो सो अगला नगर सेठ वेणीदास करसो कर्यो अर . 'ततलक थारे नहीं करवा दीदो अवारू थारी सालसी दीखी कर सेठ पेमचन्द ने हुकम की दो सो वी भी अरज करी Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवाड़ के वीर अर न्यात म्हे हकसर मालम हुई सो अब तलक माफक दसतुर के थे थारो कराय्या जाजो आगासु थारा बंस को होवेगा जी के तलक हुवा जावेगा पंचाने वी हुकुम करदीय्यो है सौ पेलीतलक थारे होवेगा। प्रवानगी म्हेता सेरसीघ संवत् १९१२ जेठसुद १५बुधे।"x - इसका अभिप्राय यही है कि-"भामाशाह के मुख्य वंशधर की यह प्रतिष्ठा चली आती रही कि, जब महाजनों में समस्त जाति-समुदाय का भोजन आदि होता, तब सब से प्रथम उसके तिलक किया जाता था, परन्तु पीछे से महाजनों ने उसके वंश वालों के तिलक करना, बन्द कर दिया, तब महाराणा स्वरुपसिंह ने उसके कुल की अच्छी सेवा का स्मर्ण कर इस विषय की जांच कराई और आज्ञा दी कि महाजनों की जाति में धावनी (सारी जाति का भोजन) तथा चौके का भोजन व सिंहपूजा में पहले के अनुसार तिलक भामाशाह के मुख्य वंशधर के ही किया जाय । इस विषय का परवाना वि० सं० १९१२ ज्येष्ठ सुदी १५को जयचंद कुनया वीरचन्द कावड़िया के नाम कर दिया, तब से भामाशाह के मुख्य वंशधर के तिलक होने लगा।" ___ "फिर महाजनों ने महाराणा की उम्त आज्ञा का पालन न किया, जिससे महाराणा फतहसिंह के समय वि०सं०१५५२कार्तिक सुदी १२ को मुकदमा होकर उसके तिलक किये जाने की आज्ञा दी गई। xहिन्दुसंसार दीपावली अब कार्तिक ऋ० १० सं० १९८२ वि० + रामपूताने का ८० पृ० ०८७-८८ । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजपूताने के जैन-चीर वीर भामाशाह ! तुम धन्य हो !! घाज प्रायः साढ़े तीन सौ : वर्ष से तुम इस संसार में नहीं हो परन्तु यहाँ के बच्चे की जवान पर तुम्हारे पवित्र नाम की छाप लगी हुई है ।। जिस देश के लिये ' तुमने इतना बड़ा आत्म त्याग किया था, वह मेवाड़ पुनः अपनी स्वाधीनता प्रायः खो बैठा हैं। परन्तु फिर भी वहाँ तुम्हारा गुण गान होता रहता है। तुमने अपनी अंतयकीर्ति से स्वयं को ही नहीं किन्तु समस्त जैन- जांतिका मस्तकं ऊँचा कर दिया है । † नेवाड़ का अमूल्य और अप्राप्य ऐतिहासिक अन्यरत्न "वीराविनोद" में जिसको कि मुझे सौभाग्य से मान्य ओझानी के यहाँ देखने का जरा सो अवसर मिल गया' या पृ० २५१ पर लिखा हैं कि: भामाशाह बड़ी दुरअंत का आदमीया । यह महाराणा प्रतापसिंह के शुरू समयं से महाराणा अमरसिंह के राज्य के ॥ तथा २ वर्ष तक प्रधान रहा । इसने ऊपर लिखी हुई बड़ी बड़ी लड़ाइयों में हजारों अदनियों का खर्च चलांचा । यहं नामी प्रधान संवत् १६५६ माघ शुक्ल ११ (हि० १००९ ॥ सा० ९ ई० १६०० ता० २७ जनवरी) को ५१ वर्ष और ७ महीने की उत्तर में परलोक को सिधारा । इसका उन्न संवत् १६०४ आषाढ़ शुक्ल १० (हिο' ९५४ ता० ९ उमादि युल भावल ई० १५४७ ता० २८ जून) सोमवार को हुआ था। इसने मरनेके एक दिन पहले नपनी स्त्री को एक वही अपने हाथ की लिखी हुई दी और कहा कि इसने मंबाड़ के बचने का कुल हाल लिखा हुआ है। - जिस बक तकलीफ हो यह वही उन महाराणा की नत्र करना । यह भैरहवाह महाराणा अमरसिंह का कई वर्षों तर्क घंटे अवाशाह को महाराणा नमरसिंह . प्रधान इस बही के लिखे कुल सजने से खर्च चलाता रहा। मरने पर इसके ने प्रधान पद दिया था। वह भी ख़ैरस्वाह आदमी था। लेकिन मामाशाह की सानी का होना कठिन था । १ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. . . . 4 .. . .. ATTA " " .. . - HA मेवाडोद्धारक भामाशाह का मृत्यु-स्मारक Page #108 -------------------------------------------------------------------------- Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवाड़ के वीर ९७ निःसन्देह वह दिन धन्य होगा, जिस दिन भारतवर्ष की स्वतंत्रता के लिये जैन समाज के धन कुबेरों में भामाशाह जैसे सद्भावों का उदय होगा। X X X जिस नररत्र का ऊपर उल्लेख किया गया है, उसके चरित्र, दान आदि के सम्बन्ध में ऐतिहासिकों की चिरकाल से यही धारणा रही है । किन्तु हाल में रायबहादुर महामहोपाध्याय पं० गौरीशंकर होराचंदजी ओझा ने अपने राजपूताने के इतिहास तीसरे खण्ड में "महाराणा प्रताप की सम्पत्ति शीर्षक के नीचे महाराणा के निराश होकर मेवाड़ छोड़ने और भामाशाह के रुपये दे देने पर फिर लड़ाई के लिये तैयारी करने की प्रसिद्ध घटना को असत्य ठहराया है । इस विषय में आपकी युक्ति का सार 'त्यागभूमि' के शब्दों में इस प्रकार है : "महाराणा कुम्भा और सॉंगा आदि द्वारा उपार्जित अतुल सम्पत्ति अभी तक मौजूद थी, वादशाह अकबर इसे अभी तक न ले पाया था । यदि यह सम्पत्ति न होती तो जहाँगीर से सन्धि होने के बाद महाराणा अमरसिंह उसे इतने अमूल्य रत्न के से देता ? आगे आने वाले महाराणा जगतसिंह तथा राजसिंह अनेक महादान किस तरह देते और राजसमुद्रादि अनेक वृहत-व्ययसाध्य कार्य किस तरह सम्पन्न होते ? इस लिये उस समय भामाशाह ने अपनी तरफ़ से न देकर भिन्न-भिन्न सुरक्षित राज " Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R राजपूताने के जैन वीर कोषों से रुपया लाकर दिया ।" इस पर 'त्यागभूमि' के विद्वान् समालोचक श्रीहंस जी ने लिखा है: ● 1 “निस्सन्देह इस युक्ति का उत्तर देना कठिन है, परन्तु मेवाड़. के राजा महाराणा प्रताप को भी अपने खजानों का ज्ञान नहो, यह मानने को स्वभावतः किसी का दिल तैयार न होगा। ऐसा मान लेना महाराणा प्रताप की शासन -कुशलता और साधारण नीतिमत्ता से इक्कार करना है । दूसरा सवाल यह है कि यदि भामाशाह ने अपनी उपार्जित सम्पत्ति न देकर केवल राजकोषों की ही सम्पत्ति दी होती, तो उसका और उसके वंश का इतना सम्मान, जिसका उल्लेख श्री ओमाजी ने पृ० ७८८ पर किया है, हमें बहुत संभव नहीं दीखता । एक खजांची का यह तो साधारण सा कर्त्तव्य है कि वह आवश्यकता पड़ने पर कोष से रुपया लाकर दे । केवल इतने मात्र से उसके वंशधरों की यह प्रतिष्ठा ( महाजनों के जाति-भोज के अवसर पर पहले उसको तिलक किया जाय ) प्रारंभ हो जाय, यह कुछ बहुत अधिक युक्तिसंगत मालूम नहीं होवा + " इस आलोचना में श्रद्धेय ओमाजी की युक्ति के विरुद्ध जो करूपना की गई है, वह बहुत कुछ ठीक जान पड़ती हैं। इसके सिवाय, + सम्मान की वह बात इसी लेख में पृ० ९४-९५ में उक्त इतिहास से उक्त कर दी गई है। + त्यागभूमि व अपृ० ४४५ । ✔ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवाड़ के वीर ९९ मैं इतना और भी कहना चाहता हूँ कि यदि श्री० ओमाजी का यह लिखना ठीक भी मान लिया जाय कि 'महाराणा कुम्भा और सांगा आदि द्वारा उपार्जित अतुल सम्पत्ति प्रताप के समय तक सुरक्षित थी वह खर्च नहीं हुई थीं, तो वह संम्पत्ति चित्तौड़ या उदयपुर के कुछ गुप्त खजानों में ही सुरक्षित रही होगी। भले ही अकबर को उन खजानों का पता न चल सका हो, परन्तु इन दोनों स्थानों पर कवर का अधिकार तो पूरा होगया था। और ये स्थान अकबर की फौज से वरावर घिरे रहते थे, तव युद्ध के समय इन गुप्त खजानों से अतुल संपत्ति का बाहर निकाला जाना कैसे संभव हो सकता था ? और इस लिये हल्दीघाटी के युद्ध के बाद जब प्रताप के पास पैसा नहीं रहा, तब भामाशाह ने देश हित के लिये अपने पास से खुदके उपार्जन किये हुये द्रव्य से--भारी सहायता देकर प्रताप का यह अर्थ - कष्ट दूर किया है; यही ठीक, जँचता है । रही अमरसिंह और जगतसिंह द्वारा होने वाले खर्चों की बात, वे सब तो चित्तौड़ तथा उदयपुर के पुनः हस्तगत करने के बाद ही हुये हैं और उनका उक्त गुप्त खजानों की सम्पत्ति से होना संभव है, तव उनके आधार पर भामाशाह की उस सामयिक विपुल सहायता तथा भारी स्वार्थ त्याग पर कैसे आपत्ति की जा सकती ? अतः इस विषय में प्रो. जी. का कथन कुछ अधिक युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता। और यही ठीक जँचता है कि भामाशाह के इस अपूर्व-त्याग की बदौलत ही उस समय मेवाड़ का उद्धार हुआ था, और इसी लिये आज भी भामाशाह मेवाड़ोद्धारक के Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजपूताने के जैन वीर १०० नाम से प्रसिद्ध है। पूजा के योग्य तू है, वणिक सजिव श्री शक्ति की मूर्ति तू है । है आहा! धन्य तेरा: वह धन, जननी भक्ति की मूर्ति तू है ॥ · तुझ से स्वामी भक्ति : चतुर मंत्री वर आत्मा त्यागी वीरः । भारत में क्या दुर्लभ है इस वसुधा में भी धार्मिक धीर । --श्री ढोचनमसाद पाण्डेस XXXX91.9% १ [१ मार्च सन् ३० ]Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवाड़ के वीर अक्षयराज जीवाशाह के स्वर्गासीन होने पर उसका पुत्र अक्षयराज महा ' राणा कर्णसिंह का मंत्री नियत हुआ और राणा कर्णसिंह के परलोकगत होने पर राणा जगतसिंह का प्रधान भी यही रहा। "राणा प्रताप के समय से ही डूंगरपुर बादशाही अधीनता में चला गया था, जिससे वहाँ के रावल उदयपुरकी अधीनता नहीं मानते थे । इसलिये महाराणा ने अपने मंत्री, अक्षयराज को सेना देकर रावल पर (जो उस समय डूगरपुर का स्वामी था) भेजा । उसके वहाँ पहुँचने पर रावल पहाड़ों में चला गया। ओझाजी लिखते हैं कि: इस प्रकार चार पीढ़ियों तक स्वामिभक्त भामाशाह के घराने में प्रधान पद रहा । ... इस घराने के सभी पुरुष राज्य के शुभचिन्तक रहे । ... भामाशाह का नाम मेवाड़ में वैसा ही प्रसिद्ध है, जैसा कि गुजरात में वस्तुपाल तेजपाल का।" * . भREEEEEEER सन् २६ अक्टूबर सन् ३२ . WATER रा० पू० इ० ख० ती० पृ० ७८७ । +रा० पू० का ३० ती० ख० पृ० ८३३ । "* रा० पू० इ० ख० ती० पृ० ७८७ । Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . .. १०२ राजपूताने के जैन चीर संघवी दयालदास . तो देखत तुव भगिनि के, बचत पामर केसः। ". जानि परत, या वाहु में, रखौ न वलको लेस । निज चोटी-बेटीन की संके राखि नहि लाज। धिकधिक ठाढ़ीछए,धिक धिक डाढ़ी आज॥ -वियोगीहरि . शान्ति और सब की भी कोई सीमा है। घर में अन्न नहीं व्रत करो, जेब में पैसा नहीं सन्तोष करो, हाथ में शक्ति नहीं, इस लिये क्षमा करो, कुछ कर नहीं सकते, इस लिये शान्त रहो यह आदर्श भीर, अकर्मण्य कापुरुषों का होसकता है। किन्तु जिनके मुंह पर मूंछ और छाती पर बाल हैं अथवा जिनके पहलू में दिल और दिल में तड़प, मस्तक में आँख और आँखों में गैरत का अंश वाकी है, उनका यह श्रादर्श कभी नहीं हो सकता। ___ दण्ड देने की सामर्थ्य रखते हुए भी अपराधी के अपराध क्षमा करना, ऊँचा आदर्श है किन्तु नेत्रों के सामने होते हुये अत्याचार और अन्याय देख कर भी निश्चेष्ठ बैठे रहना महान् दुष्कर्म है । इसी लिये तो कहा है, कि क्षमा, शान्ति और सब की भी कोई सीमा है। दारुण दुःख जब शरीर में प्रवेश कर हृदय - जब तू देखे या सुने, होते अत्याचार । जब तेरा चुप बैठना, है यह पापाचार ।। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवाड़ के वीर १०३ को जलाने लगता है, तब.नेत्रों की राह से कोई चीज़ आँसू रूप में लिकल कर उसे घुझा देती है। सूर्य संसार को ता कर के उसे तड़पता हुआ देखकर जब हँसने लगता है, तब उसके इस गर्मीले अट्टहास को नष्ट करने के लिए पृथ्वी और आकाश साधन जुटा ही लेते हैं। ___ प्रकृति का कुछ नियम ही ऐसा है । अत्याचार के विरुद्ध गक न एक रोज आवाज उठती है। और अत्याचारी का गर्व खर्व करने की कोई न कोई युक्ति निकल ही आती है । अत्याचार जब आवश्यकता से अधिक बढ़ जाते हैं, तब अत्याचार सहन फरने वाला कैसा ही शान्त महात्मा क्यों न हो, उसके हृदय में भी प्रतिहिंसा की आग भड़क ही उठती है। यह वात पुराण और इतिहास टोल पीट कर कह रहे हैं। अत्याचारों से ही ऊब कर योगी कृष्ण ने अपने मामा कंस का वध कर डाला,.अत्याचार से ही वो ऊब कर धर्मराज युधिष्ठेर जैसे शान्त-स्वभावी अपने मगे सम्बन्धियों से युद्ध करने को विवश हुये, अत्याचार से ही ऊय कर विभीषण ने अपने सगे भाई रावण का एक अपरिचित राम से वध करा डाला और इसी अत्याचार प्रतिहिंसा की प्यास * जव धर्म की संसार में हो जाती है हानी । बदकार किया करते हैं जब जुल्मोरसानी ॥ फिरजाता है नेकों की भलाई पै जब पानी । · फुदरत के वहीं खिलते हैं इसरार निहानी ।। - - - - - - - 'नाज जैन Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . १०४ राजपूताने के जैन-धीर बुझाने के लिये भीम ने दुर्योधन का रक्त पान किया-संसार में ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं। यहाँ भी एक ऐसे .ही प्रतिहिंसा से उन्मत्त वीर-वर दयालदास का उल्लेख करना है। ... ___ लगभग ३०० वर्ष की बात है। जब इस अभागे भारतवर्ष के वक्षस्थल पर यवनों के अनेक राक्षसी अत्याचार हो रहे थे। प्रजा की गाढ़ कमाई हम्माम, मकबरे और संगमरमर की नहरें बनवाने में खर्च की जा रही थी। शराव के दौर चलते थे, हरें नाचती थीं, किसी के लिये यह भारत जन्नत और किसी के लिये यह दोजख बना हुआ था, तब औरंगजेब अपने भाइयों को कत्ल कर के और वृद्ध पिता शाहजहाँ को कैद कर उसी के बनवाये हुए वीन करोड़ के मयूर-सिंहासन पर बैठ कर निरीह प्रजा को किस्मत का फैसला करता था। वह धर्मान्ध मुसलमान था। उस के कठोर शासन और अनर्थकारी धर्मान्धता से हिन्दूत्राहि-त्राहि कर उठे थे। अबलाओं, मासूमों और बेकसों पर दिन दहाड़े अत्याचार होते थे, धार्मिक मन्दिर जमीदोज किये जाते थे,मस्तक पर लगा हुआ तिलक जबान से चाट लिया जाता था चोटी काट ली जाती थी। महात्मा टॉड़ साहब लिखते हैं कि:-"औरंगजेब ने अपने इष्ट मित्रों को बुलाय इस भयंकर आज्ञा का प्रचार करने के लिये कहा कि "हमारे राज्य के सम्पूर्ण हिन्दुओं को मुसलमान होना पड़ेगा, जो लोग इस आज्ञा को नहीं मानेंगे.उनको बलात्कार इस धर्म पर चलाया जायगा।" इस महा भयंकर दुःखदाई आज्ञा का प्रचार Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवाड़ के वीर १०५.. होते ही सारे राज्य में हा हा कार शब्द की ध्वनि सुनाई श्राने लगी; सहायता और आश्रय-दीन हिन्दुगण भय के मारे इधरउधर भागने लगे। आज सनातन धर्म की रक्षा का कोई उपाय न रहा; बहुत हिन्दु लोग मुग़ल-राज्य को छोड़ व्याकुल हो अतिशीघ्र दक्षिण की ओर चले गये, अनेक हिन्दु सन्तान शाही अहलकारों के अत्याचारों से पीड़ित हो, वहाँ से भागने का कोई उपाय न देख कर उन्मत्त हो अपने हाथ से ही अपने हृदय को छेदन करने लगे, जो खी, पुत्र और परिवार अपने प्राणों से भी अधिक प्यारी 1, वस्तु है, निःसहाय हिन्दुगण पहले अपने हाथ से 'उनको मारकर फिर उसी कटारी तथा छुरी से भयंकर शोकानल में अपनी आहुति देने लगे । सारा राज्य विना राजा के समान हो गया, चारों ओर से हाहाकार शब्द सुनाई आने लगा, उन दुःखित हुये हिन्दुओं का आर्तनाद, उन निरुपाय और निःसहाय हिन्दुओं के हृदय को विदीर्ण करने वाला शोक ही पल पल में सुनाई पड़ता था । हिन्दुओं का मान और मर्यादा जाती है, कुल-धर्म और जातिगौरव पाताल को चला चाहता है, याज भारतवर्ष में 'प्रलय का समय आ पहुँचा है, कौन इस प्रलय के समय में इन भागे हिन्दुओं को यमराज के हाथ से बचावेगा ? कौन इस कुंबुद्धिमान दानव के हाथ से सहाय-हीन भारत सन्तानों का उद्धार करेगा, कोई भी नहीं ? जो रक्षा करने वाला है, यदि वही भक्षण करने वाला हो जाय, जिसके ऊपर प्रजा की मान मर्यादा है, जाति-धर्म का विचार स्थित है, यदि वही अपने पराये का विचार कर सजाति Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजपूताने के जैन-चीर : और-विजाति के मनुष्यों को अलग-अलग नेत्रों से देखकर अपने हृदय में पत्थर को बान्धे और अपनी प्रजा तथा :आश्रितों को पीडित करे, तोवह निःसहाय प्रजा- किसके सामने खड़ी होगी ? किसके निकट जाकर सहारा लेगी अपना और पराया.सजाति और विजाति कोन विचार कर सब को वरावर नेत्रों से देखना ::राजा का आवश्यकीय कर्तव्य है और जो इन कार्यों के पालन करने से विमुख है वह राजा नाम कोयोग्य नहीं राज-सिंहासन उसके छूने से भी कलंकित होता है। राज-सिंहासन पर बैठकर जो हिवाहित का विचार नहीं करता और गर्व, मोह, कोष तथा "अहंकार-जिसके हृदयां में भरा हुआ है और जो अपनी विवेकशक्ति को खोकर करा धर्म की बुद्धि से परिचालित होता है वह राजा नहीं है परन् राजा के नाम को लजाने वाला है। वह अना के सुख-रूपी सूर्य का हरण करनेवाला साहू है, देश के भाग्याकाश · को घेरने वाला प्रचंडाधूमकेतु है। उसके असंख्य पापों से उसका राज्य शीघ्र ही पाताल को चला जाता है। विधाता के सूक्ष्मदर्शन : से उस अत्याचारी: पापी के मस्तक पर कठोर: यमराज का दण्ड. गिरता है।".. मुगल कुलपाँसन पाखंडी औरंगजेब के कठोर अत्याचार से : सम्पूर्ण राज्य में अराजकता उत्पन्न होगई; पीड़ित हुये हिन्दुओं · का भागना और आत्म-हत्या करने से नगर, प्राम औरसम्पूर्ण . बाजार एक साथ. ही:सूने होगये । तथाः सव. स्थानः श्मशान के . समान दिखाई देने लगे। बनियों के न होने से सब बाजारा सूने Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवाड़ के वीर. १०७ : दिखाई देने लगे किसानों के चले जाने से खेती बन के समानः होगई, इस भयंकरः उपद्रव के समय में बादशाह ने देखा राज्या.. अनेक प्रकार से हीन अवस्था युक्त होगया है, खजाना खाली हो गया अबा राजकर्मचारी लोग कर दे नहीं सकते। जिसके पास । जाकर माँगे जिसके पास जाँय उसी को अधमरा पायें, तस्करों.. के अत्याचार से घर सने हो गये । जव उस पापीने धन-उपार्जन करने का कोई उपाय न देखा वो भारतवर्ष की सम्पूर्ण हिन्दू-अजा के ऊपर मुण्डकर (जजिया), लगाने का विचार किया। इस भयंकर अत्याचार की सचना होते ही सम्पर्ण भारतवर्ष के ऊपरमानों व टूट पड़ा, कौनसा उपाय करने से भयंकर विपत्ति से छुटकारा मिलेगा, इसको कोई भी स्थिर न कर सका, सब ही हताश, निरुत्साह और चेष्टा रहित होकर हाहाकार करने लगे; उस हृदय को विदीर्ण करने वाले हाहाकार शब्दों से उस पापी बादशाह का हृदय किंचित भी भयवीत. न हुआ अभागे हिन्दुओं की शोचनीय अवस्था को वह अपने नेत्रों से देखता रहा। उसके कठोर हृदय में किंचित भी दया का संचार न हुआ। ऐसे संकटके समय में मेवाड़ के सिंहासनापर राणा राजसिंह । सिंहासनारूढाथे। इनमें अपने पूर्वजों के सभी गुण विद्यमान थे भला ये प्रताप का वंशज. अपने नेत्रों से ऐसे अत्याचार होते हुये कब देख सकता.था, उसकी नसों में पवित्र सूर्यवंश का रक दौड़ .. रहा था। उसने बहुत कुछ सोच विचार के बाद औरंगजेब को जगड राजस्थान द्वि० ० अ० १२ पृ०.३६७-६९ । - Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ राजपूताने के जैन-वीर ऐसे घृणित कार्य न करने के लिये पत्र लिखा । किन्तु व्यर्थ ? जिस प्रकार शुद्ध शान्त समीर से आग भड़क उठती है, उसी प्रकार राणा के पत्र से औरंगजेव का क्रोधानल और भी बढ़ गया । उस ने अपनी असंख्य सेना लेकर मेवाड़ पर आक्रमण कर दिया । श्री० श्रोमानी लिखते हैं : , "औरंगजेब बादशाह ने हि० स० १०९० ता० ७ शाबान ( वि० सं० १७३६ भाद्रपद सुदी ८ ई० स० १६७९ ता०३, सितम्बर) : को महाराणा से लड़ने के लिये बड़ी सेना के साथ दिल्ली से अजंमेर की ओर प्रस्थान किया । महाराणा ने बादशाह के दिल्ली से मेवाड़ पर चढ़ने की खबर पाते ही अपने कुँवरों, सरदारों यादि को दरवार में बुलाकर सलाह की, कि बादशाह से कहाँ और किस प्रकार लड़ना चाहिये ।" उस समय मंत्री दयालदास भी उपस्थित थे । • -यह युद्ध कैसा भयंकर हुआ ? राजपूत वीर कैसे खुल कर खेले ? और औरंगजेब को कैसी गहरी हार खानी पड़ी, इस का रोमांचकारी वर्णन मान्य टॉड साहव ने बड़े ही मर्मस्पर्शी शब्दों में किया है । जब महाराणा पर्वतों में जाकर मुग़लसेना पर आक्रमरण कर रहे थे, तब मंत्री दयालदास भी उनके कन्धे चकन्धे साथ था । रणस्थल में हिन्दुधर्म-द्रोही औरंगजेव को पराजित करके.. भी हिन्दुओं के प्रति किये गये उसके राक्षसी अत्याचार दयालदास के नेत्रों के सामने नाचने लगे । उसके समस्त शरीर में एक प्रकार .... J + राजपुताने का इ० ती० [सं० पृ० ८६५-६६ । · Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. मेवाड़ के वीर १०९ की बिजली सी दौड़ गई। कमर में लटकी हुई तलवार आतताइयों का रक्त चाटने के लिए अंधीर हो उठी। उसकी भवें तन गई, वह मस्ती में झूम कर गुनगुनाया- '... . .:. .. "क्या अबलाओं की आबरू उतरते देखना धर्म है ? क्या मासूम बच्चों, दीन, दुर्बल मनुष्यों को रक्षा करो-रक्षा करों" चिल्लाते हुऐ देखना धर्म है? क्या धार्मिक स्थानों को धराशायी होते हुये देखना धर्म है ? क्या पवित्र मातृभूमिः को म्लेच्छों से पद्दलित होते देखना धर्म है ? क्या अपमानित होकर भी जीना धर्म है ? यदि नहीं,तब क्या अत्याचारी को बारर क्षमा करके उसे उत्साहित करना, यह धर्म है. ? अत्याचारियों के सदेव जूते खाते . रहो, क्या इसी लिए हमारे ऋषियों ने "क्षमावीरस्य भूषणम्" सूत्र की रचना की है ? नहीं वे तो स्पष्ट लिख गये हैं कि:-"शठं प्रति शाठ्य" फिर यह जानते हुये भी पृथ्वीराज ने मुहम्मद गोरी को बार-बार क्षमा क्यों किया? यह उसकी उदारता नहीं; मूर्खता थी। आज उसी. मूर्खता का कटु-पल भारतवासी भुगत रहे हैं। अपराधी को क्षमा करना हमारे यहाँ का पुराना आदर्श है । पर, एक ही आदर्श सबजगह और सब समय पर लागू नहीं हो सकता । जो धी बलवान मनुष्य के लिये लाभदायक है,वही घी १० रोज के 'लंघन किये हुये मनुष्य के लिये घातक है। एक ही बात को एक ही तरह मान लेना यही दुराग्रह है । गाना अच्छी चीज़ है किन्तु, . . घर में आग लगी हो.या मृत्यु हुई हो, तो वही. गाना .उस समय : कर्णकटु प्रतीत होने लगता है । भ्रूण हत्या सब से अधिक निन्द Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० राजपूताने के जैन चीर नीय मानी गई है, परन्तु जब बच्चा पेट में टेढ़ा होकर अटक जाता है, तवं उसको काटकर निकालना ही धर्म हो जाता है। वस्तु के प्रत्येक पहलू का देश, काल, पान, अपात्र की योग्यता से विचार करना पड़ता है। जो आदर्श महात्माओं को उत्तरोत्तर उन्नतिशिखिर पर चढ़ाने वाला है, वहीं आदर्श साधारण व्यक्तियों को अपने ध्येय से औंधे मुँह नीचे पटक देने वाला है ......": .. कहते कहते वीर दयालदास क्रोध से तमतमा उठा और वह.. गर्म निश्वासं छोड़ने लगा। मानों समस्त पीड़ितो की मर्मभेदी . आहे उसके ही शरीर में आर्तनाद कर रही थी दयालदास ने : अपनी भुजाओं को तोला, तलवार को गौर से देखा और घोड़े पर सवार होकर जननी जन्मभूमि के ऋण से उऋण होने के लिये प्रस्थान कर दिया। वीर दयालदास की इस रण-यात्रा का वृतान्त' मान्य टॉड्साहव के शब्दों में पढ़िये:--- ___राणाजी के दयालदास नामक एक अत्यन्त साहसी और कार्य-चतुर दीवान थे; मुगलों से बदला लेने की प्यास उनकै हृदयः में संर्वदा प्रज्वलित रहती थी। उन्होंने शीघ्र चलने वाली घड़सवार । सेना को साथ लेकर नर्मदा और वितवा नदी तक फैले हुए मालवा राज्य को लूट लिया, उनकी प्रचंड भुजाओं के बल के सामने कोई भी खड़ा नहीं रह सकता था, सारंगपुर, देवास, सरोज, मांडू, उज्जैन और चन्देरी इन सब नगरों को इन्होंने वाहु-: . चल में जीत लिया, विजयी दयालदास ने इन नगरों को लूट कर . हाँ पर जितनी यवन.सेना थी, उसमें से बहुतसों को मार डाला Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवाड़ के वीर .१११ इस प्रकार से बहुत से नगर और गाँव.इनके हाथ से उजाड़े गये। इनके भय से नगर-निवासी यवन इतने व्याकुल हो गये थे,, कि किसी को भी अपने वन्धु-वान्धव के प्रति प्रेम..न रहा, अधिक क्या कहें, वे लोग अपनी प्यारीबी क्या पत्रों को भी..छोड़-छोड़ फर अपनी अपनी रक्षा के लिये भागने लगे, जिन ,सम्पूर्ण साममियों के ले जाने का कोई उपाय दृष्टि न आया अन्त में ,उनमें अग्नि लगाकर चले गये। अत्याचारी औरंगजेब हृदय में पत्थर को वान्धकर निराश्रय राजपूतों के ऊपर पशुओं के समान आचरण करता था, आज उन लोगों ने ऐसे सुअवसर को पाकर उस दुष्ट को उचित प्रतिफल देने में कुछ भी कसर नहीं की, अधिक क्या कहें ? हिन्दु धर्म से पैर करने वाले बादशाह के धर्म से भी पल्टा लिया। काजियों के हाथ पैरों को वान्ध कर उनकी दाढ़ी मूंछों को मुंडा और उनके फुरानों को कुए में फेंक दिया। दयालदास का हदय इतना.कठोर हो गया था कि उसने अपनी सामर्थ्य के अनुसार किसी मुसलमान को भी क्षमा नहीं किया । तथा मुसलमानों के मालवा राज्य को तो एक बार मरभूमि के समान • कर दिया, इस प्रकार देशों को लूटने और पीडित करने से जो विपुल धन इकट्ठा किया, वह अपने स्वामी के धनागार में दे दिया और अपने देश की अनेक प्रकार से वृद्धि की थी।" _ विजय के उत्साह से उत्साहित होकर तेजस्वी दयालदास ने राजकुमार जयसिंह के साथ मिलकर चित्तौड़ के अत्यन्त ही निकट पादशाह के पुत्र अजीम के साथ भयंकर युद्ध करना प्रारम्भ . Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ राजपूतों के जैन-वीर ` किया। इस भयंकर युद्ध में मेवाड़ के वीरों के सहकारी राठौर और खीची वीरों की अनुकूलता से तथा उत्साह के साथ उनके सम्मलित होने से अजीमकी सेना को भयंकररूप से वीरवर दयालदास ने दलित करके अन्त में परास्त कर दिया, पराजित अजीम प्राण बचाने के लिये रणथम्बोर को भागा । परन्तु इस नगर में आने से पहिले ही उसकी बहुत हानि हुई थी । कारण कि विजयी राजपूतों ने उसका पीछा करके बहुत सी सेना को मार डाला । जिस अजीम ने पहले वर्ष चित्तौड़ नगरी का स्वामी बनकर अकस्मात् उसको अपने हाथ में कर लिया था, आज उसको उसका उचित फल दिया गया +।"* वीरवर दयालदास के सम्बन्ध का एक संस्कृत - लेख बड़ौदा के पास छाणी नामक ग्रामं के जैन मन्दिर में एक विशाल पाषाण प्रतिमा पर खुदा हुआ मिला है, जो कि मुनि जिनविजयजी द्वारा सम्पादित "प्राचीन जैन - लेख संग्रह" द्वितीय भाग पृ० ३२६-२७ में उद्धृत हुआ है। जिसका भाव यह है कि संवत् १७३२ शाके १५८७ वैशाख शुक्ल सप्तमी को मेवाड़ नरेश राणा राजसिंह के मंत्री ओसवाल वंशीय सीसोदिया गोत्रोत्पन्न संघवी दयालदास ने इस मूर्ति की प्रतिष्ठा कराई। इस शिलालेख में दयालदास के वंश-वृक्ष का इस प्रकार उल्लेख मिलता है : --- + टाड्रराजस्थान द्वि०सं०अ०] १६- पृ० ३९७-९८ ॥ * Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवाड़ के वीर संघवी श्रीतेजाजी (भार्या नायकदे) संघवी गज़जी (भार्या गौरीदे) संघवी राजाजी (भार्या रयणदे) सं० श्रीउदाजी सं० डंदाजी सं० देदाजी सं० दयालदासजी भार्या मालवदे भा०१ दाडिमदे भा०१सिंहरदे भा० १ सूर्यदे २ जगरूपदे ॥ २ कर्मारदे , २ पाटमदे मं सुदरदासजी सं०वपूजी सं०सुरताणजी,सं० सांवलदासज मा०१सोभागदे भा०१पारमदे भासुणारमदे मा० मृगादे , २अमृतदे ,२ बहुरंगदे श्री श्रोमाजी लिखते हैं :___"दयालदास के पूर्व पुरुष सीसोदिये क्षत्रिय थे, परन्तु जब से उन्होंने जैन-धर्म स्वीकार किया, तब से उनकी गणना ओसवालों में हुई । इस के अतिरिक्त उसके पूर्व परुषों के सम्बन्ध में कोई वृन्तान्त नहीं मिलता। दयालदास पहिले उदयपुर के एक ब्राह्मण पुरोहित के यहाँ नौकर था, उसकी उन्नति के बारे में यह प्रसिद्ध है कि महाराणा Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम १३४ ... राजपूताने के जैन-वीर . . .. .. · राजसिंह की एक राणी ने जिससे कुँबर सरदारसिंह का जन्म हुआ. था, ज्येष्ठ कुँवर सुलतानसिंह को मरवाने और अपने पत्र को - राज्य दिलाने का प्रपंच रचा । उसके शक दिलाने पर महाराणा ने कुँवर सुलतानसिंह को मारडाला । फिर उसी राणीने महाराणा को विष दिलाने के लिये, उसी पुरोहित को, जिस के यहाँ दयालदास नौकर था, पत्र लिखा, जो उसने अपने कटार के खीसे में रख लिया । संयोग वश एक दिन किसी त्योहार के अवसर पर दयालदास ने अपने ससुराल देवाली नामक ग्राम में जाते समय रात्रि होजाने से पुरोहित से अपनी. रक्षा के लिये कोई शस्त्र माँगा पुरोहित ने भूलकर वह कटार उसे दे दिया, जिसके खीसे में उपयुक्त पत्र था। दयालदास कटार लेकर वहाँ से रवाना हुआ, घर जाने पर उस कटार के खीसे में कोई काराज होना दीख पड़ा पढ्ने लगा। जब उसे उस पत्र से महाराणा की जान का भय दीख पड़ा, तब . उसने तत्काल महाराणा के पास पहुँच कर वह पत्र उसे बतलाया, इसपर उक्त महाराणा ने राणी और-पुरोहित को मार डाला । जब इस घटना का हाल कुँवर सरदारसिंह ने सुना, तब उसने भी विष खाकर आत्मघात कर लिया। ___ दयालदास की .उक्त सेवा से प्रसन्न होकर महाराणा ने उसे. अपनी सेवा में रखा और बढ़ते बढ़ते वह उसकी प्रधान (मंत्री) होगया । ... उसने राजसमन्द की पाल के समीप पर संगमर्मर . का आदिनाथ का एक विशाल चतुर्मुख जैन मन्दिर बड़ी लागत और श्राश्वये के साथ वह उस काराजका Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - ... ... . . धीरवर दयालदास का वनवाया हुया पर्वत के ऊपर किळे नुमा जैन-मन्दिर Page #128 -------------------------------------------------------------------------- Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . मेवाड़ के वीर १९६ से बनवाया, जो उसकी कीर्ति का स्मारक है । उसका पुत्र सांवलदास हुआ, पीछे.से. इस वंश में कोई प्रसिद्ध पुरुष हुओं हो ऐसा पाया नहीं जाता।। __ महात्मा टॉड साहब ने दयालदास के हस्ताक्षरों का राणा राजसिंह के एक श्राज्ञा-पत्र को अपने अंगरेजी राजस्थान जि० १ का अपंडिक्स नं ५ पृ० ६९६ और ६९७ में अंकित किया है जिसका हिन्दी अनुवाद वा० बनारसीदासजी एम.ए. एल-एल-बी. एम. आर. ए. एस. कृत जैन इतिहास सीरीज नं०१४० ६६.से उद्धृत किया जाता है:-. आज्ञापत्र महाराणा श्रीराजसिंह मेवाड़ के दश हजार ग्रामों के सरदार, मंत्री और पटेलों को आज्ञा देता है, सब अपने २ पद के अनुसार पढ़ें। (१) प्रचीन काल से जैनियों के मन्दिर और स्थानों को अधिकार मिला हुआ है, इस कारण कोई मनुष्य उनकी सीमा (हंद) में जीववध न करे, यह उनका पुराना हक है। (२) जो जीव नर हो या मादा, बध होने के अभिप्राय से इनके स्थान से गुजरता है, वह अमर हो जाता है ( अर्थात् उसका जीव बच जाता है) + राजपूताने का इ० चौथा सं० पृ० १३०४-६ । SAN Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ राजपूताने के जैन-वीर (३) राजद्रोही, लुटेरे और काराग्रह से भागे हुये महापराधी को जो जैनियों के उपासरे में शरण लें, राज-कर्मचारी नहीं पकड़ेंगे । (४) फ़सल में कूँची (मुट्ठी), कराना की मुट्ठी, दान करी हुई भूमि धरती और अनेक नगरों में उनके बनाये हुये उपासरे क़ायम, रहेंगे । (५) यह फरमान यति मान की प्रार्थना करने पर जारी किया गया है, जिसको १५ बीघे धान की भूमि के और २५ मलेटी के दान किये गये हैं । नीमच और निम्बहीर के प्रत्येक परगने में भी हरएक जाति को इतनी ही पृथ्वी दी गई है अर्थात् तीनों परगनों में धान के कुल ४५ बीघे और मलेटी के ७५ बीघे । इस फरमान के देखते ही पृथ्वी नाप दी जाय और देदी जाय और कोई मनुष्य जातियों को दुःख नहीं है, बल्कि उनके हकों की रक्षा करे । उस मनुष्य को धिक्कार है जो, उनके हकों को उलंघन करता है। हिन्दु को गौ और मुसलमान को सूअर और मुदारी की कसम है। (आज्ञा से ) संवत् १७४९ महा सुदी ५ वीं ईस्वी० सन् १६९३ शाह दयाल (मंत्री) Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवाड़ के वीर १९०० समरकेशरी दयालदासने कितने युद्ध किये और वह कववीरगति को प्राप्त हुआ,इसका कोई पता नहीं चलता । राणा राजसिंह जैसे समर-विशारद, जिनका कि समस्त जीवन क्रूर और सबल वादशाह औरंगजेब से मोर्चा लेने में व्यतीत हुआ हो, तब उनका मन्त्री दयालदास भी कैसा पराक्रमकारी नीतिनिपुण और युद्धप्रिय होगा, सहज में ही अनुमान किया जा सकता है। महारणा राजसिंह की मृत्यु के पश्चात् उनके पत्र जयसिंह गद्दी पर बैठे। औरंगजेव के पुत्र (अकबर द्वितीय) ने जब औरंगजेब के प्रति घावत की थी, तब अकबर का पक्ष उदयपुर वालों ने लिया था। उस समय भी मंत्री दयालदास ने एक भयंकर युद्ध किया था। ऐसे ही शुर-चोरों को लक्ष करके शायद वियोगीहरिजी ने लिखा : खल-खण्डन मण्डन-सुजन, सरल, सुहृद, सविवेक । • गुण-गंभीर, गण-सूरमा, मिलतु लाख में एक ।। . . * ३० अक्टूबर सन. ३२ JARATISABRDS -amara-.... + राजपूताने का ३० तो० ख० पृष्ट ८५५ । Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ राजपूताने के जैन-वीर कोठारी भीमसी जिनकी प्रांखनते रहे बरसत भोज अंगार । तिनके वंशज पर्ते हग कांपत सुकुमारं ॥ रहे रंगत रिपु रुधिर सों समर- केस निरंवारि । तिनके कुल व हीजरे काढत मांग संवारि ॥ -VI -वियोगीहरि सभ मय की गति बड़ी विचित्र है और प्रकृति के खेल भी बड़े अनूठे हैं। जो बात किसी के ध्यान में नहीं आती, जिस बात को लोग असम्भव समझते रहते हैं, वही समय पाकर सम्भव हो जाती है । संसार में ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं । सिंहों के बच्चे भेड़ों का आचरण करें, हंसों के बालक चील-कौत्रों के साथ खेलें ; चातक और हारिल वंश अपनी धान छोड़ें - यह श्रसम्भव प्रतीत होता है, पर सब कुछ हो रहा है । उक्त पशु-पक्षियों की बात जाने दीजिये, उनमें विवेक नहीं, सम्भव है उन्हें अपने कुल की मान-मर्यादा याद न रहे, पर यहाँ तो उन महाजन- पुत्रों की ओर संकेत है जो विद्या-बुद्धि के ठेकेदार हैं । वे अपनी मर्यादा को भूलकर महाजन की जगह बनिये बक्काल कहलाने लगे हैं । उनकी आँखों का पानी मारा गया है, न उनमें गैरत है न स्वाभिमान, वे अपनी आँखों के सामने अपनी " Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ~~ " मेवाड़ के वीर बहन-बेटियों पर होते अत्याचार नित्यप्रेति देखते हैं; किन्तु महसूस नहीं करते । वे स्वयं हर जगह और हर समय अपमानित होते हैं, पर वे इसकी तनिक भी पर्वाह नहीं करते हैं । उनके स्वाभिमान का नशा विलासिता खुशी ने उतार दिया है । "3. """ .. " .. 7 * " न अब उनकी आँखों में गौरव का खुमार है और न मर्दानगी · जला सब तेल दीया बुझ गया है जलेगा क्या । वना जब पेड़ उकठा काठ तब फूले फलेगा क्या ॥१॥ रहा जिसमें नं दम जिसके लहू पर पंड़ा गया पांला । उसे पिटना पछंड़ना ठीकरें खाना खलेगा क्या ॥२॥ भले ही बेटियां- बहनें लुटें बरबाद हो बिगड़ें | कलेजा जब कि पत्थर बन गया है तव गलेगा क्या ॥३॥ 1 का लाल डोरा । वे जान बूझकर मर्द से शिखंडी बने हैं। मुख り १. निस्तेज आँखें अन्दर घुसी हुई, पेट आगे निकला हुआ, नाक पर 'पत्थर की लालटेन लगी हुई, दान्स आबड़-खूबड़, पर पान से रंगीन, हाथ में पतली छड़ी, विदेशी वस्त्रों से ढके बने ठने महाजन पत्रों की अब यही पहचान है । जिन युवकों की ओर देश और समाज सतृष्ण दृष्टि से देख रहे हैं, वे युवक सुरमा, मिस्सी, कंघी, Pre 1024 १" + नफासत भरी है तबियत में उनकी । नज़ाकत सी दाखिल है. आदत में उनकी । दवाओं में मुश्क उनकी उठता है ढेरों वह पोशाक में मलते हैं सैरी ॥ 241 ११९ קו 201 "हाली" ܐ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजपूतानेके जैन-वीर चोटी, चटक मटक में तल्लीन हैं; इस्तहार वाजों से प्रमेह - उपदेश आदि की दवाएँ ले रहे हैं। वे क्या हैं ? देश के प्रति उनका क्या कर्तव्य है ? इसकी उन्हें चिन्ता नहीं । वे विलासिता के दास और जोरुओं के गुलाम बने हुये हैं । हर समय और हर घड़ी अपने सूखे और रूखे वदन को वेश्याओं की तरह सजाना, प्रेम कथा सुनना, हर वक्त किसी लैला पर मजनू बने रहना, यही उनका धर्म और यही उनके जीवन का ध्येय बना हुआ है। जब चटकमटक से ही अवकाश नहीं तब वे क्यों और कब वीरता का पाठ पढ़ें और मर्दों की सुहबत में बैठें—वे क्यों तलवार और लाठी के हाथ सीखें ? वे तो अपने जी बहलांव के लिये, तवले वजाऐंगे, नाटकों में पार्ट करेंगे, जनखों से दायें सीखेंगे। दुनियाँ हँसती है हँसने दीजिये, लोग थूकते हैं थूकने दीजिये, कोई बकता है बकने दीजिये, देश रसातल को जारहा है जाने दीजिये, क़ौम मिट्टी जा रही है मिटने दीजिये । वे अपने रंग में भंग क्यों डालें ? उनकी वही टेढ़ी माँग और वही लचकीली चाल रहेगी, दुनियाँ इधर से उधर होजाय, पर वे न बदलेंगे । और बदलें भी क्यों ? काफी बदल लिये, मर्द से जनाने और जनाने से शिखंडी महाजन से वैश्य, वैश्य से बनिये और बनिये से बंकाल हुये, क्या ांव भी सन्तोष नहीं होता ? बमुश्किल चैन मिला है, यह सुहावना लिवास उनसे न उतारा जायगा । उनके पर्खा क्या थे? उन्हें सब मालूम है, उनकी तारीफ़ मत करों । एकदम लम्बे तडंगे, छाती चौड़ी, आँखें सुर्ख कलाई लोहे जैसी कठोर; न नजाकत न कोई अदाँ बात चीत 13 • Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवाड़ के वीर . १२१ का शऊर नहीं, वक्मे श्रव में बैठने का सलीका नहीं क्षमा नाम . • मात्र को नहीं, एक दम उजड, जरा किसी ने अपमान किया कि 1 1 विगढ़ बैठे, विचारे का माजना झाड़ दिया। अब वह जमाना नहीं, यह वीसवीं सदी है। आज कल की वज्मेदव और इल्मेमजलिसी में जाने के लिये ही उन्होंने यह सब कुछ सीखा है । यहाँ तो केवल इन छैल छबीले बने ठने महाजन पुत्रों के एक बुजुर्ग का - (जिन्हें यह उजड़ और गँवार समझते हैं) उल्लेख किया जाता है संभव है भविष्य में इन मर्दनुमाँ औरतों का भी चरित्र-चित्रण इसी लेखनी को करना पड़े । मान्य श्रोमाजी लिखते हैं: - "महाराणां संग्रामसिंह द्वितीय सं युद्ध करने के लिये, जब मुग़ल सेना लेकर हावाजखां मेवाड़ पर आया, तब महाराणा की ओरसे भी देवीसिंह मेघावत (वेंगू का ) वगैरह कितने ही सरदार युद्ध-क्षेत्र में भेजे गये। ऐसी प्रसिद्धि है कि वेंगू का रावत देवीसिंह किसी कारण से युद्ध में न जा सका, इस लिये उसने अपने कोठारी भीमसी महाजन को अध्यक्षता में अपनी सैन्य भेजी । राजपूत सरदारों ने उपहास के तौर पर उससे कहा :- "कोठारीजी ! यहाँ आटा नहीं तोलना है" । उत्तर में कोठारीजी ने कहा: “मैं दोनों हाथों से आटा तोलूँ, उस वक्त देखना " । युद्ध के प्रारम्भ में ही उसने घोड़े की लगाम कमर से बान्ध ली और दोनों हाथों में तलवार लेकर कहा - " सरदारो ! अब मेरा आटा तौलना देखो।" इतना कहते ही वह मेवातियों पर अपना घोड़ा दौड़ाकर दोनों हाथों से प्रहार करता हुआ आगे बढ़ा 1 • Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजपूताने के जैन-धीर और घड़ी वीरता पूर्वक लड़कर मारा गया। उसकेलड़ने के विषय का हमें एक प्राचीन गीत मिला है, जिससे पाया जाता है कि उसने कई शत्रुओं को मार कर वीरगति प्राप्त की और अपना तथा अपने स्वामी का नाम उज्वल किया । मालूम ऐसे ही वीररत्नों से प्रभावित होकर श्री वियोगी हरि जी ने लिखा है धन्य वैश्य-वर वीर जे मेलि रुगड रण-कुण्ड । . खड्ग-तुला पै मत्त है। रखिं चोलें खल-मुण्ड ॥ धन्य वनिक जो लै तुला, वैव्यो समर-बज़ार । अरि-मुण्डन को धर्म सों, कियौ पनिज व्योपार ।। - - - या असूबर सन् २ बर सन् ३२ - - N +रा.पूका. इ. ती...' पृ० १५२ । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PRR मेवाड़ के वीर भामाशाह की पुत्री का घराना अथवा . कर्मचन्द वच्छावत का वर्तमान वंश मेहता अगरचन्द बच्छावतों के उत्थान और पतन का शोकोत्पादक साथ ही गौरवास्पद वर्णन पाठकों को प्रस्तुत पुस्तक के जागल (बीकानेर-राज्य) नामक खण्ड में मिलेगा, जब कर्मचन्द बच्छावत के पुत्र वीरता पूर्वक लड़ाई में मारे गये, तब कर्मचन्द की स्त्री अपने पुत्र माण सहित उदयपुर में थी जिससे उसका वही पत्र बचने पाया। आगे मान्य श्रोमाजी लिखते हैं: "भाणा का मुत्र जीवराज, उसका लालचन्द और उस (लालचन्द).का प्रपौत्र:पृथ्वीराज हुआ । उसके दो पुत्र .अगरचन्द और हँसराज हुए, जो राज्य के बड़े पदों पर रहे। महाराणा परिसिंह ने अगरचन्द को माँडलगढ़ का. किलेदार तथा उक्त जिले का + उदयपुर के महतामों की तवारीख में भाग को भोजराज का बेटा लिखा है। सम्भव है कि भोजराज या तो कर्मचन्द का तीसरा पुत्र हो या भागचन्द और लक्ष्मीचन्द में से किसी एक का पुत्र हो । यदि यह अनुमान ठीक हो तो, भमाशाह की पुत्री का विवाह. भागचन्दः या लक्ष्मीचन्द किसी एक के साथ होना मानना पड़ेगा। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ राजपूताने के जैन चीर . हाकिम नियंत किया । तब से मॉडलगढ़ की किलेदारी उसके . वंशजों में बराबर चली आ रही है । वह उक्त महाराण का सलाहकार था और फिर मंत्री बनाया गया। महाराणा अरिसिंह (दूसरे) की उज्जैन की माधवराव सिंधया के साथ की लड़ाई में वह (अगरचन्द) लड़ा और घायल होने के बाद कैद हुआ परन्तु रूपाहेली के ठाकुर शिवसिह के वावरी लोग उसको हिकमत से निकाल लाये । जव माधवराव सिंधया ने उदयपुर पर घेरा डाला और लड़ाई शुरू हुई, उस समय महाराणा ने उसको अपने साथ रक्खा । टोपलमगरी और गंगार के पास की महापुरुषों के साथ की लड़ाईयों में भी वह महाराणा की सेना के साथ रह कर लड़ा। . . . . . . . . - महाराणा हमीरसिंह (दूसरे) के समय की मेवाड़ की विकटं स्थिति सम्भालने में वह वड़वा अमरचन्द का सहायक रहा । जब' शक्तावतों और चूंडावतों के झगड़ों के बाद आवाजी इंगलिया की आज्ञानुसार उसके नायव गणेशपन्त ने शक्तावतों का पक्ष करना छोड़ दिया और प्रधान सतीदास तथा सोमचन्द गान्धी का पुत्र जयचन्द कैद कर लिए गये, उस समय महाराणा भीमसिंहने फिर अगरचन्द मेहता को अपना प्रधान बनाया । जब सिन्धियां के सैनिक लकवा दादा और आंबाजी इंगलिया प्रतिनिधि गणेशपन्त के बीच मेवाड़ में लड़ाइयाँ हुई और उस गणेशपन्त ने भागकर शरण ली, तो लकवा उसका पीछा करता हुआ वहाँ भी जा पहुँचा । लकवा की सहायता के लिए महाराणा ने कई सर Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवाड़ के वीर.. दारों को भेजा, जिनके साथ अंगरचन्द भी था। वि० सं० १८५७ (ई० स० १८०० ) के पौष महीने में मांडलगढ़ में अगरचन्द का देहान्त हुआ। महाराणा अरिसिंह (दूसरे) के समय से लगाकर महाराणा भीमसिंह तक उसने स्वामिभक्त रह कर उदयपुर राज्य की बहुत कुछ सेवा की, और कई लड़ाइयों में वह लड़ा। उसने अपने अन्तिम समय अपने वंशजों के लिये राज्य की सेवा में रहते हुए किस प्रकार रहना, क्या करना, और क्या न करना, इत्यादि के सम्बन्ध में जो उपदेश लिखवाया है, वह वास्तव में उसकी दूरदर्शिता, सन्त्री स्वामीभक्ति और प्रकाण्ड अनुभव का सूचक है । महता अगरचन्द के पत्र देवीचन्द ने अपने रहने के लिये एक महल बनवा लिया था । यह बात मेहता अगरचन्द को धुरी लगी, उसे भय हुआ कि कहीं मेरा पत्र महलों में रहकर आरामतलव न हो जाय ! योद्धा की ऐशो-आराम में पड़ने से वही गति होती है, जो भाग में पड़ने से घी की । अतएव मेहता अगरचंद ने तत्काल अपने पुत्र को एक उपदेश पूर्ण पत्र लिखा जिसका आशय यही था कि "पुत्र ! सच्चे शूरवीरं तो रणस्थल में क्रीड़ा किया करते हैं और वहीं शयन करते हैं, फिर तुमने यह विपरीत पथ क्यों स्वीकार किया ? क्या तुम्हारे हृदय में अपने पूर्वजों की भांति जीने और मरने की हविस नहीं है । यदि अपने पूर्वजों का अनुकरण करना और मेवाड़ की प्रतिष्ठा चाहते हो, तो इस * राजपूताने का इ. चौथा म्हण्ड पृष्ठ १३१४-१५ - - - Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ राजपूताने के जैन वीर महल को छोड़ कर जीन पर सोना और घोड़े की पीठ ही बैठे रोटी खाना सीखो, तब कहीं अपनी कीर्ति रख हमारे पुरुषाओं का यह पुराना रिवाज रहा है।" ७ देख कर · युवराज अमरसिंह की भी ऐसी ही एक बात राणा प्रताप दुखी थे । इस घटना को लेकर जून सन् १९२९ में एक कहानी लिखी थी । यद्यपि उस कहानी में वर्णित व्यक्ति जैन न होने से प्रस्तुत पुस्तक से उसका कोई सम्बन्ध नहीं है । फिर भी शिक्षाप्रद और प्रसंगवश उस कहानी को यहाँ उद्धृत करने का लोभ संवरण नहीं किया जा सकता । KALIZE & Dana १ नवम्बर सन् ३२ arrae9Ener पर बैठे. सकोगे । Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवाड़ के वीर सेवक का कर्तव्य. मे वायु- केसरी महाराणा प्रताप मौत के शिकंजे में जकड़े हुये थे । वह लोहे के कटघरे में फसे हुये शेर की भान्ति रुग्ण-शैय्या पर पड़े हुये छटपटा रहे थे । अस्फुट वेदना के चिन्ह उनके मुख से भली भान्ति प्रगट हो रहे थे । आँखों के कोने में छुपे हुये आँसू मौन-वेदना का सन्देश दे रहे थे । वीर-चूड़ामणि महाराणा प्रताप ने पूर्वजों की बनाई हुई गगनचुम्बी अट्टालिकाओं को छोड़ कर पीछोला सरोवर के किनारे पर कई एक झोपड़ियाँ बनवाई थीं । उन्हीं कुटियों में अपने समस्त सरदारों के साथ राणाजी अपना राजर्षि - जीवन व्यतीत करते थे । आज अन्तकाल के समय भी उन्हीं में से एक साधारण कुटी में रुग्ण- शैय्या पर लेटे हुये क्रूरकाल की बाट जोह रहे थे। इतने में ही प्रचण्ड - वेग से शरीर को कम्पायमान करती हुई एक साँस राणाजी के मुँह से निकली । समीप में बैठे हुये उनके जीवन के सखा, मेवाड़ के सामन्त और सरदार उनकी इस मर्मान्तिक वेदना को देख कर कांप उठे । शालुम्बा - सरदार कातर होकर रुथे हुयेस्वर से बोले "अन्नदाता"" ! इस अन्तिम समय में आपको ऐसी क्या चिंता है ? किस दारुण दुख के कारण आप छटापटा रहे हैं! आपका यह दीर्घ निश्वांस हमारे हृदय में तीर की तरह लगा है। यदि कोई अभिलाषा हैं, तो कृपा करके कहिये, हम सब आपकी इस अंतिम इच्छा को जीवन के अन्त समय तक अवश्य पूर्ण करेंगे ।" १२७ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१२४ राजपूताने के जैन-चीर __ मेवाड़ का वह टिमटिमाता हुआ दीपक शालुम्ना सरदार के आश्वासन रूपी तेल को पाकर फिर प्रज्वलित होउठा । महाराणा प्रताप अपने शरीर की पूर्ण शक्ति लगाकर बड़े कष्ट से बोलेः"प्यारे संखा ! पूछते हो मुझ से, क्या कष्ट है ? मेरे भोले सरदार! इतने भोलेपन का प्रश्न ! मेरी मातृ-भूमि चित्तौड़ जो मेरे पूर्वजों की क्रीडास्थली थी। जिसके लिये मुस्कराते हुये उन्होंने अपने प्राणों की आहुतियाँ दी। उसे मैं यवनों के चंगुल से नहीं छुड़ा सका, मैं अपने प्यारे देशवासियों को चितौड़ की पवित्र भूमि पर स्वतंत्र विचरते हुये न देख सका; यह क्या कम कष्ट है ! यही दारुण चंदना मेरे प्राणों को रोके हुये है।" __ शालुम्बा-सरदार मस्तक झुकाकर बोले-"श्रीमान् आपको यह पवित्र अभिलाषा अवश्य पूर्ण होगी । आप किसी प्रकार की चिन्ता न करके एकाग्रचित्त से भगवान् का स्मर्ण करिये......" ___ शालुम्बा-सरदारके वाक्य पूर्ण होने तक महाराणा प्रताप का विवाद पूर्ण पीला मुँह गम्भीर हो गया, वह बीच में ही वात काट कर बोले "ओह ! शालम्बा-सरदार मुझे वाक्य-पटुता में न फंसाओ। मुझे इस समय धर्मोपदेश को आवश्यकता नहीं । देश परतंत्र रहे और मैं इस अन्त समय में भगवान् का स्मर्ण करके परलोक सुधारूं ? छिः कैसी वाक्य-विडम्बना है ! मेरे मित्र ! याद रक्खो; जो इस लोक में परतंत्र हैं, वह परलोक में भी परतंत्र रहेंगे । जो व्यक्ति अपने देशवासियों को दुख-सागर में विलखते देखकर अकेला Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवाड़ के वीर १२९ मोक्ष जाना चाहता है, वह न तो मोक्ष पहुँचता है न पहुंच ही सकता है । त्रिशंकु की तरह उसको बीच में ही लटकना पड़ता है । यदि मेरे नर्क में रहने से भी मेरा देश स्वतंत्र हो सकता है, तो मैं नर्क की दुःसह वेदना सहन करने को प्रस्तुत हूँ । बोलो, बोलो क्या कहते हो, शपथ करो कि इन विदेशियों का विध्वन्स करके मातृ-भूमि को स्वतंत्र कर देंगे ।" सामन्त और सरदार व्यग्र हो उठे, राणाजी की यह अभिलाषा क्योंकर पूर्ण होगी ? जीवन भर लड़ते हुये भी जिसे अपना न कर सके, उसे श्रव कैसे स्वतंत्र कर सकेंगे ? तब भी सन्तोष के लिवे आश्वासन देते हुये वोले :- "भारत-सम्राट् ! आपकी यह अभिलाषा वीरोचित है। आप विश्वास रखिये श्री बापजी राव ( युवराज अमरसिंह) आपकी इस अंतिम कामना को श्री एकलिंग जी की कृपा से अवश्य पूर्ण करेंगे ।" वीर-शिरोमणि महाराणा प्रताप चुटीले सांप की तरह फुंफकार कर बोले :- "अमर चितौड़ को तो क्या स्वतंत्र करेगा ? वह रहे सहे मेवाड़ के गौरव को भी खो बैठेगा। उसके आगे मेवाड़ की पवित्र भूमि मलेच्छ के पाद- प्रहार से कुचली जायगी ।" समस्त सरदार एक स्वर से बोल उठे "अन्न दाता ! ऐसा कभी न होगा ।"." दीप निर्वाण होने के पूर्व एक बार प्रज्वलित हो उठता है । उसी प्रकार राणाजी शक्ति न रखते हुये भी आवेश में कहने लगे:"मैं कहता हूँ ऐसा अवश्य होगा। युवराज 'अमरसिंह हमारे पित And e Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० राजपूताने का जैन-चीर पुरुषों के गौरव की रक्षा नहीं कर सकेगा । वह यवनों से युद्धःन . करके मेवाड़ की कीर्ति रूपी स्वच्छ चादर पर: विलासिता का स्याह धब्बा लगादेगा......." - कहते कहते उनका गला रंध गया, सरदार के दो बूंट पानी पिलाने के पश्चात् वह क्षीण स्वर. से बोले:-"एक समयः शुमार अमरसिंह उस नीची कुटी में प्रवेश करने के समय सिर की पगड़ी उतारना मल गया था। इस कारण सिर की पगड़ी द्वार के निकले . हुये बाँस में लगकर नीचे गिर पड़ी। अमरसिंह ने इसको मुछ भी न समझा और दूसरे दिन मुझसे कहा कि "यहाँ पर बड़े२ महल बनवा दीजिये !".. 'युवराज अमरसिंह की पाल्यकाल की गायाकहते हुये राणाजी को पीतमुख और भी गम्भीर होगया उन्होंने फिर एक लम्बी सांस ली और कहा-"इन कुटियों के बदले यहाँ रमणीय महल बनेंगे। मेवाड़ की दुरावस्था भूलकर "अमर" यहाँ पर अनेक प्रकार के मोग-विलास करेगा। उससे इस कठोर व्रतका पालन नहीं होगा ? हा! अमरसिंह के विलासी होने पर वह गौरव और मातृभूमि की वह स्वाधीनता भी जाती रहेगी। जिसके लिये मैंने वरावर २५ वर्ष तक वन और पर्वत पर्वत पर घूमकर वनवासका कठोर व्रत धारण किया। जिसको अचल रखने के लिये सब भांति की सुख-सम्पत्ति को छोड़ा। शोकहै कि अमरसिंह से इस गौरव की रक्षान होगी। वह अपने सुख के लिये उस स्वाधीनता के गौरवको छोड़ देगा और तुम लोग, सब उसके अनर्थकारी उदाहरण का अनुसरण करके Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . x मेवाड़ के वीर मेवाड़ के पवित्र और श्वेतयश में कलंक लगा दोगें।" महाराणा का वाक्य पूरा होते ही समस्त सरदार मिलकर बोले:क्षमा-अन्नदाता, महाराज ! हम लोग वप्पारावल के पवित्र सिंहासन की शपथ खाकर कहते हैं कि "जब तक हममें से एक भी जीवित रहेगा, उस दिन तक कोई तुरक मेवाड़ की भूमि पर अधिकार नहीं पा सकेगा । जब तक मेवाड़ भूमि की स्वाधीनता पूर्ण भाव से प्राप्त न कर लेंगे, तब तक इन्हीं कुटियों में हम लोग, रहेंगे ।" १३१ सरदारों की. वीरोचित शपथ सुनकर हिन्दु-कुल-भूषण वीरचूड़ामरिण राणा प्रताप के नयन करोखों से आनंदाश्रु झलकने लगे । वह नेत्र विस्फारित करके मुस्कराते हुये "भारत माता . की जय” "मेवाड़ भूमि की जय" इतना ही कह पाये थे, कि उनकी आत्मा स्वर्गासीन हो गई | मेवाड़वासी दहाड़ मारकर रोने लगे, मेवाड़ अनाथ हो गया। . x X वीर केसरी प्रताप के स्वर्गासीन होने पर युवराज अमरसिंह को राघववंशीय सूर्यकुल-भूपण यप्पारावल के पवित्र सिंहासन पर बैठने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । महाराणा अमरसिंह में असाधारण गुण थे । उन्होंने अपने शासन काल में मेवाड़ में कई आदर्श सुधार किये । किन्तु, लेच्छाचारिता और विलासिता दो ऐसे अवगुण हैं, जो मनुष्य के अन्य उत्तम गुणों पर भी पर्दा डाल देते हैं । दुर्भाग्य से राणा अमरसिंह भी प्लेग; हैजे के समान उड़कर लगने वाली विलासिता रूपी बीमारी से न बच सके। वे " I Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ राजपूताने के जैनवीर .. . दिन-रात आमोद-प्रमोद में रहने लगे। उनके पूर्वज क्या थे ?. . इस समय मातृभूमि कैसे संकट में हैं, भारतीय आर्य ललनाओं की कैसी दुरावस्था है ? इस बात की न तो उन्हें कुछ खबर ही थी, और न कुछ चिन्ता। वे दिन-रात महलों में पड़े हुये चापलूसों के साथ अनेक क्रीड़ा किया करते । जो झूठ बोलने में, वात बनाने में, मायाचारी करने में जितना सिद्धहस्त होता, वही उनका प्रेम-पात्र बन सकता था। सच्चे देश-भक्त, वीर, और आन पर मर मिटने वाले उनके यहाँ घमण्डी और पागल समझेजाने लगे। संसार में क्या हो रहा है, इसकी उनको तनिक भी पर्वाह नहींथी। ऐसे ही दिनों में उचित अवसर जान जहाँगीर ने मेवाड़ पर श्रांक्रमणं कर दिया। मातृ भूमि पर संकट आया देख, कुछ वीरसैनिकों का हृदय धक-धक करने लगा। उनके नेत्रों के सामने भविष्य में आने वाले संकट बाइस्कोप के चित्र के समान मूर्ति बन कर नाचने लगे। ऐसे संकट के समय भी राणाजी विलासिता में डूबे हुये, अपने चापलूस मित्रों के साथ अमोद-प्रमोद में मस्त हैं, मेवाड-रक्षक आज भी कायरों की भांति जनाने में घुसे हुये हैं। इन्हीं बातों को देखकर वह मुट्ठीभर राजपूत विकल हो उठे। उनकी हृदय-तन्त्री कर्तव्य-पालन करने के लिये बार२ प्रेरित करने लगी। शालुम्बा सरदार वीर चुण्डावत को राणा प्रताप की कही हुई बात इस समय बिस्कुल ठीक ऊँचने लगी। इसी समय उसे अकस्मात प्रताप के सामने की हुई प्रतिज्ञा याद हो आई। . वह मेवाड़ के वीर सैनिकोंकी एक टोली बनाकर राणाजी के महलों : ' Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवाड़ के वीर १३३ में जा पहुँचे । चुण्डावत सरदार की उस मूर्ति देखकर राणाजी सहम गये, तब भी वे हँस कर बोले:-"कहिये शालम्बा सरदार ! इस समय कैसे पधारे ?” राणा अमरसिंह के इस व्यंग भरे प्रश्न से चुण्डावत सरदार कुछ कट से गये, वह कड़क कर बोले: देश पर आपत्ति की धनघोर घटा छाई हुई है, यवनेश अपनी असंख्य सेना लेकर मेवाड़ पर चढ़ आया है। फिर भी आप पूछते हैं कि "इस समय कैसे पधारे?" विजेताओं के अत्याचार से लाखों युवतियाँ विधवा हो जायेंगी, उनका बल पूर्वक शील नष्ट किया जायगा। हमारे धार्मिक मन्दिर पृथ्वी में समतल कर दिये जॉयगें । मेवाड़ की कीर्ति लुप्त हो जायगी। सब कुछ जानते हुये भी मेवाड़-नरेश ! यह अनभिज्ञता कैसी"? चुण्डावत-सरदार के यह मर्मान्तक वाक्य राणाजीके हृदय में लगे तो, किन्तु व्यर्थ ! उनकी काम-वासना ने, विद्वता, वीरता, स्वाभिमान, मनुष्यता सभी पर पर्दा डाल रक्खा था। वे सरदारको टालने की गरज से बोले-'तब मैं क्या कह " __ "आप क्या करें ! राणा संग्रामसिंह ने क्या किया था? राणा लक्ष्मणसिंह के बारह पत्रों ने क्या किया था ? वीर जयमल और पत्ते ने क्या किया था और आपके यशस्वी पिता ने क्या किया था? जो उन्होंने किया वही आप कीजिये । जिस पथ का अवलम्बन उन्होंने किया, उसी का अनुसरण आप भी कीजिये" . . "मैं व्यर्थ का रक्त-पात करके अपने हाथों को कलंकित नहीं करना चाहता"। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ राजपूताने के जैन-चीर "अच्छा आप रक्तपात न कीजिये, परन्तु अपना रक्त ही बहाइये". . . "इसका तात्पर्य'! ... "यही कि आपकी विलासिता और अकर्मण्यता से ,जो मेवाड़वासी अनुत्साही होगये हैं-उनके हृदय की वीरता शुष्क हो गई है वह आपके रक्त संचार से फिर हरे भरें हो जायगे"! "तो क्या मैं मर जाऊँ"? "हाँ जो युद्ध नहीं करना चाहता-अहिंसक है वह मात्रभमि के ऋण से उऋण होने के लिये स्वयं उसकी वेदी पर बलि हो जाय"। . "कोई आवश्यकता नहीं, चुण्डावत सरदारं ! इस समय तुम यहाँ से चले जाओ। ___ "मैं नहीं जासकता, इतना कहकर क्रोध में मरे हुये चुण्डावंत सरदार ने सामने लगे हुये विल्लोरी आइने को पत्थर मार कर तोड़ डाला और सै नकों को आक्षा दी कि कर्तव्य-विमुख राणाजीको घोड़े पर विठात्री! आज हम फिर एकवार लोहा बजाकर अपनी मात्र भूमि का मुख उज्ज्वल करेंगे! राणा प्रताप के समक्ष की हुई प्रतिज्ञा आज सार्थक करेंगे। सैनिकों ने राणाजी को बलपूर्वक घोड़े पर बिठा दिया। राणा . जी क्रोध के आवेश में चण्डावत सरदार को राजद्रोही, विश्वासघाती, उद्दण्ड, आदि अनेक उपाधियाँ वितरण करने लगे सैनिकों और सरदारों का इस ओर ध्यान ही नहीं था। उसने बड़े चाव Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवाड़ के वीर १.३५ से भूमते हुये रायाजी को घेरे हुये रण-क्षेत्र की ओर चल दिये । मार्ग. में चलते हुये राणाजी की मोह निद्रा दूर हुई। उन्हें चुण्डाघत सरदार का यह कार्य उचित जान पड़ा। उन्हें अपनी अकर्मण्यता पर पश्चाताप होने लगा । वे सरदार को सम्बोधन करके घोले:- 'शालुम्बा सरदार ! वास्तव में आज तुमने यह वीरोचित कार्य किया है, जिसकी याद सदैव बनी रहेगी । तुमने मुझे विलासिता के अँधेरे कूप में से निकाल कर मेवाड़ का मुख उज्वल किया है | इसके लिये मेवाड़ तुम्हारा कृतज्ञ रहेगा । अब तुम देखोगे, प्रताप का पुत्र, बप्पारावल का वंशघर कहलाने योग्य है अथवा नहीं ? आज रण क्षेत्र में इसकी परीक्षा होगी" शालम्बा सरदार हाथ जोड़ कर बोले- "राणाजी ! यदि कुछ अपराध हुआ है तो क्षमा कीजिये । स्वामी को कुपथ से निकाल कर सुमार्ग पर लाना सेवक का कर्तव्य है, मैंने कोई नया कार्य नहीं किया; केवल सेवक ने अपना कर्तव्य पालन किया है" । + X + राणा अमरसिंह अपने वीर सैनिकों को लेकर जहाँगीर की सेना पर बाज की तरह झपट पड़े और अपने अतुल पराक्रम द्वार जहाँगीर का मान मर्दन कर दिया। थोड़े दिनों बाद अमरसिंह ने चितौड़गढ़ को मुगल बादशाह की पराधीनता से मुक्त कर लिया। इस प्रकार राणा प्रताप की अंतिम अभिलाषा पूर्ण हुई। DEAURED MASUTR४० Manag १ जून सन् १९२९ CIDOLPH 421 416 Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१३६ मेहता देवीचन्द “अगरचन्द के पीछे उसका ज्येष्ठ पुत्र देवीचन्द मंत्री वना और जहाजपुर का किला उसके अधिकार में रखा गया । थोड़े ही दिनों पीछे देवीचन्द के स्थान पर मौजीराम प्रधान बनाया गया और उसके पीछे सतीदास | उन दिनों श्रांबाजी इंगलिया का भाई . 'बालेराव शक्तावतों तथा सतीदास प्रधान से मिलगया और उसने महाराणा के भूतपूर्व मंत्री देवीचन्द को चुंडावतों का तरफदार समझ कर कैद करलिया, परन्तु थोड़े ही दिनों में महाराणा ने उस को छुड़ा लिया | झाला जालिमसिंह ने बालेराव आदि को महाराया की क़ैद से छुड़ाने के लिये मेवाड़ पर चढ़ाई को, जिसके खर्च -में उसने जहाजपुर का परगना अपने अधिकार में कर लिया और मेवाड़ का क़िला भी वह अपने हस्तगत करना चाहता था । महारारणा (भीमसिंह) ने उसके दबाव में आकर मांडलगढ़ का किला उसके नाम लिखा तो दिया, परन्तु तुरन्त ही एक सवार को ढाल तलवार देकर मेहता देवीचन्द के पास मांडलगढ़ भेजदिया । देवीचन्द ने ढाल तलवार अपने पास भेजे जाने से अनुमान कर लिया कि महाराणा ने जालिमसिंह के दबाव में आकर मांडलगढ़ का निला उस (जालिमसिंह) को सौंपने की आज्ञा दी है, परन्तु ढाल और तलवार भेजकर मुझे लड़ाई करने का आदेश दिया है। इस पर उसने क़िले की रक्षा का प्रबन्ध कर लिया और वह लड़ने को - सब्बित हो गया । जिससे जालिमसिंह की अभिलाषा पूरी न हो सकी। कर्नल टॉड ने उदयपुर जाकर राज्य-व्यवस्था ठीक की, उस " राजपुताने के जैन-वीर · 7 " Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३७ - मेवाड़ के वीर समय देवीचन्द पुनः प्रधान बनाया गया, परन्तु उसने शीघ्र ही इस्तीफा दे दिया, क्योंकि उस दुहरी हुकूमत से प्रबन्ध में गड़बड़ी होती थी।" मेहता शेरसिंह अगरचन्द के तीसरे पुत्र सीताराम का वेटा शेरसिंह हुआ। महाराणा जवानसिंह के समय सरकार इंग्रजी खिराज के रु० ७००००० चढ़ गये, जिससे महाराणा ने मेहता रामसिंह के स्थान पर मेहता शेरसिंह को अपना प्रधान बनाया। शेरसिंह इमानदार और सच्चा तो अवश्य बतलाया जाता था, परन्तु वैसा प्रबन्धकुशल नहीं था, जिससे थोड़े ही दिनों में राज्य पर कर्जा पहले से अधिक हो गया, अतएव महाराणा ने एक ही वर्षे वाद. उसे अलग कर रामसिंह को पीछे प्रधान बनाया । वि० स० १८८८ (ई० स० १८३१) में शेरसिंह को फिर दुवारा प्रधान बनाया। महाराणा सरदारसिंह ने गद्दी पर बैठते ही मेहता शेरसिंह को कैद कर मेहता रामसिंह को प्रधान बनाया । शेरसिंह पर यह दोषारोपण किया गया कि महाराणा जवानसिंह के पीछे वह (शेरसिंह ) महाराणा सरदारसिंह के पुत्र के छोटे भाई शार्दूलसिंह को महाराणा बनाना चाहता था। जैद की हालत में शेरसिंह पर जव सख्ती होने लगी तो पोलिटिकिल एजेण्ट ने महाराण से उसकी सिफारिश की, किन्तु उसके विरोधियों ने महाराणा को फिर बहकाया कि सरकार इंग्रेजी की हिमायत से राजपूताने का इ० चौ० भा० पृ० १३१५-१६ । - - - - A M A - -- - ---:- - Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮ राजपूतों के जैन चीर वह आपको डराना चाहता है । अन्त में दस लाख रुपये देने का वायदा कर वह (शेरसिंह) क़ैद से मुक्त हुआ, परन्तु उसके शत्रु उसे मरवा डालने के उद्योग में लगे, जिस से अपने प्राणों का भय जानकर वह मारवाड़ की ओर भाग गया । . जब महाराणी सरूपसिंह को राज्य की आमद खर्च का ठीक प्रबन्ध करने का विचार हुआ, और प्रीतिभाजनं प्रधान रामसिंह पर विश्वास हुआ, तवं उसने मेहता शेरसिंह को मारवाड़ से बुलाकर वि० सं० १९०१ ( ई० स०१८४४) में उसको फिर अपना प्रधान वनांया | महाराणा अपने सरदारों की छबूंद चाकरी की मामला तै करना चाहता था, इस लिये उसने मेवाड़ के पोलिटिकल एजेन्ट कर्नल ऐबिन्सन से संवत् १९०१ में एक नया कौलनामा तैयार करवाया; जिस पर कई उमंरावों ने दस्तखत किये। महाराणा की आज्ञा से मेहता शेरसिंह ने भी उस पर हस्ताक्षर किये । प्रधान का पद मिलते ही उसने महाराणा की इच्छानुसार राज्य कार्य में सुव्यवस्था की और कर्जदारों के भी, महाराणा की मर्जी के मुनाफिक फैसले कराने में उसने बड़ा प्रयत्न किया । 'लावे (सरदारगढ़) के दुर्ग पर महाराणा भीमसिंह के समय से शक्तावतों ने डोंडियों से क़िला छीन कर उस पर अपनी अधिकार जमा लिया था । महाराणा सरूपसिंह के समय वहाँ के शक्तवित रावत चतरसिंह के कांका सालिमसिंह ने राठौड़ मानसिंह को मार डाला, तो उक्त महाराणा ने उसका कुदेई गाँव जन्त; ". Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवाड़ के वीर १३९ कर, चतरसिंह को आज्ञा दी कि वह सालिमसिंह को गिरफ़्तार करे । चतरसिंह ने महाराणा के हुक्म की तामील न कर सालिमसिंह को पनाह दी, इस पर महाराणा ने वि० सं० १९०४ ( ई० सन् १८४७) में शेरसिंह के दूसरे पुत्र जालिमसिंह † को ससैन्य लावे पर अधिकार करने को भेजा, उसने लावे के गढ़ पर हमला किया, किन्तु राज्य के ५०-६० सैनिक मारे जाने पर भी गढ़ की मजबूती के कारण वह टूट नहीं सका। तब महाराणा ने प्रधान शेरसिंह को वहाँ पर भेजा। उसने लावे पर अधिकार कर लिया और चतरसिंह को लाकर महाराणा के सम्मुख प्रस्तुत किया । महाराणा ने शेरसिंह की सेवा से प्रसन्न हो पुरस्कार में क्रीमती खिलात, सीख के वक्त बीड़ा देने और ताजीम की इज्जत प्रदान करना चाहा, परन्तु उस शेरसिंह ने खिलअत और बीड़ा लेना तो स्वीकार किया और ताज़ीम के लिये इन्कार किया ! जब महाराणा सरूपसिंह ने सरूप्रसाही रुपया बनाने का विचार किया, उस समय महाराणा की आज्ञानुसार शेरसिंह ने कर्नल ऐविन्सन से लिखा पढ़ी कर गवर्नमेन्ट की स्वीकृति प्राप्त करली, जिससे सरूपसाही रुपया बनने लगा । + जालिमसिंह मेहता अगरचन्द के दूसरे पुत्र उदयराम के गोद रहा परन्तु उसके भी कोई पुत्र न था, इस लिये उसने मेहता पन्नालाल के तीसरे भाई तस्तसिंह को गोद लिया । तख्तसिंह गिर्वा व कवासनके प्रान्तों पर हाकिम रहा तथा महकमा देवस्थान का प्रबन्ध भी कई वर्षों तक उसके सुपुर्द रहा । महाराणा 1. 1 , सज्जनसिंह ने उसे इजलास खांस महद्राजं सभा का सदस्य बनाया । वह सरल प्रवृति का कार्य कुशल व्यक्ति था । Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० राजपूताने के जैन-वीर वि० सं० १९०७ ( ई० स० १८५० ) में बीलख आदि की पालों के भीलों और वि० सं० १९९२ ( ई० स० १८५५) में पश्चिमी प्रान्त के काली वास आदि के भीलों को सजा देने के लिये शेरेसिंह का ज्येष्ठ पुत्र मेहता सवाईसिंह भेजा गया, जिसने उनको सख्त सजा देकर सीधा किया । वि० सं० १९०८ लुहारी के मीनों ने सरकारी डाक लूट ली, जिसकी गवर्नमेन्ट की तरफ से शिकायत होने पर महाराणा सरूपसिंह ने उनका दमन करने के लिये मेहता शेरसिंह के पौत्र ( सवाईसिंह के पुत्र) अजीतसिंह को, जो उस समय जहाजपुर का हाकिम था, भेजा और उसकी सहायता के लिये जालंधरी के सरदार अमरसिंह शक्तावत को भेजा । श्रजीतसिंह ने धावा कर छोटी और बड़ी लुहारी पर अधिकार कर लिया । मीने भाग कर मनोहरगढ़ तथा देवका खेड़ा की पहाड़ी में जा छिपे, पर उनका पीछा करता हुआ, वह भी वहाँ जा पहुँचा । मीनों की सहायता के लिये जयपुर, टोंक और वन्दी इलाकों के ४-५ हजार मीने भी वहाँ आ पहुँचे । उनके साथ की लड़ाई में कुछ राजपूत मारे गये और कई घायल हुये, जिससे महाराणा ने अपने प्रधान मेहता शेरसिंह को अलग कर उसके स्थान पर मेहता गोकुलचन्द को नियत किया, परन्तु सिपाही विद्रोह के समय नीमच की सरकारी सेना ने भी बाग़ी होकर छावनी जलादी और खजाना लूट लिया । डा० मरे आदि कई अंग्रेज यहाँ से भागकर मेवाड़ के सुन्दा गाँव में पहुँचे । वहाँ भी बाग़ियों ने उनका पीछा किया। कप्तान शावर्स Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवाड़ के वीर ने यह खबर पाते ही महाराणा की सेना सहित नीमच की तरफ प्रस्थान किया। महाराणा ने अपने कई सरदारों को भी उक्त कप्तान के साथ करदिया। इतनाही नहीं, किन्तु ऐसे नाजुक समय में कार्यकुशल मंत्री का साथ रहना उचित समझ कर महाराणा ने उस शेरसिंह को प्रधान की हैसियत से उक्त पोलिटिकिल एजेंट के साथ कर दिया और जब तक विद्रोह शान्त न हुआ, तब तक वह उसके साथ रहकर उसे सहायता देता रहा। नींबाहेड़े के मुसलमान अफसर के बागियों से मिल जाने की खवर सुन कर कप्तान शावर्स ने मेवाड़ी सेना के सा चढ़ाई की, जिसमें मेहता शेरसिंह अपने पुत्र सवाईसिंह सहित शामिल था। जव नींवाहेड़े पर कप्तान शावर्स ने अधिकार कर लिया, तब वह (शेरसिंह ) सरदारों की जमीरत सहित वहाँ के प्रवन्ध के लिये नियत किया गया। महाराणा ने शेरसिंह को पहले ही अलग तो कर दिया था, अब उससे भारी जुर्माना भी लेना चाहा। इसकी सूचना पाने पर राजपूताने का एजेण्ट जनरल (जॉर्ज लारेन्स) वि० सं० १९१७ मार्गशीर्ष वदि ३ (ई०स० १८६० ता० १ दिसम्बर ).को उदयपर पहुँचा और शेरसिंह के घर जाकर उसने उसको तसल्ली दी। जब महाराणा ने शेरसिंह के विषय में एस (लारेन्स) से चर्चा की, तव उसने उस (महाराणा) की इच्छा के विरुद्ध उत्तर दिया। उसी तरह मेवाड़ के पोलिटिकिल एजेन्ट मेजर टेलर ने भी शेरसिंह से जुर्माना लेने का विरोध किया। इससे महाराणा और पोलिटि Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ राजपूताने के जैन वीर किल अफसरों में मनमुटाव हो गया, जो दिनों दिन बढ़ता ही गया। महाराणा ने शेरसिंह की जागीर भी जन्त करली, परन्तु फिर पोलिटिकिल अफसरों की सलाह के अनुसार वह महाराणा शम्भुसिंह के समय उसे पीछी देदी गई । महाराणा सरूपसिंह के पीछे महाराणा शम्भुसिंह के नावालिग़ होने के कारण राज्य प्रवन्ध के लिये मेवाड़ के पोलिटिकिल एजेण्ट मेजर टेलर की अध्यक्षता में रीजेन्सी कौंसिल स्थापित हुई, जिस का एक सदस्य शेरसिंह भी था । · महाराणा सरूपसिंह के समय मेहता शेरसिंह से जो तीन लाख रुपये दण्ड के लिये गये थे, वे इस कौंसिल के समय उस (शेरसिंह ) की इच्छा के विरुद्ध उसके पुत्र सवाईसिंह ने राज्य खजाने से पीछे ले लिये । इस के कुछ ही वर्ष बाद मेहता शेरसिंह के जिम्मे चित्तौड़ जिले की सरकारी रक्कम वाक्की होने की शिकायत हुई। वह सरकारी रक्कम जमा नहीं करा सका और जब ज्यादा तकाजा हुआ, तब सलूंवर के रावत की हवेली में जा बैठा, जहाँ पर उसकी मृत्यु हुई। राज्य की बाक़ी रही हुई रक्कम की वसूली के लिये उसकी जागीर राज्य के अधिकार में ले ली गई । शेर सिंह का ज्येष्ठ पुत्र सवाईसिंह उसकी विद्यमानता में ही मर गया। तब, अजीतसिंह उसके गोढ़ गया, पर वह निःसन्तान रहा जिससे मांडलगढ़ से चतरसिंह उसके गोद गया, जो कई वर्षों तक मॉडलगढ़, राशमी, कपासन और कुम्भलगढ़ आदि जिलों का . हाकिम रहा। उसका पुत्र संग्रामसिंह इस समय महद्राज सभा का Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवाड़ के वीर असिस्टैंट सेक्रेटरी है ।। " मेहता गोकुलचन्द १४३ "महाराणा सरूपसिंह ने मेहता शेरसिंह की जगह मेहता गोकुलचन्द को, जो मेहता अगरचन्द के ज्येष्ठ पुत्र देवीचन्द का पौत्र और सरूपचन्द का पत्र था, प्रधान बनाया । फिर वि० सं० १९१६ ( ई० स० १८५९) में महाराणा ने उसके स्थान पर कोठारी केशरीसिंहजी को प्रधान नियत किया। महाराणा शम्भुसिंह के समय वि० सं० १९२० ( ई० स० १८६३) में मेवाड़ के पोलिटि - किल एजेण्ट ने सरकारी श्राज्ञा के अनुसार रीजेन्सी कौन्सिल को तोड़ कर उसके स्थान में "अहलियान श्री दरवार राज्य मेवाड़ " नाम की कचहरी स्थापित की और उसमें मेहता गोकुलचन्द तथा पण्डित लक्ष्मणराव को नियत किया । वि० सं० १९२२ ( ई० स० १८६५ ) में महाराणा शम्भुसिंह को राज्य का पूरा अधिकार मिला । वि० सं० १९२३ ( ई० स० १८६६ ) में अहलियान राज्य की कचहरी टूट गई और उसके स्थान में "खास कचहरी" कायम । उस समय गोकुलचन्द माण्डलगढ़ चला गया । वि० सं० १९२६ ( ई० स० १८६९) में कोठारी केसरीसिंह ने प्रधान पद से स्तीफा देदिया, तो महाराणा ने वह काम मेहता गोकुलचन्द और पं० लक्ष्मणराव को सौंपा। बड़ी रूपाली और लांवा वालों के बीच कुछ जमीन के घावत झगड़ा होकर लड़ाई हुई, जिसमें लांबा बालों के भाई आदि मारे गये । उसके बदले में रूपाहेली का तस - + राजपूताने का ६० चौथा खं० पृ० १३१६ - २० । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ \ १४४ राजपूतानेके जैन-चीर • वारिया गाँव लाँवा वालों को दिलाना निश्चय हुआ; परन्तु रूंपाहेली वालों ने महाराणा शम्भुसिंह की आज्ञा न मानी, जिस पर गोकुलचन्द्र की अध्यक्षता में तसवारिये पर सेना भेजी गई । वि० सं० १९३१ ( ई० स० १८७४ ) महाराणा शम्भुसिंह ने मेहता पन्नालाल को कैद किया, तब उसके स्थान पर नोकुलचन्द मेहता और सहीवाला अर्जुनसिंह महकमा खास के कार्य पर नियुक्त हुये । उसमें अर्जुनसिंह ने तो शीघ्र ही इस्तीफा दे दिया और गोकुलचन्द मेहता कुछ समय तक इस कार्यको करता रहा. फिर वह माँडलगढ़ चला गया और वहीं उसकी मृत्यु हुई है। मेहता पन्नालाल - - वि० सं० १९२६ ( ई० स० १८६९) में महाराणा शम्भुसिंह ने खास कचहरी के स्थान में 'महकमा खास ' स्थापित किया, तो पण्डित लक्ष्मणराव ने अपने दामाद मार्तण्डराव को उसका सेक्रेदरी बनाने का उद्योग किया, परन्तु उससे काम न चलता देखकर महाराणा ने मेहता पन्नालाल ं को, जो पहिले खास कचहरी में + रा. पू. का. इ. चौ. भा. पृ० १३२० ॥ + मेहता पन्नालाल मेहता अगरचन्द के छोटे भाई हँसराज के ज्येष्ठ पुत्र दीपचन्द के द्वितीय पुत्र प्रतापसिंह का पौत्र ( मुरलीधर का बेटा ) था । जब हड़च्या खाल की लड़ाई में होल्कर की राजमाता अहिल्याबाई के भने हुये तुलाजी सिंघया और श्री माई के साथ की मरहटी सेना से मेवाड़ी सेना की हार हुई और मरहटों से छीने हुये न्धान सब छूट गये, उस समय दीपचन्द ने जावद पर एक महिने तक उनका अधिकार न होने दिया । अन्त में तोप आदि लड़ाई के सारे सामान तथा अपने लैंनिकों को साथ लेकर वह नरहटी सेना को चीरता हुआ मान्डलगढ़ चला आया । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवाड़ के वीर असिस्टेंट (नायब) के पद पर नियत था, योग्य देखकर सेक्रेटरी बनाया। कुछ समय पश्चात् प्रधान का काम भी महकमा खास के सेक्रेटरी के सुपुर्द हो गया और प्रधान का पद उठ गया । जब महाराणा को कितने एक स्वार्थी लोगों ने यह सलाह दी, कि बड़े बड़े अहलकारों से १०-१५ लाख रुपये इकट्ठे कर लेने चाहिये, तब महाराणा ने उनके बहकाये में आकर, कोठारी केसरीसिंह, छगनलाल तथा मेहता पन्नालाल आदि से रुपया लेना चाहा । पन्नालाल से १२०००० रु० का रुका लिखवा लिया, परन्तु श्यामलदास (कविराजा) क्या पोलिटिकिल एजेण्ट कर्नल निक्सन के कहने से उनके बहुत से रुपये छोड़ दिये । और पन्नालाल से सिर्फ ४०००० रु० वसल किये। मेहता पन्नालाल ने अपनी प्रबन्ध कुशलता के परिश्रम और योग्यता से राज्य प्रवन्ध की नींव दृढ़ करदी और खानगी में वह महाराणा को हरएक बात का हानि लाम बताया करता था, 'इसलिये बहुत से रियासती लोग उसके शत्रु हो गये। उसे हानि पहुँचाने के लिये उन्होंने महाराणा से शिकायत की, कि वह खूब रिश्वत लेता है और उसने आप पर जाद कराया है। महाराणा वीमार तो था ही, इतने में जादू करानेकी शिकायत होने पर मेहता पन्नालाल वि०सं०१९३१ भाद्रपद वदि १४ (ई० स० १८७४ ता० ९ सितम्बर) को कर्णविलास में कैद किया गया, परन्तु तहकीकात होने पर दोनों वातों में वह निर्दोष सिद्ध हुआ, तो भी उसके इतने दुश्मन हो गये थे, कि महाराणाकी दाह-क्रियाके समय उसके प्राण लेने की कोशिश Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :१४६ राजपूताने के जैन-चीर । भी हुई । यह हालत देखकर मेवाड़ के पोलिटिकिल एंजेण्ट ने उसे कुछ दिन के लिये अजमेर जाकर रहने की सलाह दी, जिस पर वह वहाँ चला गया। . . . : . . मेहता पन्नालाल के कैद होने पर महकमा खास का काम राय सोहनलाल कायस्थ के सुपुर्द हुआ। परन्तु उससे वह कार्य होता न देखकर वह कार्य मेहता गोकुलचन्द और सहीवाला अर्जुनसिंह को सौंपा गया। ... . . पन्नालाल के अजमेर चले जाने के बाद महकमे खास का काम अच्छी तरह न चलता देखकर महाराणा सज्जनसिंह के समय पोलिटिकिल एजेण्ट कर्नल इवर्ट ने वि० सं०१९३२ भाद्रपद सुदी ४ ( ई० स० १८७५ ता० ४ सितम्बर) को अजमेर से उस को पीछा बुलाकर महकमा खास का काम उसके सुपुर्द किया। ___ महारानी.विक्टोरिया के कैसरे-हिन्द की उपाधि धारण करने के उपलक्ष में हिन्दोस्तान के गवर्नर जनरल लार्ड लिटन ने ई०स० १८७७. ता० १ जनवरी (वि० सं० १९३३ माघ बदी २) को दिल्ली में एक बड़ा दरवार किया, उस प्रसंग में पन्नालाल को 'राय' का खिताब मिला । जब महाराजा ने वि०सं० १९३७ में 'महद्राजसमा' की स्थापना की उस समय उसको उसका सदस्य भी बनाया। महाराणा सज्जनसिंह के अन्त समय तक वह महकमा खास का सेक्रेटरी बना रहा और उसकी योग्यता तथा कार्यदक्षता से राज्य कार्य बहुत अच्छी तरह चला । उसके विरोधी महारांण से यह शिकायत करतेरहे कि वह रिश्वत बहुत लेता है, परन्तु महाराणा Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवाड़ के वीर ने उनके कथन पर कुछ भी ध्यान न दिया । महाराणा सज्जनसिंह के पीछे महाराणा फतहसिंह को मेवाड़ का स्वामी बनाने में उसका पूरा हाथ था । उक्त महाराणा के समय ई० स० १८८७ में ! महाराणी विक्टोरिया की जुबिली के अवसर पर उसको सरकार ने सी. आई.ई. के खिताब से सम्मानित किया । वि० सं० १९५१ ( ई० स० १८९४ . ) में उसने यात्रा जाने के लिये ६ मास की छुट्टी ली तब उसके स्थान पर कोठारी बलवन्तसिंह और सहीवाला अर्जुनसिंह नियत हुये । वि० सं० १९७५ के. चैत्र कृष्ण ३० को पन्नालाल ने इस संसार से कूच किया। राजा : प्रजा और सरदारों के साथ उसका व्यवहार प्रशंसनीय रहा और वे सब उससे प्रसन्न रहे । पोलिटिकिल अफसरों ने उसकी योग्यता कार्य कुशलता एवं सहनशीलता आदि की समय-समय पर बहुत कुछ प्रशंसा की है। उसका पत्र फतेलाल महाराणा फतेसिंह के पिछले समय उसका विश्वासपात्र रहा। उस ( फतेलाल ) का पुत्र देवीलाल उक्त महाराणा के समय महकमा देवस्थान का हाकिम भी रहा । १४७ इस प्रकार मेहता अगरचन्द और उसके भाई हँसराज के घरानों में उपर्युक्त चार पुरुष प्रधान मंत्री रहे और उनके वंश के अन्य पुरुष भी माँडलगढ़ की क़िलेदारी के अतिरिक्त राज्य के अलग अलग पढ़ों पर अब तक नियुक्त होते रहे हैं + " + रा० पू० ३० चौ० भा०पृ० १३२१-२१ | Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ राजपूताने के जैन-वीर नाथजी का वंश मेहता थिरुशाह: इस वंश के पहले सोलंकी राजपूत थे । जैनधर्म के उत्कर्ष के समय सं० ११०० विक्रमी के पास पास जैनधर्म के स्वीकार करने पर इनकी गणना भंडसाली गोत्र के सवालों में हुई । भण्डसालियों में थिरुशाह भण्डसाली बहुत प्रसिद्ध हो गया है । इस गोत्र के लोग मारवाड़ के खिमल गांव में विशेष कर रहते हैं। इस गोत्र की माता खिमल माता और नगारा 'रणजीत' है । शास्त्रोक्त गोत्र भारद्वाज और माध्यन्दिनी शाखा है ! मेहता चीलजी: किसी समय चीलजी नाम के इस वंश में प्रसिद्ध पुरुष हुए जिनको राज्य सम्बन्धी महत् कार्यों के करने के कारण 'महता' पदवी मिली । इसलिए इनका वंश चीलमहता के नाम से प्रसिद्ध है । इस वंश के उदयपुर में ७ तथा मेवाड़ में करीब १० कुटुम्ब होंगे। इससे मालूम होता है कि मारवाड़ से मेवाड़ में आनेवाला एक ही महापुरुष होना चाहिए जिनके ये वंशज हैं। मेहता जालजी -- इतिहास से पता लगता है कि महाराणा हमीर के समय में इस वंश के महता जालजी (जलसिंह ) सोनगरे मालदेव की पुत्री के साथ महाराणा का विवाह होने के कारण उनके कामदार 'प्राईवेट सेक्रेटरी) वन कर सव से पहले मेवाड़ में आये । इन्होंने Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवाड़ के वीर __१४९ यहाँ पाने पर राज्य की बड़ी सेवा की है, जिसका वर्णन टॉड साहव ने अपने इतिहास में किया है। मेहता नाथजी: नाथजी का इनके वंश में होना सेवगों की बहियों से मालूम होता है। उदयपुर के प्रसिद्ध खान्दान मेहता रामसिंहजी के वंशज मेहता जलसिंह के पाखी वंशज बतलाये जाते हैं। जो बहुत अर्से से राज्य के प्रतिष्ठित ओहदों पर चले आ रहे हैं । जिनको कि १९७५ में गाँव आदि जागीर में मिले जिनका वर्णन ओझाजी ने किया है। नाथजी के वंश में सं० १९७३ के पहले से जागीरी चली आ रही थी, जिसका पता उनके पुत्र मेहता लक्ष्मीचंद के खाचरोल के घाटे में लड़ाई में काम आने पर मेहता देवीचंदजी के नाम श्री दरवार के एक रुके से चलता है, जिसमें गांव आदि बहाल रखने का हुक्म दिया है। नाथजी मेहता जो पहले उदयपुर के पास देवाली नामक गाँव में रहते थे, घरेलु कारण से कोटे चले गये । वहां उन्होंने राज्य का काम किया, जिसकी खिदमत में कुछ खेत कुएं आदि मिले बतलाये जाते हैं । सं० १९०७ के आस पास कोटे से मांडलगढ़ चले आये। ये वीर और साहसी थे । जमाना लड़ाइयों का था ही, अतः.मांडलगढ़ के किले पर उन्हें फौज की अफसरी दी गई और इसकी एवज में नवलपरा गाँव जागीर में मिला। इन्होंने किले की कोट पर एक बुर्ज वनवाई, जो अब भी Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० राजपताने के जैन वीर नाथबुर्ज के नाम से प्रसिद्ध है । किले पर भगवान् का मन्दिर तथा किले से कुछ दूर एक पहाड़ पर माता का मंदिर बनाया जोविजासण माता के नाम से मशहूर है। इनका निवासस्थान प्रव... भी किले के कोट पर दरवाजे के ऊपर बना हुआ है, जिससे किले hi निगरानी हो सके । · मेहता लक्ष्मीचन्दजी: :. नाथजी के पुत्र का नाम लक्ष्मीचन्दजी था, जो खाचरौल के घाटे में सं० १९७३ के श्रावण शुक्ल ५ के दिन लड़ाई में काम आये । इनके पिता नाथजी का देहान्त पहले हो चुका था । कुछ अवसरों पर पिता और पुत्र दोनों लड़ाइयों में साथ रहे ऐसा मालूम हुआ है। वेहता जोरावरसिंहजी, मेहता जवानसिंहजी : Postpon Ca लक्ष्मीचन्दजी की मृत्यु के समय इनके दो पुत्र-जोरावरसिंहजी और जवानसिंहजी की उम्र ५ और २ वर्ष की होने के कारण नाबालगी हो गई । घर में इतना द्रव्य नहीं था, कि मौजूदा कुटुम्ब I का पालन हो सके। इनकी माता बहुत ही होशियार और वुद्धिमति थी । अनेक आपत्तियों का सामना करती हुई उसने .... अपने दोनों बच्चों को बड़ा किया । इनके भाई जो बहुत आसूदा थे, अपनी विधवा वहिन और अपने छोटे भानजों को अपने गांव मगरोम ले जाना चाहते थे किन्तु उसने यह कह कर मना किया, कि मेरे यहाँ (घर) 'हने से मेरे बच्चे मेरे पति के नाम से पुकारे जायेंगे और आपके Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवाड़ के वीर वहाँ रहने से अमुक मामे के भानजों के नाम से पुकारे जाँयगे। जो कुल-गौरव के विपरीत है। ___ उस समय की स्त्रियों में कितना स्वाभिमान एवं कुल-गौरव का भाव था। उन्होंने चर्खा आदि कात कर अपने दोनों बच्चों का पालन किया। यद्यपि श्री जी हजूर दरबार का हुक्म मेहता देवीचन्दजी के नाम इस कुटुम्ब को मदद देनेका हुआ था, किन्तुं उसका ज्यादा असर नहीं होने दिया गया। बड़े पत्र जोरावरसिंहजी मेवाड़ के प्रसिद्ध दिवान महता रामसिंहजी के दरवार की नाराजगी के कारण वाहर चले जाने के कारण व्यावर चले गये और वहीं उनका देहान्त हुआ। __ छोटे पुत्र जवानसिंहजी बड़े प्रतिभाशाली थे। इन्होंने अपनी बुद्धि और पुरुषार्थ द्वारा, अपनी स्थिति उन्नत कर ली। कहा जाता है कि इन्होंने कभी भी विना १०-२० मनुष्यों को साथ लिए भोजन नहीं किया । कई राजपूत सरदार इनके साथ रहते थे। कई वार श्री जी हजूर में हाजिर हुए । सिरोपाव आदि वख्शे गये । नवलपरा गांव जो उनकी जागीर में अर्से से चला आ रहा था और जो इनकी नावालगी में जप्त करा दिया गया था। इन्होंने अपनी कोशिश से सं० १९०४ में हजूर में अर्ज करा कर इस्तमुरार करा लिया। ___ एक समय की बात है मांडलगढ़ निवासी शंकरजी जोशी की गायं चितोड़ा की वनी में डाकू लोग ले गये । जोशीजी ने यह वात जवानसिंहजी से कही । जवानसिंहजी यह वातं सुनते ही Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ · 'राजपूताने के जैन-वीर चोरों का पीछा करने के लिए घोड़ी पर चढ़ कर खाने हो गये । पीछे से सेमरिया ठाकुर भी वहाँ आ पहुँचे। डाकुओं की संख्या विशेष थी, आपस में खूब लड़ाई रही। अंत में चार डाकू उनके द्वारा मारे गये । और उनके सिरों को बेगू में लटका दिया । इस घटना के कुछ अर्से बाद ३९ वर्ष की अवस्था में ही परलोक • सिधारे। इनके दो पुत्र चत्रसिंहजी और कृष्णलालजी थे। ये दोनों धार्मिक प्रवृत्ति के होने पर भी विशेष साहसी थे।' 1 मेहता चत्रसिंहजी : - 'चत्रसिंहजी की गणना मेवाड़ के भक्त पुरुषों में थी । श्रीमान् महाराणा साहब शंभूसिंहजी ने इन्हें योग्य एवं विश्वस्त समझ कर एकलिंगजी के मन्दिर का दरोगा नियुक्त किया । और ३) रोज यानी ९०) माहवार की तनख्वाह तथा चढ़नेके लिए सरकारी घोड़ा दिया | वे वहां पर ३ साल तक काम करते रहे किन्तु देवद्रव्य समझ कर तनख्वाह आदि कुछ भी नहीं ली थी । यद्यपि उनको अपने वड़े कुटुम्ब को पालने के लिए अनेकों आर्थिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। इसके बाद महाराणा के हुक्म खर्च के खजाने पर नियुक्त हुए। इन महाराणा के स्वर्गवास होने पर महाराणा शंभूसिंहजी की राणी के कामदार नियुक्त. किये गये । इनकी राज्य में प्रतिष्ठा रही। इनका अधिक समय ईश्वरोपासना में बीतता था । इनकी मृत्यु सं० १९७३ के श्रावण मास में हुई। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवाड़ के वीर नाथजी-वंश लक्ष्मीचंदजी हरिसिंहजी जोरावरसिंहजी जवानसिंहजी मोखमसिंहजी चतुरसिंहजीकृष्णलालजी रघुनाथसिंहजी | . माधवसिंहजी गोविन्दसिंहजी हरनाथसिंहजी । | मनोहरसिंहजी इन्द्रसिंहजी,मदनसिंहजी,मालूमसिंहजी जालिमसिंहजी कुनणासिंहजी | मनोहरसिंहजी बलवन्तसिंह फतेलालजी मॅवरंजी , प्रतापसिंहजी जसवन्तसिंह Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजपुताने के जैन वीर सरूपरया वंश • F विक्रम संवत् १२९७ में परम पवित्र वीर भूमि श्री मेदपाट के सिंहासन पर हिन्दु-कुल चूड़ामणि महाराणा कर्णादित्यसिह विराजते थे। उनके तीन पुत्र रामनी माफजो व श्रवणजी केलवेगाँव के पास शिकार करने गये, जहाँ श्री कपिल ऋषि तपस्या करते थे - अकस्मात् उक्त ऋषि शिकार में मारे गये । उनकी स्त्री रंगा जो कुछ दूर ही तपस्या कर रही थी, उनके पास शिकारी कुत्ते ऋषि के मृत शरीर की अस्थियाँ ले गये तब रंगा सती को अपने पति के मरने का हाल मालूम होने पर वह पति की अस्थियाँ लेकर सती होगई और तीनों राजकुमार राजी माफजी व श्रवणजी को शाप दे गई कि तुम्हारे कोढ़ निकलेगा । तद्नुसार कोढ़ निकलने पर बहुत चिकित्सा करने पर भी शान्त न होने से मारवाड़ से यति श्री यशोभद्रसूरि (अपर नाम शांतिसूरि) को कोढ़ मिटाने के लिये बुलाया उनकी चिकित्सा से आराम होने पर राजा ने प्रसन्न हो यतिजी को वर माँगने के लिये कहा, तो चतिजी ने छोटे राजकुमार श्रवणजी को वर में माँगा और उनको श्रावक व्रत धारण करा जैनधर्म अंगीकार कराया । इन्हीं श्रवण . जी से यह वंश चला आ रहा है — इन श्रवणजी की २५वीं पीढ़ी में डूंगरसीजी हुवे - जो संवत् १४६८ में राणा लाखा के कोठार : के दारोगा थे ! राणाजी ने इनको सरोपाव बख्स कर सुरपुर गाँव बख्शा, जो पुर के पास होकर आज दिन तक वहाँ सरूपरयों के १५४ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५५ मेवाड़ के वीर महल के नाम से विख्यात होकर कुछ खंडहर अभी तक विद्यमान हैं। तथा डूंगरसीजी के पहिले तक तो यह श्रवणजी का वंश सिसोदिया के नाम से प्रसिद्ध था। परन्तु इंगरसीजी को सुरपर घसीस होने पर यह वंश सरूपरया (गोन सिसोदया) कहलाने लगा। कहते हैं कि राणाजी इनके यहाँ खेंखरा (दिवाली के दूसरे दिन) को होड़ हीचवा पधारते थे। १५१० में डूंगरसीजी ने जारेड़ा (रामपुरा रियासत हाल ग्वालियर) में आदीश्वर भगवान की चौमुखी मूर्ति स्थापन करा मंदिर वनवाया-डूंगरसीजी की पाँचवीं पीढीमें गोविन्दजी हुवे-जिनके दो पुत्र (ज्येष्ठ) पारसिंह व (कनिष्ट ) नरसिंह थे--पारसिंह की बटवीं पीढी में उदेसिंह के द्वितीय पुत्र गिरधरलालजी के वंशज अभी तक उदयपुर में मौजूद हैं। __इसी तरह कनिष्ठ पुत्र नरसिंह के द्वितीय पुत्र पद्मोजी के पोते नेताजी जो मारवाड़ की तर्फ गये। उनके तीसरे लड़के गजोजी थे-गजोजी के तीसरे लड़के राजोजी हुये और राजोजी के चार लड़के उदाजी, दुयाजी,दयालजी जो पीछे दयालसाहके नाम से विख्यात हुए, व देधाजी थे। __दयालशाह की वावत जो ख्याति ओझाजी के राजपूताने के इतिहास में चली आ रही है कि ये पहिले पुरोहित के यहाँ काम करते थे, और एक वक्त वाहिर कार्य वश गाँव जाते समय उन्होंने जो कटार पुरोहितजी से मांगी तो उसमें से जो चिट्ठी अकस्मात् इनके हाथ आ गई वो इन्होंने राणाजी को उनके प्राण Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ राजपुताने के जैनवीर रक्षा करने के लिये बतादी और राणाजी ने इनकी स्वामि-भक्ति से प्रसन्न हो, अपने प्रधान का पद इनको दिया । परन्तु इसके विरुद्ध यहाँ हाल जाहिर आया है कि दयालजी पहिले मारवाड़ . की तरफ रहते थे। जिस वक्त राजसंमुद्र का निर्माण आरंभ हुवा उस वक्त नींव में का पानी न रुकने से किसी ज्योतिषी के कथनानुसार दयालशाह की पतिव्रता स्त्री गौरादेवी को उनके हाथ से समुद्र की परिक्रमा कच्चे सूत से लगवा इन्हीं सती के हाथ से नींव का पत्थर जमवाया और उसीके बाद दयालशाह को अपने प्रधान पद पर नियुक्त किया । दयालशाह एक वीर पुरुष, स्वामि-भक्त व बड़े चतुर विलक्षण धार्मिक पुरुष थे। कहते हैं कि राजसमुद्र के तालाब व नौ चौकियों का निर्माण इन्हीं की देख रेख में हुवा था और इन्होंने भी पास ही एक पहाड़ पर श्रीश्रादेश्वर भगवान की चौमुखी मूर्ति स्थापना करा सं० १९६२ में मंदिर का निर्माण कराया, जो आजदिनतक दयालशाह के किले के नाम से विख्यात है और मंदिर के चारों तरफ़ कोट वन कर लड़ाई की दुजें अभी तक विद्यमान हैं । इस मंदिर के पहिले नौमंजिल थे, जिसका कुल खर्चा वनाने में ९९९९९९||||| हुवा। उस वक्त की कविता भी चली आ रही है-- जब था राणा राजसी, तब था शाह दयाल । । • अणां वैधाया देहरो, 'त्रणा बंधाई पाल || . हिम्मतसिंहजी स्वरूपरया एम.ए. एल.एल.वी. द्वारा लिखित । Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवाड़ के वीर शिशोदिया वंश के जैन- वीर अर्थात मेहता ज्योढीवाला खान्दान १५७ मेहता सुखानी मेहवा ड्योढीवालों का वंश चित्तौड़ (मेवाड़) के रावल करणसिंहजी के सब से छोटे पुत्र सरवणजी से निकला है । रावत करणसिंहजी के तीन पुत्र थे- माहपजी, राहपजी और सरवणजी | माहपजी मेवाड़ छोड़ कर डूंगरपुर चले गये और | वहाँ स्वतन्त्र राज्य स्थापित किया । राहपजी ने 'राणा' पदवी धारण कर मेवाड़ पर राज्य किया और सरवणंजी ने जैनधर्म अंगीकार कर लिया । उनके चार पुत्र हुए। सरवणजी ने फिर चित्तौड़ पर श्री शीतलनाथजी का मन्दिर बनवाया । सरवणजी के जैनधर्म में दीक्षित होजाने से, राहपजी ने इनको जनानी ड्योढी की रक्षा का कार्य सुपर्द किया जो आज दिन तक इन्हीं के वंश में चला आ रहा है । जैनी हो जाने के पश्चात् इनकी सन्तान की शादियाँ ओसवाल जाति में होने लगी और ओसवाल जाति में इनकी या इनके वंश की विशेष मान और प्रतिष्ठा रही । Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ राजपूताने के जैन-चीर मेहता सरीपतजी सरवणजी के पुत्र सरीपतजी को राणा राहपजी ने 'मेहता' की पदवी दी। इनके वंश वाले शिशोदिया मेहता कहलाते हैं । सरीपतजी के वंश वाले शिशोदया मेहता महाराणा उदयसिंहजी के समय में चित्तौड के अन्तिम (तीसरे)शाका में लड़े और काम आये, सिर्फ मेहता मेघराजजी बच गये, जो राणा उदयसिंह । जी के साथ उदयपुर चले आये। मेहता मेघराजजी मेहता मेघराजजी ने उदयपुर में श्री शीतलनाथजी का मन्दिर तैय्यार करवाया और टीम्बा (महतों का टीबा) वसाया। मेहता मेघराजजी की चौथी पाँचवीं पीढी में मेहता मालदासजी हुए जिन्होंने मरहटों के साथ लड़कर बड़ी बहादुरी दिखलाई। मेहता मालदासजी. महाराणा भीमसिंहजी के समय में मरहटों का जोर मेवाड़ में बहुत बढ़ा चढ़ा था। मेवाड़ का प्रधान उन दिनों में सोमचन्द गाँधी था। इसने मरहटों को मेवाड़ से बाहर निकालने का निश्चय किया। इसने पहले राजपूताने के राजाओं को मरहटों से लड़ने के लिये भड़काया । वि० सं० १८४४ (ई० स० १७८७) में जब मरहटा लालसोट की लड़ाई में हार चुके तब सोमचन्द ने यह सुअवसर देखकर, उसी वर्ष मार्गशीर्ष में चूंडावतों को उदयपुर की रक्षा का भार सौंप कर, मेहता मालदास को मेवाड़ तथा कोटा : Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवाड़ के वीर १५९ फी संयुमा सना का अध्यक्ष बनाया और उसको मरहटों के साथ लढ़ने के लिये भेजा । यह लेना उदयपुर से रवाना होकर निम्बा दा, नपुम्प: जीरण प्रादि स्थानों पर अधिकार फरती हुई जावद पहुँची। जहाँ मदाशिवराव की मातहती में मरहटों ने पहले तो कुछ दिनों नफ सामना किया परन्तु पीछे से वे कुछ शतों पर. शहर छोड़ कर गले गरे । इस तरह महला मालदास की अध्यउता में मेवाड़ की सेना को मरष्टों पर विजय प्राम हुई। यह सबर पाकर राजमाता अहिल्याबाई होल्कर) ने पलाजी सिंधिया नया मीनाई की मातहती में ५००० सवार जावद की पोर भने "गहनना गुल फाल नक मन्दसौर में ठहर कर मेवाड़ की भी बढ़ी, नब गदागणाने उसका मुकाबला करने के लिय माना मानदास की अध्यनता में नादी के सुलतानसिंह, दलवाई फ फत्यागासिंह, फानोद के रावत चालिमसिंह, सनवाड़ के वाया मालनसि. प्रादि राजपूत सरदागें तथा सादिक पंजू वगैरह सिंधिगों को अपनी चपनी नेना सहित रवाना किया। वि०सं०१८४४ माघ (ई.स. १७८८ परवर्ग) में मरहटी सना से हइक्याखा के पास राजपूनोंफी लदाई हुई, जिसमें मेवाड़ का मंत्री तथा सेनापति मंहना मालदास, बाया दौलतसिंह का छोटा भाई किशनसिंह प्रादि अनेक राजपत सरदार एवं पंज आदि सिन्धीवीरताके साथ लद कर काम पाय" फर्नल टॉड ने 'एनान्स ऑफ मेवाड़ में मेहता मालदास के लिये लिखा है मालदास मेहता प्रधान थे और उनके डिप्टी मौजीराम थे। ये दोनों बुद्धिमान और वीर थे।' Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० राजपूताने के जैन-धीर Maldas Mehta was civil member with Maujiram . as his Deputy, both men-of talent.and energy. : ', ___ मेहता मालदासजी का बड़े बड़े सरदार और सिन्धियों का सेनापति एवं अध्यक्ष बनाया जाना और वीरता के साथ लड़ कर मारा जाना, इस वंश के लिये बड़े ही गौरव की बात है। ... मेहता मालदास का घराना उदयपुर में आज भी, चला आ रहा है जो ड्योढी वाला मेहता के खान्दान से मशहूर है।। HYAL FET .. . NEPALENIN . S HASIT: ... PMEGPPOT.', Taus .. . SAMAKids . P4.COM मेहता जोपसिंहनी बी.ए. एल.एल.वी द्वारा लिखित और मास्टर, चन्तमिदमी की पृपा से प्राप्त। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवाड़ के वीर सोमचन्द गांधी राजपूताने के इतिहासमें लिखा है कि "रावत भीमसिंह आदि चड़ावत सरदारों ने महाराणा (भीमसिंह इ० स० १७६८ ता० १० मार्च राज्य प्राप्ति) को अपने कब्जे में कर लिया था। जब कभी महाराणा को रुपयोंकी आवश्यकता होती तब वे खजाने में रुपया न होनेके कारण कोरा जवाब दे देते थे।......एकदिन राजमाता ने चण्डावतों से कहा कि महाराणाके जन्मोत्सव के लिये खर्च का प्रवन्ध करना चाहिये । इस अवसर पर भी वे टाल मदल करगये इन बातों से राजमाता चूण्डावतों से बहुत अप्रसन्न होगई इधर सोमचन्द गांधी ने जो जनानी ड्योढ़ी पर काम करता था; रामप्यारी के द्वारा राजमाता से कहलाया कि यदि मुझे प्रधान बनादें तो मैं रुपयों का प्रबन्ध करटुं। राजमात ने उसे प्रधान वनादिया। वह बहुत योग्य और कार्यकुशल कर्मचारी था। उसने शक्तावतों से मेलजोल बढ़ाया और उनकी सहायता से थोड़े ही दिनों में कुछ रुपये इकट्ठे कर राजमाता के पास भेजदिये । इसपर चुण्डावत सरदार सोमचन्द और उसके सहायकों को सताने तथा हानि पहुंचाने लगे। सोमचन्द ने चूण्डावतोंको नीचा दिखानेके लिऐ भिंडर और लावा के शक्तावत सरदारों को राजमाता से सिरोपाव आदि दिला कर अपनी ओर मिला लिया और कोटे के झाला जालिमसिंह को भी जिसकी चूण्डावतों से शत्रुता थी अपना मित्र तथा सहायक बनालिया। इसके बाद उस (सोमचन्द) ने राजमाता से मिलकर यह स्थिर किया कि महाराणा भीडर जाकर मोहकमसिंह शक्तावत Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ . राजपूताने के जैन-वीर .. को (जो बीस वर्ष से राज वंश से बिरुद्ध होरहाहै ) अपने साथ उदयपुर ले आवें ...... प्रधान सोमचन्द ओर भीडर के महराज मोहकमसिंह आदि ने यह निश्चय किया कि मरहटों से मेवाड़ राज्य का वह भाग, जिसे उन्होंने दवा लिया है छीन लेना चाहिये। इस कार्य में पूरी सफलता पानेके लिये चुण्डावतों की सहायता आवश्यक समझ उन्होंने रामप्यारी को सलूंबर भेजकर वहां से रावत भीमसिंह को जो शक्तावतोंके जोर पकड़ने के कारण उदयपुर छोड़कर चलागया था बुलवाया था।...इस प्रकार सोमचन्द ने घरेलू झगड़े को दूरकर जयपुर जोधपुर आदि राज्यों के स्वामियों को मरहटों के विरुद्ध ऐसा भड़काया कि वे भी राजपूताने को मरहटों के पंजों से छुड़ाने के कार्य में महाराणा का हाथ बटाने के लिये तैयार होगये।" वि० सं० १८४४ (ई० स० १७८८) में लालसोट की लड़ाई में मारवाड़ और जयपुर के सम्मिलित सैन्य से मरहटों की पराजय होने के कारण राजपूताने में उनका प्रभाव कुछ कम हो गया था। इस अवसर को अच्छा देख कर सोमचन्द आदि ने शीघ्र ही मरहटों पर चढ़ाई करने का निश्चय किया" पृ०९८४-८७। : "चूण्डावतों ने प्रकट रूप से तो अपने विरोधियों से प्रेम करलिया था परन्तु, अन्तःकरण से वे उनके शत्रु बने रहे और सोमचन्द गांधी को मारने का अवसर ढूंडरहे थे। अपनी अचल, राजनिष्ठा एवं लोकप्रियताके कारण वह (सोमचन्द)चूण्डावतोंकी. Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६३ मेवाड़ के वीर आँखोंमें बहुत खटकताथा,पर वहबड़ाही दूरदर्शी और नीतिकुशल था जिससे उन्हें उससे बदला लेने का कभी अवसर ही नहीं मिलता था, वि० स० १८४६ कार्तिक सुदी ६ (ई० स० १७८९ ता० २४ अक्टूबर) को जब कुरावड़ का रावत अर्जुनसिंह और चावंड का रावत सरदारसिंह महलों में गये उस समय सोमचन्द प्रधान भी वहीं था । उसे मारनेका यह उपयुक्त अवसर पाकर उन्होंने सलाह करने का बहाना किया और उसे अपने पास बुलाया तथा उससे यह पूछते हुये कि "तुम्हें हमारी जागीर जन्त करने का साहस कैसे हुधा"दोनों तरफ से उसकी छाती में कटार घुसेड़ दिया जिस से , वह तत्काल मरगया। ...... जब सोमचन्द के इस प्रकार मारे जाने का समाचार उसके भाई सतीदास तथा शिवदास को मिला, तव वे तुरन्त महाराणा के पास जो उस समय बदनौर के ठाकुर जेतसिंह के साथ सहेलियों की बाड़ी में था - पहुँचे और अर्ब किया 'हम लोगों को आप शत्रु के हाथ से क्यों भरवाते हैं ? . आप अपने ही हाथ से मार डालिये।" उनके चले जाने के बाद रावत अर्जुनसिंह सोमचन्द के खून से भरे हुए अपने हाथों को विना धोये ही महाराणा के पाह पहुँचा । उस को देखते ही महाराणा का क्रोध भड़क उठा, पर असमर्थ होनेके कारण अर्जुनसिंह की इस ढिठाई के लिये उसे कोई दण्ड तो न दे सका, परन्त केवल यही कहा-दशावाज मेरे सामने से चलाजा, मुझे मुंह मत • दिखला "। महाराणाको अत्यन्त क्रुद्ध देखकर अर्जुनसिंह ने वहाँ ठहरना उचित न समझा और तुरन्त वहां से लौट गया। ...... Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४, . राजपूताने के जैन-वीर महाराणा को आज्ञा से सोमचन्द का दाहकर्म पीछोले को बड़ीपाल पर किया गया जहां उसकी छत्री अव तक विद्यमान है।" (पृ० ९८९) सतीदास गांधी "सोमचन्द के पीछे उसका भाई सतीदास प्रधान और शिवदास उसका सहायक बनाया गया । इधर सतीदास और शिवदास ने अपने बड़े भाई के वध का शत्रुओं से बदला लेने के लिये भीडर के सरदार मोहकमसिंह की सहायता से सेना एकत्र कर चिचौड़ की ओर कूच किया । उधर उनका सामना करने के लिये अपनी सेना सहित कुरावड़ के रावत अर्जुनसिंह की अध्यक्षता में चूड़ावत चित्तौड़ से रवाना हुए । अकोला के पास लड़ाई हुई, .. जिसमें सतीदास की जीत हुई और रावत अर्जुनसिंह ने भाग कर अपनी जान बचाई ......साह सतीदास ने अपने भाई सोमचन्द . के कातिल को मारडाला (पृ० १०११)। १ जुलाई सन् ३३ . Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवाड़ के वीर राणाओं के समकालीन जैन मंत्री वर्तमान शिशोदिया राज-वंश का चित्तौड़ में अधिकार होने (वि०सं०की आठवीं शताव्दी) से पूर्व मेवाड़ की परिस्थिति बताने में इतिहास के पृष्ठ मौन है। फिर भी मेवाड़ की राजधानी चित्तौड़ होने से पूर्व नागदा और बाहड़में रही हो, ऐसे प्रमाण मिलते हैं। इन दोनों स्थानों पर बड़े बड़े विशाल प्राचीन जैनमन्दिर अभीतक विद्यमान हैं, जिनसे कि प्रकट होता है कि उस काल में जैनों का वहाँ पर उत्कर्ष रहा होगा। चित्तौड़गढ़ भी उक्त राजवंशों के आधिपत्य से पूर्व और कुछ बीच में जैनधर्मी राजाओं के अधिकार में रहा है, मेवाड़ में उक्त राजवंश के उत्कर्ष में जैनों का क्या स्थान है, आगे इसी पर विवेचन करना है। मेवाड़ के उक्त राणाओं का सिलसिलेवार प्रामाणिक इतिहास रावल तेजसिंह से मिलता है, अतः प्रस्तुत निवन्ध का श्री गणेश भी यहीं से किया जाता है। रावल तेजसिंह " परम भट्टारक" उपाधि से सुशोभित थे, यह उपाधि पहले किसी अर्थ में रही हो, किन्तु प्रायः यह विरुद आज तक जैनियों के यहाँ ही प्रचलित है। इन्हीं रावल तेजसिंह की पटराणी जयतल्लदेवी प्रकट रूप में जैनधर्मी हुई है । जिसने कि चित्तौड़ पर श्याम पार्श्वनाथ का मन्दिर बनवाया था । रावल तेजसिंह ने चैनंगच्छ के आचार्य रत्नप्रभसूरि का अत्यन्त सम्मान किया था। Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ - राजपूताने का जैन-चीर रावल तेजसिंह के पुत्र वीरवर समरसिंह ने अपने राज्य में जैनाचार्य के उपदेश से प्रभावित होकर जीवहिंसा रोक दी थी। ___ उक्त ऐतिहासिक प्रमाणों से ध्वनित होता है कि यह शायद जैनधर्मी रहे हों। राजपूतानांतरगत रियासतोंके मंत्री, सेनापति प्रायःजैनी होते. आये हैं किन्तु आज उन सब का परिचय तो क्या नाम तक भी उपलब्ध नहीं होते । यहाँ संक्षेप में मेवाड़ के राणाओं के समकालीन जैन मंत्रियों आदि के नाम दिये जाते हैं:- . १ महाराणा लाखा के समय में नव लाखा गोत्र के रामदेव का मंत्री होना पाया जाता है। (देवकुल पाटक प्रशस्ति) २ महाराणा हमीर के समय में जालसिंह हुये हैं। परिचय के लिये देखो प्रस्तुत पुस्तक पृ० १४८। ३ महाराणा कुंभा के समय में वेला भण्डारी, गुणराज, जीजा वघरवाल,(जिसने जैन कीर्तिस्तम्भ वनवाया) रत्नसिंह, (जिस ने राणपरा का मन्दिर वनवाया) आदि कई प्रधान पुरुप हुये। ४ महाराणा साँगा के मित्र कर्माशाह के पिता तोलाशाह थे। राणा की अभिलाषा इनको मंत्री बनाने की थी। किन्तु अ-. त्यन्त धर्मनिष्ट होने के कारण तोलाशाह ने प्रधानपद स्वीकार नहीं किया। परिचय पृ०७१। । ५ महाराणा रत्नसिंह के मंत्री कर्माशाह थे, जिन्होंने करोड़ों रुपये लगाकर शत्रुजंय का उद्धार कराया और आदिनाथ की मूर्ति स्थापित की । परिचय पृ०६८। । : Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवाड़ के वीर १६७ ६ महाराणा विक्रमादित्य के समय में कुम्भलगढ़ का किलेदार : आशाशाह था, जिसने महाराणा उदयसिंह के शरणागत होने पर प्रभयदान दिया था । परिचय पृ० ७४ । ७ महाराणा उदयसिंह के मंत्री भारमल कावड़िया थे । परिचय पृ० ८० । ८ महाराणा प्रताप सिंहके मंत्री भामाशाह थे। परिचय पृ०८३ । इसके सिवाय उक्त राया की घोर से हल्दीघाटी के युद्ध में ताराचन्द मेहता जयमल बच्छावत, मेहता रत्नचन्द खेतावत आदि के लड़ने का उल्लेख मिलता है । ९. महाराणा अमरसिंह का मंत्री भामाशाह और भामाशाह की मृत्यु के बाद उसका पुत्र जीवाशाह रहा। परिचय पृ० १०० । १० महाराणा कर्णसिंह का मंत्री अक्षयराज था । पृ० १०१ । ११ महाराणा राजसिंह का मंत्री दयालशाह था । परिचय पृ० १०२ १२ महाराणा संग्रामसिंह (द्वितीय) वीर प्रकृति के पुरुष थे। इन्हों ने ऋषभदेवजी के मन्दिर को एक गाँव भेट किया । १३ महाराणा भीमसिंह के मंत्री सोमदास गाँधी मेहता मालदास और मेहता देवीचन्द रहे । महाराणा भीमसिंहजी से लगाकर महाराणा फतहसिंहजी तक (जिनका कि सन् ३१ में स्वर्गवास हो गया) उदयपुर राज्य के 1 सैनिक सेवा की दृष्टि से विवेदारी पद राजपूताने में आयन्त महत्व का नमना आता है। किले आदे पर हमला होने पर सिदार बुद्ध करने में स्वतन्त्र होता है। यह भी एक निम्मेदारी का पद है। Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ राजपूताने के जैन-चीर मंत्री जैनी रहते आये हैं । यह लोग तलवार के धनी, वात के परे और सच्चे देशभक्त हुये हैं । उदयपुर राज्य में नगर सेठ भी जैनी । ही होता है । जिसका प्रभाव सव जातियों पर रहता है। अभी गत वर्ष जव लोगों ने राज्य कर विशेष बढ़ाये जाने के कारण हड़ताल करदी थी, तब भी नगर के सेठ के कहने एवं समझाने पर, राज्य के हिन्दु-मुसलमान दुकानदारों ने अपनी दुकानें खोली थीं । पहले समय में नगर सेठ का बड़ा प्रभाव रहा है। नगर सेठ राज्य की ओर ले चना जाता है और उसका बड़ा सम्मान रहता है। नोट-मेवाड़ में उदयपुर राज्य के अलावा बाँसवाड़ा, डूंगरपर और प्रतापगढ़ रियासतें और हैं । उदयपुर राज्य के सिवा उक्त तीन रियासतों के वीरों के सम्बन्ध में अभी तक मुझे कुछ भी विदित नहीं हो सका है। अतः वीरों का परिचय उपलब्ध न होने से यहाँ उक्त रियासतों के मन्दिरादि का परिचय भी स्थानाभाव के कारण रोक लिया है ! विद्वान् पाठकों ने भविष्य में यदि यहाँ के . सम्बन्ध में कुछ बतलाने की कृपा की तो फिर देखा जायगा। . नहिं चाहत साम्राज्य-सुख, नाहि वर्ग निर्वान । - जन्म-जन्म निज धर्म पै, हरपि चढ़ायौ प्रान ॥ -श्री० वियोगीहरि PRESE २१ मार्च सन् ३३ JAGREERE Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मारवाड़ Here in Jodhpur the rose-red fort stands a romantic and picturesque sentinal over plains of Marwar. Its massive architecture reflects the stubborn spirit of its builder and every stone speaks of the brave deeds of your highness ances tors in the wars which fill so many pages in the history of this country side. Lord Erwin अर्थात् -- मारवाड़के प्रत्येक शिलाखंड से का वह गौरवमय राग निकलता है, जो प्रत्येक ही में अपनी ओर आकर्षित कर लेता है। राजपूतों की वीरता दर्शक को सहज - लार्ड अरविन Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ --- - -- -- -arer था यहाँ हंगामा उन सहरा नशीनों का कमी। बहर बाजीगाह था, जिनके सफ्रीनों का कभी॥ जलपले जिन से शहन्शाहों के दरवारों में थे। बिजलियों के प्राशियाने जिनकी तलवारों में थे। -"इकबाल Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मारवाड-परिचय मारवाड़-राज्य राजपूताना प्रान्त के पश्चिमी भाग में है। इस के उत्तर में बीकानेर, उत्तर-पूर्व में जयपुर का शेखावादी परगना, पूर्व में मेवाड़ राज्य और अंग्रेजी श्रमलदारी का अजमेर मेरवाड़ा जिला, दक्षिण में सिरोही और पालनपुर रियासतें, पश्चिम में कच्छ का रन, (समुद्र की खाड़ी) और सिन्ध प्रान्त का थरपारकर जिला.. उत्तर-पश्चिम में जैसलमेर है । यह .२४ अंश, ३७ कला, और २७ अंश, ४२ कला उत्तराश तथा ३० अंश, ५ कला और ७५ अंश २२ कला पूर्व रेखांश के बीच फैला हुला है । इसकी लम्बाई उत्तर पूर्व से दक्षिण-पश्चिम तक ३२०,मील और चौड़ाई १७० मील है । मारवाड़-राज्य की सीमा पहले बहुत विस्तृत थी । अब इस राज्य का क्षेत्रफल ३५, ०१६ वर्ग.मील है । इसमें १६० वर्गमील का साँभर झील का हिस्सा भी शामिल है। किन्तु अंग्रेज़ी इलाका अजमेर मेरवाड़े की. सरहद पर बसे हुये मारवाड़ राज्य के २२ गाँवों की ५०.वर्गमील भूमि और सिन्ध का उमरकोट शामिल नहीं है जो मारवाड़-राज्य के होने पर भी सं० १८८० और १८९४ वि० से क्रमशः अंग्रेज सरकार के प्रबन्ध में है और उनके बदले ३ हजार तथा १० हजार रुपये वार्षिक Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजपूताने के जैनचौर क्रमशः मिलते हैं । इस जमीन में ३०, १८६ और खालसा ४८३० वर्गमील है। क्षेत्रफल के लिहाज से मारवाड़-राज्य तमाम चौथाई हिस्से से भी अधिक विस्तार में फैला हुआ है। यह अफ्रीका के नेटाल देश से कुछ छोटा किन्तु यूरोप के स्काटलेण्ड, आयरलेण्ड या पुरुतगाल से बड़ा है। भारतवर्ष के निज़ाम हैदराबाद, और काश्मीर राज्यों को छोड़कर इसका विस्तार अन्य सव देशी राज्यों से बड़ा है।। . माखाड़-प्रदेश अपने यथा नाम तथा गुण के अनुसार अनउपजाऊ, रेतीला और बझड़ है। मारवाड़ में वर्षा बहुत कम होती है, पानी की बड़ी तकलीफ रहती है। अधिकाँश जमीन की सिंचाई कुओं के जरिये होती है। बारह महिने लगातार बहने वाली यहाँ एक भी नदी या नहर नहीं है। इस प्रदेश में इधर-उधर बिखरे हुये अनेक पहाड़ हैं । यहाँ की आवोहवा खुश्क है किन्तु तन्दुरस्ती के लिये बहुत लाभदायक है। मारवाड़-राज्य की वर्तमान राज्यधानी जोधपुर में है, जो राठौड़ राजपूत जोधाजी ने जेठ सुदी ११ वि० सं० १५१६ शनिवार तदनुसार १२ मई सन् १४५९ ई० को परानी राजधानी मंडोर से ५ मील दूरी पर बसाया था। मारवाड़ राज्य को इसी से जोधपुर राज्य भी कहते हैं । मारवाड़ शब्द "मरुवार" का अपभ्रंश है, जिसको प्राचीन काल में 'मरुस्थान' भी कहते थे। मरुस्थान शब्द । .. + मारवाड़-राज्य का इति० पृ० १-२॥ . Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७३ मारवाड़-परिचय का वास्तविक अर्थ मृत्यु का स्थान है और इसी कारण से इस शब्द का रेगिस्थान के लिये उपयोग किया जाता है। मारवाड़ की कुल जन-संख्या (आबादी ) सन् १९३१ की मनुष्य-नगणना के अनुसार २१२६४२९ है । जिसमें जैनियों की संख्या १,१३,६६९ है। मारवाड़-प्रदेश पर राज्य करने वाले प्रसिद्ध कन्नोजपति राठौड़ राजपूत जयचन्द के वंशधर हैं । सन् १९९४ में शहाबद्दीन गौरी से परास्त होने पर जयचंद भागते हुये गंगा में डूब गया। इसी का पौत्र सीहाजीराव सन् १२१२ में राजपूताने में आकर बसा और मारवाड़ राज्य की नींव डाली, तभी से उसके वंशधर इस प्रदेश पर राज्य करते आरहे हैं। मारवाड़ में अनेक रमणीय स्थान देखने योग्य हैं, किन्तु स्थानाभाव के कारण "राजपूताने के प्राचीन जिन स्मारक" से (जो कि सरकारी गजेटियरों और रिपोटों से अनुदित किया गया है ) केवल कुछ प्राचीन जैन-मन्दिरों का विवरण दिया जाता है:१. भिनमाल: जिला जसवन्तपरा, इस को श्रीमाल या भिल्लमाल भी कहते हैं। यह आबूरोड स्टेशन से उत्तर पश्चिम ५० मील व जोधपरसे दक्षिण पश्चिम १०५ मील है, यह छठी से नवीं शताब्दी के मध्य में गूजरों की प्राचीन राज्यधानी थी | A.S. R.W.I. of 1908 से विदित हुआ कि यह श्रीमाल जैनियों का प्राचीन स्थान है। ne * मारवाड़ राज्य का शति० पृ. ३ । Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ राजपूताने के जैन वीर N · ऐसा श्रीमाल महात्म्य में है । यहाँ जाकब वालाब के तट पर उत्तर में गजनीखां की क़न है । इस की पुरानी इमारत के ध्वंशों में एक पड़े हुये स्तम्भ पर एक लेख अंकित है, जिस में लेख है कि वि० सं० १३३३ राज्य चाचिगदेव पारापद गच्छ के पूर्णचन्द्र सूरि के समय श्री महावीर की पूजा को आश्विन वदी १४ को १३ दुम्भा व ८. विसोपाक दिये । एक पुरानी मिहराब में एक जैनमूर्ति अंकित है । जाकव तालाब की भीत में एक लेख है, जिस में प्रारम्भ में है कि श्री महावीर स्वामी स्वयं श्रीमाल नगर में पधारे थे । २. माँडोर: Paging जोधपुर - नगर से उत्तर ५ मील। यह सन् १३८१ तक परिहार वंशी राजात्रों की राज्यधानी थी । यहाँ बहुत प्राचीन मन्दिरों के शेष हैं। इनमें बहुत प्रसिद्ध एक दो खन की जैन-मन्दिर की इमांरत उत्तर में है। इसमें बहुत कोठरियाँ हैं । मन्दिर में जाते हुये द्वार के चाले में चार जैन तीर्थंकर मूर्तियाँ हैं व आठ भीतर वेदी में कोरी हैं । यहाँ एक बड़ा शिलालेख था जो दबा पड़ा है । इस . के खम्भे १० वीं शताब्दी के पुराने हैं। ३. नाडोल : ज़िला देसूरी जवाली स्टेशन से ८ मील यह ऐतिहासिक जगह है। ग्राम के पश्चिम में पुराना किला है। इस क्रिले के भीतर बहुत सुन्दर मन्दिर श्री महावीर स्वामी का है। यह मन्दिर हलके रंग वाले चुनई पाषाण से बना हैं और इस में बहुत सुन्दर कारीगरी है । यह चौहान राजपूतों का स्थान है। जैन-मंन्दिर में Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मारवाड़-परिचय तीन लेख १६०९ ई० के हैं व ८ बड़े पाषाण स्तम्भ है । जिन को . खेतला का स्थान कहते हैं। १. मांगलोदा___ नागौर से पूर्व २० मील यहाँ प्राचीन मन्दिर है, जिस में संस्कृत लेख सन् ६०४ का है। इस में लिखा है कि इस मन्दिर का जीर्णोद्धार धुहलाना महाराज के राज्य में हुआ था । यह लेख जोधपुर में सब से प्राचीन है। ५. पोकरन नगरः जिला सांकरा-जोधपुर नगर से उत्तर-पश्चिम ८५ मील । सातलमेर प्राम के बाहर दो मील तक ध्वंश स्थान है। यहाँ एक बड़ा जैन मन्दिर है। ६. राणपुर (रैनपुर): जि० देसूरी-फालना स्टेशन से पूर्व १४ मील व जोधपुर से दक्षिण-पूर्व ८८ मील । यहाँ प्रसिद्ध जैन-मन्दिर है । जो मेवाड़ के राणा कुम्भा के समय में १५ वीं शताब्दी में बना था 1. यह बहुत पूर्ण है । मन्दिर का चबूतरा २००४२२५ फुट हैं । मध्य में बड़ा मन्दिर है, जिस में चार वेदी हैं। प्रत्येक में श्री आदिनाथ विराजमान हैं। दूसरे खनपर चार वेदी हैं। आंगन के चार कोने पर ४ छोटे मन्दिर हैं । सब तरफ २० शिखिर हैं जिसकों ४२० स्तम्भ आश्रय दिये हुये हैं। संगमर्मर का खुदा हुओं मानस्तम्भ : द्वार पर है, उस में लेख है । जिन में मेवाड़ के राजाओं के नाम Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ राजपूताने ले जैन धीर बापा रावल से राणा कुम्मा तक है। इस. मन्दिर के हर एकर शिखर के समुदाय जो जो मध्य शिखर है, वह तीनः खन का ऊँचा है। जो खास द्वार के सामनेहै, वह ३६ फुट व्यासका है, उसे १६ खम्भे थामे हुये हैं। १९०८ की पश्चिम भारत की रिपोर्ट में है कि इस बड़े मन्दिर को-जो चौमुखा मन्दिर श्री आदिनाथजी का है-पोड़वाड़ महाजन धरणक ने सन् १४४० में बनवाया था। दो और जैन-मन्दिर हैं, उन में एक श्रीपार्श्वनाथजी का १४ वीं शताब्दी का है। ७. सादड़ी नगर: जि० देसूरी। प्राचीन नगर जोधपुर से दक्षिण पूर्व ८० मील, यहाँ बहुत से जैन-मन्दिर हैं। ८. कापरदाः जिला हुकूमत, यहाँ एक जैन-मन्दिर है जो इतना ऊँचा है कि ५ मील से दिखता है । यह १६वीं शताब्दी के अनुमान का है। यह जोधपुर से दक्षिण-पूर्व २२ मील है। विशालपुर से ८ मील है ६. परलई देसूरी से उत्तर-पश्चिम चार मील । यहाँ सुन्दर दो जैनमन्दिर हैं-एक श्रीनेमीनाथजी का सन् १३८६ का व दुसरा श्रीआदिनाथजी का सन् १५४१ का। . . १०. जसवन्तपुरा .. . . ..आबूरोड स्टेशन से उत्तर-पश्चिम ३० मील, पर्वत के नीचे Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७७ मारवाड़-परिचय एक नगर है.! इसके पश्चिममें एक सुन्दर पहाड़ी है । यह पहाड़ी ३२८२ फुट ऊँची है। यहीं रतनपुर ग्राम में श्रीपार्श्वनाथजी का जैन-मन्दिर सन् ११७१ का है, इस में दो लेख सन् १९९१ और १२९१ के हैं। ११. ओसिया: जोधपुर से उत्तर ३० मील । यह पोसवाल महाजनों का मूल स्थान है। यहाँ एक जैन-मन्दिर है, जिस में एक विशाल मूर्ति श्री महावीर स्वामी की है । यह मन्दिर मूल में सन् ७८३ के फरीव परिहार राजा वत्सराज के समय में बनाया गया था। इस के उत्तर-पूर्व मानस्तम्भ है, जिसमें सन् ८९५ है । सन् १९०७ की पश्चिम भारत की प्राग्रेस रिपोर्ट से विदित है कि यह तेवरी से उत्तर १४ मील है। इस का पूर्व नाम मेलपुर पट्टन था। ऊपर कहे हुये प्राचीन मन्दिर सहित यहाँ १२ मन्दिर हैं । हेमाचार्य के शिष्य रत्नप्रभाचार्य ने यहाँ के राजा और प्रजा सब को जैनी बना लिया था। १२. बाड़मेर:-- जि० मैलानी-जोधपुर शहर से दक्षिण-पश्चिम-१३० मीलः। यहाँ से करीब ४ मील । उत्तर-पश्चिम जूनावगरमेर के ध्वंस हैं।२ मील दक्षिण जाकर ३ पुराने जैनमन्दिर हैं। सब से. घड़े मन्दिरजी के एक स्तम्भ पर एक लेख सन् १२९५ का है, जो कहता है कि, उस समय बाहुड़मेरु में महाराजकुल सामन्त Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ { राजपूतों के जैन वीर सिहदेव राज्यं करते थे। एक दूसरा लेख संवत् १३५६ का है, श्री आदिनाथ भगवान् का नाम हैं । यह जूना बारमेर हतमा से दक्षिण पूर्व १२ मील है । १३. पालीनगरः (माड़वाड़ पाली) जोधपुर रेलवे पर वान्दी नदी के तट पर जोधपुर नगर से दक्षिण ४५ मील । यहाँ एक विशाल जैन मन्दिर है, जिसको नौलखा कहते हैं । यह अपने बड़े आकार, सुन्दर खुदाई व किले के समान दृढ़ता के लिये प्रसिद्ध है । इसमें बहुतसा काम चारों तरफ वना है। जिस में भीतर से ही जाया जा सकता है । केवल बाहर एक ही द्वार है, जो ३ फुट चौड़ा भी नहीं है । भीतर चांगन में एक मसजिद भी है जो शायद इसी लिये बनाई गई है, कि इस मन्दिर को मुसलमान ध्वंश न कर सकें । इस नौलखा जैन - मन्दिर में प्राचीन मूर्तियें वि० सं० १९४४ से १२०१ तक की हैं । १४. सांचारे:-- नगर, जोधपुर से दक्षिण-पश्चिम १५० मील । यहाँ एक पुरानी मसजिद है, जो पुराने जैन-मन्दिर को तोड़ फोड़कर बनाई गई है। यहाँ तीन पाषाण के खम्भों पर ४ लेख हैं उनमें से दो संस्कृत में हैं। जिनका भाव यह है कि (१) संवत् १२९७ मंडप बनाया, संघ पति हरिश्चन्द्र ने; (२) संवत् १३२२ वैशाख वदी १३ सत्यपुर महास्थान के भीमदेव के राज्य में श्रीमहावीर स्वामी के जैन मंदिर में जीर्णोद्धार किया, सवाल भंडारी छाबा द्वारा । Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .: मारवाड़ - परिचय . १७९ १५. नाणा:--- रेलवे स्टेशन: नाणा से २ मील । यहाँ श्रीमहावीर स्वामी का : मन्दिर के द्वार जैन मन्दिर है । उसमें लेख है कि बिलहरा गोत्र के ओसवाल - डूडा ने सं० १५०६ - माघः बदी १० श्री शान्तिसूरि द्वारा पर एक लेख . सं० २०१७ का है। आले के भीतर एक लेख 'सं० १६५९ का है, कि रागा श्री० अमरसिंह ने मन्दिर को. " दान दिया । - १६. . वेलारः- नाणा से उत्तर-पश्चिम ३ मील । यहाँ एक श्रीपार्श्वनाथ का जैन मन्दिर है, उसके खम्भे पर एक लेख सं० १२६५ का है, कि नागा के राजा धाँधलदेव के राज्य में किसी सवाल ने 'जीर्णो द्धार कराया । १७. सेवाड़ी:-- बीजापुर से उत्तर-पूर्व ६ मील । यहाँ श्रीमहावीर स्वामी का जैन मन्दिर है, कुछ मूर्तियाँ जैनाचार्यों की हैं। उनके आसन पर वि०सं० १२४५ संदेरक गच्छ है । मन्दिर के द्वार पर कई लेख हैं । · १८. घाणेराव : सेवाड़ी से उत्तर-पूर्व ६ मील | पहाड़ी के नीचे श्री. महावीर स्वामी का जैन मन्दिर ११ वीं शताब्दी का है । १६. बरकाना:-- " जि० ; देसूरी, यहाँ श्री पार्श्वनाथ का जैन मन्दिर १६ वीं शताब्दी का है । Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० राजपूताने के जैन-चीर २०. सांडेरायः___ यह यशोभद्रसूरि द्वारा स्थापितः संद्रक जैनगच्छ का मूल स्थान है। यहाँ श्रीमहावीर स्वामी का जैन मन्दिर है । जिसके द्वार पर एक लेख है कि सं० १२२१ माघ वदी २ को केल्हणदेव राजा . की माता आणलदेवी ने राजा की सम्पत्ति में से श्रीमहावीरस्वामी की पूजा के लिये दान किया था। यह राष्ट्रकुटवंशी सहुला की पुत्री थी। सभा मंडपके खम्भे पर चार लेख हैं-१ है,सं०१२३६ कार्तिक वदी २ वुधे कल्हणदेव के राज्य में थंथा के पत्रं रल्हाका और पल्हा ने श्रीपार्श्वनाथजी के लिये दान दिया। . २१. कोरटा:- . . सांडेराय से दक्षिण-पश्चिम १६ मील । यहाँ ३ जैन-मन्दिर हैं, जो १४ वीं शताब्दी के हैं। २२. जालेर. नगर जि० जालोर, जोधपुर से दक्षिण ८० मील । यहाँ एक किला है, उसमें तोपखाना तथा मसजिद है, जो.जैन और हिन्दू मन्दिरों के ध्वंसों से वनाई गई है । यहाँ बहुत से लेख हैं व तीन जैन मन्दिर श्री आदिनाथ, महावीर व पार्श्वनाथ के हैं। २३. केकिंदा.. - मेड़ता से दक्षिण-पश्चिम १४ मील । शिव-मन्दिर के पास एक जैन-मन्दिर श्री पार्श्वनाथ का है । इसके खंभे पर लेख है। . . २४. चाइल:-- . बागोदिया से उत्तर ४ मील, यहाँ १३ वीं शताब्दी का एक श्री पार्श्वनाथ का जैन-मन्दिर है। Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मारवाड-परिचय . . . १८१ २५, उनोतरा:___ वाड़लू से पश्चिम ४ मील, यहाँ भी १३ वीं शताब्दी का एक जैन-मन्दिर है। २६. सुरपुरा: वाडलू से उत्तर-पूर्व ३ मील । यहाँ श्री नेमिनाथ का जैनमन्दिर है । लेख १२३९ का है। २७. नदसर: सुरपुरा से उत्तर-पूर्व ६ मील । यहाँ एक प्राचीन जैन-मन्दिर है। १० वीं शताब्दी के आश्चर्यजनक स्तम्भ हैं। .. २८. जसोलः__ जि०मल्लानी जोधपुर से दक्षिण-पूर्व ६० मील । यह लूणी नदी पर है । एक जैनमन्दिरहै और एक हिन्दु मन्दिरहै, जोजैनमन्दिर के पुराने सामान से बनाया गया है । एक पाषाण जो समा-मंडप की भींत पर लगा हुआ है, वह खेड़ के जैन मन्दिर से लाया गया है। उस पर लेख सं०१२४६ हैं। इस जैन मन्दिर में दो मूर्तियें श्री सम्भवनाथ की हैं, जिनकी प्रतिष्ठा सहदेव के पुत्र सोनीगर ने.कराई थी। यह भानु देवाचार्य गच्छ के श्री महावीर स्वामी के मन्दिर की हैं, जो खेतला पर है। इस जैन-मन्दिर को देवी देहरा कहते हैं। इसमें एक लेख सं० १६५९ रौला विक्रमदेव के राज्य का है ! २६. नगर: जासौल से दक्षिण ३ मील । यहाँ तीन जैन-मन्दिर हैं१ नाकोड़ा पार्श्वनाथ का, २ लासीबाई ओसवाल कृत श्री ऋषभ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ राजपूताने के जैनवीर देव का, ३ जैसलमेर के पटवा वंश के सेठ मालासा कृत शान्तिनाथ का यह १३ वीं शताब्दी का है । ऋषभदेव के मन्दिर में ३ लेख हैं । ३०. खेड़: --- नगर से उत्तर ५ मील। यह मल्लाना की राज्यधानी थी । यहाँ रणछोड़जी के मन्दिर में हाते की भीत पर दो जैन मूर्तियाँ लगी जिनमें एक बैठे व दूसरी खड़े आसन है। ३१. तिवरी : C ओसिया से दक्षिण १३ मील । यहाँ बहुत से ध्वंस मन्दिर हैं, उनमें एक बड़ा जैन मन्दिर श्रीमहावीर स्वामी का है। मंन्दिर के सामने मानस्तम्भ है । उसके मध्य में ८ जैन तीर्थंकरों की 'मूर्तियाँ पद्मासन हैं। नीचे चार खड़े आसन मूर्तियाँ हैं । उसके नीचे ४ वैठे आसन हैं । इस स्तम्भ पर लेख है । ३२. फलौदी : यहाँ प्राचीन श्री पार्श्वनाथ का मन्दिर है । यहाँ की मूर्ति एक वृक्ष के नीचे मिली थी । जहाँ एक जैनी की गाय नित्य दूध की धार डाला करती थी । संक्षेप में प्राचीन जैन मन्दिरों का उल्लेख किया गया हैं विशेष 'दिगम्बर जैन डिरेक्टरी', 'श्वेताम्बर जैनतीर्थगाइड' और राजपूताने के प्राचीन जैन-स्मारक' आदि पुस्तकों में मिलेगा । C नवम्बर सन् ३२ " Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मारवाड़ के जैन राजा मंडोर के प्रतिहार मान्य ओमाजी लिखते हैं:-"मण्डोर (जोधपर से ४मील) ना के प्रतिहारों के कितने एक शिलालेख मिले हैं जिनमें से तीन में उनके वंश की उत्पत्ति तथा वंशावली दी है। उनमें से एक जोधपुर शहर के कोट (शहर पनाह ) में लगा हुआ मिला, जो मूल में मंडोर के किसी विष्णुमन्दिर में लगा था। यह शिलालेख वि० सं०८९४ (ई० स० ८३७) चैत्र सुदि ५ का है। दूसरे दो शिलालेख घटियाले (जोधपुर से २० मील उत्तर में) से मिले हैं, जिनमें से एक प्राकृत (महाराष्ट्री) भापा का श्लोकवद्ध और दूसरा उसीका आशय रूप संस्कृत में है । ये दोनों शिलालेख वि० सं० ९१८ (ई० स० ८६१ ) चैत्र सुदी २ के हैं। इन तीनों लेखों से पाया जाता है कि "हरिश्चन्द्र" नामक विप्र (ब्राह्मण) जिसको रोहिल्लद्धि भी कहते थे, वेद और शास्त्रों का अर्थ जानने में पारंगत था। उसके दो त्रियाँ थीं, एक द्विज (ब्राह्मण) वंश की और दूसरी त्रिय कुल की बड़ी गुणवती थी । ब्राह्मणी से जो पत्र Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ राजपूताने के जैन-चीर उत्पन्न हुये वे ब्राह्मण प्रतिहार कहलाये और क्षत्रिय वर्ण की रानी भद्रा से जो पत्र जन्मे वे मद्य पीने वाले हुये। इस प्रकार मंडोर के प्रतिहारों के उन तीनों शिलालेखों से हरिश्चन्द्र का ब्राह्मण एवं किसी राजाका प्रतिहार होना पाया जाता है। उसकी दूसरी रानी भद्रा को राज्ञी लिखा है, जिससे संभव है कि हरिश्चन्द्र के पास जागीर भी हो। उसकी ब्राह्मण वंश की स्त्री के पुत्र ब्राह्मण प्रतिहार कहलाये। जोधपुर राज्य में अब तक प्रतिहार ब्राह्मण हैं, जो उसी हरिश्चन्द्र प्रतिहार के वंशज होने चाहिये। उसकी चत्रिय वर्ण वाली स्त्री भद्रा के पुत्रों की गणना उस समय की प्रथा के अनुसार मद्य पीने वालों अर्थात् क्षत्रियों में हुई । मंडोर के प्रतिहारों की नामावली उनके उपयुक्त शिलालेखों में नीचे लिखे अनुसार मिलती हैं:१. हरिश्चन्द्र (रोहिल्लद्धि) ESSETTE _ प्रारम्भ में किसी राजा का प्रतिहार था। उसकी राणी भद्रा से, जो क्षत्रिय वंश की थीं, चार पुत्र भोगभट, कक, रन्जिल और . दह हुए, उन्होंने अपने वाहु वल से माँडन्यपुर (मंडोर) का दुर्ग (किला) लेकर वहाँ ऊँचा प्राकार (कोट) बनवाया। २. रज्जिल TREAT .. (सं० १ का ज्येष्ठ पुत्र.) ३.. नरभट - (सं०२ का पुत्र) इसकी वीरता के कारण इसको 'पेल्लापेल्लि' . कहते थे ! . Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मारवाड़ के जैन राजा ४. नागभट (सं. ३ का पत्र) इसको नाहड़ भी कहते थे। इसने मेडंतकपुर (मेड़ता, जोधपुर राज्य में ) में अपनी राजधानी स्थिर की। उसकी राणी जजिकादेवी के दो पत्र तात और भोन ५. तात de (सं०४ का पत्र ) इसने जीवन को बिजली के समान चंचल जान कर अपना राज्य अपने छोटे भाई को दे दिया और आप मॉडन्य के पवित्र आश्रम में जाकर धर्माचरण में प्रवृत्त हुआ। ६. भोजन (सं० ५ का छोटा भाई) ७. यशोवर्द्धन 9 (सं० ६ का पुत्र) #. चंद्रुक (सं० ७ का पुत्र) ६. शीलुकं... (सं. ८ का पुत्र ) इसनें त्रवणी और वल्ल देशों में अपनी सीमा स्थिर की, अर्थात् उनको अपने राज्य में मिलाया और वल्लं मंडल (वल्लदेश) के स्वामी भट्टिक (भाट) देवराज को पृथ्वी पर पछाड़ कर उसका छत्र छीन लिया। Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ • राजपूताने के जैन-चीर १०. मोट (सं०९ का पत्र ) इसने राज्य-सुख भोगने के पीछे गंगा में मुक्ति पाई। ११. भिल्लादित्य (सं० १० का पुत्र ) इसने युवावस्था में राज्य किया, फिर अपने पत्र को राज्य-भार सौंप कर वह गंगा-द्वार (हरिद्वार) को चला गया जहाँ १८ वर्ष रहा और अन्त में उसने अनशन व्रत से शरीर छोड़ा। १२. काय (सं० ११ का पुत्र) इसने मुग्दगिरि (मुंगेर, विहार में ) में गोंड़ों के साथ की लड़ाई में यश पाया । वह न्याकरण, ज्योतिष, तर्क (न्याय) और सर्व भाषाओं के कवित्व में निपुण था। उस . की भट्टि (भाटी) वंश की महारानी पद्मिनी से वाउक और दूसरी राणी दुर्लभदेवी से ककुक का जन्म हुआ। इसका उत्तराधिकारी वाउक हुआ । कक्क रघुवंशी प्रतिहार राजा वत्सराज का सामंत होना चाहिये, क्योंकि गौड़ों के साथ की लड़ाई में उसके यश पाने के उल्लेख से यही पाया जाता है कि जब वत्सराज ने । गौड़ देश के राजा को परास्त कर उसकी राज्यलक्ष्मी और दो श्वेत छन छीने, उस समय कक उसका सामन्त होने से उसके साथ लड़ने को गया। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मारवाड़ के जैन राजा १८७ १३. बाउक_(सं० १२ का पुत्र) जब शत्रुओं का अतुल सैन्य नंदावल्ल को मार कर भूअकृप में आगया और अपने पक्ष वाले द्विज नपकुल के प्रतिहार भाग निकले, तथा अपना मंत्री एवं छोटा भाई भी छोड़ भागा, उस समय उस राणा (राणा बाउक) ने घोड़े से उतर कर अपनी तलवार उठाई। फिर जब नवा मंडलों के सभी समुदाय भाग निकले और अपने शत्रु राजा मयुर को एवं उसके मनुष्य (सैनिक) रूपी मृगों को मार गिराया, तब उसने अपनी तलवार म्यान में की। वि० सं०८९४ की ऊपर लिखी हुई जोधपर की प्रशस्ति उसी ने खुदवाई थी। १४. अनुकर.. (सं० १३ का भाई) घटियाले से मिले हुये वि० सं० ९१८ के दोनों शिलालग्न इसीफे हैं । जिनसे पाया जाता है कि उसने अपने सपरित्र से मरू, माड, वाल, तमणी (नवणी), अज, (आर्य) एवं गुर्जर के लोगों का अनुराग पाम किया, वडणाणय मंडल में पहाड़ पर की पल्लियों (पीला, भीलों के गाँवों) को जलाया, रोहिन्सकूप (घटियाले) के निकट गाँव में हट्ट (हाट, बाजार) बनवा कर महाजनों को बसाया और मोअर (मंडोर) तथा गहिन्सकृप गाँवों में जयस्तम्भ स्थापित किये । कक्कुक न्यायी, प्रजापालक एवं विद्वान था "" + राजपुताने का इतिहास पहली शिल्द पृ० ११०-१५२ । Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजपूताने के जैन वीर यद्यपि मान्य श्रोमाजी के उक्त लेख से स्पष्टतया इन प्रतिहार राजाओं का ज़ैनधर्मी होना प्रकट नहीं होता, अपितु वेद पाठी हरिश्चन्द्र ब्राह्मण इन राजाओं का मूल पुरुष था, इससे तो यह सव जैनेतर ही प्रकट होते हैं किन्तु विदुरत्न प्रख्यात् पुरातत्त्व वेत्ता पं० रामकरणजी ने ( जिन्होंने कि उक्त शिलालेखों का वाचन क्रिया है) मार्च सन् १९१४ में जोधपुर में होने वाले जैनसाहित्य-सम्मेलन में " मारवाड़ के सब से प्राचीन शिलालेख " शीर्षक निवन्ध पढ़ा था, उससे प्रकट होता है कि कुक्कुक (१४वाँ), राजा जैन था । इससे पहिले के राजा किस धर्म के अनुयायी थे । इसका स्पष्टीकरण पं० रामकरणजी के लेख से भी नहीं होता । क्योंकि आपने केवल कक्कुक के सम्वन्ध में ही लेख पढ़ा था । फिर भी अनशन व्रत करने और राज्य त्यागने का कई राजाओं का उक्त लेख में वर्णन मिलने से मालूम होता है कि इस वंश ने किसी जैनाचार्य द्वारा जैनधर्म की दीक्षा लेली होगी । पाठकों के अवलोकनार्थ विद्ववर्य्य पं० रामकरणजी के उक्त लेख को यहाँ ज्यों का त्यों उद्धृत किया जाता है: १८८ · E " जैन सम्बन्धी सब से प्राचीन शिलालेख गांव घटियाला में, जो जोधपुर से पश्चिम की ओर है, विक्रमी संवत् ९९८ ( ई० स० ८६१) का मिला है । इस शिलालेख की भाषा प्राकृत है, इस उन्नीसवें पद्य में नक्षत्र वारादि सहित संवत् लिखकर, उस के आगे, जिन-मन्दिर बनाने वाले प्रतीहार कक्कुक महाराज के कई उत्तम कार्यों का कथन कर, कक्कुक का जिन-मन्दिर बनाना Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मारवाड़ के जैन राजा १८९ और उसको धनेश्वर गच्छ के समर्पण करना लिखा है। यह ककक, नाहडराव इस नाम से प्रसिद्ध नागभट का वंशज था,जिस का समय सातवीं शताब्दी होना चाहिये । कक्कुक के शिलालेख में संवत्सर और जिनचैत्य विषयक ये गाथा है: "वरिससएसु अणवसुं अट्ठारहसमग्गलेसु चेत्तम्मि । णवखत्ते वितुहत्थे बुहबारे धवलवीआए ॥ [१६] " तेश सिरिकवकुएणं जिणस्स देवस्स दुरिअणिदलणं । कारविअचलमिमंभवणं भत्तीए सुहजणयं ।। [२२]" अष्पिप्रमेयं भवणं सिद्धस्स धणेसरस्स गच्छमि | " भावार्थ:-विक्रम संवत् ९१८ (ई०सन् ८६१) के चैत्र सुदी द्वितीया बुधवार को हरतनक्षत्र में जिनराज़ का यह कल्याणकारी दृढ़ मन्दिर श्री कछुक महाराज ने भक्तिभाव से करवाया, जिस से पाप का नाश हो। यह शिलालेख प्रतीहार (पडिहार ककुक ने अपनी कीर्ति चिरस्थायनी रहने के लिये जिनराज के मन्दिर में लगवाया था। इसी ककक महराज का दूसरा शिलालेख उसी संवत् का उसी स्थान + " वर्षशतेषु च नवसु अष्टादशसमर्ग लेषु चैत्रे । नक्षत्रे विधुहस्ते बुधवारे धवल द्वितीयायाम् ।। तेनश्रीकक्कुकेन जिनस्य देवस्य दुरितनिर्दलनम्। कारापितमचलमिदं भवनं भक्त्या शुभजनकम्। अर्पितमेतद्भवनं सिद्धस्य धनेश्वरस्य गच्छे । wrwww.rrmu..r.mmx. .. ..... Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९०.. राजपूताने के जैन वीर में मिला है, उस से पाया जाता है कि यह राजा जैनी' ही नहीं था, किन्तु विद्वान् भी था । क्योंकि इस शिलालेख के अन्त में एक श्लोक लिखकर उसके आगे लिखा है कि यह श्लोक स्वयं कक्कुक महाराजं ने बनाया है: "यौवने विविधैभोगैर्मध्यमं चन्वयः श्रिया । वद्धभावश्च धर्मेण यस्य याति स पुण्यवान् ॥ " भावार्थ:- जिसकी युवा अवस्था नाना प्रकार के भोग भोगने में, और मध्यम वय धन उपार्जन करने में तथा वृद्धावस्था धर्मध्यान में व्यतीत होवे, वही पुण्यवान् पुरुष हैं । यह श्लोक श्री कक्कुक ने स्वयं रचा है । पहला शिला लेख प्राकृत भाषा में है, जिस से यह सूचित होता कि उस समय के विद्वान् केवल प्राकृत भाषा के ही पण्डित नहीं थे, किन्तु उनको जैन-धर्म का पूर्ण अभिमान भी था । और दूसरे शिलालेख के अन्तिम श्लोक से यह बोधित होता है कि महाराज ककुक केवल विद्वान ही नहीं थे, किन्तु नीतिनिपुण और धर्मानुरागी भी थे ।" . [१५ जनवरी सन् ३३ ] Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मारवाड़ के जैन राठौड़ राजा १९१ मांखाड़ के जैन राठौड़ राजा कन्नौज के अन्तिम राजा गहड़वाल राजा जयचन्द के वंशजों के 1 राजपूताने में आने के पहले भी हस्तिकुएडी (हँयूड़ी, जोधपुर राज्य ) में और धनोप ( शाहपुर राज्य) में राष्ट्रकूटों के राज्य होने के प्रमाण मिलते हैं । वि० सं० १०५३ ( ई० सन् ९९७ ) का एक लेख बीजापुर से मिला है । यह स्थान जोधपुर राज्य के गोड़वाड़ के परगने में है । इस शिलालेख का वाचन भी विद्ववर्य पं० रामकरणजी ने किया है और वह शुद्ध करके उन्होंने "एपिप्रा फिकाइण्डिका" में दुबारा छपवा दिया है। आप लिखते हैं: -- १. हरिवर्मन : "यह शिलालेख कहता है कि हस्तिकुंडीनगरी में हरिवर्मन के पुत्र २. विदग्धराजः - 19 ने विक्रमी संवत् ९७३ ( ई० स० ९१६ ) में केशवसूरि की सन्तान में जो वासुदेवाचार्य हुए, उनके उपदेश से जिनराज का मन्दिर बनवाया और पूजा का निर्वाह होने के लिये कई लागें लगादीं । इस विषय के उसमें ये पद्य हैं:-: Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ राजपूतानेके जैन-चीरः ..... (५०३) "रिपुवधुवदनेन्दुहृतद्युतिः समुदपादि विदग्धनृपस्ततः[५*] खाचार्यों रुचिरत्रच [नवा] सुदेवाभिधानवो बो) नीतो दिनकर कर नौरजन्माकरो छ । पूर्व जैनं निजमिव यशोकारयस्तिकुण्डग । रम्य हयं गुरुहिमगिरेः शृङ्गशृङ्गारहारी ॥ [ ६ *] भावार्थ:- राष्ट्रकूट (राठौड़) विदग्धराज ने श्री वासुदेवाचार्य के उपदेश से हस्तिकुण्डी नगरी में जिनराज का मन्दिर करवाया। इस जिन-मन्दिर के निमित्त जो दान दिया गया था, उसके वर्णन के अनन्तरं ३० वी पंक्ति में दान का समय कंहा है:(२३०) "रामगिरिनन्दकलिते विक्रमकाले गते तुं शुचिमासे । श्री मदलभद्रगुरोबिग्धराजेन दत्तमिदम् ॥" भावार्थ:-विदग्धराज ने वि० सं० .९७३ में श्रीवलभद्र आचार्य को उक्त दान दिया। ३. सम्मट:-. . . . . फिर.वि० सं० ९९६ (ई०सन्९३९) में उसके पत्र मम्मट ने उसादान का समर्थन कर दिया कि पीछे से उस में कुछ हानिन 'हो। इस विषय का यह पद्या है:- . .... Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मारवाड़ के जैन राठौड़ राजा १९३ (पं ३१) "नवसु शेतषु गतेषु तु पण्णवतीसमधिर्केषु माधस्य 1 कुणीकादश्यामिह समर्थितं मम्मटनृपेणं ॥ "" · भावार्थ :-- वि० सं० ९९६ के माधवदि ११ को मम्मट - राजा ने उक्त दान का समर्थन किया । ४. धवल: मम्मट के पुत्र धवलराज ने वि० सं० १०५३ ( ई० स० ९९६) में उक्त मन्दिर का जीर्णोद्धार किया और मन्दिर में श्रीऋषभदेव की नई मूर्ति स्थापित की और महाध्वज चढ़ाया। और मन्दिर की आमदनी में कुछ और वृद्धि कर अन्त में अपने पुत्र बालाप्रसाद को युवराज पदवीं दे, आप विरक्त हो राजकार्य से अलग होगया ।" उक्त शिलालेख में १० काव्यों में धवलराज के यश और शौर्यादि गुणों का वर्णन किया गया है। १०वें श्लोक में उल्लेख है कि मालवा के परमार राजा मुख ने जिस समय मेदपाट (मेवाड़) राज्य के आघाट स्थान पर आक्रमण किया, उस समय यह उससे लड़ा था और साम्भर के चौहान राजा दुर्लभराज से नाडौल के चौहान राजा महेन्द्र की रक्षा की थी, तथा अनहिलवाड़ा (गुजरात) के सोलंकी राजा मूलराज द्वारा नष्ट होते हुये धरणीवराह को आश्रय दिया था । यह धरणीवराह शायद मारवाड़ का पड़िहार राजा होगा । Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४. राजपूताने के जैन-वीर. . ५ वालाप्रसाद-- इस का इस शिलालेख में विशेष वर्णन नहीं मिलता। उपरोक्त विवरण संक्षेप में दिया गया है। इस शिलालेख की नकल "प्राचीन जैन-लेख-संग्रह" में अंकित है। [१६ जनवरी सन् ३१] - Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोधपुर राजवंश के जैन वीर 1 जोधपुर राजवंश के जैन-वीर १९५ ₹7 श्र्वर (राठौड़) राव सीहोजी के पुत्र श्रयस्थानजी ने कन्नोज से संवत् १२३३ में मारवाड़ में आकर परगने मालानी के गाँव के खेड़ में संवत् १२३७ में अपना राज्य स्थापित किया, उस समय ३४० गाँव उनके श्राधीन थे । श्रावस्थानजी के पुत्र घुहड़जी संवत् १२६१ में राज्य के उत्तराधिकारी हुये । धुहड़जी के पुत्र रायपालजी संवत् १२८५ में सिंहासनारूढ़ हुए । रायपालजी के तेरह पुत्र थे, उनमें से ज्येष्ठ पुत्र राव कानपाल जी तो राज्य के अधिपति हुये और चतुर्थ पुत्र मोहराजी थे, उन का प्रथम विवाह जैसलमेर के भाटी जोरावरसिंहजी की पुत्री से हुआ, जिससे कुँवर भीमराजजी पैदा हुये, उनके वंश के भीमावत राठौड़ कहलाते हैं । बाद में मोहराजी ने जैनधर्म के उपदेशक शिवसेन ऋषीश्वर के उपदेश से जैनधर्म का अवलम्बन कर, दूसरा विवाह परगने भीनमाल के गाँव पचपदरिये में घोसवाल जाति के श्रीश्रीमाल Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ जीवणोत छाजूजी की कन्या से किया, जिससे सम्पत्ति सेन ( सपदसेन ) जी उत्पन्न हुये | सम्पत्तिसेनजी ने भी अपने पिता के तुल्य संवत् १३५१ के कार्तिक सुदी १३ को जैनधर्म का उपदेश लिया, उनके वंश के मोहरणोत ओसवाल कहलाते हैं । जिनका संक्षेपतया विवरण निम्न लिखित है :--- राजपूताने के जैन वीर + . १.. मेहता - महाराजजी : --- · यह: मोहरणजी की ९ वीं पीढ़ी में उत्पन्न हुये । राव जोधाजी 'के साथ, संवत् १५१५ में मंडोर से जोधपुर आये, दीवानगी तथा प्रधानगी का कार्य किया । संवत् १५२६ में महाराजा ने प्रसन्न हो कर इनके रहने के लिये फ़तहपोल के समीप एक हवेली - वनवादी । २. मेहता रायचन्द्रजी: 1 C मोहरणजी की २० वीं पीढ़ी में उत्पन्न हुये । मरुधराधीश राजा शूरसिंहजी के कनिष्ट भ्राता कृष्णसिंहजी को जागीर में सोजत परगने के दूदोड़ आदि १३ गाँवों का पट्टा मिला और संवत् १६५२ में इन्होंने अपने पट्टे के गाँव दोड़ में रिहास अख्तियार करली । फिर संवत् १६५४ में अजमेर के सूबेदार नव्वाव मुराद्रअली के द्वारा वादशाह अकबर की सेवा में पहुँचे । बादशाह ने प्रसन्न होकर संवत् १६५५ में हिंडोन आदि साव परगने प्रदान किये । संवत् १६५८-में महाराज कृष्णसिंहजी ने अपने-- नामएक नूतन नगर बसाकर उसका नाम कृष्णराढ़ रक्खा । जब महा • Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोधपुर राजवंश के जैन-बीर १९७ रान कृष्णसिंहजी ने जोधपर से प्रस्थान किया तब मेहता रायचन्द्र जी तथा : उनके कनिष्टभ्राता शंकरमणिजी भी उनके साथ थे। इन दोनों भाइयों के कार्यों से प्रसन्न होकर महाराजा साहब ने मेहता रायचन्द्रजी को अपना मुख्य मंत्री नियत किया और दोनों भाइयों के रहने के लिये दो बड़ी बड़ी हवेलियाँ बनवादी, जो कि बड़ी पौल और छोटी पौल के नाम से अभी तक प्रसिद्ध हैं। मेहता रायचन्द्रजी ने एक जैन मन्दिर श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ का संवत् १६७० में बनवाना प्रारम्भ किया और संवत् १६७२ में उसकी प्रतिष्ठा कराई । वह मन्दिर कृष्णगढ़ में अब तक विद्यमान है। कृष्णगदाधीश महाराज मानसिंहजी अपने कुल मांगत'वृद्ध तथा अनुभवी मुख्य मंत्री मेहता रायचन्द्रजी से अत्यन्त प्रसन्न थे। संवत्-१७१६ के एक महोत्सव पर इनकी हवेली में पधार कर महाराज ने भोजन करके इनका गौरव बढ़ाया था और इसके एक वर्ष पश्चात् पालड़ी नामक ग्राम पारितोषक रूप में दिया था। संवत् १७२३ में मेहताजो का स्वर्गवास हुआ। ३. मेहता वृद्धमानजी: (मोहणजी की २१ वीं पीढ़ी में उत्पन्न). यह महाराज श्रीमानसिंहज़ी के तन दीवान (प्राईवेट सेक्रेटरी) थे। इस कारण हर समय उनके साथ रहते थे। संवत् १७६५ में स्वर्गासीन हुए। ४...मेहता. कृष्णदासजी:. (मोहएजी की २२.वी.पीढ़ी में उत्पन्नः) यह महाराज मानं Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ राजपूताने के जैन-चीर सिंहजी के मुख्य मंत्री थे । महाराजा तो विशेषतया देहली रहते थे, इस कारण राज्य के सव कार्य इन्हीं के अधिकार में थे। सं०. १७५० में "वुहारू" गाँव इनको मिला । सं० १७५६ में नव्वाव अब्दुल्लाखाँ जब कृष्णगढ़ में बादशाही थाना जमाने को फौज लें कर चढ़ आया, तब इन्होंने उसके साथ युद्ध करके उसे पराजित किया। सं० १७६३ में स्वर्गासीन हुये। ५. मेहता आसकरणजी: (मोहणजी की २३ वीं पीढ़ी में उत्पन्न) यह महाराज राजसिंहजी के समय सं० १७६५ में मुख्य दीवान नियत किये गये। ६. मेहता देवीचन्द्रजी:-:. ... . . . (मोहणजी की २४ वीं पीढ़ी में उत्पन्न ) यह रूपनगर के महाराज सरदारसिंहजी के समय उस राज्य के मुख्य दीवान थे। ७. मेहतां चैनसिंहजी:__ (मोहणजी की २५ वीं पीढ़ी में उत्पन्न) यह महाराज प्रतापसिंहजी के समय आषाढ़ शुक्ला ७ संवत् १८५३ में कृष्णगइ-राज्य के मुख्य दीवान नियत हुये और महाराज कल्याणसिंहजी के शासनकाल में आजीवन दीवान रहे। यह सच्चे स्वामी. तथा देश भक्त थे। एक बार महाराजा प्रतापसिंह ने प्रसन्न होकर कहा था "चैन बिना सव चोर मुसहो" यह कहावत उस राज्य में अब तक प्रसिद्ध है। इनकी दीवानगी के समय में मरहटों ने उक्त राज्य पर अनेक आक्रमण किये । किन्तु इनकी वीरता और राजनीति के Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोधपर - राजवंश के जैन-वीर १९९ सामने उन्हें हमेशा मुँह की खानी पड़ी। सं० १८६१ में स्वर्गासीन हुये । ८. मेहता अचलोजी: (मोहाजी की १८ वीं पीढ़ी में उत्पन्न महता अर्जुनजी के बड़े भाई ) राव चन्द्रसेनजी पौष सुदी ६ सं० १६१९ को जोधपुर के राज्य - सिंहासन पर बैठे। तब इन्होंने राज्य का काम किया । अनेक युद्धों में जोधपुर नरेश के साथ रहे। महाराजा साहब के डूंगरपुर से जोधपुर आते समय सोजत परगने के सवराड़ गाँव में मुग़लों से लड़ाई हुई, इस युद्ध में भी यह साथ थे । श्रावण बदी ११ सं० १६३५ में युद्ध में लड़ते हुये वीर गति को प्राप्त हुये । इन की पवित्र स्मृति में राज्य की ओर से छत्री बनवाई गई जो कि अब तक मौजूद है। • ६. मेहता जयमल्लजी:-- (अचलोजी के पौत्र ) संवत् १६७१ व सं० १६७२ में महाराज सूरसिंहजी के राज्य में गुजरात में बड़नगर के सूबेदार रहे। सं० १६७२ में ही फलौदी पर अधिकार होने पर वहाँ के हाकिम नियत हुये । सं० १६७४ में जहाँगीर बादशाह ने बीकानेर के राजा सूरतसिंह को फलौदी का परगना (जो जोधपुर के अधिकार में था) दे दिया । तब अपना अधिकार जमाने के लिये जो बीकानेर-राज्य ने सेना भेजी थी, उससे इन्होंने युद्ध करके उसे भगादिया और फलौदी पर उनका अधिकार नहीं होने दिया । सं० १६७९ के भाद्रपद सुदी १० को महाराज गजसिंहजी ने जालोर परगने पर अपना अधि Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · २०० राजपूताने के जैन-धीर कार किया, उस समय यह भी उनके साथ थे। अतएव जालोर की हूकूमत प्रथम इन्हीं को मिली। सं० १६८१ में जालोर, शतरुंना, सांचारे, मेड़ता और सिवाना में इन्होंने जैनमन्दिर बनवाये । इसी वर्ष महाराज गजसिंहजी जब जहाँगीर की सहायता के लिये हाजीपर पटना की ओर गयेथे, तब यह उनके साथ फौजमुसाहिब होकर गये थे। सं२१६८६ से:१६९० तक दीवान पद पर अतष्ठित रहे। संवत् १९८७ में एक: वर्ष तक अकाल पीड़ितों का १. वर्ष तक भरण-पोषण किया। सं१ १६८९ में सिरोही के राव 'अरवेराजनी पर एक लक्ष पीरोंजों (एक प्रकार की मुद्रा) की पेशकशी (दण्ड) ठहराई, जिसमें -७५०१०, तो रोकड़ा लिये और २५०००) वाती रक्खे । १०. मेहता नेणसी:. श्रद्धेय ओमानी लिखते हैं :-"जयमल की दो त्रियाँ बड़ी सरूपदे और छोटी सुहाराहे धीं । सरूप से नएसी, 'सुन्दरदास, आसकरण, और नरसिंहदास ये चार पुत्र हुए और सुहागड़े से. जगमाल . · नैणसी का जन्म संवत् १६६७ मार्गशीर्ष सुदी ४ शुक्रवार को हुआ था 1.वि० सं०. १७१४ में जोधपर के महाराज जसवन्त: सिंह (प्रथम) ने नैणसी को अपना दीवान बनाया था। कई वर्षों तक राज्य की सेवा करके विशेष अनुभव प्राप्त किये हुए बद्धिमान परुष का जोधपुर जैसे बड़े राज्य का दीवान बनाया जाना उचित Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोधपुर-राजवंश के. जैन वीर २०१ ही था। इसलिये दीवान बनने के समय नैणसी की अवस्था ४७ वर्ष की थी। मेहता नैणसी भी जोधपुर राज्य की सेवा में रहा, और वीर प्रकृति का पुरुष होने के कारण, वि० सं० १६८९ में मगरा के मेरों का उपद्रव बढ़ता देखकर महाराज गजसिंह ने मेरों को सजा देने के लिये उसको सेना सहित भेजा । उसने मेरों को सजा दी और उनके गाँव जलाये । वि० सं० १७०० में महेचा महेसुदास बाग़ी होकर राड़धरे के गाँवों में बिगाड़ करता रहा, जिस पर महाराज जसवन्तसिंह ने नैसणी को राड़धरे भेजा । उसने राड़धरे को विजय कर वहाँ के कोट ( शहरपनाह ) और मकानों को गिरवा दिया, तथा महेचा महेसदास को वहाँ से निकाल कर राड़धरा अपनी फ़ौज के मुखिया रावत जगमाल भारमलोत ( भारमल के पुत्र ) को दिया । सं० १७०२ में रावत नराण (नारायण) सोजत की ओर के गाँवों को लूटता था, जिससे महाराज ने मुहणोत नैणसी तथा उसके भाई सुन्दरदास को उस पर भेजा । उन्होंने कूकड़ा, कोट, कराणा, मांकड़ आदि गाँवों को नष्ट कर दिया । वि० सं०१७१४ में महाराज जसवंतसिंह (प्रथम) ने मियाँ फिरासत की जगह नैणसी को अपना दीवान बनाया। महाराज जसवन्तसिंह और औरंगज़ेब के बीच अनबन होने के कारण वि० सं० १७१५ में जैसलमेर के रावल सवलसिंह ने फलोदी और पोकरण जिलों के १० गाँव लूटे, जिससे महाराज ने अहमदाबाद जाते हुए, मार्ग से ही मुहणोत नैणसी को जैसलमेर पर चढ़ाई करने की , " Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजपताने के जैन-चौर आज्ञादी । इसपर वह जोधपुर आया और वहाँ से सैन्य सहित चढ़कर उसने पोहकरण में डेरा डाला । इसपर सवलसिंह का पुत्र अमरसिंह, जो पोहकरण जिले के गावों में था, भाग कर जैसलमेर चला गया। नैणसी ने उसका पीछा किया और जैसलमेर के २५ गाँव जला कर, जैसलमेर से तीन कोस की दूरी के गाँव वासणी में वह जा ठहरा । परन्तु जब रावल किला छोड़ कर लड़ने को न आये, तब नैणसी आसणी कोट को लूटकर लौट गया। वि० सं० १७११ में पंचोली बलभद्र राघोदासोत (राघोदासका पत्र) की जगह नैणसी का छोटा भाई सुन्दरदास महाराजजसवन्तसिंह का खानगी दीवान नियत हुआ। वि०सं० १७१३ में सिंघलवाघ पर महाराज जसवंतसिंह ने फौज भेजी। उस समय वाघ ४०१ राजपूतों के साथ लड़ने को सुसजित होकर बैठा था। महाराज की फौज में ६९१५ पैदल थे, जिनके दो विभाग किये गये। एक विभाग का, जिस में ३५४३ सैनिक थे, अध्यक्ष राठौड़ लखधीर विट्ठलदासोत (विट्ठलदास का बेटा) था। दूसरे विभाग के, जिस में ३३७२ सैनिक थे, अध्यक्षों में मुख्य मुहणोत सुन्दरदास था। सिंग़लों से लड़ाई हुई, जिसमें बहुत से आदमी मारे गये, और. महाराज की विजय हुई । वि० सं० १७२० में महाराज जसवन्तसिंह की सेना ने वादशाह औरंगजेब की तरफ से प्रसिद्ध मराठी वीर शिवाजी के आधीन के गढ़ कुंडाणे पर चढ़ाई कर गढ़ पर मोरचे लगाये । इस चढ़ाई में सुन्दरदास जयमलोतं मरना निश्चय कर लड़ने को गया था, परन्तु गढ़ वालों के अरावों की मार से Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोधपर-राजवंश के जैन चीर २०३ . महाराज को अपनी फौज वापिस लेनी पड़ी। संवत् १७२३ में महाराज जसवन्तसिंह औरंगाबाद में थे और मुहणोत नैणसी तथा उसका भाई सुन्दरदास दोंनों उसके साथ थे। किसी कारण वशात् महाराज उनसे अप्रसन्न हो रहे थे, जिससे पौप सुदी ९ के दिन दोनों को कैद कर दिया । महाराज के अप्रसन्न होने का ठीक कारण ज्ञात नहीं हुआ। परन्तु जन श्रुति से पाया जाता है कि नैणसी ने अपने रिश्तेदारों को बड़े २ पदों पर नियत कर दिया था और वे लोग अपने स्वार्थ के लिये प्रजा पर अत्याचार किया करते थे। इसी बात के जानने पर महाराज उससे अप्रसन्न होरहे थे। वि० सं० १७२५ में महाराज ने एक लाख रुपये दण्ड लगाकर उन दोनों भाइयों को छोड़ दिया, परन्तु इन्होंने एक पैसा तक देना स्वीकार नहीं किया। इस विषय के नीचे लिखे हुये दोहे राजपूताने में अब तक प्रसिद्ध हैं:___ लाख लखारा नीपजे, पड़ पीपल री साख । नटियो भूतो नैणसी, ताबों देण तलाक ॥१॥ लेसो पीपल लाख, लाख लखारा लावसो । तांवों देण तलाक, नटिया सुन्दा नैणसी ॥२॥ * नैणसी और सुन्दरदास के दण्ड के रुपये देना अस्वीकार ': लखारा लाडेरों के यहां, साख-शाखा,नटिया-नंटगाया, ताबों तांबाका एक पैसा देण-देना, तलाक-अरवीकार किया,लेसो-लोगे,लावसो-लामोगे . Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૦૪ राजपूताने के जैन वीर करने पर वि० सं० १७२६ माघ वदी १ को फिर वे दोनों कैद कर दिये गये और उन पर रुपयों के लिये सख्तियाँ होती रहीं। फिर कैद की ही हालत में इन दोनों को महाराज ने औरंगाबाद से मारवाड़ को भेज दिया। दोनों वीर प्रकृति के पुरुष होने के कारण इन्होंने महाराज के छोटे आदमियों की सक्तियाँ सहन करने की अपेक्षा वीरता से मरना उचित समझा । वि० सं० १७२७ की भा"द्रपद वदी १३ को इन्होंने अपने पेट में कटार मारकर मार्ग में ही शरीरांत कर दिया । इस प्रकार महापुरुष नैणसी को जीवन लीला का अंत हुआ और महाराज की बहुत कुछ बदनामी हुई । नैणसी के पत्र और पौत्र नैणसी और सुन्दरदास के इस प्रकार वीरता के साथ प्राणीत्सर्ग करने की खबर जब महाराज को हुई, तब उन्होंने नैणसी के पुत्र करनसी और उसके अन्य बालवच्चों को जो क़ैद किये गये थे, छुड़वा दिया। महाराज के अत्याचार को स्मरण कर वे लोग जोधपुर छोड़कर नागौर के स्वामी रामसिंह के पास चले गये । जो जोधपुर के महाराज गजसिंह के पौत्र और वादशाह शाहजहां के दरवार में सलाबतखाँ को मारने वाले प्रसिद्ध वीर राठौर अमरसिंह के पुत्र थे । रायसिंह ने अपने ठिकाने का सारा काम करमसी के सुपुर्द करदिया । इस पर महाराज ने मुहणोंतों को जोधपुर राज्य की सेवा में नियत न करने की शपथ खाई । परन्तु उनकी प्रतिज्ञा का पीछे से पालन न हुआ । क्योंकि पीछे भी महाराज वखतसिंह Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जं धपुर · राजवंश के जैनवीर मानसिंह आदि के समय में मुहरणोंत वंशी मुसाहिव रहे हैं । महाराज रायसिंह वि०सं० १७३२ आषाढ़ बदी १२ को दक्षिण के गाँव सोलापुर में दो चार घड़ी बीमार रहकर अचानक मरगये। तब उनके मुत्सद्दियों आदि ने उनके गुजराती वैद्य से पूछा कि रायसिंह अचानक कैसे मरगये ? इस पर उसने गुजराती भाषा में उत्तर दिया - "करमां नो दोष छे". (भाग्य का दोष है) जिस का अर्थ रायसिंह के मुसाहिबों ने यह समझा कि "करमा' (करमसी) ने इनको मारा है" फिर उस (करमसी) पर विष देने का झूठा सन्देह कर उसको वहीं जिन्दा दीवार में चुनवा दिया गया; और नागौर लिखा गया कि इसके जो कुटम्बी वहां हैं, उन सब को कोल्हू में डालकर कुचल डालना | इस हुक्म के पहुँचने पर करमसी पुत्र परतापसी अपने कई रिश्तेदारों के साथ मारा गया और करमसी की दो त्रियों ने अपने पुत्र सावंतसिंह के साथ भाग कर किशनगढ़ ( कृष्णगढ़, राजपूताना ) में शरण ली । फिर वहाँ से वे लोग बीकानेर में जा रहे ! · २०५ नैणसी के ग्रन्थ मुहणौत नैणसी जैसा वीर प्रकृति का पुरुष था, वैसा ही विद्यानुरागी, इतिहास प्रेमी और वीर कथाओं पर अनुराग रखने वाला नीति निपुण पुरुष था । उसका मुख्य ऐतिहासिक ग्रन्थ " ख्यात" नाम से प्रसिद्ध है । यह प्रन्थ रायल अठपेजी हजार * * राजपूताने' की भाषा में 'ख्यांत" (स्थांति) का अर्थ 'इतिहास " है । Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ राजपूताने के जैन-बीर पृष्ठ से अधिक बड़ा और राजपूताने, गुजरात, काठियावाड़, कच्छ, वघेलखंड, और मध्यभारत के इतिहास के लिये विशेष उपयोगी है। ख्यात-सामग्री . नैणसी की इतिहास पर बड़ी रुचि होने के काण उसने चारणों, भाठों अनेक प्रसिद्ध पुरुषों, कानूनगो आदि से जो कुछ ऐतिहासिक वृतान्त मिल सका, उससे तथा उस समय से मिलने वाली ख्यातों आदि सामग्री से अपनी ख्यात का संग्रह किया। जोधपुर के दीवान नियत होने के पहिले से ही उसको ऐतिहासिक वातों के संग्रह करने की रुचि थी। और ऐसी प्रतिष्ठित राज्य का दीवान होने के पीछे तो उसको अपने काम में और भी सुभीता रहा होगा। उसने कई जगह पर, जिन जिन से जो कुछ वृत्तांत प्राप्त हुआ, उसका संवत् मास सहित उल्लेख भी किया है। · नैणसी की ख्यात मुख्यतः राजपूताने और सामान्य रूप से ऊपर लिखे हुए अन्य देशों के इतिहास का एक बड़ा संग्रह है। उक्त ख्यात में चौहानों, कछवाहों, और भाटियों का इतिहास तो इतने विस्तार के साथ दिया गया है, कि जिसका अन्यत्र कहीं मिलना सर्वथा असम्भव है। वंशावलियों का तो ख्यात में इतना संग्रह है, जो अन्यत्र मिल ही नहीं सकता । उसमें अनेक लड़ाइयों के वर्णन, उनके निश्चित् संवत्, तथा सैंकड़ों वीर पुरुषों के जागीर पाने या लड़कर मारे जाने का संवत् सहित उल्लेख देखकर यह कहना अनुचित न होगा कि नैणसी जैसे वीर प्रकृति के पुरुष ने Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोधपुर राजवंश के जैन-बीर २०७० अनेक वीर पुरुषों के स्मारक अपनी पुस्तक में सुरक्षित किये हैं। वि० संवत् १३०० के बाद से नैणसी के समय तक के राजपूतों के इतिहास के लिये तो मुसलसानों की लिखी हुई फारसी तवारीखों से भी नैणसी की ख्यात कहीं-विशेष महत्व की है। राजपूताने के इतिहास में कई जगह जहाँ प्राचीन शोध से प्राप्त सामग्री इतिहास की पूति नहीं कर सकती, वहाँ नैणसी की ख्यात ही कुछ सहारा देती है। यह इतिहास एक अपूर्व संग्रह है। स्वर्गीय मुंशी देवीप्रसादजी तो नैणसी को 'राजपूताने का अब्बुलकपाल' कहा करते थे, जो अयुक्त नहीं है । ख्यात की भाषा लगभग २७५ वर्ष पूर्व की मारवाड़ी है, जिस का इस समय ठीक २ सममाना भी सुलभ नहीं है। नैणसी ने जगह २ राजाओं के इतिहास के साथ कितने ही लोगों के वर्णन के गीत, दोहे, छप्पय, आदि भी उधत किये हैं, जो डिंगल भाषा में है। उनमें से कुछ ३८० वर्ष से भी अधिक पुराने हैं। उनका समझना तो कहीं २ और भी कठिन है। नैणसी के पौत्र प्रतापसिंह के मारेजाने पर उसके दो भाई सावंतसिंह और संग्रामसिंह अपनी दोनों माताओं सहित किशनगढ़ और वहाँ से बीकानेर जा रहे। नैणसी की लिखी ख्यात भी वे अपने साथ बीकानेर लेगये और सुना जाता है कि नैणसी के वंशजों ने वह मूल पुस्तक (या उसकी नकल) बीकानेर को भेंट करदी । कर्नल टॉड के समय तक उस पुस्तक की प्रसिद्धि न हुई। यदि उनको वह पुस्तक मिल जाती, तो अवश्य उनका राजस्थान' Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८. राजपूताने के जैनवीर . . . . . . . . दूसरे ही रूप में लिखा जाता। कर्नल टॉड के स्वदेश लौट जाने के वाद.अाज से अनुमान ८०, ९० वर्ष पूर्व उसकी सुन्दर अक्षरों में लिखी एक प्रति बीकानेर राज्य की तरफ से महाराणा उदयपुर के यहाँ पहुंची, जो वहाँ के राजकीय 'वारणीविलास' नामक पुस्तक में विद्यमान है । उदयपुर के वृहत इतिहास 'वीरविनोद के लिखे जाने के साथ उक्त पुस्तक का उपयोग कई स्थानों में हुआ. जब मैंने उस का महत्व देखा, तो, अपने लिये उसकी एक प्रति तैयार करने का विचार किया । परन्तु ऐसी बड़ी पुस्तक की नकल करना कई महीनों का काम था; और इतने समय के लिये राज्य की ओर से इसका मिलना सम्भव देखकर मैंने जोधपुर के कविराजा मुरारीवानजी को लिखा.-"नैणसी की त्यात की मुझे बड़ी आवश्यकता है। यदि श्राप कहीं से उसकी प्रति नकाल करवा भेजें तो बड़ी कृपा होगी। इसके उत्तर में उन्होंने लिखा- नैणसी की त्यात की झूल प्रति बीकानेर दरवार के पुस्तकालय में घी, जहाँ से कर्नल पाउलैट (रेजिडेंट जोधपुर) उसे ले आये। और जिस समय वे स्वदेश लौटने लगे, उस समय मैंने वह प्रति उनसे माँगी तो कृपाकर उन्होंने वह मुझे वादी, जो मेरे यहाँ विद्यमान है। उसकी नाल कराकर मैं आपके पास भेज़ दूंगा। फिर उन्होंने अपने ही व्यय से उसकी नकल कराना शुरू किया और ज्यो २ नकल होती गई, त्यो २ उसका थोड़ा २ अंश वे मेरे पास . भेजते रहे। इस प्रकार: जद सारी पुस्तक सं० १९५९ में मेरे पास पहुँच गई, तब मैंने उसका 'वाणी विलास की प्रति से मिलान Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोधपुर राजवंश के जैनवीर २०९. किया, तो दोनों पुस्तकें ठीक मिल गई। फिर मैंने उसका सूचीपत्र बनाकर उसकी जिल्द बँधवाली । दूसरे वर्ष जब कविराज जी, का उदयपुर आना हुआ, तब मैंने वह पुस्तक उनको दिखलाकर उन की इस बड़ी कृपा के लिये उन्हें धन्यवाद दिया ।" ( मेहता मोहणोत नेणसी की ख्यात से) ११. मेहता सुन्दरदासजी : (जयमलजी के पुत्र ) यह महाराज जसवन्तसिंह के तन दीवान (प्राईवेट सेक्रेटरी) सं० १७११ से १७२३ तक रहे । १२. मेहना कामसीजी: Be (नैसीजी के पुत्र) महाराज जसवन्तसिंह और औरंगजेब का जो उज्जैन के पास मौजै चोरनारायण में इतिहास प्रसिद्ध युद्ध हुआ था, उस में इन्होंने अत्यन्त वीरता से युद्ध किया और वहाँ यह घायल हुये । + इस इतिहास प्रसिद्ध युद्ध की एक घटना को लेकर जून सन् २८ में एंक छोटीसी कहानी लिखी थी जो "क्षत्राणी का आदर्श" शीर्षक से आगरे के "वीरसन्देश" भाग २ अंक ११ में प्रकाशित हुई थी । यद्यपि उक्त कहानी का इस पुस्तक के विषय से कोई सम्बन्ध नहीं है उस में वार्णित पात्र जैन नहीं है, फिर भी यहाँ प्रसंगवश और शिक्षाप्रद समझ कर दी जा रही है शाहजहाँ के द्वारा, शुजा, औरंगजेब और मुराद ये चार लड़के और जहाँनारा तथा रोशनारा यह दो लड़कियाँ थीं। शाहजहाँ के बीमार पड़ते ही श्रोणित-लोलुप क्षुभित व्याघ्र की तरह चारों भाई 'आपस में कट मरे । वह शाहजहाँ के अन्तिम काल तक मयूर - Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www.ma-w -.. २० . “राजपूताने के जैन-वीर : १३. मेहता वैरसीजी: (नं ११ सुन्दरसीजी के पुत्र) यह रूपनगर के महाराज मानसिंह के सं० १७४२ में प्राईवेट सेक्रेटरी रहे। mmirmirrorm सिंहासन के लोभ को न दवा सके । शाहजहाँ के गिड़गिड़ा कर अनुरोध करने पर मारवाड़-केसरी . राजा यशवन्तसिंह तीस सहस्र राजपूत-सेना लेकर पितद्रोही और गजेब का आक्रमण रोकने के लिए उज्जैन जा पहुँचे । किन्तु कूटनीतिज्ञ औरंजेव के षड्यन्त्र के सामने उनकी वीरता काम न आई, अन्त में उन्हें रणक्षेत्र का परित्याग करना पड़ा। . राजा यशवन्तसिंह का शिशोदिया राजकुमारी के गर्भ से जन्म हुआ था और शिशोदिया कुल की एक वीरबाला के साथ विवाह हुआ था । पवित्र शिशोदिया कुल में विवाह कर पाने पर राजपूतं राजा अपने को पवित्र और कृतार्थ समझते थे । राजा यशवन्तसिंह की स्त्री जैसे ऊँचे कुल में उत्पन्न हुई थी उसी प्रकार ऊँचे गुणों और अलंकारों से विभूषित थी । जब उसने उज्जैन के युद्ध का वृतान्त सुंना कि उसके पति की प्रायः समस्त सेना नष्ट हो गई है और वह शत्रु का पराजय न कर रण-भूमि से चला आया है। तब उसको विषम क्रोध और दारुण दुःख हुआ। वह मारें आत्मग्लानि के रो पड़ी और उसी आवेश में सोचने लगी:-.. __ . "नजाने मेरे कौन से पापकर्म का उदय है, जो मुझे ऐसा क्षत्रिय कुल-कलंकी पति मिला। अच्छा होता जो मैं विवाही न जाती, कायरंपनि तो न कहलाती। विषपान करलुंगी जीते जी. Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोधपुर राजवंश के जैन वीर २११ १४. मेहता संग्रामसिंहजी : ( नं० १२ करमसीजी के पुत्र) इन्होंने मारवाड़ाधीश अजीत - सिंहजी के राज्यकाल सं १७८२ में, मारोठ, परवंतसर आदि सात परगनों की हुकूमत की । आग में कूद कर प्राण दे दूंगी किन्तु कायर-पत्नि न कहलाऊँगी । जब कि मेरे पूर्वज, शरीर में रक्त की एक वृन्द रहने तक, शत्रुओं का मान मर्दन करते रहे हैं। तब मेरा पति शत्रु के भय से भाग कर वे और मैं उसे छुपा लूं ? वीर-दुहिता होकर कायर-पत्नी कहलाऊँ ? लोग क्या कहेंगे ? सहेलियाँ ताना मारेंगी और पिता जी तो मेरा मुँह देखना भी पाप समझेंगे । श्रोह ! हृदय में कैसी २ उमंगें थीं। विजयी होकर श्रायेंगे, आरता उतारूंगी, उनकी चरणरज लेकर सुहाग की चूनरी में बाँधूगी, तलवार का रक्त लेकर मँहदी रचाऊँगी, उनके जख्मों को अपने हाथ से धोऊँगी, उनके शत्रु संहार-रण-कौशल को सुनकर मैं आपे में न रहूँगी; मारे गर्व के मेरी छाती फूल उठेगी । दोनों मिलकर मातृ-भूमि की वन्दना करेंगे। किन्तु यह सव स्वप्न था, जो अन्धेरी रात्रि के सन्नाटे में देखा गया था । आह ! युद्ध भूमि में वीरगति को भी हुए, नहीं तो साथ में सती होकर जीवन सुधार लेती ।" प्राप्त न :: रोते-रोते शिशोदिया राजकुमारी के मुखमण्डल ने भयावनी मूर्ति धारण करली । वह सर्पणी के समान फुफकार कर बूढ़े द्वारपाल से बोली "मैं कायर पति का मुँह देखना नहीं चाहती। इस वीर प्रसवा भूमि में रण से भयभीत मनुष्य को आने का अधिकार Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ राजपूताने के जैन-चीर १५. मेहता सावंतसिंहजी:- . . . . . (नं १३ वैरसीजी के पुत्र) इन्होंने जालोर की हुकूमत की और 'उसके पास ही सं०१७८४ में सावंतपुरा नामका एक ग्राम बसाया। नहीं, अवएव मेरी आज्ञा से शहर के दरवाजे बन्द करदो।" ' द्वारपाल थर-थर कांपने लगा, उसकी बुद्धि को काठ मार गया। वह गिड़गिड़ाकर बोला "महारानीजी का सुहाग अटल रहे.। मैं 'आप की श्रीज्ञा-पालन में असमर्थ हूँ, वह हमारे महाराजा हैं, जीवनदाता हैं।" रानी नहीं! अब वह जीवनदाता नहीं। जो प्राणों के भय से भागकर स्त्री के आँचल में छपे वह जीवनदाता नहीं। जीवनदाता वह है, जो सर्वसाधारण के हितार्थ अपना जीवनदान करने को सदा प्रस्तुत रहे। द्वार-महारानीजी! वह हमारे अन्नदाता हैं। • रानी-असम्भव ! जो दासत्त्व वृत्ति स्वीकार कर 'चुका हो, परतन्त्रता के बन्धन में जकड़ा जा चुका हो; जो दूसरे की दी हुई सहायता से अपने को सुखी समझता हो, वह अन्नदाता नहीं। द्वार-वह परतन्त्र नहीं, अपितु यवन बादशाह के दाहिने हाथ हैं। रानी वह भी किसलिये ? अपने देश वासियों को नीचा दि'खाने के लिए मायावी यवन बादशाहः कांटे से कांटा निकालना चाहता है। .. .. . 'द्वार अर्थात्-.. Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोधपुर-राजवंश के जैन-चीर २१३ १६. रावसुरतरामजी: (०.१४ संग्रामसिंहजी के पुत्र) ये नागौर के महाराजा बखतसिंह जी के.यहाँ :ौजवख्शी थे। सं० १८०८ में महाराज के साथ रानी यही कि वह कुछ राजपूतों को अपने पक्ष में करके भारत के समस्त राजपूतों को शिखंडी बनाना चाहता है। भारत के हाथों भारत-सन्तान का पर्तन चाहता है। भोले.द्वारपाल ! याद रक्खो, स्वामी सेवक का चाहे जितना आदर क्यूं न करे, चाहे मणिमुक्ता.देकर उसको.सोने की जंजीर से क्यों न जो दास है; वह तो सदा दास ही रहेगा! ___ द्वार०-महारानीजी! आपका कथन सत्य है, किन्तु पति फिर भी पति है, उनका अपमान करने से क्या लाभ? क्षमा कीजिये, मैं आपको कुछ सीख नहीं दे रहा हूँ, परन्तु फिर भी पुराना सेवक होने का अभिमान रखते हुए, मैं यह प्रार्थना करता हूँ, कि आप इस समय तो उन्हें अन्तःपुर में बुलाकर सान्त्वना.दें, पश्चात् क्षत्रियोचित कर्तव्य का ज्ञान कराने के लिए कुछ उतार चढ़ाव की बातें भी करें। इसके विपरीत करने से जग हँसाई होगी और प्रजा भी उहण्ड हो जायगी। · · द्वारपाल:केसमय:विरुद्ध व्याख्यान को सुनकर शिशोदिया राज कुमारी झांला उठी, किन्तु द्वारपाल की स्वामि-भक्ति ने क्रोधके पारे को आगेन बढ़ने दिया, वह:सहम कर बोली...तुझ से अधिक मेरे हृदय में उनका मान है । वह मेरे ईश्वर है; मेरे देवता हैं, मैं उनकी पुजारिन हूँ। परन्तु मालूम होता है Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ राजपूतानेके जैन-चीर : .. जोधपुर आनेपर भी यही रहे। इनको राज्य की ओर से सं० १८०८ . श्रावणवदी ३ को लूणावास और पाडलाऊ गाँव रेख ३०००) तीन हजार के प्रदान किये गये । सं०१८२० ज्येष्ठ शुक्ला ५ को दीवानगिरी का अधिकार मिला । सं० १८२३ तक इस पद पर रहे। राज्य ने वृद्धावस्था में तेरी बुद्धि पर पाला पड़ गया है, वीरता को जंग लग गया है, नहीं तो ऐसी बातें नहीं करता। क्या तू नहीं जानता कि मारवाड़ वीर-प्रसवा भूमि है ? यहाँ के निवासी युद्ध से भागना "नहीं जानते, वह जानते हैं युद्ध में कट'कर मरना । महाराज को देखने पर जव उन्हें मालूम होगा कि यहाँ युद्ध से भागे हुये कायर को भी शरण मिल सकती है. उसका भी आदर होता है, तब वह भी यह कुटेव सीख जायँगे । अतएव मैं नहीं चाहती कि मेरे देशवासी कायर वनें।" . . . . . . . . वृद्ध द्वारपाल अवाक रहगया ! वह किंकर्तव्यविमूढ़ की नाई पृथ्वी को कुरेदने लगा। + + + - शिशोदिया राजकुमारी की सास भी छुपी हुई यह सब कुछ सुन रही थी। पुत्रवधू के वीरोचित शब्दों से यशवन्त की जननी 'का रक्त खौल उठा । यह वास्तव में उसका अपमान था। वह दुःख में अधीर हो उठी । पुत्र को पुनः रणक्षेत्र में कैसे भेजेंवह यही सोचने लगी। अन्त में उसने क्रोध को दबाकर गर्म लोहे को ठण्डे लोहे से काटा । यशवन्तसिंह को बुलाकर सदा की भांति प्यार करके भोजन जिमाने लगी ! सुवर्ण के स्थान में लोहे के : Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोधपुर राजवंश के जैनवीर २१५ प्रसन्न होकर १५ हजार की जागीर इनको प्रदान की । सं० १८२२ में इन्होंने दक्षिणी खाजू के साथ युद्ध किया और उसे जीतकर उसकी सेना की सामग्री को लूट लिया । सं० १८३० के फाल्गुण सुदी ३ को इनको मुसाहवी का अधिकार मिला तथा राव की. पदवी के साथ हाथी, पालकी का शिरोपाव मिला और चैत्रवदी सप्तमी के दिन महाराज ने २१०००) की जागीर प्रदान की। घर्तन देखकर यशवन्तसिंह क्रुद्ध होगये । राज-माता भी दासियों, पर कृत्रिम क्रोधित होकर बोली-"देखतीनहीं हो,मेरा बेटातोपूर्व ही लोहे से डरकर यहाँ भाग आया है, फिर लोहा ही उसके सामने ला रक्खा!" माता के इस व्यंग से यशवन्तसिंह कटसे गये।राजमाता अपने उपदेश का अंकुर जमने योग्य भूमि देखकर बोली में तू मेरा पुत्र नहीं । तुमे बेटा कहते हुये मैं मारे आत्म-पलानि के गड़ी जा रही हूँ । यदि तू मेरा पुत्र होता तो शत्रु को पराजित किये विना न आता। तुम में मान नहीं, साहस, नहीं अभिमान नहीं, तू कुलकलंकी है,कायर है,शिखण्डी है, तूने राजपूत कुल में जन्म लेकर, इस के उज्ज्वल मुख में कलंक लगा दिया। बहू का आत्माभिमान देखकर मेरी छाती गर्व से फल उठी है, किन्तु साथ ही दारुण अपमान के मारे मैं मरी जारही हूँ। एक तो वह वीर-प्रसवा क्षत्राणी, जिसने ऐसी वीरवाला को जन्म दिया, और एक मैं जो तेरे जैसे कुलंगार को उमन किया! धिकार है मेरे पुत्र प्रसव करने को! अच्छा होता जो वन्ध्या होती अथवा तेरी जगह ईट-पत्थरं प्रसव करती।जो मकानों के तो काम Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ राजपूताने के जैन-वीर १७ मेहता सवाईरामजी ... : ... . . : . __(न०१६ सुरतरामजी के पुत्र) संवत् १८३१ में इनके पिता का : देहान्त होने पर उनका सारा अधिकार (मुसाहिबी तथा पट्टा) इन को मिला जो कि सं० १८४९ तक बना रहा। ......... १८. मेहता सरदारमलजी___ (नं १७ सवाईरामजी के पत्र) वैसाख सुदी ११ संवत् १८५६ में इनको दीवानगिरी मिली और आषाढ़ सुदीर सं० १८५७ को २०००) की रेखं का गाँव कांकेलाव मिला। .:. .. १६. मेहता ज्ञानमलजी: __(नं१६ सुतगमजी के पुत्र) यह महाराजा मानसिंहजी के दीवान रहे और गांगोली की लड़ाई तथा घेरे में उक्त महाराज की सेवा की। आते । अस्तु जो होना था सो हो चुका। किन्तु ठहर, मैं तेरा जीवन समाप्त कर देना चाहती हूँ । बहू कायरपत्नी नहीं कहलाना चाहती, तो मैं भी कायर पुत्र को जीवित रखना नहीं चाहती।" ...: क्रोध के आवेश में वीरस्माता कटार निकाल कर मारना ही . चाहती थी, कि यशवन्तसिंह रोकर पैरों पर गिर पड़े। फिर तलवार निकाल कर प्रतिज्ञा की. "माता जब तक मैं जीवित रहूँगा युद्ध में रहूँगा युद्ध से कभी विमुख नहूँगा। जबतक शत्रुओं का नाशनहीं. .. कर लूंगा. कभी सुख से न बैलूंगा।" .. .. .. . .. गोयलीय , . . . [ जून सन् २८ ]. Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोधपुर- राजवंश के जैन-वीर २१७ २०. मेहता नत्रमलजी : . ( नं० १९ ज्ञानमलजी के पुत्र) इन्होंने संवत् १८६१ में सिरोही फ़तह की और अल्पावस्था में ही इनका देहान्त होगया" । नोट:- इस मोहरणोत ओसवाल वंश में अनेक प्रतिष्ठित नर-रत्न हुये हैं । जो राज्य के प्रारम्भ से ही वंशपरम्परागत दीवान पद पर प्रतिष्ठित होते रहे हैं। मेहता सरदार सिंह जी (मोहनजी की २८ वीं पीढ़ी में उत्पन्न) अपने जीवन के अन्त समय तक अर्थात् आपाढ़ सुदी ४ संवत् १९५८ तक दीवानगिरी का कार्य करते रहे, उनके इस मिती को स्वर्गासीन होने पर जोधपुर राज्य में यह चौहदा ही तोड़ दिया गया । इस वंश का विस्तृत विवरण "रायबहादुर मेहता विजयसिंहजी के जीवनचरित्र" में मिलता है । इसी पुस्तक से उक्त अवतरण संकलन किये गये हैं । उक्त "जीवनचरित्र" की पुस्तक से प्रकट होता है कि अब इस वंश में जैनधर्म की मान्यता नहीं रही है। अतः इस वंश में कब तक जैनधर्म की प्रतिष्ठा रही, यह उक्त पुस्तक के लेखक मेहता किशनसिंहजी (मोहनजी की २९वीं पीढ़ी में उत्पन्न) से दर्याफ्त करने पर, उन्होंने अपने ता० १ जनवरी सन् ३३ के पत्र में लिखा था कि, "हमारे वंश में श्रीचैनसिंहजी तक तो जैनधर्म रहा जैसा कि 'जीवन चरित्र' की पुस्तक से प्रकट होता है । बाद में वैष्णवधर्म अंगीकार कर लिया । लेकिन जैनधर्म पर हमारी पूर्ण श्रद्धा है ।" अतः प्रस्तुत पुस्तक में उक्त वंश का परिचय मेहता चैनसिंह जी (मोहनजी की २५ वीं पीढ़ी में उत्पन्न) के समय तक (संवत्. Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ राजपूताने के जैन चोर १८६१) का दिया गया है जो प्रकट रूपसे जैनधर्मी रहे। यद्यपि । उक्त लेखक महोदय के कथनानुसार अब भी इस वंश की जैन- .. धर्म पर पूर्ण श्रद्धा है, परन्तु पुस्तक का विषय केवल जैनधर्मनिष्ठ व्यक्तियों का चरित्र संकलन करना है, इसी.लये संवत् १८६१ के पपचान होनेवाले महानुभावों का यहाँ उल्लेख नहीं किया गया है। , -गोयलीय [१६ जनवरी सन् ३३] Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौहान वंशीय जैन वीर २१९ चौहान वंशीय जैन-वीर जोधपुर के भण्डारी . जोधपुर के भण्डारी श्रोसवाल जैन हैं । इनका मारवाड़ी समाज में एक विशेष स्थान है। जोधपर में इनके लगभग ३०० घर हैं। ये लोग अपनी उत्पत्ति अजमेर के चौहान राजवंश से घताते हैं । इनके पूर्वज राव लक्ष्मण (लखमसी) ने अजमेर के राज्यवंश से पृथक होकर नाडौल में एक स्वतंत्र राज्य स्थापित कियाथा । इस कुल में कितने ही राजा हुये। सबसे अन्तिम राजा अल्हणदेव था। जिसने सन् १९६२ ईस्वी में नाडौल के जैनमन्दिर की सहायतार्थ बहुतसी सम्पत्ति अर्पण की और महिने के कुछ __ + क साहब ने अल्हणदेव द्वारा मन्दिर के लिये सहायता देने का जो लेख किया है, उसके सम्बन्ध में महात्मा टाड साहब को एक तानपत्र मिला था, जिसका कुछ अंश निम्न प्रकार है: "सर्व शकिमान् जैन के शानकोष नै मनुष्य जाति की विषय-वासना और ग्रन्थि मोचन करदी। अहंकार आमश्लाघा, भोगेष्ठा, क्रोष और लोम स्वर्ग, मयं और पाताल को विभिन्न करदेते हैं। महावीर (जैनधर्म के चौवीसवें तीर्थकर) आपको सुखसे खो"। अति प्राचीन काल में महान चौहान जाति समुद्र के तट तक राज्य करती और नादौल लक्ष द्वारा शासित होती थी । उन्हीं की - - - Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० राजपूताने के जैनवीर दिनों में पशुवध न करने का आज्ञापत्र जारी किया । इसमें सन्देह नहीं कि भण्डारियों का पूर्वज राव लाखा एक महापुरुष था । वीरता और देशभक्ति में कोई उसका सानी न था । उसने अणहिलवाड़ा से कर और चित्तौड़ के राजा से खिराज वसूल किया था। बारहवीं पीढ़ी में उत्पन्न अलनदेव ने कुछ काल राज्य करके इस संसार को असार, शरीर को अपवित्र समझकर, अनेक धर्मशास्त्रों का अध्ययन करके वैराग्य ले लिया । इन्होंने ही महावीर स्वामी के नाम पर मन्दिर उत्सर्ग किया और वृत्ति निर्धारित की और यह भी लिखा कि "यह घन सुन्दरः गाळा ( ओसवाल जैनियों की ८४ शाखाओं में से एक) लोगों की वंश परम्परा को बराबर मिलता रहे । जनतक सुन्दरंगाचा लोगों के वंश में कोई जीवित रहेगा तबतक के लिये मैंन यह वृत्ति निर्द्धति की है । इस का जो कोई खामी होगा मैं उसका हाथ पकड़ कर कहता हूँ कि यह वृति वंश परम्परा तक चली जावै । जो इस वृत्ति को दान करेगा वह साठ सहस्र वर्ष तक स्वर्ग म बसेगा और ओं इस वृत्ति को तोड़ेगा वह ' साठ सहस्र वर्ष तक नर्क में रहेगा । " सं० १२२८ में यह दानपत्र लिखा गया). प्राग्वंशीय धरणीधर - ओसवाल के पुत्र करमचन्द इनके मंत्री थे।" ६ (टा० रा० प्रयमभाग द्वि० सं० अ० २७ पृ० ७४७ ) - गोयलीय † इस की वीरता के सम्बन्ध में टाडराजस्थान में लिखा है: "जिस समय राज़नी वादशाह भारतवर्ष लूटने के लिये आया, तब वह चौहान जाति की प्रधान बासभूमि अजमेर पर अधिकार करने के लिये गया। वहाँ चौहान लोगो. ने उचित शिक्षा देकर इसे युद्ध में परास्त और घायल किया। इस लिये वहाँ से भागकर नादौल होता हुआ: सोमनाय गया। नादौल के अधिकारी लाक्षा (लखमसी) .. ने उसके साथ बड़ी-बीरता से युद्ध किया । यही लाक्षा उस समय 'चित्तौड़ के अधीश्वरों से कर लेता था। इसके समय में जैनधर्म का विशेष प्रमुखं रहा।"" (टा० रा० प्र० मा० द्वि० सं० २०२७ पृ० ७४८) - गोयलीय Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौहान वंशीय जैन-चीर २२१ अब भी कोई यात्री वहाँ जाता है, तो उसे नाडौल का किला दिखाया जाता है। कहते हैं कि इसे लाखा ने ही बनवाया था । लाखाबड़ा ही सौभाग्यशाली पुरुष था । उसके चौवीस पुत्र-रत्न थे उनमें से एक का नाम दादराव (दूदा) था, वही भण्डारीकुल का जन्मदाता है। कहा जाता है कि राजघराने के भण्डार का प्रवन्ध दादराव के हाथ में था । इसी कारण से इसकी सन्तान भण्डारी नाम से प्रसिद्ध हुई । विक्रम सं० १०४९ अथवा ई० सं० ९९२ में यशोभद्रसारि ने दादराव को जैनधर्म में दीक्षित किया और उसके कुल को ओसवाल जाति में मिलाया था। भण्डारी लोग राव जोधाजी के समय में अर्थात् ई० स० १४२७ से १४८९ तक मारवाड़ में आकर बसे और उन्होंने राव जोधा की काफी सेवा की। अपने सेनापति नारोजी और समरोजी भण्डारी की आधीनता में ये लोग मारवाड़ की सहायतार्थ मेवाड़ की सेना से मिलवाड़े में लड़े थे और उसपर विजय प्राप्त की थी। जब से ये लोग जोधपुर में आये उसी समय से राज्य-दरबार में इन की बड़ी मान्यता रही और यह राज्य के बड़ेर उच्च पदों पर नियुक्त रहे । संघवियों की भान्ति ये भी असि,मसिअर्थात् तलवार और कलम के धनी थे तथा जोधा घराने (वर्तमान मारवाड़ राज्यंवंश) के सच्चे भक्त और उपासक थे। ये लोग अब भी राज्य के • सच्चे सेवक समझ जाते हैं। ये लोग न केवल राजनीवज्ञ और योद्धा ही प्रसिद्ध थे, अपितु इमारत बनवाने में और लेखन कला में भी काफी ख्याति पाई थी। . . Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ राजपूताने के जैन-चीर P अब हम पाठकों को उन भण्डारियों का संक्षिप्त परिचय कराते हैं, जिन्होंने युद्ध में नाम पैदा किया था। १. माना भण्डारी:--- 'यह मारवाड़ में राजा गजसिंह के मातहत था और जैतारणं का रहने वाला था । इसके पिता का नाम अमर था । वि०सं० १६७८ में इसने कापरदा में पार्श्वनाथ का एक विशाल मन्दिर बनवाया । उसकी. शिलारोपण रस्म खरतरगच्छ के आचार्य जिनसेनसूरि से कराई । मूर्ति का लेख यह बतलाता है कि यह राय लखन के पीछे हुआ था । २. रघुनाथ भण्डारी: यह महाराजा अजीतसिंह के समय में (१६८० - १७२५ ईस्वी) · में हुआ। महाराज ने दीवान के पद पर नियुक्त करके राज्य सम्बन्धी सम्पूर्ण कार्यों को सौंप दिया था। राज्यप्रवन्ध और सिपाह गिरी दोनों कार्यों में इसका अनुभव बहुत बढ़ा चढ़ा था। कर्नल वाल्टर साहब का कथन है कि जब महाराजा अजीतसिंह देहली में विराज-' मान थे, तब रघुनाथ भण्डारी ने अपने स्वामी के नाम से मारवाड़ में कितने ही वर्ष शासन किया था । यह बात नीचे लिखे हुये पद. से भी प्रकट होती है, जो जन साधारण में बहुत प्रसिद्ध है। • 'कोड़ां द्रव्य लुटायो, हौदा ऊपर हाथ | "अंजि दिलोरो पावशो राजा तौ रघुनाथ ११| अर्थात --- जब अजीतसिंह दिल्ली पर शासन कर रहे थे, Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौहान वंशीय जैन-वीर २२३ उस समय रघुनाथ भण्डारी मारवाड़ पर राज्य कर रहा था। ३. खिमसी भण्डारी:-- यह दीपचन्द का पौत्र और रायसिंह का पत्र था। यह भी महाराजा अजीतसिंह के समय में दीवान पद पर नियुक्त था। इसने दिल्ली के अधिपति से गुजरात के सूबेदारी की सनद प्राप्त करली थी। मारवाड़ का इतिहास इसबात का साक्षी है किभण्डारी खिमसी ने जजिया कर जिसे औरंगजेब ने पुनः हिन्दुओं पर लगा दिया था-वन्द करा दियाथा । यह यश भण्डारी खिमसी को ही प्राप्त है। ४. विजय भण्डारी ___ महाराजा अजीतसिंह जब गुजरात के सूत्रेदार नियुक्त हुये, तब उन्होंने अपने वहाँ आने तक इसको सूबेदारी का कार्य-भार दिया। . ५. अनूपसिंह भण्डारी:___ यह दीवान रघुनाथसिंह का पुत्र था । संवत् १७६७ में महाराजा अजीतसिंह के समय में यह जोधपुर का हाकिम नियुक्त हुआ। उस समय की हुकूमत आजकल जैसी शान्तिमय नहीं थी। आन्तरिक इन्तजामी मामलों के साथ साथ उस समय के हाकिम को बाह्य आक्रमणों से सावधान रहना पड़ता था और अवसर आने पर युद्ध भी करना पड़ता था। अर्यान् यूं कहिये कि सिविल और मिलिटरी मामलों का उत्तरदायित्व उस समय के हाकिम पर Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ राजपूताने के जैन-वीर होता था । यह निपुण राजनीतज्ञ, अपने समय का एक वीर योद्धा और सिपहसालार था । संवत् १७७२ में जब महाराजा कुमार अभयसिंह को देहली से नागौर का मंसव अता हुआ, तब महाराज ने इसे और मेड़ता के हाकिम पोमसिंह भण्डारी को इन्द्रसिंह राठौड़ से नागौर छीन लेने के लिये नियुक्त किया । वीर इन्द्रसिंह राठौड़ भी लड़ने के लिये सजधज कर तैयार हो गये, तव ज्येष्ठ सुदी १३ को गाँव नागौर व अषाढ़ सुदी पूर्णिमा को नागौर में दोनों पक्षों में घमासान युद्ध हुआ। दोनों बार इन्द्रसिंह की सेना भागी और अन्त में नागौर का अधिकार महाराज को मिला ।, ६. पोमसिंह भण्डारी :-- · यह संवत् १७६७में जालौर, सांचौर का हाकिम नियुक्त हुआ । संवत् १७७६ में जब बादशाह फर्रुखसियर मारा गया, तब महाराजा अजीतसिंह ने इसे फौज देकर अहमदाबाद भेजा था । ७. सूरतराम भण्डारी: ई०स०१७४३ अक्टूबर को जयसिंह की मृत्यु के बाद महाराजा श्रभयसिंह ने मेड़ता से भण्डारी सूरत राम को, अलीनिवास के ठाकुर सूरजमल और रूपनगर के शिवसिंह को अजमेर पर अधिकार करने के लिये भेजा और इन्होंने युद्ध करके अजमेर पर कब्जा जमा लिया | ८. गंगाराम भण्डारी: यहू विजयसिंह के समय (ई० स० १७५२-९२) में हुआ । यह Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौहान वंशीय जैन-वीर २२५ केवल राजनीतज्ञ ही नहीं था, वरन् वहादुर सिपाही भी था। यह मेड़ता के युद्ध में भी गया था। जो सत् १७९० ईस्वी में मरइटों और राठ.ड़ों के बीच में हुआ था। ६. रतनसिंह भण्डा : ओसवाल वंश के एक प्रतिष्ठित घराने में उत्पन्न हुआ था! यह तलवार का धनी, व्यवहारकुशल, राजनीतज्ञ, स्वाभिमानी और कर्तव्य-परायण सेनापति था। मुग़ल बादशाह की ओर से सन् १७३० में मारवाड़ का राजा अभयसिंह अजमेर और गुजरात का गवर्नर नियुक्त हुवा। तीन वर्षे पश्चात् अभयसिंह, रतनसिंह भण्डारी को यह कार्यभार संपकर देहली चला आया। तब रतनसिंह भण्डारी ने सन् १७३३ से १७३७ तक अजमेर और गुजरातकी गवर्नरी का संचालन किया! गवर्नर का कार्य करते हुये इन चार वर्षों में रतनसिंह को अनेक युद्ध करने पड़े ! मुगल साम्राज्य का पतन हो रहा था, घरेन झगड़ों ने उसे डावाँ डोल कर दिया था। इसलिये कितने ही विद्रोही खड़े हो गये थे, मरहठों का जोर दिन पर दिन बढ़ता जा रहा था, तब ऐसी विकट परिस्थिति में गजरांत का गवर्नर बने रहना रतनसिंह जैसे वीर योद्धा का ही काम था । अंत में एक युद्ध में यह वीरगति को प्राप्त हुआ। १०. लसीचन्द्र भण्डारीः । · यह महाराजा मानसिंह के राज्य काल में (सर १८०३-४३) Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ राजपूतानेके जैन-चीर में दीवान पद पर आसीन रहा। इसको अनुमान २००० रुपये. आय का जागीर में एक गाँव, मिला था,। ११. पृथ्वीराज भण्डारी: यह महाराजा मानसिंह के राज्य-समयः जालौर का हाकिम था.। जिसको, पं० गौरीशंकर हीराचन्द ओझा.ने.शिरोही. के. इतिहास में लिखा है । १२. बहादुरमल भण्डारी: यह महाराजा तख्तसिंह के समयः (सन् १८४३:७३) में हुआ। सम्भवतया मुत्सद्दी वंश में यह सबसे अन्तिमाथा। इसका महाराजा के ऊपर ऐसा प्रभाव पड़ा हुआ था कि यथार्थ में लोग इसी को.मारवाड़काः राजा मानते थे। यह वाताइसकी और भी कीर्तिः बढ़ाती है कि राजा और प्रजा दोनों की भलाई करने में जिनका प्रेम इसकी नस नस में भरा हुआ था. इसने कोई भी बातः उठा नहीं रक्खी। इसी कारण से.वहाँ की प्रजा इससे बहुत ही प्रसन्न श्राहादित रहती थी। नमक के ठेके के काम में इसने जो कुछ सेवा,की थी। उसके लिये मारवाड़ी प्रजा चिरकाल तक इसका आभार मानती रहेगी। सन १८८५ में सत्तर वर्षको अवस्था में इसका स्वर्गवास हो गया। १३. किशनमल भन्डारी: यह महाराजा सरदारसिंह के पूर्व तथा उनके शासन काल में राज्य का कोषाध्यक्ष रहा. यह,आर्थिक विषयों में बड़ा निपुणथा। Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौहान वंशीय जैन वीर २२७ इसने मारवाड़ के कोष की नींव बहुत पक्की डाल दी थी । निम्न लिखित कवित्त से ज्ञात होता है कि उसे मारवाड़ के प्रजा कितना अधिक चाहती थी । । "बक फटत बैरियां, हक़ जशरा होय । सुत बहादर रे सिरे किशना जैसा न कोय ।।" + केवल संख्या ५ और ६ के वीरों का संकलन ओसवाल भाग ४ अंक १० से किया गया है' बाकी का परिचय Some Distinguished Jains से कराया गया है । " Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजपूताने के जैन वीर सिंघवी इन्द्रराज ऐ. फूट तैने हिन्द की तुर्की तमाम की । लोगों का चैन खोदिया राहत हराम की ॥ -अज्ञात् भारत के फूट और बेर दो प्रसिद्ध मेवे हैं । इनको यहाँ फलते फूलते देख कर महात्मा टांड साहब ने दुःखी होकर लिखा था:-- "हाय ! किस कुघड़ी में अभागी भारत-सन्तान ने सजाति भाइयों के हृदय रुधिर का बहाना सीखा था, उसी कुदिन से भारत के उजाड़ होने का आरम्भ होने लगा । विश्राम स्थान भारतवर्ष असीम दुःख का कारागार और अनन्त यन्त्रणा में अन्धन र ककूप की भान्ति हो गया है। कुरुक्षेत्र की भयंकर रमशानभूमि आर्य गणों की गृह-फूट + का रुधिर मय नमूना दिखा २२८ + भारत की इस "गृह-फूट" पर भारतेन्दु वावू हरिश्चन्द्री क्या खूब भावपूर्ण गीत लिख गये हैं : जग में घर की फूट वरी । घर की फूटहिं सों बिनसाई सुवरन लंकपुरी ॥ टेक ॥ फूटहिं सों सव कौरव नासे भारत-युद्ध भयौ । जाकौ घाटो या भारत में अवलौं नाहि पूजयौ ॥ फूटहिं सों जयचन्द बुलायौ जवनत भारत धाम । जाको फल अक्लौं भोगत सव आरज होइ गुलाम ॥ जो जग में धन, मान और दल आपुन राखन हो । तौ अपने घर में भूले हूँ फूट करो मत, कोय ॥ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौहान वंशीय जैन वीर २२९ रही है । सब बातों को जान बूझकर भी भारत-सन्तान किस लिये आपस में लड़ाभिड़ा करते हैं, इस मर्म को भगवान ही जानें ! भारत-भूमि ने किसी समय भी फूट से निस्तार नहीं पाया। इसके माया मोह में पड़ कर न जाने अब तक कितने भारत-सन्तान अकाल में इस लोक से चले गये हैं। मतवाले होकर अपना ही सत्यानाश कर बैठे हैं, इसकी गिन्ती कोई भी नहीं कर सकता, इसका शोकदायक आदर्श आज तक स्वर्णप्रसू भारतवर्ष में चमक रहा है । ___ यहाँ एक ऐसे ही अनर्यकारी गृह कलह का वर्णन किया जाता है, जिसके कारण व्यर्थ ही सिंघवी इन्द्रराज जैसे देशभक्त नीति-निपुण वीर सेनापति को अपने प्राण गँवाने पड़े। ___ महाराज मानसिंह के ई०स० १८०४ में मारवाड़ के राज्यासन पर बैठते ही गृह कलह का स्रोता. फूट निकला । जो राठौड़ सरदार और सामन्त किसी समय मारवाड़ की आन के लिये मिटने को प्रस्तुत रहते थे, वही वीर वाँकुरे मारवाड़ी राजपत मारवाड़ के गौरव को धूलधूसरित करने लिये कटिवद्ध हो गये। इस गह-कलह ने उनका यहाँ तक पतन किया कि वे मारवाड़ के शासन की बागडोर विजातीय और विदेशीय व्यक्तितक को सपने + अपनों के सर पे वार है गैरों के बूट का । फल पा रहा है मुल्क यह आपस की फूट का ।। -अज्ञात टाड राजस्थान प्रथम भाग द्वि० खं० अ०४ पृ.११७ ... Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० राजपूताने के जैनचौर के लिये अनेक प्रकार के षड्यन्त्र रचने लगे। भाग्य से उन्हें इस दुरेच्छा को कार्यरूप में परणित करने का अनायास अवसर भी हाथ आगया। ___ उदयपुर के राणा भीमसिंह की अत्यन्त रूपवती कन्या कृष्णकुमारी का विवाह जोधपुर के महारजा भीमसिंह से होना निश्चित हुआ था, परन्तु उनके स्वर्गासीन हो जाने के कारण, जोधपुर के एक षड्यन्त्रकारी ने इस कन्या से विवाह करने का प्रस्ताव, जयपुर के महाराज जगतसिंह द्वारा कराया, जिसे उदयपुर के राणा ने सहर्ष स्वीकार कर किया। इधर जोधपुर-नरेश मानसिंह को यह कहकर भड़काया गया कि "उदयपुर-राजकुमारी का विवाह सम्वन्ध पहले जोधपुर के महाराज से निश्चित हुआ था, यदि जयपुर-नरेश के साथ यह सम्बन्ध होगया तो, सदैवं को जोधपुरराज्य को कलंक लग जायगा; क्या सिंह के होते हुये उसके शिकार को लोमड़ी छीन सकेगी? यह सम्बन्ध वो जोधपुर के राज्यसिंहासन के साथ हुआ था, अतः नव आप उस पर आसीन हैं तो उस कुमारी को वरण करने का आपको ही अधिकार है। . बुद्ध महाराज उक्त बातों में आगये और यह सम्बन्ध न लेने के लिये जोधपर के महाराज को एक पत्र लिखा। जयपुर नरेश तो पहिले से ही. भर दिये गये थे, फिर भला उन्हें इस पत्र को मानने की क्या आवश्यकता थी ? परिणाम इसका यह हुआ कि महाराज भानसिंह ने जयपुर पर आक्रमण कर दिया। किन्तु समर-भूमि में जाते ही मानसिंह के आश्चर्य और दुःख की Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . चौहान वंशीय जैन-चीर २३१ फोई सीमा न.रही, जब उन्होंने देखा कि, अपनी ओर के सामन्त मारवाड़ की सजी हुई सेना को लेकर जयपुर-सैन्य में जा मिले हैं, और तो और, अपने फुटुम्बी बीकानेर-नरेश को भी जब शत्रुपक्ष से मिला हुआ देखा, तो वह दुःख से अधीर हो उठे। वह अफले ही उस महा विपत्ति में फंस गये और इस प्रकार अपने ही हितपियों द्वारा विश्वातघात करने पर जोधपुर-नरेश मानसिंह को युद्ध-क्षेत्र से भागना पड़ा । इस से पूर्व कभी मारवाड़ी वीरों ने युद्ध में पीठ नहीं दिखाई थी, तब अपनों ही के विश्वासघात के कारण उन्हें यह दुर्दिन देखना पड़ा । इस घटना का वर्णन करते हुये महात्मा टॉड कैसी भेदभरी बात लिख गये हैं :___"जातिगत पतन जाति के द्वारा ही होता है ।.जातीय गौरव के सूर्य अस्त करने को यदि जाति स्वयं अग्रसर न हो तो, कभी अन्य जाति के द्वारा यह कार्य सिद्ध नहीं हो सकता बहुत उम्मीद थीं जिनसे, हुये वह महर्षी कातिल । हमारे माल करने को बने खुद पासवाँ फातिल ।। x -अज्ञात् बारामाँ ने.आग दी.जब आशियाने को मिरे । जिन.पै.तकिया था वही पत्ते हवा देने लगे। -अज्ञात * इस घर को आग लग गई घर के चिरायसे । दिल के फफोलें जल उठे सीने के दाग से। --अज्ञात Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ राजपूताने के जैन-चीर जो महाशक्ति जाति की प्राण-प्रतिष्ठा का देती है, जाति की नस-नस में अपना अव्यर्थ तेज भर देती है, उस महाशक्ति. का जिस दिन से जाति ने अपमान किया तथा आलस्य और विलासिता के वशीभूत होकर जातीय भ्रातृभाव को जड़ में कुठाराघात किया कि वह जाति उसी रोज़ से पतन के दल-दल में फंस जाती है *" ___ राजा मानसिंह सेना के साथ भागकर सव से पहिले जालौर का आनय लेने के लिये वीसलपुर में आ पहुँचे । चैनमल सिंघवी नामक राजकर्मचारी ने मानसिंह को जालौर में आश्रय लेने के लिये उद्यत देखकर कहा-"महाराज! यहाँ से दाहिनी ओर नौ कोस की दूरी पर राजधानी जोधपुर और ४० कोस की दूर पर जालौर का किला स्थित है । जालौर की अपेक्षा जोधपुर में बड़ी सरलता से पहुंचा जा सकता है। आप यदि अपने बाहुवल से राजधानी की रक्षा करने में समर्थ न होंगे, तो अन्यत्र स्थान में रहकर सिंहासन के अधिकार की आशा कहाँ है ? आप जब तक राजधानी में रहकर सिहासन के रक्षा की चेष्टा करते रहेंगे3 तब तक सम्पूर्ण सर्वसाधारण प्रजा अवश्य ही आपके पक्ष का अवलम्वन करेगी।" महाराज मानसिंह इस कर्मचारी के उपदेश को न्यायसंगत जानकर कुछ घण्टों में जोधपुर के किले में आकर अपनी तथा राज्यासन की रक्षा का उपाय करने लगे। ... - - - - - - - - . . : * टाड राजस्थान दू० मा प० २५३-५४। Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३३ सिंघवी इन्द्रराज किन्तु ठीक खतरे के मके पर उनके सरदार और सामन्तों ने उनके प्रति विश्वासघात और द्रोह किया था, अतः वह अपने रहे सहे अनुयाइयों को भी शंकितदृष्टि से देखने लगे । जहाँ जान और माल की बाजी लगी हुई हो, वहाँ अपनी ओर के खिलाड़ी ही प्रतिद्वन्दी से मिले हुये हों, रक्षा के लिये बान्धी हुई तलवार ही जब अपना रक्त चाटने को उद्यत हुई हो अथवा शोमा के लिये पहना हुआ गले का हार ही जब नाग वनकर डस रहा हो, तब कैसे और क्योंकर किसी पर विश्वास किया जा सकता है? न्याघ इतना भयानक नहीं जितना कि गौमुखी व्याघ, शत्र से चौकन्ना रहा जा सकता है, पर मित्ररूप-शत्रु से बचना परा टेढ़ी खीर है । अस्तु, मानसिंह के जो सच्चे हृदय से शुभेच्छु थे, उन्हें भी वह कपटी और द्रोही समझने लगे। शरीर के किसी अंग के सड़जाने पर जब औपरेशन किया जाता है, तब दूषित रक्त के साथ कुछ स्वच्छ रक्त भी शरीर से पृथक होजाता है ! इसी नीति के अनुसार मारवाड़ के चार सामन्त जो महाराज मानसिंह की जाति के थे और हृदय से देश-भक्त थे, उन्हें महाराज मानसिंह ने शत्र से मिला हुआ समझ कर किले से बाहर निकाल दिया। टॉड साहब के कथनानुसार इद्रराज सिंघी जो मानसिंह के पहले मारवाड़ के दो राजाओं के शासन समय में दीवान पद - जिसे हम हार समझे थेगला.अपना सजाने को । वह काला नाग बन बैठा हमारे काट खाने को ।। -अज्ञात् Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ . राजपूताने के जैन-चीर पर नियुक्त था, वह भी इनके साथ था। . शुद्ध हृदय से शुभेच्छ और जानिसार होने पर भी जब उक्त चार सामन्त और इन्द्रराज सिंघवी "द्रोही" जैसे घृणित और महापातक लाञ्छन लगाकर पृथक किये गये तत्र लाचार यह लोग चुपचापं किले के वाहर पड़ी हुई शत्रु-सैन्य से श्री मिले। . मारवाड़ राज्य के प्रलोभन में जयपुर-नरेशं जगतसिंह अपनी सैन्य को लेकर ५ माह तक जोधपर के किले को धेरै हुए पड़े रहें। फिर भी वह इतने लम्बे समय में मारवाड़ के राज्यासन को प्राप्त न कर सके.। अंतः इनको अपने पक्ष में मिलता हुआ देख कर जगतसिंह को और उसके उन अनुयाइयों को जो मारवाड़ी होते हुए भी मारवाड़ पर जयपुर-नरेशं को चढ़ाकर लाये थे, अपार हर्ष हुआ। परं, इनके मिलने में और औरों के मिलने में पृथ्वी आकाश का अन्तर था! .. यह अपमानित होने पर भी विभीषण, जयचन्द और शक्तंसिंह की भांति प्रतिहिंसा की आग से अपने हो घरको जलाने के लिए उन्मत्त नहीं हो उठे थे!. व्यक्तिगत मनमुटाव के कारण वह अपनी मातृभूमि को सदैव के लिये परतन्त्रता की बेड़ी में जकड़वा देने को प्रस्तुत नहीं थे, और न वह अपनी प्रतिहिंसा की आग को निर्दोष व्यक्तियों के रक्त से बुझाने को तैयार थे । यदि ----- -~ ~arimminimum + भरयो विभीषणपंजतें, यह भारतं ब्रह्माण्ड ! क्यों न होय गृह भेद त गृह गृह लंकाकाण्ड "-वियोगीहरि Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौहान वंशीय जैन वीर २३५ अत्यक्ति न समझी जाय तो कहना पड़ेगा कि इन्द्रराज सिंघवी का भौतिक शरीर उस मिट्टी से नहीं बना था, जिससे कि विभीषण, जयचन्द और शक्तसिंह आदि का शरीर बना था । अपितु देशप्रेम और सहृदयता के परमाणु जो एक स्थान पर इकट्ठे होगये थे, उसी पुंज का नाम शायद इन्द्रराज सिंघवी रख दिया गया था। मारवाड़-नरेश के इस दुर्व्यवहार से इन्द्रराज सिंघवी क्रोधित नहीं हुआ। बल्कि इस विपदावस्था में पड़ जाने से जोधपुर-नरेश को अपने पराये का जो ज्ञान तक नहीं रहा था, इस पर उसे तरसही आया.! "तब क्या मारवाड़ अब मारवाड़ियो का न रहकर कंछवाहों का होगा ? नहीं, यह शरीर मारवाड़ का है, अंतः जब तक इसमें एक रक्तकी बूंद भी बाकी रहेगी, हम मारवाड़ियों के सिवा यहाँ किसी का आधिपत्य न होने देंगे। यह पागल का प्रलाप और शेखचिल्ली की बड़ नहीं, अपितु इन्द्रराज सिंघवी और उन चार सामन्तों का भीषण संकल्प था। अतएवं उन्होंने शत्र-पल में रहते हुए भी किसी प्रकार शत्र-पक्षके संबसे प्रबल शक्तिशाली * खोलि विदेसिनुकों दियौ, देस-द्वार मतिमन्द। स्वारथ-लगि कीनों कहा, अरे अधम जयचन्द।। स्वर्ग-देस लुटवाय, संठ ! कियौ कनक में छार। फूट बीज इत ब्वै गयो, जयचन्द जाति-कुठार।. दियो विदेसिनु अरपि,धन-धरती घरम स्वछंद। हमैं फूट अब. देत तं धिक दानी जयचन्द ॥ --वियोगीहरि Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ ___ राजपूताने के जैन-वीर अमीरखाँ को फोड़ लिया और चुपचाप.शत्र-सैन्य में से निकल कर जयपुर पर आक्रमण कर दिया। . . . . . . . इधर महाराज जगतसिंह जो मारवाड़ के राज्य पाने का सुखस्वप्न देख रहे थे, जब उन्होंने जयपर विध्वंस होने और अपनी . पराजय का दुःखद समाचार सुना तो भौंचक्र से रह गये । मारवाड़ का राज्य तो क्या, उन्हें अपने ही राज्य को चिन्ता ने श्रा घेरा । अतः वह जोधपुर का घेरा छोड़कर जयपर की ओर शीघ्रता से ससैन्य चल दिये । मार्ग में इन्द्रराज सिंघवी ने इनकी सेना को भी ठीक किया और उनसे मारवाड़ का लूटा हुआ माल . सब छीन लिया । जोधपुर की इस प्रकार रक्षा और जयपुर-राज्य . के विध्वंस के समाचार, जव महाराज मानसिंह ने सुना तो वह अवाक रह गये, वह इन्द्रराज के इस देश प्रेप, स्वामिभक्ति और.. नीति-निपुणता से अत्यन्त ही प्रसन्न हुये। विजयी इन्द्रराज जव जोधपुर आया तब मानसिंह ने उसका अत्यन्त प्रेम पूर्वक स्वागत किया और अभिनन्दन स्वरूप एक कविता भी बनाकर कही, जिसके तीन पद्य निम्न प्रकार हैं: पैड़ियां घेरा जोधपुर, प्राविया दला असख।। पाव दिगन्ते इन्दरा, थे दीधा भुजयंम ॥ इन्दावे असवारियां, जिन चौहटे अम्बेर । धन मंत्री जोधा नरा, थे जैपुर कीवी जेर ॥ आम पड़तों इन्दरा, तें. दीना भुजदंड । . माखाड़ नो के.टिरों, राख्यो राज अखण्ड ।। Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंघवी इन्द्रराज २३७ टॉड साहय के कथनानुसार इस विजयोपलक्ष में इन्द्रराज सिंघवी मारवाड़ के प्रधान सेनापति-पद से विभूषित किया गया। राज्य की व्यवस्था ठीक कर लेने पर महाराज मानसिंह ने अपने फुटम्बी बीकानेर नरेश से बदला लेने के लिए बारह हजार सेना के साथ प्रधान सेनापति इन्द्रराज तथा अन्य सरदारों के साथ युद्ध के लिए प्रस्थान किया। वापरी नामक स्थान में दोनों सेनाओं का युद्ध हुआ । बीकानेर के महाराज इस युद्ध में परास्त होकर अपनी रक्षा करने के लिए राजधानीको चले आये। बीकानेर महाराज के भागते ही महाराज मानसिंह के प्रधान सेनापति इन्द्रराज आदि उनका पीछा करते हुए गजनेर नामक स्थान में आ पहुँचे, अन्त में विवश होकर बीकानेर महाराज को सन्धि करनी पड़ी और युद्ध की हानि के पूर्ति स्वरूप दो लाख रुपया तथा फलौदी का वह परगना जिसे उन्होंने जयपुर महाराज की हिमायत करके अधिकार कर लिया था लौटाना पड़ा। सिंघवी इन्द्रराज की सेवाओं से प्रसन्न होकर महाराजा मानसिंह ने उसे राज्य के सम्पूर्ण अधिकार सौंप दिये थे। जैसा कि महाराजा मानसिंहजी द्वारा रचित मारवाड़ी भाषा के निम्न दोहे से प्रकट होता है : पैरी मारन मीरखां, राज काज इन्दराज । महतो शरणों नाथ रे, नाथ सँवारे काज ।। . इन्द्रराज की इस उन्नति से उनके पुराने शत्रु और भी जलभुन कर खाक हो गये। वे सिंघीजी की इस उन्नति को न देख सकें। Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८, राजपूताने के जैन वीर उन्होंने इसके खिलाफ पर यन्त्र रचना शुरू किया, इसके लिये उन्हें ( अच्छा मौका भी हाथ लग गया। नवाब मीरखों ने (जो उस: समय महाराज मानसिंह का मुँह चढ़ा हुआ था. और जो अपने मायाचार पूर्ण व्यवहारों से एक अत्यन्त शक्तिशाली था ) मुँड़वा, कुचेरा आदि अपने जागीर के गाँवों के अलावा मेहता और नागौर : पर भी अधिकार करने का विचार किया था। यह बात इन्द्रराज, सिंघवी को दुरी लगी । उसने इस पर बड़ी आपत्ति प्रकट की ।। बस इस अवसर से लाभ उठाकर इन्द्रराज सिंघवी के शत्रुओं नेः नवाब अमीरों को भड़का दिया । वि० सं० १८७३ की चैत्र सुदी ८ को नवाव ने अपनी फौज के कुछ सरों को किले पर भेजा । .. उन्होंने वहाँ पहुँच कर अपनी चढ़ी हुई तनरवाह माँगी । देतनः का तो बहाना था, दस बात ही बात में भगता होगा और गान सरदारों ने हमला बोल कर इन्द्रराज सिंघवी का प्रारंगनाश. कर दिया । महाराज मानसिंह को इस बात से बकापात का. सा. दुःख हुआ, वे विहल हो गये, उनके हृदय में घोर विषाद छा गया और संसार से उन्हें विरक्ति सी हो गई। उन्होंने राज्य करना, 1 छोड़ दिया और एकान्त वास करने लगे । इन्द्रराज के इस बलिदान को सुन कर महाराज मानसिंह ने जो कवित्त कहा था, वह.. इस प्रकार है पौड़ियां किन पोशाकरूँ केही जागां जोय | ठौर कंठे हुये जीवतां होड़ न मरना होय ।। १ [ २८ जनवरी सन् २३] . . . Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाँगल - बीकानेर राज्य Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TA SERGICEL SONICHEN REKENCA, REECECIL KIDELES DEKEZ KT. LEXY GREY BECE OKRA C.KINEKEN वीरों की सन्तान, मान पर जो मरते थे; करते थे शुभ कर्म, धर्म धीरज घरते थे । भरते थे नव भाव, दीन का दुख हरते थे; कभी स्वप्न में भी, न टेक से जो ढरते थे । . "कण्टक" --- BCC XXXXKE BED COOKG Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर-परिचय बीकानेर-राज्य की चौहही इस प्रकार है:-उत्तर-पश्चिमबहावज्ञ पुर, दक्षिण-पश्चिम जैसलमेर, दक्षिण-मारवाड़, दक्षिण-पूर्व जयपुर, शेखावाटी, पूर्व में लाहोर-हिसार । यहाँ २३३१५ वर्गमील स्थान है। इस शहर को राठौड़वंशी राजा पीका ने सन् १४३९ ई० में वसाया था। बीकानेर, राजपताने में प्रसिद्ध देशी रजवाड़े की राजधानी मरुभूमि (रेतीली जमीन) में है, यह शहर पत्थर के साढ़े तीन मील लम्वे परकोटे से घिरा है, जिस में ५ फाटक हैं और तीन ओर खाई है। बीकानेर के कूए ३०० से४०० फुट तक गहरे हैं, यहाँ वर्षा बहुत कम होती है, लोग वर्षा का पानी कुंडों में (एक प्रकार का छोटासा तालाव) भरलेते हैं, जो प्रायःप्रत्येक मकान में बने हुये हैं और सालभर तक इसी पानी को काम में लाते हैं । बीकानेर राज्य भर में एक भी नदी नहीं है, परन्तु अब एक नहर वर्तमान बीका-, नेर-नरेश ने बहुत रुपया खर्च करके पंजाब के दरिया से बीकानेर राज्य में निकलवाई है। मनुष्य संख्या के अनुसार बीकानेर राजपताने में चौथे नम्बर का शहर है । सन् १९३१ की मर्दुमशुमारी. में बीकानेर राज्य की जैन जन-संख्या २९७७३ रही। बीकानेरराज्य में भी कितने ही जैन-मन्दिर हैं, जिनका उल्लेख स्थानामाव, के कारण नहीं किया गया है। Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बच्छावतों का उत्थान और पतन " टपक ऐ शमा! आँसू बनके परवाने की आँखों से । : सरापा दर्द हूँ हसरत भरी है दास्तां मेरी ॥ - "इकंवाल"" १. सगरः--- "श्री जालोर महादुर्गाधिप देवदावंशीय महाराजा श्री सामन्तसीजी थे, तथा उनके दो रानियाँ थीं, जिनके संगर वीरमदे और कान्हड़ नामक तीन पुत्र और उमा नामक एक पुत्री थी । सामन्तसीजी के बाद उनका दूसरा पुत्र बीरमदे जालोराधिपति हुआ और सगर नामक बड़ा पुत्र देलवाड़े में आकर वहाँ का स्वामी हुआ । इस का कारण यह था कि सगर की माता देलवाड़े के झालाजात रांगा भीमसी की पुत्री थी और वह किसी कारण से अपने पुत्र सगर को लेकर अपने पिता के यहाँ चली गई थी। अतः सगर अपने नाना के घर में ही बड़ा हुआ था, जंब . सगर युवावस्था को प्राप्त हुआ, उस समय सगर का नाना भीम Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बच्छावतों का उत्थान और पतन २४३ ་ 1 सिंह जो कि अपुत्र था, मृत्यु को प्राप्त होगया, तथा मरने के समय वह सगर को अपना उत्तराधिकारी बना गया। अतएव राणा भीमसिंह को मृत्यु के पश्चात् १४० ग्रामों सहित सगर देलवाड़े का स्वामी हुआ और उसी दिन से वह राणा कहलाने लगा, उसका श्रेष्ठ तपस्तेज चारों ओर फैल गया, उस समय चित्तौड़ के राणा रतनसी पर मालवपति मुहम्मद बादशाह की फौज चढ़ आई, तंब राणा रतनसी ने सगर को शूरवीर जानकर उसे अपनी सहायता को बुलाया | युद्ध - आमंत्रण सुनते ही सगर अपनी सेना को लेकर राया। रतनसी की सहायता को पहुँच गया । बादशाह, सगर के सामने न ठहर सका और प्राण बचाकर भाग निकला, तब मालवा देश को सगर ने अपने कब्जे में करलिया । कुछ समय के पश्चात् गुजरात के मालिक वाहिलीय जात अहमद, वादशाह ने राणा सगर को कहला कर भेजा कि "तू मुझको सलामी दे और हमारी नौकरी को मंजूर कर, नहीं तो मालवा देश को मैं तुम से छीन लूंगा " स्वाभिमानी सगर भला यह बात कैसे स्वीकार कर सकता था ? परिणाम यह हुआ कि सगर और बादशाह में घोर युद्ध हुआ, आखिरकार बादशाहं हारकर भाग गया और सगर ने समस्त गुजरात को अपने अधिकार में करलिया । इस तरह पराक्रमकारी सगर मालवा और गुजरात का अधिपति होगयां । कुछ समय के बाद पुनः किसी कारण से गोरी बादशाह और राणा रतनसी में परस्पर विरोध उत्पन्न होगया और बादशाह चित्तौड़ पर चढ़ आया, उस समय राणाजी ने शूरवीर सगर को बुलायां और Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ .. राजपूताने के जैनवीर . . सगर ने आकर उन दोनों का आपस में मेल करा दिया तथा वादशाह से दण्ड लेकर उसने मालवा और गुजरात देश पुनः वादशाह · को वापिस दे दिये, उस समय राणाजी ने सगर की इस बुद्धि- . मत्ता को देखकर उसे मंत्रीश्वर का पद दिया और वह (सगर) देलवाड़े में रहने लगा तथा उसने अपनी बुद्धिमत्ता से कई एक शूरवीरता के काम कर दिखाये। २. बोहित्य:· सगर के बो.हत्थ, गङ्गदास और जयसिंह नामक तीन पुत्र थे, इनमें से सगर के पाटपर उसका बोहित्य / नामक ज्येष्ठ पुत्र मंत्री-. श्वर होकर देलवाड़े में रहने लगा, यह भी अपने पिता के समान । बड़ा शूरवीर तथा बुद्धिमान था। .... 'बोहित्य की भार्या वहरंगदे थी, जिस के श्रीकरण, जैसे, जयमल्ल, नान्हा, भीमसिंह, पदमसिंह, से.मजी, और पुण्यपाल नामक . आठ पुत्र थे और पद्मावाई नामक एक पुत्री थी। .... ३. श्रीकरण:. के समघर वीरदास हरिदास और उधण नामक चार पुत्र थे।. यह (श्रीकरण) बड़ा शूरवीर था, इसने अपनी भुजाओं के बल से.. मच्छेन्द्रगढ़ को फतह किया था,एक समय का प्रसंग है कि-बाद : शाह का खजाना कहीं को जारहा था, उसको राणाश्रीकरण ने लूट. बोहित्य नै चित्तौड़ के राणा रायमलं की सहायता में उपस्थित होकर बादशाह से युद्ध किया; और उसे भगा दिया था। : Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बच्छावतों का उत्थान और पतन २४५ लिया, जब इस बात की खबर बादशाह को पहुंची, तब उसने अपनी फौज को लड़ने के लिये मच्छेन्द्रगढ़ पर भेज दिया, राणा श्रीकरण वादशाह की उस फौजसे खूब ही लड़ा परन्तु आखिरकार वह अपना शूरवीरत्त्व दिखाकर उसी युद्ध में काम आया । ४. समघर:__ राणा के काम आजाने से इधर तो बादशाह की फौज ने मच्छेन्द्रगढ़ पर अपना कब्जा कर लिया, उधर राणा श्रीकरणको काम आया हुआ सुनकर राणा की स्त्री रतनादे कुछ द्रव्य (जिवना साथ में चल सका) और समधर आदि चारों पुत्रों को लेकर पीहर (खेड़ीपुर) को चली गई और वहीं रहने लगी तथा अपने पुत्रों को अनेक प्रकार की कला और विद्या सिखलाकर निपुण कर दिया । विक्रम संवत् १३२३ के आषाढ़ वदि २ पुष्य नक्षत्र गुरुवार को खरतरगच्छाधिपति जैनाचार्य श्रीजिनेश्वरसूरिजी महाराज बिहार करते हुये वहाँ (खेड़ीपुर में) पधारे । इनके धर्मोपदेश से रानी के चारों पत्रों ने जैन शोत्रोक्त विधि से श्रावकों के बारह ब्रतों को ग्रहण किया, तथा आचार्य महाराज ने उनका महाजन वंश और बोहित्थरा (बोथरा) गोत्र स्थापित किया। जैनधर्म में दीक्षित होने के बाद उक्त चारों कुमारों ने धर्मकार्यों में द्रव्य लगाना शुरु किया। तथा उक्त चारों भाई संघ निकाल कर और प्राचार्य महाराज को साथ लेकर सिद्धिगिरी की यात्रा को गये। इस यात्रा में उन्होंने एक करोड़ द्रव्य लगायो । जव ल.टकर वापिस आये तब सबने मिलकर समधर को संघपति का पद दिया। Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजपूताने के जैन वीर २४६ ५. तेजपाल :-- समधर के तेजपाल नामक एक पुत्र था, समधर स्वयं विद्वान् था, अतः उसने अपने पुत्र तेजपाल को भी छः वर्ष की अवस्था में हो पढ़ाना शुरू कर दिया और दश वर्ष तक उससे विद्याभ्यास में उत्तम परिश्रम करवाया । तेजपाल की बुद्धि बहुत ही तेज थी, अतः वह विद्या में खूब निपुण होगया तथा पिता के सामने ही गृहस्थाश्रम का सब काम करने लगा | ...... समधर का जब स्वर्गवास हुआ, तत्र तेजपाल की अवस्था लगभग १५ वर्ष की थी। तेजपाल गुजरात के राजा से गुजरात खरीद कर उसका राजा वन गया । वि० सं० १३७७ ज्येष्ठ वदी ११ के दिन, तीन लाख रुपया लगाकर दादा साहिब जैनाचार्य श्री जिनकुशलसूरिजी महाराज का नन्दी (पार्ट) महोत्सव पाटन. नगर में किया तथा उक्त महाराज को लेकर शत्रुंजय का संघ निकाला और वहुतसा धन शुभ मार्ग में लगाया । पीछे सव. संघने मिलकर तेजपाल को माला पहिनाकर संघपति का पद दिया ! इस.. प्रकार अनेक शुभ कार्यों को करता हुआ अपने पुत्र बील्हाजी को घरका भार सौंप कर अनशन करके स्वर्गासीन हुआ । ६. बील्हाजी: : 'के कवा और धरण नामक दो पुत्र हुए, बील्हाजी ने भी अपने पिता के समान अनेक धर्म कृत्य किये । ७. कड़वा :--- वीरहाजी की मृत्यु के पश्चात् उनके पाटपर उनका बड़ा पुत्र Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बच्छावनों का उत्थान और पतन २४७ कडूवा बैठा। इसका नाम तो अलबत्ता कड़वा था,परन्तु वास्तवमें यह परिणाम में अमृत के समान मीठा निकला। एक बार यह मेवाड़ देशस्थ चित्तोड़गढ़ देखने के लिये गया। उसका आगमन सुन कर चित्तौड़ के राणाजी ने उसका बहुत सम्मान किया।थोड़े दिनके वाद मॉडवगढ़ का वादशाह किसी कारण से फैज लेकर चित्तौड़गढ़ पर चढ़ आया । इससे सभी चिन्तित हुये, तव राणा ने कड़वा से कहा:-"पहिले भी तुम्हारे परखानों ने हमारे पूर्वजों के अनेक बड़े बड़े काम सुधारे हैं, इसलिये अपने पूर्वजों का अनुकरण कर, आप भी हमारे इस काम को सुधारो।" यह सुनकर कडूवाजी ने वादशाह के पास जाकर अपनी बुद्धिमता से उसे समझा कर परस्पर में मेल करा दिया और बादशाह की सेना को वापिस लौटा दिया। इस बात से नगरवासी जन बहुत प्रसन्न हुये और राणाजी ने भी प्रसन्न होकर कडुवाजी को अपना प्रधान मंत्री बनाया । उक्त पद को पाकर कड़वाजी ने अपने सद्वर्ताव से वहाँ उत्तम यश प्राप्त किया।कुछ दिनों के बाद कडुवा राणाजी की आज्ञा लेकर अणहिलपत्तन में गये, वहाँ भी गुजरात के राजाने इनका बड़ा सम्मान किया तथा इन के गुणों से सन्तुष्ट होकर पाटन इन्हें सौप दिया, कडूवाजी ने अपने कर्तव्य को विचार कर सात क्षेत्रों में बहुत सा द्रव्य लगाया, गुजरात देश में जीव-हिंसा को बन्द करवा दिया, तथा विक्रम संवत् १४३२ के फाल्गुण बदी छट्ठ के दिन खरतरगच्छाधिपति जैनाचार्य श्रीजिनराजसूरिजी महाराज का नन्दी(पाट) महोत्सव सवालाख रुपये लगाकर किया, इसके सिवाय इन्होंने Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ राजपूताने के जैन वीर शत्रुंजय का संघ भी निकाला। इन्होंने यथा शक्ति जिनशासन का अच्छा उद्योत किया। अन्तमें अनशन आराधन कर स्वर्गासीन हुये । ८. जेसलजी: कड़वा जी की चौथी पीढ़ी में जेसलजी हुये, उनके बच्छराज, 'देवराज और हंसराज नामक तीन पुत्र हुये । " ६. बच्छराजजी : अपने भाइयोंको साथ लेकर मण्डोवर नगर में राव रिद्धमलजी के पास जा रहे और राव रिद्धमल जी ने बच्छराजजी के बुद्धि के अद्भुत चमत्कार को देखकर उन्हें अपना मंत्री नियत करलिया । जब रिद्धमल राणा कुम्भां के हाथसे मारा गया, तब बच्छराज ने जोधा को मंडौर बुलाने के लिये निमंत्रणपत्र भेजा और उसको राजा प्रसिद्ध किया । कुछ काल के बाद जोधा के लड़के बीका ने अपने लिये एक नवीन राज्य स्थापित करने की अभिलाषा से मंडौर से उत्तर की ओर प्रस्थान किया । बच्छराज भी उस पराक्रमी युवराज के साथ हो लिया। बच्छराजका यह कार्य बहुत ही ठीक था बच्छावत वंश के इतिहास में उन के शुभ संवत् का प्रारम्भ यहीं से होता है । वीका के सौभाग्य ने जोर लगाया और उसको अपने कार्य में पूर्ण सफलता प्राप्त हुई। जंगल ( Janglu) के संकलों (Snnking) की भूमि को अपने अधिकार में करके अब उसने पश्चिम की ओर गमन किया और भट्टियों (Phatting ) से भागौर + जैनसम्प्रदाय शिक्षा पृ०. ६३९-४४ ।, Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बच्छावतों का उत्थान और पतन २४९ जोत लिया। यही उस ने मंडौर छोड़ने के तीस वर्ष बाद अर्थात् सन् १४८८ ई० में अपनी राजधानी बीकानेर की नींव डाली और यहीं पर वह अपने नये जीते हये देशों का स्वतंत्र राजा वनकर रहने लगा। बच्छराज भी अपने कुटुम्बसहित इसी जगह रहने लगा और अपने स्वामी की भांति उस ने भी वच्छसार नाम का एक गाँव वसाया । बच्छराज बड़ा ही प्रेमी और धर्मात्मा पुरुप था । उस ने जैनधर्म की प्रभावनाके लिये बहुत कुछ उद्योग किया । उसने शत्रुजय की यात्रा की और अंत में पूर्ण वयस्क और सर्वमान्य होकर उसने देवलोक को गमन किया। "बच्छराज मंत्री के करमसी, वरसिंह, रत्ती, और नरसिंह नामक चार पुत्र हुये और बच्छराजके छोटे भाई देवराज के दस, तेजा और भूण नामक तीन पुत्र हुये । १०. कामसिंहः राव श्री लूणकरणजी महाराज ने बच्छावत करमसिंहजी को अपना मंत्री बनाया। करमसिंह ने अपने नाम से करमसोसर नामक ग्राम बसाया । विक्रम सं० १५७०में बीकानेर नगर में नेमिनाथ स्वामी का एक बड़ा मन्दिर बनवायाथा जो कि धर्मस्तम्भरूप अभी तक मौजूद है। इसके सिवाय इन्होंने तीर्थ यात्रा के लिये संघ निकाला तथा शत्रुजय, गिरनार और आबू आदि तीर्थों की यात्रा की। ११. वरसिंहः राव लूणकरणजी के वाद राव जैतसीजी राज्यासीन हुये, Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजपूताने के जैन-चौर २५० इन्होंने करमसिंह के छोटे भाई वरसिंह को अपना मंत्री नियत किया । वरसिंहके मेघराज, नगराज, अमरसी, भोजराज, डूंगरसी और हरराज नामक छः पुत्र हुये । इनके द्वितीय पुत्र नगराजके संग्रामसिंह नामक पुत्र हुआ और संभामसिंह के कर्मचन्द नामक पुत्र हुआ। १२. नगराज: वरसिंह के स्वर्गवास होने पर राव जैतसीजी ने अपना मंत्री नगराज नियत किया। मंत्री नगराज को चांपानेर के बादशाह मुजफकर की सेवा में किसी कारण से रहना पड़ा और उन्होंने बादशाह को अपनी चतुराई से खुश करके अपने मालिक की पूरी सेवा बजाई तथा वादशाहको आज्ञा लेकर उन्होंने श्री शत्रुजय की यात्रा की और वहाँ भण्डार की गड़बड़ को देखकर श्री शत्रुजय की कुंजी अपने हाथ में लली । सं १५८२ में जव क दुर्भिक्ष पड़ा उस समय इन्होंने सदावर्त दिया, जिस में तीनलाख पिरोजों का व्यय किया। ......कुछ काल के पश्चात् इन्होंने अपने नाम से नगासर नामक ग्राम वसाया। . १३. संग्रामसिंहः___ राव कल्याणमलजी महाराज ने मंत्री नगराज के पत्र संग्रामसिंह को अपना राज्यमंत्री नियत किया। संग्रामसिंह ने शत्रुजय आदि तीर्थों की यात्रा के लिये संघ निकाला तथा पूर्व परम्परानुसार धर्मदान किया । यात्रा करते हुये चित्तौड़गढ़में आये, वहाँ राणा उदयसिंहने इनका बहुत मान-सम्मान किया विहाँ से रवाना'. - . ... Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बच्छावतों का उत्थान और पतन २५१ होकर जगह जगह सम्मान पाते हुये सानन्द बीकानेर आये । इनके सद्व्यवहार से राव कल्याणसिंहजी बड़े प्रसन्न थे।" १४. कर्मचन्दः__टाँक साहब लिखते हैं कि:- बच्छावतवंश का अंतिम महापुरुष कर्मचन्द था । वह राव कल्यानसिंह के मंत्री संग्रामसिंह का लड़का था। जब सन् १५७३ ईस्वी में रायसिंह गद्दी पर विराजमान हुए, तब उन्होंने करमचन्द को अपना दीवान बनाया । करमचंद बड़ा ही विद्वान था । व्यवहारिक ज्ञान में वह बड़ा हस्तकुशल और राज्यनीति तथा शासन में बड़ा चतुर और दक्ष था । रायसिंह को गद्दी पर बैठे बहुत दिन नहीं हुए थे. कि इतने में जयपुर के राजा अभयसिंह ने बीकानेर पर आक्रमण कर दिया । यह समय बड़ा ही गड़बड़ का था। ऐसे भयंकर युद्ध के लिए राज्य विलकुल ही तैयार नहीं था। इस घबराहट और चिंता में राजा ने अपने मंत्री से सलाह की । मंत्री ने अपनी प्रखर बुद्धि . और विचार वैचित्र्य से यही सम्मति दी कि, शत्रु से संधि करली जाय । रायसिंह ने ऐसा ही किया करमचन्द के बुद्धिबल से राज्य की स्थिति ठीक बनी रही और बीकानेर में तब से सदैव आनन्दमंगल रहा। रायसिंह बड़ा हठी और जिद्दी था और प्रत्येक बात पर बिना विचारे शीघ्र ही विश्वास कर लेता था। उसमें सबसे बड़ा अवगुण यह था कि वह किसी बात के परिणाम की ओर ध्यान नहीं * जैन-समंदाय शिक्षा पृ०६४६-४८ । Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९ राजपूताने के जैन-धीर देता था। यदि कोई दोष भी उससे बन जाता था और कोई उस . की प्रशंसा कर देता तो वह बड़ा प्रसन्न होता था और उसको बहुत इनाम देता था। उसने अपने बाप दादों के द्रव्य को यों ही व्यर्थ खर्च कर दिया और नये नये किलों के वनाने में सारी आमदनी लगा दी। कितना ही रुपया उसने भाटोंऔर चारणों को दे डाला। . कहा जाता है कि एकवार शंकरनाम के एक भाट ने उस की प्रशंसा में कुछ कवित्त बनाये थे और रायसिंह को उसके दिल्ली से लौटने के समय पढ़कर सुनाये थे । रायसिंह उनको सुनकर इतना प्रसन्न हो गया कि उदारता के आवेश में आकर अपने मंत्री को आज्ञा दीकि, इसभाटको खिलअत और एक करोड़ रुपयोंकाइनाम दिया जाय। इस आदेश को मंत्री ने ठीक नहीं समझा । उसने राजा के साथ बड़ी देरतक इस विषय पर वहस की, परन्तु राजाने इसपर इनाम को एक करोड़से सवा करोड़ कर दिया ! कहा जाता है कि एक करोड़ रुपया तो भाट को उसी दम दे दियागया और वानी के लिये राज्य की मालगुजारी गिरवी रखदी गई। सम्भव है कि यह बात + टाँक साहब के उक्त कथन की सत्यता निम्न नोट से और भी स्पष्ट हो जाती है: ......"यदि चारणों की बात मानें और बीकानेर के इतिहास को सत्य जाने तो, यह राजपूताने के कर्ण ही थे। इनका पहला विवाह महाराणा उदयसिंहजी की राजकुमारी जसमादे से हुआ था। जिसमें इन्होंने दस लाख रुपये त्याग के वाँटे थे। अब चित्तौड़ के ज़नाने महल में जाने लगे तो राणाजी की दासियों ने एक जीना दिखाकर कहा कि, जो कोई इसकी एक एक पैड़ी पर एक-एक हाथी दे,वह. से होकर ऊपर जा सकता है, नहीं तो दूसरा रास्ता और भी है। महारान उसी. से ऊपर गये और गिनी तो ५० पैड़ियां थीं। दूसरे दिन दरवार करके ५० Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बच्छावतों का उत्थान और पतन २५३ . अक्षरशः सच न हो; परन्तु इससे उस समय के राज्य-दरवार की हायी और ५०० घोड़े सिरोपाव समेत चारणों को दिये ।...महाराजनैजोधपुर में एक वर्ष तक रह कर बहुत से गाँव, हायी-घोड़े और लाख पसाव (चारण भाटों को जो दान दिया जाता है उसका नाम उन्होंने पसाव रक्खा है। बड़े दान को जिस में गाँव भी हों अत्युक्ति से लाख पसाव और करोड़ पसाव कहते हैं ) भाटों और चारणों को दियं । और तो क्या नागोर का परगना ही शंकरजी बारहट को दे दिया था। जिसका हाल आगे आवेगा । संवत् १६४५ में महाराज ने सवातीन करोड़ पसाव तीन चारणां को दिये। संवत् १६४९ में महाराज बुरहानपुर से जहाँ वादशाही काम को गये थे, आकर जैसलमेर को पधार । वहां फाल्ग्ण बदी १ को रावल हरराज की बेटी गंगाबाई से शादी की । महाराज ने २०० घोड़े ५२ हाथी और दो लाख रुपये चारणों को दिये । संवत् १६५१ में फिर एक करोड़ पसाव शंकरजी बारहट को दिये । इसका हाल ख्यात में (इतिहास और यश सम्बन्धी अन्य) इस तरह पर लिखा है कि “शंकर ने महाराज की ख्यात बनाई थी। वह बहुत अच्छी तो नहीं थी परन्तु महाराज कीवलशिश तो बड़ी थी। जिससे महाराज नै माघ वदी ५ को शंकरजी के मुजरा करते ही एक करोड़ देने का हुक्म दिया। दीवान ने खजाने से १०००० थैलियां निकलवाई और अर्ज की कि, रुपये नजर से गुजार कर दिलाने चाहिये। महाराज ने समझ लिया कि यह जानता है कि करोड़ रुपये देखकर महाराज की नीयत बदल जायेगी। जव दरबार हुआ और महाराज झरोड़ में बैठे तो उन्होंने फरमाया कि । "करमचन्द करोड़ रुपये यही हैं या कुछ और बाकी है १" उसने अर्ज की कि पूरे हैं । महाराज ने फरमाया कि भई यह तो थोड़े है, मैं तो जानता था कि बहुत होते होंगे। शंकर से कहा कि सवा करोड़ का मुजरा करो, एक करोड़ तो यह ले जाओ और २५. लाख में नागौर तुम को दिया गया। कहते हैं शंकरजी ने नागौर की पैदावार कई वर्ष तक खाई श्री ! (राजरसनामृत पहला भांग पृ० ३६-३८) -गोयलीय Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ राजपूताने के जैन-चीर . ... दशा का पूरा पूरा पता लग जाता है । करमचन्द किस हालत में . रहा, यह बात इससे खूब मालूम होजाती है। जिस कारण से राजा और मंत्री में भगड़ा हुआ और अन्त में मंत्री को हानि पहुँचौ, वह भी इस से प्रकट होती है । रायसिंह दिन दिन अपव्ययी होता गया, खजाना बिलकुल खाली होगया और मालगुजारी का : सिलसिला विगड़ गया । भविष्य भयंकर मालम होने लगा। अन्त । में करमचन्द ने वीका के राजघराने से भक्ति और प्रेम के कारण, अपव्ययी राजा को सचेत करने का एक बार फिर उद्योग किया . परंतु उसका परिणाम बड़ा भीषण हुआ। ऐसा कहा जाता है कि सन् १५९५ ईस्वी में रायसिंह को मालूम हुआ कि करमचन्द ने दलपतसिंह व रामसिंह को मेरी जगह गही पर बैठाने के लिये षड्यंत्र रचा है और इससे करमचन्द अपने को राज्य में सबसे शक्तिशाली बनाना चाहता है। टाँक साहव लिखते हैं कि हम इन वाताको माननेके लिये जिनकी न कोई साक्षी है न कोई सन्भावना है, तैयार नहीं हैं। हमको करमचन्द में ऐसी कोई वातमालूम नहीं होती कि जिससे वह अपने स्वामी के विरुद्ध षड्यंत्र रचता । वे . लोगभी जो उसको दोषी बतलाते हैं उस व्यक्ति का नाम बताने में सहमत नहीं हैं, जिस के लिये षडयंत्र रचागया था, आया वह दलपतसिंह था या रामसिंह था, इसमें सबकी एक राय नहीं है - इसके अतिरिक्त इस बात से कि अकबर ने जो रायसिंह का मित्र था और जिसका लड़का रायसिंहके यहाँ व्याहा था, कर्मचन्द का. जब वह दिल्ली भागकर गया, बड़ा स्वागत किया। इससे पूर्णतया : Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बच्छावतों का उत्थान और पतत २५५ सिद्ध होता है कि कर्मचन्द का पड्यंत्र से कोई सम्बन्ध न था और वह विलकुल निर्दोपी था । हम सब इस घातको जानते हैं कि कमचन्द के साथ रागसिंहका कितना गहरा रैर था । अतः उसने करमचन्द को दिल्ल.दरवार में नीचा और अपमानित करने के लिये भरसक उद्योग किया और शायद उसने प्रकार से कहा भी हो कि, करमचन्द को हमें सौंप दो, अथवा उसको अपने यहाँ से निकाल दो, परंतु न्याय अर नीति पर चलने वाले अकवर जैसे न्यक्ति ने एक क्षण के लिये भी करमचन्द की निर्दोपता पर शंका नहीं की। अकबर ने उस का बड़ा आदर-सत्कार किया। यहाँ पर यह शंका की जा सकती है कि जब करमचन्द निर्दोषी था, तब वह वीकानेर से क्यों भाग गया? जिन पुरुषों ने राजस्थान का इतिहास भलीभांति अध्ययन किया है और जिनकेमानसिकनेत्रों के सामने इंद्रराज सिंघवी, अमरचन्द सुराणा जैसे व्यक्तियों की प्राकृतियाँ घूम रही हैं वे इस बात में हमारे साथ सहमत हो सकते हैं कि उस अवसर पर उस का भागना ही ठीक था । दुर्भाग्य से उन दिनों में ऐसे हतभाग्य मनुन्यों के लिये कि जिन पर राज्य के विरुद्ध पड़यंत्र रचने का टोप लगाया गयाहो, कोई न्यायालय भीनहींथा। गरज यह कि करमचन्द पड्यत्र के देप से विलकुल मुक्त था उसने सत्य और न्याय के कार्यों के लिये अपने प्राण न्योछावार कर दिये । वह किसी पड्यंत्र का रचयिता नहीं था, पर वह स्वयं पड्यंत्र का शिकार होगया । उसकी बुद्धिमानी और कर्तव्य तस'रताही,जिनसे उसने राज्यकोसम्हालरक्खाथा, उसके नाराकाका Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ राजपूताने के जैन-वीर रण हुई। उसने राजा को सन्मार्ग पर लाने के लिये दृढ़ संकल्प कर लिया था और उस के लिए उसने अटल विश्वास और श्रविश्रांत श्रम और उत्साह से, जो सदा उन लोगों के पथप्रदर्शक होते हैं जो सत्य और न्याय मार्ग पर चलते हैं-उद्योग किया। उस के ऐसा करने से उन लोगों कों बहुत ही बुरा मालूम हुआ, जो राजा को अपव्यय और दुराचार में फँसा हुआ देखना चाहते थे। धीरे धीरे दरवार में उन लोगों का जोर बढ़ता गया और उन्होंने करमचन्द की तरफ़ से राजा के कान भरने शुरू किये और उस पर यह दोप लगाया कि उस ने राजा के लिये षड्यंत्र रचा है । अंधविश्वासी राजा ने जिसके अंधविश्वास के विषय में स्वयं मुग़ल सम्राट जहांगीर ने लिखा है, उन सब मन घड़ंत बातों पर विश्वास करलिया, जो करमचन्द के शत्रुओं ने उस से कहीं थीं । उसने तत्काल करमचन्द को पकड़ने और उसे मार डालने का संकल्प कर लिया । करमचन्द के मित्रों ने, जो कुछ उसके विषय में दरबार में कहा गया था, वह सब उसको सुना दिया । ज्यों ही उसने राजा के हुक्म को सुना, त्योंही वह बीकानेर से दिल्ली भाग गया और वहाँ अकबर की शरण में जा पहुँचा । दिल्ली नरेश ने उस अशरण अभ्यागत के ऊपर बड़ी ही कृपा की और उस को दरबार में एक उत्तम पद दिया । अकवर की दृष्टि में करमचन्द का महत्व दिन दिन वढ़ता गया और शीघ्र ही सम्राट् पर उसका बड़ा प्रभाव पड़ गया। जब रायसिंह को यह बात मालूम हुई कि करमचन्द्र दिल्ली Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चच्छावतों का उत्थान और पतन भाग गया है, तो उसने क्रोध में आकर प्रतिज्ञा और शपथ की कि, मैं उस.से बदला लूंगा, परन्तु आगे चल कर यह बात मालूम होगी कि उसके विछोह से उसे कितना दुःख हुा । जव करमचंद दिल्ली में था। उस समय भटनेर में एक अद्भुत घटना होगई, जिस से उस को रायसिंह से बदला लेने के लिए अच्छा मौका हाथ लग गया; परन्तु हम इस को निश्चय रूप से नहीं कह सकते कि, आया उसने इस अवसर से लाभ उठाया या नहीं । सन् १५९७ ईस्वी में जब रायसिंह भटनेर में ठहरा हुआ था, तववहाँ पर सम्राद् का श्वशुर नासीरखाँ आगया । राजा ने तेजा वागौर को मेहमान की आवभगत और खातिरदारी करने के लिए नियुक्त किया। तेजा ने नासोरखाँ का स्वागत बिलकुल नवीन रीति से किया। जव खाँसाहब धीरे धीरे चहलकदमी कर रहे थे, उस समय तेजा ने अपने को पागल बना लिया और खाँसाहब पर जूतों से प्रहार करना शुरू कर दिया। खाँसाहव उसी समय दिल्ली को लौट गया और वहाँ जाकर उसने इस दुष्टता की सम्राट् से शिकायत की। सम्राट्ने राजा से वासी को माँगा परन्तु राजाने उसके हुक्मकी कुछ भी परवाह नहीं की। इससे सम्राट् को बड़ा क्रोध आया और उसने रायसिंह से भटनेर का राज्य छीनकर उसके लड़के दलपतसिंह को वहाँ का राजा बना दिया । हम निश्चय रूप से नहीं कह सकते कि आया करमचन्द ने दरवार में खाँसाहब का पक्ष लिया था या नहीं; परन्तु रायसिंह को इस बात का पूर्ण विश्वास हो गयाथा, कि यह करमचन्द की ही कार्यवाही है । पहिले ही राजा और मंत्री के बीच में Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८.. राजपूताने के जैन-चीर .. घोर वैर था, परन्तु इस बात से तो राजा और भी चिढ़ गया। . करमचंद ने अपने धर्म और जाति की जो सेवा की है उसको शब्दों में कदापि प्रकट नहीं किया जा सकता। अब तक वह संघ का उपकारी समझा जाता है । सन् १५५५ ईस्वी में चौकानेर में उसने खरतरगच्छ के आचार्य जिनचंद्रसूरि के शुभागमन के समय बड़े समारोह के साथ उत्सव किया था। जो कवि आचार्य महाराज के आगमन के शुभ समाचार करमचंद के पास लाया था. उसको करमचंद ने बहुत बड़ा इनाम दिया था। ..:: १५७८ .:.]2. वि० सं० १६३५ के अकाल में उसने अन्न वट... वाने के मुफ्त केन्द्र स्थापित करके मूखो प्रजा का दुःख दूर करने का प्रयत्न किया। .. करमचंद बड़ा दानी.या, परन्तु वईभादों के साथ जो उसने . विरोध किया था, उससे हम इतना अवश्य कहेंगे कि वह आलसी लोगों को दान नहीं देता था। जब वह दिल्ली में था: तो उसने अकवर के सरल निष्पक्ष स्वभाव को देखकर उसके हृदय में जैन धर्म और जैनशाखों से रुचि उत्पन्न करा दी थी। उसी की सलाह से अकवर ने उस समय के प्रसिद्ध विद्वान्. हीरविजयसूरि और.. जिनचन्द्रसूरि जैनाचार्यों को अपने दरबार में बुलाया था और . उनको अपने साथ रक्खा था । सन् १५६२ ईस्वी में करमचन्द ने जिनसेनसरिको गद्दी पर बैठालने का जल्सा बड़े समारोह के साथ लाहौर में लिया । उसने मुसलमानों से जैनियों की बहुतसी मूर्तियाँ : ली जो उनके हाथ लग गई थी और उन सबको बीकानेर के मंदिर Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R ० . 1 . ... .. . ... ... • .. ... .. . MatsAGar .. RAJE P3 RAKC am . aru .. wams अकवर वादशाह श्वे. जैनसाधु हीरविजय का स्वागत कर रहे हैं। Page #274 -------------------------------------------------------------------------- Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बच्छावतों का उत्थान और पतन २५९ में विराजमान किया । करमचंद ने बादशाह से जैनियों के लिये अनेक प्रकार के स्वत्व और दस्तूर प्राप्त कर लिए थे। उसने श्रोसवाल जाति में भी बहुत से उपयोगी और आवश्यक सुधार किये थे । अकवर सन् १६०५ ईस्वी में मर गया और करमचंद भी उसकी मृत्यु के बाद बहुत दिनों तक जीवित नहीं रहा। जब रायसिंह नवीन सम्राट् (जहाँगीर) को आदाब बजा लाने के लिए देहली गया था उस समय करमचन्द घर में पढ़ा हुआ मृत्यु के सन्निकट था । रायसिंह करमचन्द को देखने के लिए गया । उसे मरते देख कर उसने उसके लिए बाहरसे बड़ी सहानुभूति दिखलाई । करमचन्द के लड़के भागचन्द और लक्ष्मीचन्द उसकी सहानुभूति दर्शक चिकनी. चुपड़ी बातों में गये और उन्होंने अपने पिता करमचन्द से कहा . कि देखा पिता जी, महाराजा कैसे हितैपी और दयालु हैं । मृत्यु - शय्या पर पड़े हुए बाप ने क्रोध की दृष्टि से अपने लड़कों की ओर देखा और अस्पष्ट शब्दों में उनसे कहा कि - "लड़को, तुम अभी छोटे हो, तुमको अभी कुछ भी अनुभव नहीं है । खबरदार, खूब होशयार रहना । ऐसा न हो कि इसके भूठे आँसुओं को देखें धोखा खाजा और बीकानेर जाने पर राजी हो जाओ । इस समय मैं गौरव के साथ मर रहा हूँ, यह देखकर ही राजा को दुःख हो रहा है।" इन शिक्षाप्रद और चेतावनी के शब्दों को कह कर करमचंद की अजर-अमर आत्मा ने स्वर्गलोक को प्रस्थान किया। राजा ने करमचंद के घराने के लिए बहुत ही शोक और सहानुभूति प्रगट की और उसके लड़कों को बीकानेर लेजाने के लिए Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजपूताने के जैन चीर २६० हर प्रकार की कोशिशें की; परन्तु वे सब बेकार हो गई। १५. भागचन्द १६. लक्ष्मीचन्द___ रायसिंह को अपने कुटिल और मायापूर्ण इरादे के पूरा न होने से बड़ा दुःख हुथा और वह किसी न किसी दिन बदला लेने के लिए इच्छा करता रहा । सन् १६११ ईस्वी में वह बहुत विमार होगया और उसके रोग ने भयंकर रूप धारण कर लिया । जब उसने अंत समय निकट समझा, तब अपने पुत्र सूरसिंह को अपने पलंग के पास बुलाकर कहा "बेटा. मैं हताश होकर मरता हूँ। मेरी अंतिम शिक्षा तुम्हारे लिए यही है कि, तुम करमचंद बच्छावत के लड़कों को बीकानेर वापिस लाकर उनको उनके बाप के अपराध का दण्ड देना।" इन शब्दों को कहते ही रायसिंह का परलोक होगया। रायसिंह के मरने के बाद दलपतसिंह राज्य का अधिकारी हुआ, परन्तु वह केवल दो वर्ष तक राज्य कर पाया। सन् १६१३ में सूरसिंह राज्यसिंहासन पर बैठा । उसको अपने बापके मरते समय के शव्द याद थे और वह अपने कुटिल इरादे को पूरा करने के लिए उचित समय देख रहा था। राज्यसिंहासन पर बैठते ही वह दिल्ली गया। उसके दिल्ली जाने के दो अभिप्राय । थे, एक तो मुगल सम्राटको प्रणाम करने के लिए, दूसरे बच्छावत कुलको बीकानेर लाने के लिए। उसका मतलब अच्छी तरह हल हो गया। वह वहाँ भगवानचंद और लक्ष्मीचंद से मिला और उनको उसने अनेक आशायें और विश्वास दिलाने के बाद अपने साथ बीकानेर चलने के लिए राजी कर लिया। Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बच्छावतों का उत्थान और पतन २६१ अपनी आत्मरक्षा के लिए सूरसिंह के भूठे वाक्यों से और अपने पुराने अधिकारों को पुनः प्राप्त कर लेने की कूटी आशा से धोखा खाकर, बच्छावत भाइयों ने कुटुम्ब सहित अपनी जननी जन्मभूमि को प्रस्थान किया । उनको यह बात जानकर बढ़ा आनन्द हुआ कि उनके देश- परित्याग के दिन अब समाप्त होगये हैं। अब वे शीघ्र अपने देश और देशबन्धुओं को देखेंगे । उनके हृदय में सुरसिंह के प्रति जो इस समय उनका झूठा और कल्पित उपकारी बन रहा था. बड़े बड़े विचार उत्पन्न हो रहे थे । बेचारे अभागे नवयुवकों को स्वप्न में भी इस बात का विचार न आया कि जितने वायदे किये गये हैं वे सब झूठे हैं और उनको यमलोक पहुँचाने वाले हैं। सूरसिंह ने अपने षड्यंत्र के गुप्त रखने में बड़ी सावधानी रक्खी। उसने अपने वर्तमान दीवान को निकाल दिया और जनसाधारण में इस बात की घोषणा करदी कि, अब इस पद पर उन्हींको नियुक्त करूँगा, जिनका इस पर हक़ है और जो इसके अधिकारी हैं। कुछ समय के बाद वे वीकानेर पहुँचे और प्रत्यक्ष में राजा ने उनके साथ बड़ी भलमनसीका व्यवहार किया; पर यथार्थ में उनका भरण अवश्यम्भावी हो गया था । उनको वहाँ आये हुए पूरे दो मास भी नहीं हुए थे कि एकाएक उनको एक दिन प्रातः काल यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि उनका मकान सूरसिंह के तीन हजार सिपाहियों ने घेर लिया है। अब इस समय उनको अपनी दशा का पूरा पूरा पता लग गया। अतः उन्होंने शत्रु के वश में पड़ना नीच कर्म समझ कर वीरता के साथ मरना ही उत्तम Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ राजपताने के जैन चीर सममा । उनके राजपूत नौकरों का. छोटा सा समूह-जिसकी संख्या केवल पाँचसौ थी-अपने मालिकों के लिए चारों तरफ खड़ा होगया और अपनी कमर कसकर उनकी रक्षा करने को तैयार हो गया। प्रत्येक राजत लड़ाई की चोटों को सहने के .. लिए तैयार था और मरने के लिए साहस और धैर्य रखता था । बच्छावत और उनके साथी वीरोंकी भांति खड़े रहे; परन्तु यथार्थ में पूछा जाय तो कहना पड़ेगा कि यह न्याय की लड़ाई नहीं थी। यह केवल अन्याय था और आक्रमण करने वालों का बड़ा ही नीच और घृणित कर्म था । जब बचाव की सब आशायें निराशा में परिणत हो गई तव दोनों भाइयों ने जो अपनी जैनजाति के सच्चे वीर थे, अपने वंश का नाम कायम रखने के लिए प्रण ठान लिया । उन्होंने हताश हो कर अपनी भयंकर परन्तु . प्राचीन प्रथा जौहर की शरण ली।प्राणनाशक चिता तैयार कीगई और उसमें तमाम स्त्रियाँ जल कर भस्म हो गई । त्रियों, बच्चों चूड़ों, बीमारों सभी ने अपने प्राण दे दिये। कितने ही तलवार से कट कर मर गये और कितने ही अग्नि की ज्वाला में कूद पड़े। . ज्यों ही धुर्वे के गुव्वारे घेरा बनाते हुए ऊपर को उठे, त्यों ही रक्क. . की नदियाँ वह निकलीं। एक भी मरने से नहीं हिचकता था। समस्त बहुमूल्य पदार्थ नष्ट कर दिये गये और कुए में फेंक दिये .. गये। इसके पश्चात् वच्छावत भाइयों ने अर्हत्परमेष्टी को नमस्कार किया और अन्त समय केशरिया वाना पहिन कर एक दूसरे को छाती से लगाया ! तदनंतर उन्होंने हवेली के द्वार खोल दिये और . Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 २६३ बच्छावतों का उत्थान और पतन तलवार हाथ में लेकर बाहर निकल पड़े । वे बड़ी वीरता से लड़े. और मर गये । उनके मरने के बाद उनके घर गिराकर धराशायी कर दिये गये । राजा ने बच्छावत कुल का सरूल नाश करने की बड़ी कोशिश की; परन्तु प्रकृति ने इसके प्रतिकूल हो किया । बच्छावत वंश की एक महिला इस क़ले आम में से बड़ी चालाकी से भाग निकली और अपने बाप के यहाँ किशनगढ़ : जा पहुँची । वहाँ पर उसके एक पुत्र उत्पन्न हुआ और इस प्रकार वीर बच्छावत वंश की रक्षा हुई । सूरा सो पहिचानिये लड़े श्रान के हे! | पुरज़ा पुरज़ा कट मरे तोऊ न छोड़े खेत ॥ -अज्ञात [१ जनवरी ३३] ऊपर जिन बीकानेर नरेश रायसिंह का जिक्र आया है उनके एक भाई अकबर बादशाह के यहाँ रहते थे । उनकी एक घटना को लेकर सन् २८ में एक छोटीसी कहानी लिखी थी, जो "वीरसन्देश” (आगरा) और "जैन प्रकाश" (बम्बई) में प्रकाशित थी । यद्यपि वह कहानी प्रस्तुत पुस्तक के विषय से कोई सम्बन्ध नहीं रखती है फिर भी प्रसंगवरा यहाँ दी जा रही है। यह महिला उदयपुरके भामाशाह की पुत्री थी, और उस लड़ाई के अवसर पर वह पहले से ही उदयपुर गई हुई थी, और गर्भवती होने के कारण इसने वहीं पुत्र प्रसव किया, इससे आगे का उल्लेख "भामाशाह की पुत्री का घराना अथवा बच्छावत का अंतिम वंश" शीर्षक से मवाड़ के खण्ड में देखिये - गोयलीय । + जैन- हितेषी भाग १२ १ ३ से । Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजपूताने के जैन-चीर वीर-नारी गवती ने क्रोध के वेग को रोक कर कहा- "कवीजी! उ कविता फिर भी रची जायगी, इस समय अपनी बहन की इज्जत बचाओ" यह कवि बीकानेर महाराज रायसिंह के भाई थे । जव बीकानेर नरेश ने अपनी लड़की अकवर को दी, तो इन्होंने उनका तीन प्रतिवाद किया और वे लड़ने के लिए तैयार हो गये। इस पर वे आगरे में नजर कैद कर लिये गये । इन्हें कविता करने का व्यसन था । अकबर बादशाह इनकी कविता चाव से सुनता था । हर समय इन्हें यही एक धुन रहती थी। इनका नाम पृथ्वीराज था। अन्यमनस्क भावसे बोले "क्यों क्या हुआ? प्राणप्रिये! इस समय मुझे क्षमा करो, मुझे एक समस्या पूर्ति करनी है, इसलिये..." यवती-(बात काटकर) तो साफ क्यों नहीं कहते, कि इस समय चली जा, नहीं तो कविता अच्छी न बन सकेगी। ।। पृथ्वी-अच्छा यही समझ लो। . . . युवती-मैं खूब समझ चुकी हूँ। यदि यही अकर्मण्यता न होती,तो आपकोइसप्रकार दासत्त्व वृत्तिस्वीकार नहीं करनीपड़ती। देश के ऊपर आपत्ति की घनघोर घटा छाई हुई है, सगी बहन का सतीत्त्व नष्ट हो रहा है और आप कविता करने बैठे हैं। धिकार है आपकी कविता को,फटकार है आपकी बुद्धिको, लानत है आपकी Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूम को ! वीर-नारी.. २६५ पृथ्वी - तो क्या कविता करना छोड़ दूं ? युवती - अवश्य ! पृथ्वी - ध्यान रहे संसार में सब वस्तु मिट सकती हैं, परन्तु कृति नहीं मिटती ! युवती — मैं सौगन्द पूर्वक कहती हूँ कि संसार में सब कुछ मिट सकता है, परन्तु कुल में लगा हुआ कलंक कभी नहीं मिटता । पृथ्वी—कविता से सैनिकों के हृदय में बीर-भाव उत्पन्न होते । चन्दबरदाई का नाम उसकी कविता के कारण अमर हो गया है । युवती - हाँ, यदि कविता में हृदय के भाव हों, और स्वयं कवि भी अपने कथनानुसार कर्मवीर हो तब न ? जब लोगों को यह मालूम होगा कि यह कृति उस अकर्मण्य की है, जो परतंत्रता के बन्धन में जकड़ा हुआ था, जो अपनी बहन का सर्वनाश आँखों से देखता रहा, तब वह आपकी कृति का उपहास करेंगे। चन्द वरदाई का नाम कविता के कारण नहीं, उसकी वीरता के कारण अमर है । पृथ्वी - साहित्य और संगीत से रहित मनुष्य पशु है । युवती - लेकिन यदि किसी घर में आग लगी हो, तो उसके निवासियों को गाते बजाते देखकर तुम क्या कहोगे ? पृथ्वी - मूर्ख कहूँगा और क्या ? युवती - क्यों ? गाना तो कोई बुरी चीज नहीं । पृथ्वी - बुरी चीज नहीं, किन्तु उस समय उसकी आवश्यकता · Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ राजपूताने के जैन-वीर नहीं । समय पर ही सत्र कार्य अच्छे लगते हैं । युवती - बस आपके कथनानुसार फैसला हो गया । कविता करना बुरा नहीं, किन्तु इस समय उसकी आवश्यकता नहीं । पृथ्वी - इसका तात्पर्य ?. युवती - यही कि आप क्षत्री हैं । भारतमाता को इस समय वीर-पुत्रों की आवश्यकता है । आप ही सोचलें यदि आज वीर राजपूत समस्या-पूर्ति में लगे रहें, तो फिर देश की समस्या को कौन हल करेगा ? पृथ्वी - तो तुम क्या चाहती हो ? युवती - यही कि देश सेवा के व्रत में केशरिया बाना पहन कर शत्रुओं का संहार करो। आज इनके अत्याचारों से भारतमाता रुदन कर रही है, स्त्री बच्चों की गर्दनों पर निर्दयता पूर्वक छुरी 'चलाई जा रही है, वीर ललनाओं का बलपूर्वक शील नष्ट किया जा रहा है। अतएव इस समय कविता करना योग्य नहीं । प्रताप का साथ दो, प्राणनाथ ! प्रताप जैसे बनो! कहते कहते युवती का गला रुँघ गया वह अब अपने को . अधिक न सम्हाल सकी । लज्जा, घृणा, मानसिक सन्ताप आदि ने उसे बोलने में असमर्थ कर दिया । वह अपने पति के पाँवों में पड़ कर फूट २ कर रोने लगी। युवती के रुदन में कुछ बेबसी का ऐसा अंश था, कि पृथ्वीराज का कठोर हृदय भी पिघल गया · और उत्सुकता से उसके दुःख का कारण पूछने लगे । Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' वीरनारी २६७ जिस समय यवन बादशाह अकबर के हाथ में भारतवर्ष के शासनकी वागडोर थी, उस समय वीर-चूड़ामणि प्रताप को छोड़कर समी राजे अपनी स्वाधीनता खोकर, पूर्वजों की मान-मर्यादा को तिलांजली देकर दासत्व-वृति स्वीकार कर चुके थे। जोधपुर का राजा उदयसिंह अपनी बहन जोधावाई और आमेर का राजा मानसिंह अपनी बहन का सम्बन्ध बादशाह से करके राजपूत जैसे उज्वल कुल में कलंक लगा चुके थे। महाराणा प्रताप के छोटे भाई शक्तसिंह भी घरेलू झगड़ों के कारण अकवर से श्रा मिले थे। इन्हीं शिशोदिया-वीर शक्तसिंह की कन्या बीकानेर के राजकुमार पृथ्वीसिंह को व्याही थी । शक्तसिंह यद्यपि इस समय "घर का भेदी लंका दावे" इस कहावत के निशाने बन रहे थे, किन्तु उनकी कन्या के हृदय में मातृभूमि के प्रेम का अंकुर फूट निकला था। वह क्षत्राणी थी, उसे अपने कुल की मानमर्यादा का पूरा ध्यान था। उसके कुल की असंख्य वीरांगना जीते जी आग में कूद कर मरी हैं, रण-क्षेत्र में शत्रुओं का रक्त वहा कर राजपूती शान दिखा गई हैं, इत्यादि बातों का उसे पूरा ज्ञान था । वह भी अपने पति के साथ आगरे में रहती थी । अकबर अपनी काम वासनायें वास करने के लिये अनेक राक्षसी यत्न करता रहता था। अपनी विलासिता के लिये वह आगरे के किले में महिने में एकधार मीना बाजार लगवाता था। उसमें केवल नियों के जाने की बाशा थी। राजपूत और मुसलमान न्योपारियों की खियाँ अनेक देशोंके. शिल्पजात पदार्थ लाकर उस मेले में कारबार किया करती थीं। Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८. राजपूताने के जैन वीर और राज परिवारों की स्त्रियाँ वहाँ जाकर मनमानी सामग्री मोल लिया करती थीं । पाखण्डी अकवर भी भेष बदले हुये वहाँ जाता था और किसी न किसी सुन्दर युवती को अपने षड्यंत्र में फांस लिया करता था । एक समय पृथ्वीराज की पत्नी किरन भी उक्त मीना बाजार की सैर करने गई । अकबर ने इसे धोखे से भुलावा देकर महलों में बुला लिया । किरन अकवर के पैशाचिक भाव को ताड़ गई, लपक कर उखेड़ में बैठ वादशाह को दे मारा और कमर से एक छुरा निकाल बादशाह की छाती पर बैठ सिंहनी की तरह गरज कर बोली "ईश्वर के नाम से शपथ करके कह, कि और किसी अबला के शील नष्ट करने की इच्छा नहीं करूँगा । कह शपथ कर, नहीं तो यह तीक्ष्ण छुरी अभी तेरे हृदय के रुधिर से स्नान करेगी ।" कायर अकवर प्राणों की भिक्षा मांगने लगा, उसने तत्काल वीर बाला की आज्ञा का पालन किया । वीर नारी किरन ने भी अकबर को जीवन दान दिया । इसी घटना से घायल सिंहनी की तरह जब किरन अपने मकान पर आई, तब वहां पृथ्वीराज को कविता करते देख, वीर बाला का क्रोधरूपी समुद्र उमड़ आया और उसी आवेश में अपने पति को उसके क्षत्रियोचित कर्त्तव्य का ज्ञान कराने के लिये झूठ मूठ अपनी ननद का नाम ले दिया ! शिशोदिया राज-कन्याओं ने हमेशा धर्म के लिये जान दी है। उन्होंने कभी अपने उज्वल कुल में कलङ्क नहीं लगने दिया, यही कारण है कि उस समय जिसको शिशोदिया राजकुमारी ब्याही जाती थी, वह मारे गर्व के फूल कठता :: Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर-नारी २६९ था, लोग उसके भाग्य की सराहना करते थे। चित्तौड़-राजकुमारी पटरानी रहेगी, उसी की सन्तान राज्य की उत्तराधिकारिणी होगी, इन शतों पर वे च्याही जाती थीं। इसी वीरबाला किरन नेमहाराणा प्रताप का सन्धिपत्र जो अकबर के पास आया था, उसके उत्तर में अपने पति पृथ्वीराज से एक वीरोचित शब्दों में पत्र लिखवाया था, जिसे पढ़कर महाराणा प्रताप फिर अपने खोए हुये धैर्य को प्राप्त कर सके।हे भगवान!क्या अब भी हिन्दूललनायें उक्त वीर वाला के समान अपनी शील-रक्षा करने को उद्यत रहेंगी। (मई सन् २०) CMS + अकबर के पास राणा प्रताप के सन्धि-पत्र भेजने की घटना को मान्य ओझानी ने कल्पित लिखा है। जिस समय पृथ्वीराज की रानी ने अकबर को ऐसी शिक्षा दी, उन्हीं के भाई उक बीकानेर के राजा रायसिंह की स्त्री अकबरके दिये हुये लालच में फंस गई और उसने अपना अमूल्य सतीत्व अकबर के हाथ बेच डाला । पृथ्वीराज ने अपने भाई से इस घटना का वृत्तान्त बड़े मर्मभेदी शब्दों में कहा था। Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजपूताने के जैन-वीर दीवान अमरचन्द सुराना । ": 1 अमरचन्द बीकानेर के प्रतिष्ठित ओसवाल जाति के एक . जैन थे । महाराज सूरतसिंह के समय में जिनका राज्यकाल सन् १७८७ से १८२८ तक रहा है, इन्होंने बहुत प्रसिद्धि पाई । सन् १८०५ ईस्वी में अमरचन्दजी भाटियों के खान जान्ताखाँ से युद्ध करने के लिए भेजे गये । इन्होंने खान पर आक्रमण किया. और उसकी राजधानी भटनेर को घेर लिया। पाँच मास तक क़िले की रक्षा करने के बाद जाब्ताखाँ ने क़िले को छोड़ दिया और उसको अपने साथियों के साथ रैना जाने की आज्ञा मिल गई । इस वीरता के कार्य के उपलक्ष्य में राजा ने अमरचन्दजी को दीवान पद पर नियत कर दिया ।. २७० सन् १८१५ ईस्वी में अमरचन्दजी सेनापति बनाकर चूरू के ठाकुर शिवसिंह के साथ युद्ध करने को भेज दिये गये । अमरचन्द ने शहर को घेर लिया और शत्रु का श्राना जाना रोक दिया । जब ठाकुर साहब अधिक काल तक न ठहर सके, तो उन्होंने अपमान की अपेक्षा मृत्यु को उचित समझा और आत्मघात कर लिया । अमरचन्दजी की वीरता से प्रसन्न होकर महाराजा साहब ने उसको राव की पदवी, एक खिलअत तथा सवारी के लिए एक हाथी प्रदान किया ।. - *जैन- हितैषी भाग ११ वाँ अंक १०-११ से. · immin Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैसलमेर Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य का विस्तार अब भी है हमारा कम नहीं,' प्राचीन किन्तु नवीनता में अन्य उसके सम नहीं इस क्षेत्र से ही विश्व के साहित्य-उपवन हैं वने, इसको उजाड़ा काल ने श्राघात कर यद्यपि घने ॥ - मैथिलीशरण गुत Page #289 -------------------------------------------------------------------------- Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . SO. TETSAM -Ani Tea PAK. AKAM MAHAR HEA BAmemo angeTAT 4.:.": " CS : - . - .- जैसलमेर-श्रीशान्तीनाथ-मन्दिर के शिखर का दृश्य Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैसलमेरे- परिचय 7 जपताने के पश्चिमी भाग में जोधपुर से १४० मील से अधिक दूरी पर जैसलमेर क़स्बा है । जैसलमेर की राज्य की चौहद्दी इस प्रकार है:- उत्तर में बहावलपुर, उत्तर-पूर्व में बीकानेर, पश्चिम में सिन्ध, दक्षिण व पूर्व जोधपुर । जैसलमेर का राजकुल "यदुवंशी" राजपूत है । रावल जैसवाल ने जैसलमेर सन् ११५६ में बसाया था । यहाँ पर वर्षा बहुत कम होती है। पृथ्वी रेतीली और उजाड़ है । लोग वर्षात् के रक्खे हुये पानी से गुजारा करते हैं। जैसलमेर की आबो-हवा सूखी है। जैसलमेर नगर वार्मेर स्टेशन से ९० मील है। पहाड़ी पर बने हुये क़िले के अन्दर ८ जैन-मन्दिर हैं, जो अत्यन्त सुन्दर हैं । इसमें खुदाई का काम अच्छा है । कई मन्दिर १००० वर्ष पुराने हैं। श्री पारवनाथका मन्दिर अत्यन्त मनोज्ञ है; जिसको जैसिंह चोलाशाह ने सन् १३३२ में बनवाया था । Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ राजपूताने के जैन-चीर साहित्य-भण्डार जब जान को लोग हथेली पर लिये फिरते थे, और सुकुमार वालकों, विलखती हुई युवतियों और डकराती हुई मांओं को छोड़कर, प्राणों का तुच्छ मोह त्याग, युद्ध में जूझ मरने को सदैव 'प्रस्तुत रहते थे; तब हमारे उन्हीं वीर पुरुखाओं ने अपने सोने से लगाकर जैन-ग्रंथों की रक्षा की थी। आज हम अकर्मण्य और कापुरुषों के कारण भले ही वह चूहे और दीमकों को उदरपूर्तिका साधन बन रहे हों, पर हमारे पूर्वज जान और माल से अधिक साहित्य का महत्व समझते थे, यह अब भी उन बचे हुये ग्रंथों से ध्वनित होता है। प्रद्धेय पं० महावीरप्रसादजी द्विवेदी ने एक बार लिजा या:-- जैनधर्मावलम्बियों में सैकड़ों सावु महात्माओं और हजारों विद्वानों ने अन्य रचना की है। ये ग्रन्य केवल जैनधर्म ही से सम्बन्ध नहीं रखते, इनमें तत्व-चिन्ता, काम नाटक, छन्द, अलंकार, कया-कहानी, इतिहास से सम्बन्ध रखने वाले अन्य हैं। जिनके उद्धार से जैनेतर जनों को भी शान-वृद्धि और मनोरंजन हो सकता है। भारतवर्ष में जैनधर्म ही एक ऐसा धर्म है, जिसके अनुयायी साधुओं और आचार्यों में से अनेक जनों ने धर्मापदेश के साथ ही साथ अपना सनत जीवन अन्य-रचना और ग्रंय-संग्रह में खर्च कर दिया है। इनमें कितने ही विद्वान् बरसात के चार महिने बहुधा केवल अन्य लिखने में ही बिताते रहे हैं। यह . Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य-भंडार २७५ नहीं, अपितु इनमें सामग्री बिखरी हुई ये ग्रंथ केवल जैनों के ही लाभ के लिये भारतवर्ष के इतिहास की भी बहुत अधिक पड़ी है। पूज्य श्रोमाजी के इतिहास से सूचित होता है कि मेवाड़ के प्राचीन इतिहास की शोध एवं सत्यासत्य का निर्णय विशेष कर इन्हीं जैनप्रन्थों से हुआ है । मेवाड़ के रावल जैत्रसिंह, तेजसिंह, आदि के समयादि निर्णय में पूज्य पं० ओमाजी को मेवाड़ में उस समय के बने हुये "प्रोघनियुक्त" तथा "पाक्षिक सूत्र वृत्ति" आदि ग्रन्थों से सहायता मिली है। ये ग्रंथ इस समय गुजरात में खम्भात के मन्दिर में हैं। इनके अलावा पूज्य श्रोझाजी ने अपने इतिहास में निम्न जैन ग्रंथों से खोज सम्बन्धी सहायता मिलने का उल्लेख किया है :-- १ हम्मीर महा काव्य, २ हम्मीर मद-मर्दन, ३ तीर्थकल्प, ४ उनकी इस प्रवृत्ति का फल है, जो बीकानेर, जैसलमेर, नागोर, पाटन और खंभात आदि स्थानों में हस्तलिखित पुस्तकों के गाड़ियों बरते अब भी सुरक्षित पाये जाते हैं ।" इतिहास तिमिरनाशक में लिखा है कि "एक अंग्रेज विद्वान ने एक बार जैनग्रन्थों की सूची बनाने का प्रयत्न किया तो उसकी संख्या लाखों और करोड़ों तक पहुँची ।" - + टॉड साहब लिखते हैं: "यदि ध्यान से जैनधर्म की पुस्तकों को बांधा जाय, जिनमें कि उन सब विद्या सम्बन्धी बातों का वर्णन है, जिनको प्राचीन समय के लोग जानते थे, तो हिन्दु-जाति के इतिहास की बहुतसी त्रुटियां पूर्ण हो सकती हैं । (टाड राजस्थान प्र० भा० भू० पृ० Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ राजपूताने के जैन-चौर श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र चूणिका, ५ मेहता नैणसी की ख्यातं , ६ कितने ही जैनशिला-लेख। सेठ लोलाक ने "उन्नत शिखर पुराण" नामक दिगम्बर जैन पुस्तक पीजोल्याँ (मेवाड़) के पास एक चट्टान पर वि०सं० १२२६ में खुदवाई थी, सो अब तक सुरक्षित है। ... प्राचीन जैनों ने वीरता,धीरता, कला-कौशल, शिल्पचातुर्पता, चित्रकारी, संगीत आदि के समान साहित्य के आध्यात्मिक नीति, ज्योतिष, व्याकरण, न्याय, काव्य, वैद्यक, इतिहास-प्रत्येक विषय के ग्रन्थों का निर्माण करके अपनी अलौकिक प्रतिमा का परिचय दिया है । ये ग्रन्थ-रत्न भारत के भिन्न-भिन्न जैन-भण्डारों में भरे पड़े हैं। राजपूतानान्तरगत जैसलमेर के भण्डार. में भी जैन-ग्रन्थों का अच्छा संग्रह किया गया है। यहाँ अनेक प्रकार के संस्कृत, प्राकृत, मागधी, अपभ्रंश शौरसेनी, पाली, गुजराती, मारवाड़ी और हिन्दी भाषा के प्राचीन ग्रन्थ मौजूद हैं, कितने ही ऐसे अजैन ग्रन्थ यहाँ संग्रहीत हैं, जो अन्यत्र कहीं उपलब्ध नहीं होते । हजारों माइल दूर से यूरोपियन और भारतीय विद्वान् यहाँ आकर प्रन्थों का अवलोकन करते हैं और प्रशस्ति, ग्रन्थ, प्रन्थ ~~~mmmmm.incim..mor.. + मेहता नैणासी को स्वर्गीय मुंशी देवीप्रसादजी "राजपूताने का अब्बुलफल" कहा करते थे । ओझानी ने लिखा है कि "राडसाहव को नैणसी की ख्याति देखने का मौका मिला होता, तो आज, टाडराजस्थान किसी भार ही रूप में होता' मेहता नेणसी का और उनके अन्यों का परिचय पु० २०० में देखिये। Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७७ साहित्य-भण्डार कतो आदि का नाम लिखकर ले जाते हैं और उस पर साहित्य के उत्तमोत्तम लेख लिखते हैं । साहित्यसेवी "ओरियण्टल गायकवाड़ सीरीज" को भी यह कार्य अत्यावश्यक प्रतीत हुआ इसीलिये इस संस्था ने साहित्य के महान विद्वान् श्रीयुत श्रावक चिम्मनलाल जी दलाल एम. ए. को जैसलमेर भेजकर कई एक सुन्दर प्रन्थों की टिप्पणी कराई थी, और बाद में उनकी अकाल मृत्यु हो जाने पर सेण्ट्रल लायब्रेरी के जैन पण्डित श्रावक लालचन्द भगवानदासजी गान्धी ने उन टिप्पणियों को व्यवस्थित करके उन पर संस्कृत भाषा में इतिहासोपयोगी एक टिप्पण लिखा था, उस टिप्पण को "जैसलमेर-भाण्डारागारीयग्रन्थानांसूची" नाम से उपर्युक्त सीरीज ने अपने २१ वें ग्रन्थ के तौर पर सन् १९२३ में, प्रस्तुत पुरतक के आकार वाले ३४० पृष्ठों में प्रकट किया था। जैसलमेर के भएडाराधिकारी कुछ उदार हृदय होने के कारण वहाँ के ग्रन्थों को प्रकाश में लाने का प्रयत्न किया जा रहा है। किन्तु जैसलमेर के अलावा अन्य जैन-भण्डारों के अधिकारी संकुचित विचार के हैं, वे उन्हें दिखाना तो दर किनार, धूप और हवा भी नहीं लगने देते, जिससे वे बस्ते में बन्ध २ सड़ रहे हैं । वर्तमान जैनसमाज के धनिक इस ओर से विल्कुल उदास हैं । वे अपने पुत्र और पत्रियों की शादी में जी खोलकर द्रव्य लुटाते हैं, जिनवाणी मावा को रेशमीन वस्त्रों से सजाते हैं, उसकी नित्यप्रति पूजा करते हैं, किंतु उसकी रक्षा के लिये उनके पास एक पैसा भी नहीं है । इसका कारण शायद यहीहै कि, वर्तमान जैनसमाजसरस्वती (जिनवाणी) Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ राजपूताने के जैन-वीर का उपासक न रह कर लक्ष्मी का उपासक बन गया है। और उलुकबाहन लक्ष्मीके उपासक,सरस्वती का अस्तित्व और प्रतिष्ठा देख नहीं सकते । यदि सत्य बात कहना अपराध न समझा जाया तो मैं कहूँगा कि जहाँ हमारे पूर्वजों ने संसार के प्रत्येक कार्य को सम्पादन करके अपने प्रकाण्ड पाण्डित्य का परिचय दिया है, वहाँ. हमारे जैसे कृतघ्नी-पुत्रों को जन्म देकर भारी मूर्खता का भी परिचय दिया है । नहीं तो क्या कारण है कि, जब संसार की सभी जातियाँ अपने पूर्वजों की कृतियों और कीर्तियों के उत्थान का भरसक प्रयत्न कर रही हैं, तब हम हाथ पर हाथ धरे निश्चिन्त बैठे हैं। हमारी इस अकर्मण्यता को लक्ष करके ही शायद स्वर्गीय "चकबस्त्र ने कहा था: मिटेगा दीन भी और आवरू भी जायेगी। तुम्हारे नाम से दुनियां को शर्म आयेगी। [२८ जनवरी सन् २३] Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैसलमेर के जैन-चीर २९ जैसलमेर के वीर मेहता स्वरूपसिंह स्वरूपसिंह जयसलमेर राज्य का एक शक्तिशाली मंत्री ' था। यह जाति का वैश्य जैनधर्म को मानने वाला और मेहतावंश में उत्पन्न हुआ था। संवत् १८१८(सन् १७६२ ई०)में जयसलमेर के राज्यसिंहासन पर अभिषिक्त होनेवाले राजा मूलराज का यह मंत्री था। राजा मुलराज इस पर अत्यन्त प्रसन्न थे और यह स्वयं भी एक नीतिनिपुण पराक्रमकारी मंत्री था । यही कारण था कि जि और स्वार्थी इस से जलने लगे और इसे अनेक प्रकार से वदनाम करने लगे। किन्तु स्वरूपसिंह इन बातों से घबड़ानेवाला नहीं था, उसने अपने गौरव और रुत्वे से जलने वालों की तनिक भी परवाह नहीं की। किन्तु अन्त में कुचकियों का चक्र चल ही गया। मेहता स्वरूपसिंह ने युवराज रायसिंह को राज्य की ओर से मिलने वाले जेब खर्च को नियमित कर दिया था, वह नहीं चाहता था, कि प्रजा को गाढ़ कमाई से संचित किया हुआ कोष अपव्यय किया जाय । इसलिये युवराज रायसिंह भी मेहता वरूपसिंह । पर खार खाये रहते थे। मेहता स्वरूपसिंह के ईर्ष्यालुओं ने उन्हें Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० राजपूताने के जैन-बीर और भी मड़का दिया। मेहता स्वरूपसिंह को अपने पथ से हटाने का युवराज को यह अवसर अनायास ही मिल गया । और सरे परवार मेहता स्वरूपसिंह को बैठे हुये अचानक शहीद कर दिया। राजा मूलराज ने अपने पुत्र की यह धृष्टता देखी तो वह क्रोध से अधीर हो उठे किन्तु अपने पुत्र की संहारमूर्ति और सामन्तों की हिंसक अभिलाषा देखकर मूलराज मारे जाने के भय से अन्तःपुर में चले गये । अन्त में युवराज रायसिंह ने सामन्तों के परामर्श से अपने पिता को भी काराग्रह में डाल दिया और आप जैसलमेर के राज्यसन पर आरुढ़ हुये। [३० जनवरी ३] Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैसलमेर के जैन-चीर २८१ मेहता सालिमसिंह महाराज मूलसिंह तीनमाह चारदिन तक कारागार की यन्त्रणा सहन फरने के पश्चात् एक वीर रमणी की सहायता से मुक्त होकर पुनः सिंहासनारुढ हुये । महाराज मूलसिंह के सिंहासनारुढ होते ही युवराज रायसिंह और उसके साथी सामन्त निर्वासित कर दिये गये। __ पूर्व परम्परा के अनुसार महाराज मूलसिंह ने अपने पुराने मंत्री स्वरूपसिंह के मारे जाने पर उसके सुयोग्य पुत्र सालिमसिंह को अपने मंत्री पद से विभूषित किया । स्वरूपसिंह की शोक पूर्ण मृत्यु के समय यद्यपि सालिमसिंह केवल ११ वर्ष का था, फिर भी उस अल्पवयस्क के हृदय में प्रतिहिंसा की अग्नि प्रज्वलित हो चुकी थी। वह अपने पिता के निर्दयी घातकों से बदला लेने के लिये समय की प्रतीक्षा करने लगा। एकवार जव सालिमसिंहराजा की आज्ञा से जोधपर नरेश के राज्यासीन होने पर अभिनन्दन देख कर वापिस लौटरहा था, तब मार्ग में स्वरूपसिंह के शत्रुओं ने इसे भी धोखेसे वध करने के लिये पकड़ लिया, किन्तुसालिमसिंह अत्यन्त नीतिनिपुण और मितभाषी था। उसने अपनी वाक्यपटुता में शोणित-लोलुप सामन्तों को फँसा लिया और अत्यन्त चतुरता से अपने जीवन की रक्षा की । अन्त में दया के वशीभूत Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजपूताने के जैन चीर होकर उन सब निर्वासित सामन्तों को उनके देश व जागीर मेहता'.. सालिमसिंह ने रावल मूलराज से दिलवा दिये । निर्वासित आज्ञा और देश वापिस दिला देने के बाद भी विद्रोही सामन्त शान्ति से न बैठे रहे। वे रावल मूलराज के पुत्र और पौत्रों को लेकर विद्रोह की अग्नि भड़काने के प्रयन्त में लगे रहे और साथ ही सालिमसिंह के नाश का भी षड्यंत्र रचने लगे। जब उसने राज्य को और अपने को इस प्रकार खतरे में पड़ा देखा तो उसकी पुरानी प्रतिहिंसा की आग फिर प्रज्वलित होगई । अन्त में उसने लाचार होकर राज्य के और अपने पुराने शत्रुओं को संसार से बिदा करके अपने पिता के वध का बदला लिया। __यद्यपि टॉड साहब ने सालमसिंह के उक्त कार्य की निन्दा की है, पर इस पर यदि तनिक विचार किया जाय तो मालूम होगा कि प्राचीन समय में ऐसा सदैव होता आया है । जो.पिता के घातक से बदला नहीं ले सकता था, वह सुयोग्य पत्र कहलाने का अधिफारी ही नहीं था। इसी सालिमसिंहने अंग्रेजों के साथ संधि करने में बड़ा विरोध किया था। [३१ जनवरी सन् ३३१ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरवाड़ा-अजमेर Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ moderne ESE DE SCercek het कर्तव्य करके वीर जो बलिहार हुये वह अपनी जाती के लिये शृङ्गार हुये हैं। खोया अधर्म, धर्म की रक्षा जिन्होंने की, सच पूछिये तो बस वही अवतार हुये हैं ।। राधेश्याम KeecteMereeeeeeeeeeen Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजमेर-परिचय अजमेर की चौहही इस प्रकार है-उत्तर-पश्चिम में जोधपुर, दक्षिण में उदयपुर, पूर्व में जयपुर। बम्बई बड़ौदा एण्ड सैन्ट्रल इण्डियारेलवे और मालवा शाखा का “ अजमेर " जंकशन स्टेरान है। स्टेशन पर सवारी हरवक्त किराये पर मिलती हैं। राजपूताने के मध्य भाग में प्रायः चारों तरफ से पहाड़ियों से घिरा हुआ अजमेर एक प्रसिद्ध शहर है। ___ प्राचीन काल में मुसलमानों के आने से पूर्व यह शहर दिल्ली सम्राट् पृथ्वीराज चौहान के पूर्वज राजा "अजपाल" ने संवत् २०२ (सन् १४५ ई०) में बसाया था। यह शहर एक पहाड़ी के नीचे दालू जमीन पर आबाद है-उत्तर और पश्चिम की तरफ पत्थर की दीवारों से घिरा हुआ है। शहर में जैन, हिन्दुओं आदि के कई मन्दिर व मुसलमानों की मस्जिदें अति सुन्दर बनी हुई हैं। मन्दिरों में विशेष कर सेठ नेमीचन्द टीकमचन्द की बनवाई हुई नशिया बहुत ही मनोज्ञ, मनोहर और दर्शनीय है। यहाँ दिगम्बर जैनियों के शिखरवन्द मन्दिर १३ और २ चैत्यालय हैं । धर्मशास्त्र ७००० के लगभग हैं । शहर के उत्तर की तरफ एक बड़ी सुन्दर "अनासागर" नामक झील है । जिसको विशालदेव के पोते राजा "आना" ने बनवाई थी। यह झील ६०० गज लम्बी और १०० गज चौड़ी है, कई नालों का पानी रोककर बनाई गई है । वर्षाऋतु Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ राजपताने के जैनचीर में इस झील का घेरा करीव ६ मील के हो जाता है । झील के निकट जहाँगीर वादशाह का बनवाया हुआ "दौलत वारा" है और किनारे पर मार्वल के मकानों का सिलसिला है। अजमेर से करीब ७ मील की दूरी पर एक "पुष्कर" नामक कस्वा है। जो कि हिन्दुओं का तीर्थस्थान है। इस की सीमा के भीतर कोई मनुष्य जीव हिंसा नहीं कर सकता । अजमेर में रेलवे आफिस, मेयो । कालिज, दाई दिन का झोंपड़ा (जो मुसलमानों ने जैन मन्दिर को तुड़वा कर बनवाया था) रेल्वे ढलने का कारखाना, ख्वाजा साहब.. की दरगाह और सेठ साहूकारों की बहुत सी कोठियाँ देखने योग्य. (दि.जैन डिरेक्टरी पृ० ४६१) मुहल्ला लाखनकोठरी में जैन श्वेताम्बर श्रावकों की आबादी और जैन श्वेताम्बर मन्दिर बहुत लागत के हैं। अजमेर का विवरण लिखते हुये टॉड साहब ने लिखा है: "अजमेर दुर्ग के पश्चिम प्रान्त में एक बहुत ही पुराना जैन. मन्दिर है। किसी कारण से यवनों ने इसको नहीं गिराया है। इसका नाम "ढाई दिन का झोंपड़ा" अर्थात् जैनी शिल्पियों में, इन्द्रजाल मंत्र की शक्ति से इसको बाई दिन के अन्दर बना दिया, था। इस कारण इसका नाम ढाई दिनका झोंपड़ा रक्खागया ऐसी जन-श्रुति है । भारत के तीन प्रधान पवित्र स्थानों में जैनियों ने, जैसे चित्ताकर्षक मन्दिर बनवाये हैं, उनके द्वारा जैन शिल्पियोंकी योग्यता भली भांति प्रगट हो रही है। ज्ञात होता है कि यथेच्छ सामग्री मिल जाने के कारण यह मन्दिर बहुत ही शीम तैयार Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजमेर - परिचय २८७ होगया होगा । मन्दिर के चारों ओर परकोटा है, इस परकोटे का प्राचीनत्व और सरल गठन देख कर मेरा विश्वास है कि प्रथम भारत-विजेता गौरी का सुलतान वंश ही इसका निर्माता है। मंदिर के उत्तरीय भाग में सिंहद्वार और सोपानावलि (जीना) विद्यमान है । विशेष परीक्षा के द्वारा मैंने निश्चय कर लिया है कि मन्दिर जैनियों ने बनवाया है । प्रवेशद्वार के परकोटे को दीवार पर अरवी अक्षरों में कुरान की आयतें लिखी हैं। तोरण के ऊपर मैंने संस्कृत के अक्षर भी लिखे देखे । वह अरबी अतरों के साथ मिश्रित और विकृत हो गये हैं। मन्दिर की बनावट अति श्रेष्ठ और मनोहर है । तोरण देखने के पीछे जैनियों द्वारा वने हुये मूल मन्दिर को देखने के लिये मैं आगे बढ़ा । मन्दिर पुराने जैनमंदिरों के समान बना है। मन्दिर का भीतरी भाग खूब लम्बा चौड़ा है । तीन श्रेणियों में विभक्त रमशोक स्तम्भों के ऊपर छत स्थापित है। सम्पूर्ण स्तम्भ विशेप दर्शनीय और प्रशंसनीय हैं। कमरे के भीतर चालीस स्तम्भ विराजमान हैं, किन्तु यह बड़े आश्चर्य की बात है कि सव के वेल घंटे का काम अलग अलग है। मेरा विश्वास है कि तुर्क लोगों ने भारतवर्ष से इस गठन प्रणाली को सीखकर यूरोप में प्रचार किया था ।" শ + टाड-राजस्थान प्रथम भाग द्वि० सं० २० ३ १ पृ०८३३ | Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ राजपूताने के जैन-चीर : धनराज सिंघवी लगादे प्राग न दिल में तो आरजू क्या है ? न जोश खाये जो गैरत से वह लह क्या है ? -चकवस्त" सार एक रंग भूमि है । वैसे तो यहाँ सभी नानारूप में . V अभिनय करते हैं, पर उनमें बहुत कम ऐसे होते हैं, जो अपने अभिनय की याद दर्शकों के हृदय-पट पर अंकित कर सकते हों। धनराज सिंघवी संसार-रंगभूमि का एक ऐसा चतुर अभिनेता था, जिसने मृत्यु के अभिनय में लोगों को चकित कर दिया था। जव मारवाड़ के महाराज विजयसिंह ने सन् १७८७ ईस्वी में अजमेर को पुनः मरहठों से जीत लिया, तव उन्होंने धनराज सिंघवी को अजमेर का गवर्नर नियुक्त किया । किन्तु थोड़े दिन के पश्चात् मरहठों ने अपनी खोई हुई शक्ति को वटोर कर चार वर्ष के बाद फिर मारवाड़ पर आक्रमण कर दिया। राठौडवीर अव ली बार भी खुलकर खेले किन्तु विजय महाराष्ट्रों के भाग्य में थी। इसी मौके पर मरहठों के सेनापति डिवाइन ने अजमेर पर आक्रमण कर दिया और उसको चारों ओर से घेर लिया। यह समय धनराज सिंघवी के लिए अत्यन्त विपत्ति का था, फिर भी : • इस साहसी वीर ने बचे खुचें मुट्ठी भर सैनिकों को लेकर विजयी.. Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धनराज सिंघवी २८९ और महाशक्तिशाली मरहठों का बड़ी वीरता से सामना किया और उनको आगे बढ़ने से रोक दिया । पाटन युद्ध के बुरे परिणाम के कारण मारवाड़-नरेश विजयसिंह ने धनराज को हुक्म भेजा कि "अजमेर मरहठों को सौंप कर जोधपुर चले आओ ।" धनराज सिंघवी के लिये यह एक परीक्षा की कसौटी थी; क्योंकि न तो वह अपमान के साथ शत्र को देश सौंपना चाहता था और न वह अपने स्वामी की आज्ञा का उलंघन ही कर सकता था । इस भयंकर समय में वह द्विविधा में पड़ गया और अन्त में श्री० वादीभिसिंह सूरे के "जीविताचु पराधीनाज्जीशनां मरणं वरम् *" वाक्य के अनुसार मरना श्रेष्ठ समझकर अफीम खाली । मृत्यु शैय्या पर लेटे हुए इस स्वतन्त्रताः यि वीर ने चिल्लाकर कहा था कि - " जाओ और महाराज से प्रिय 1 कहो कि मैंने प्राण त्याग करके ही स्वामिभक्ति का परिचय दिया हैं । मेरी मृत्यु पर हो भरहो अजमेर में प्रवेश कर सकेंगे पहले. नहीं ।" · इसी समय से अजमेर चिरकाल के लिये मारवाड़ से अलग होगया । फिर समय पाते ही महाराष्ट्रों के हाथ से अंग्रेजी सेना ने इस अजमेर पर अधिकार कर लिया और आज तक इस अजमेर के किले पर अंग्रेजों की पताका उड़ रही है ! [२९ जनवरी ३३] : * पराधीन जीवन से जीवों का मरण अच्छा है गुलामी से मौत 'मला है । Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200 राजपूताने के जैन वीर मंत्री मंडन का वीर वंश । पं० शोभालालजी शास्त्री ने नागरी प्रचारणी पत्रिका भाग ४ अंक १ में लिखा है : GORANI . भारतवर्ष वर्ष किसी दिन ज्ञान और विद्या का भांडार था। यहां के राजा महाराजा और उनके मंत्री बड़ेर विद्वान् होते थे । उनका ज्ञान केवल युद्धविद्या और राज्यप्रवन्ध में ही मर्यादित नहीं होता था किंतु काव्य, साहित्य, संगीत आदि अन्य विषयों में भी वे असाधारण ज्ञान रखते थे । राज्य के भीतरी प्रबन्ध और बाहिरी संधिविग्रहादि कार्यो में व्यस्त रहने पर भी ऐसे ऐसे ग्रंथ लिखना उस समय के नरपतियों तथा मंत्रियों के प्रौढ़ विद्यानुराग को सूचित करता है। आज मैं पाठकों के सम्मुख एक ऐसे ही मंत्रि रत्न के चरित्र को उपस्थित करता हूँ, जो प्रायः पौने पांच सौ वर्ष पूर्व भारतवर्ष को उज्वल कर चुका है, और जिसकी अलौकिक प्रतिभा के कुछ नमूने उसके : स्मृति-चिन्ह स्वरूप आज भी हमें दृष्टिगोचर होते हैं। .. इसका नाम मंडन था और जालौर के सोनगरा (चौहान क्षत्रियों के) वंश में इसका जन्म हुआ था। Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंडन का वीर वंश २९१ मंडन का वीर वंश १. प्राम:__ जाबालपत्तन (जाबालिपुर जालौर) में स्वर गिरीय (सोनगर) गोत्र में, जो श्रीमाल नाम से भी विख्यात था, आम नामक एक व्यक्ति हुआ। यह बड़ा ही बुद्धिमान था। सोमेश्वर राजा का यह मुख्य मंत्री था और संपूर्ण कार्यों में इसकी बहुत ही कीर्ति थी। ये सोमेश्वर अजमेर के राजा और भारत के सुप्रसिद्ध अंतिम हिन्दू-सम्राट पृथ्वीराज के पिता सोमेश्वर हों, ऐसा अनुमान होता है, क्योंकि उस समय जालौर नागौर आदि प्रदेश इन्हीं के अधीन थे। सोमेश्वर के समय के ५ शिलालेख वि० सं० १२२६, १२२८, १२२९, १२३० और १२३६ के मिले हैं, अतः उन के मंत्री आभू का समय भी इसी के आस पास मानना चाहिए। २. अभयदा आभू का पुत्र अभयद नामक हुआ। यह आनंद नामक राजा का मंत्री था । इसने गुजरात के राजा से विजयलक्ष्मी प्राप्त की थी। यह आनंद कौन था, इसका ठीक तरह पता नहीं चलता । संभव है कि यह आनंद सोमेश्वर का पिता अर्णोराज हो, जिसके दूसरे नाम आनलदेव, पानक और पानाक भी थे । पृथ्वीराज विजय में लिखा है, कि अर्णोराज के दो रानियाँ थीं, एक मारवाड़ की सुधवा और दूसरी गुजरात के राजा (सिद्धराज) जयसिंह की पत्री काँचनदेवी । इस कांचनदेवी का पत्र सोमेश्वर हुआ। Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजपूताने के जैन-धीर पृथ्वीराजरासो में सामेश्वर के पिता का नाम आनन्दमेव लिखा है, इससे अनुमान होता है कि आनंद या आनंदमेव अर्णोराज ही के नामांतर हैं । पृथ्वीराज रासो में यह भी लिखा है कि आनंदमेव (अर्णोराज) ने सोमेश्वर को राज्य दिया, सोमेश्वर ने गुजरात और मालवे पर आक्रमण कर उन्हें अपने आधीन किया। : मालूम होता है कि अभयद ने अपनी युवावस्था में ही जब कि उसका पिता विद्यमान था, आनंद के मंत्री का पद प्राप्त कर लिया था, और आनंद के बाद सोमेश्वर के सिंहासनारूढ़ होने पर भी यह उस पद पर बना रहा, तथा सोमेश्वरने गजरात पर जो आक्रमणं किया, उसमें या तो यह भी साथ था, या सोमेश्वर ने स्वयं न जाकर इसे ही गुजरात जीतने को भेजा हो । इसके बाद सोमेश्वर ने इसके पिता अभयद को जो उस समय भी वर्तमान था मंत्री बनाया हो।' : ... . . . . : ३. पांवड:. अभयट का पुत्र आँवड़ हुआ। इसने स्वर्णगिरि (जालौर के किले) पर विद्महेश को स्थापित किया । यहाँ पर विग्रहेश से शायद सोमेश्वर का बड़ा भाई विप्रहराज चौथा, जिसका उपनाम वीसलदेव था, निर्दिष्ट किया गया हो, अर्थात् आँवड़ ने जालौर का किला, विग्रहराज के आधीन करायां हो।"ईश" शब्द राजाओं के नामके अन्त में भी आता है, जैसे अमरसिंह के लिए.अमरेश, और शिव के नामों के अंत में भी आता है, जैसे समाधीश, अ। चलेश आदि। यहाँ यह स्पष्ट:प्रतीत नहीं होता हैकि विग्रहेश से Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९३ मंडन का वीर वंश यहाँ विग्रहराज ही से अभिप्राय है, जैसा कि ऊपर बतलाया है अथवा विमहराज के नाम से किसी शिवालय के धनवाने का उल्लेख है। ४. सहणपाल: आँबड़ का पुत्र सहरणपाल हुआ यह मोजदीन नृपतिके सब प्रधानों में मुख्य था। मोइजुद्दीन नाम के दो बादशाह हिंदुस्तान में हुए हैं। एक रजिया बेगम का भाई माइजुहीन बहराम, जिसने ई० सन १२३५-४० से (वि० सं० १२९६-९७) से ई० स०१२४१-- ४२ (वि० सं० १२९८-९९) तक तीन वर्ष छः महीने राज्य किया था। दूसरा रायासुद्दीन क्लवन का पोता मोइजुद्दीन कैकोबाद था जिसन ई० स० १२८६ (वि० सं०२३४२) से ई० स० १२९० (वि० सं०१३४६) तक राज्य किया था। यद्यपि यह ठीक तरह निश्चय नहीं होता, कि सहणपाल किस मोइजुद्दीन का प्रधान था, परन्तु समय का हिसाव लगाने से यह मोइजुहीन बहराम का मंत्री हो, ऐसा प्रतीत होता है। सहणपाल अभयद का पौत्र था । अभयद सोमेश्वर (वि० सं० १२२६-१२३४, ई० स० ११६९ से ११७७) का समकालीन था, जैसा कि ऊपर बतलाया गया है। यदि सहणपाल को बहराम मोइजुद्दीन का मंत्री न मानकर कैकोवाद का माना जाय, तो पितामह और पौत्र के समय में करीब ११७ वर्प का अंतर पड़ता है जो बहुत है। बहराम का मंत्री मानने में केवल ७० वर्ष का अंतर आता है जो उचित और संभव है । सहयपाल के पुत्र नैणा को जलालुद्दीन फीरोज का समकालीन लिखा है। Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ राजपूताने के. जैन वीर S फीरोज़ ई० स० १२९० ( वि० सं० १३४० ) में सिंहासनारूद हुआ था । यह ५० वर्ष का अंतर भी पितापुत्र में असंभव नहीं है। .. राजा (मोइनुद्दीन) की सेना ने जब "कच्छपतुच्छ" नामक देशको घेर लिया, तो लोगों को दुःख से चिल्लाते हुये सुनकर सहगणपाल को दया आई। उसने अपने प्रयत्न से उस देश को छुड़ा दिया । इसने यवनाधिपु (मुसलमान बादशाह) को एक सौ एक तार्क्ष्य दिये और बादशाह ने भी खुश होकर उसे सात मुरत्तव बख्शे। ५. नैणा:-- In 4 सहणपाल का पुत्र नैणा हुआ। जिसे सुरनाय (सुलतान ) जलालुद्दीन ने सब मुद्राएँ अर्पण कर दो थीं । अर्थात् राज्य का सम्पूर्ण कारवार इसे सौंप रक्खा था। यह सुलतान जलालुद्दीन फीरोज़ खिलजी था, जो मौइजीन कैकोबाद के अनंतर सन् १२९० ईस्वी में तख्तनशीन हुआ था, और छः वर्ष राज्य करने के उपरान्त सन् १२९६ ईस्वी में मकान के नीचे दबकर मर गया था। इस ने जिनचंद्रसूरि आदि गुरुओं के साथ, सिद्धाचल और रैवतक पर्वत की यात्रा की थी। इस वंश में सत्र से प्रथम जैनमत इसी ने स्वीकार किया हो, ऐसा प्रतीत होता है । ६. दुसाजु:-- नैया का पुत्र दुसाज हुआ। यह चंड राउल के सुविस्तृत राज्य का मुख्य प्रधान था । तुग़लकशाह ने इसे आदर पूर्वक बुलाकर " मेरुतमान” देश दिया था । यह तुरालशाह गयासुद्दीन तुरा Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंडन का वीर वंश २९५ कथा, जिसका उपनाम गाजीवेग भी था। इसने ईस्वीसन् १३२१ में खिलजी वंशीय मलिकलुनू से, जिसका उपनाम नसीरुद्दीन भी था, राज्य छीना और ४ वर्ष तक राज्य किया था । ७. बीका:--- दुसा का पुत्र बीका हुआ, जो वीतराग का परमभक्त था । पाके वर्णन में पाव्य मनोहर में दो श्लोक ऐसे लिखे हैं, जिन में प्रशुद्धि हो जाने के कारण उनका अर्थ स्पष्ट प्रतीत नहीं होता, तथापि उनका अभिप्राय कुछ ऐसा मालूम होता कि "धीका ने शक्तिशाह को जो पादलक्षादि ( सपादलक्ष पर्वत, साँभर के आसपास का प्रदेश) को उपभोग कर रहा था। सात गजानों के साथ फ़ैद कर लिया और उसका अधिकार छान लिया । पातशाह ( गयासुद्दीन तुगलक ) ने उसके इस कार्य को उचित समझ, उसे दान मान आदि से खुश किया। बीफा ने भी बादशाह से बड़ा भारी मान पाने से प्रसन्न हो, उस प्रदेश पर गाजीक (गयासुद्दीन) का अधिकार स्थापित कर दिया । यह शक्तिशाह किसी मुसलमान बादशाह का नाम प्रतीत होता है। जिसे संस्कृत में रूपांतर दे दिया गया है। एल्फिंग्टन ने लिखा है कि "गुजरात के बादशाह श्रमदशाह ने ईडर, जालौर और खानदेश पर आक्रमण किए थे. एक अवसर पर वह मारवाड़ के उत्तर में अवस्थित नागौर तक वह ध्याया था, जहाँ उसका चचा देहली के सैयद खिजरखाँ के विरुद्ध उपद्रव कर रहा था" । संभव है कि "श. कशाह" अहमदशाह या उसके किसी सेनापति का नामांतर हो, जिसने सपा Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ राजपूताने के जैन वीर दलक्ष प्रदेश पर कब्जा कर लिया हो, और बीका ने उससे इस प्रदेश का पीछा छुड़ाया हो । बीका ने दुर्भिक्ष के समय चित्रकूट ( चित्तौड़ ) के अकालपीड़ित लोगों को कई वार, जीवदया को अपने कुल का परम कर्तव्य समझकर अन्न वाँटा था । 2 ८. फंड:-- बीका का पुत्र कम हुआ । यहु नांद्रीय देश : ( नांदोल; जो गुजरात में है ) के राजा गोपीनाथ का मंत्री था । यह देवता और गुरुओं (जैनसाधुओं) का परम भक्त था। इसने प्रह्लादन नामक नगर (प्रह्लादनपुर = पालनपुर) में शांतिनाथ का विंवं (मूर्ति) स्थापित किया, संघपति बनकर यात्राएँ कीं और संघ के सब मनुष्यों' को पहिनने को वस्त्र, चढ़ने को घोड़े और मार्गत्र्यय के लिये द्रव्य अपनी ओर से दिया। कीर्ति प्राप्त करने के लिये इसने कई उद्यापन किये; जैनसाधुओं के रहने के लिये कई पुण्यशालाएँ बनवाई। और बहुत से देवमंदिर बनवाए। " नांद्रीय (नांदोड) से यह मालवे की राजधानी मंडपदुर्ग: (मांडू) को चला आया था | मांडूः उस समय भालवे की राजधानी : होने से, बड़ा ही संपत्तिशाली नगर था. अनेक कोटिपति और लक्षाधीश इस नगर को अलंकृत करते थे । कहते हैं कि इस शहर में कोई भी ग़रीब जैन श्रावक नहीं था, कोई जैन गरीबी की दशा में बाहर से आता, तो वहाँ के धनी जैन उसे एक एक रुपया देते थे। इन घनियों की संख्या इतनी अधिक थी कि वह दरिद्ध-उस • Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंडन का वीर वंश २९७ एक एक रुपए से ही सम्पत्तिशाली बन जाता था। __मांडू में उस समय आलमशाह राज्य करता था। इसने पूर्व और दक्षिण के राजाओं तथा गुजरात के नरेशों को हराया था। झंगण को वृद्धिमत्ता और राज्यप्रबंध-कुशलता देख आलमशाह ने इसको अपना मंत्री बनाया। फरिश्ता ने मालवा के बादशाहों की जो नामावली दी है, उसमें पालमशाह नामक किसी वादशाह फा नाम नहीं है। संभव है कि पालमशाह सेअभिप्राय दिलावरखाँ के लड़के हुसंगतारी से हो, जिसने मालवेका स्वतंत्र राज्य स्थापित किया. मांड का किला वनवाया और धार से उठाकर मांडू को राजधानी बनाया । मालवे के सिंहासन पर अधिकार करने के पर्व इसका नाम अल्पखौं था । संभव है कि अल्पखों को पालमखाँ समम फर उसका संस्कृत रूप पंडितोंनेालमशाह कर दिया हो। मालमशाह के समय का विसं० १४८१ का एक जैन-शिलालेख ललितपुर प्रांत के देवगढ़ के पास मिला है। उसमें किसी मंदिर के धनवाने का समय लिखने के प्रकरण में लिखा है कि, "राजा विक्रमादित्य के गतान्द १४८१ और शालिवाहन फे शाक १३४६ वैशाखशुछ १५ गुरुवार स्वाति नक्षत्र और सिंह लग्न के उदय के समय अपने भुजबल के प्रतापरूपी अग्नि की ज्वाला से गजाधीश (दिल्ली के बादशाह) को व्याकुल फर देनेवाला गोरीपंशी मालवे का राजा श्री शाह आलम्मक विजय के वास्ते जव मंडलपर (माई) से निकला, उस समय" और अंत में भी साहि पालम्मा का नाम लिखा है और बाद में लिखा है कि "उस समय Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ . . . YI राजपूताने के जैन-चीर साहि आलम का पुत्र गर्जन स्थान (गजनी ) में गर्म रहा था। मालवे का बादशाह होना और मांडू से विजय के लिये निकलना इस बात के स्पष्ट प्रमाण हैं, कि यह शाहि आलम्मक और हमारे . . मंडन मंत्री का आश्रयदाता आलम्मशाह एक ही थे । उपरोक्त शिलालेख के संपादक श्रीयुत राजेंद्रलाल मित्र महोदय का भी मत यही है कि यह शाह आलम्म हुशंगगोरी ही का नाम है । इसका उपनाम अल्पखाँ था और इसी का विद्वानों ने संस्कृत रूप शाहि आलम बना दिया है । मित्र महोदय ने इस का नाम आलम्भक पढ़ा है और इसे मालवा के अतिरिक्त पोलकेश देश का भी राजा माना है, परंतु यह ठीक नहीं है। मंडन के ग्रन्थों तथा महेश्वर के मान्यमनोहा में इसका नाम स्पष्ट आलमसाह और लिम्मशाहि लिखा है । शिलालेख के बहुत से अक्षर दृटे हुए होने से "म" को भ" पढ़ लेने के कारण यह भूल हुई है। आलमशाह ( हुशंगगोरी) को पालकेश देश का राजा मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि पालकेश" इस नाम के देश का कहीं भी वर्णन नहीं पाता । यह मुल ठीक पड़च्छेद न कर सकने के कारण हुई है। उन्होंने "मालव- . पालकेशक-नृमें ऐसा पदच्छेद समझ उपरोक्त अर्थ किया है, परंतु वस्तुतः पदच्छेद “मालव-पालकेशक नू' है, जिसका अर्थ "मालवाकीरक्षाकरनेवाले मुसलमान वादशाह के ऐसा होता है। - "उपरोक्त प्रमाणों से स्पष्ट है, कि यह आलम्मसाह दुशंगगोरी जपनाम अल्पखों ही है । हुशंगगोरी अपने पिता दिलावरस्खों की मृत्यु के बाद ई० सन् १४०५ (वि० सं० १४६२) में मालवे के मालवा Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंडन का वीर वंश सिंहासन पर बैठा और ई० स० १४३२ (वि०सं० १४८९) में इसका देहांत हुआ । यह ठीक मालूम नहीं होता कि झमरण किस समय से किस समय तक हुशंगगोरी का मंत्री रहा, परंतु यह अवश्य कहना होगा कि वह अधिक समय तक नहीं रहा, क्योंकि इसी अल्पखों के राजत्वकाल में झमण का पुत्र बाहड और उसका पुत्र मंडन मंत्री बन चुके थे। ६. चाहड़: झमाड़ के छः पत्र थे, जिनमें सबसे बड़ा चाहड़ था। चाहड़ने संय के साथ जीरापल्ली (श्राधनिक जीरावला जो आव के समीप है) की यात्रा की और प्रवुद (आव) पर्वत की भी यात्रा की । संघमें जितने मनुष्य थे, सबों को द्रव्य, वन और घोड़े दिये और संघ.. पति की पदवी प्राप्त की। तीर्थस्थानों में बहुतसा धन व्यय किया। इसके दो पुत्र थे, जिन में बड़े का नाम चंद्र और छोटे का नाम खेमराज था। १०. बाहड़:-- __ मण के दूसरे पत्र का नाम थाहड़ था। इसने भी संघपति बनकर रैवतक पर्वत (गिरनार) की यात्रा की, संघी लोगों को द्रव्य, वन और घोड़े दिए । इसके भी दो पुत्र थे। घड़े का नाम समुद्र(समघर) और छोटे का नाम मंडन था। यही मंडन हमारे चरित्रनायक मंत्री मंडन हैं। झमण का तीसरा पुत्र देहड़ था। इसने भी संघपति बनकर Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० राजपूतानेके जैन- वीर अर्बुद (आबू) पर नेमिनाथ की यात्रा संघ के साथ की। संघ को किसी प्रकार का कष्ट न हो इसका यह बहुत ही विचार रखता था। इसने राजा के शदास, राजा हरिराज और राजा अमरदास को जो जंजीरों में पड़े थे, परोपकर की दृष्टि से छुड़ाया। इनके सिवाय वराट लूगार और बाहड़ नाम के ब्राह्मणों को भी बंधन से छुड़ाया था । इसके धन्यराज नामक एक पुत्र था । इसका दूसरा नाम धनपति और धनद भी था । इसने भर्तृहरिशतकत्रय के समान, नीतिधनद, शृंगारघनद और वैराग्यधनद नामक तीन शतक बनाये थे । ग्रंथ की प्रशस्ति नीतिधनद के अन्त में दी है। इससे विदित होता है कि इसने नीतिधनद सबसे पीछे बनाया था । ये शतक काव्यमाला के १३ वें गुच्छक में प्रकाशित हो चुके हैं । नीतिधनद केतकी प्रशस्ति से विदित होता है, कि इसकी माता का नाम गंगादेवी था और इसने ये ग्रंथ मंडपदुर्ग (मांडू) में संवत् १४९० वि० में समाप्त किए थे । १२: पद्मसिंह : करण के चौथे पुत्र का नाम पद्मसिंह था । इसने पार्श्वनाथ की यात्रा की और व्यापार से बादशाह को प्रसन्न किया था। इस का भी पद "संघपति" लिखा है । अतः इसने भी यह यात्रा संघ . के साथ ही की होगी । १३. आहलू:---- पाँचवें पुत्र का नाम " संघपति हलू" था। इसने मंगलपुर की यात्रा की और जीरापल्ली (जीरावला) में बड़े बड़े विशाल स्तंभ 1 Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंडन का वीरवंश ३०१ और ऊँचे दरवाजे वाला मंडप बनवाया और उसके लिए वितान (चंदवा) भी बनवाया। १४. पाह:- झमण का सबसे छोटा पुत्र पाहू था, इसने अपने गुरु जिनभद्रसूरि के साथ अर्बुद (श्रावू ) और जीरापल्ली (जीरावला) की यात्रा की थी। ये मंमड़ के छहो पत्र आलमशाह (हुशंगगोरी) के सचिव थे। ये बड़े समृद्धिशाली और यशस्वी थे। मंडन ने अपने काव्यमंडन में लिखा है कि "कोलाभक्ष राजा ने जिन लोगों को कैद कर लियाथा, उन्हें इन धर्मात्मा मभण पुत्रों ने छुड़ाया। यह कोलाभक्ष कौन था विदित नहीं होता, शायद कोलाभक्ष से मतलव मुसलमान से हो । संस्कृत में "कोल" सुकर को कहते हैं और अभक्ष" का अर्थ "न खानेवाला" ऐसा होता है। अतः कोलामक्ष का अर्थ सूअर न खानेवाला अर्थात् मुसलमान यह हो सकता है। यदि यह अनुमान ठीक है तो "कोलाभक्षनृप" का अर्थ आलमशाह (हुशंग) ही है । ये लोग हुसंगगोरी के मंत्री थे अतः उसके कैदियों को उस से अर्ज कर छुड़ाया हो यह संभव भी है। १५. मंडन: ऊपर बतलाया जा चुका है कि मंडन, मगरण के दूसरे पुत्र वाहड़ का छोटा लड़का था। यह व्याकरण अलंकार संगीत तथा अन्य शास्त्रों का बड़ा विद्वान् था। विद्वानों पर इसकी बहुत प्रीति थी। इसके यहाँ पंडितों की सभाहोतीथी, जिसमें उत्तमकविप्राकृत Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ राजपताने के जैन-वीर भाषा के विद्वान्, न्यायवैशेषिक, वेदांत, सांख्य भाट्ट प्राभाकर तथा बौद्धमत के अद्वितीय विद्वान् उपस्थित होते थे । गणित भूगोल ज्योतिष,वैद्यक, साहित्य और संगीतशास्त्र के बड़े बड़े पंडित इसकी सभा को सुशोभित करते थे। यह विद्वानों को बहुतसा धन, वस्त्र और आभूषण बाँटा करता था । उत्तम उत्तम गायक, गायिकाएँ, और नर्तकिएँ, इसके यहाँ आया करती थीं और इसकी संगीतशास्त्र में अनुपम चोग्यता देख कर अवाक रह जाती थीं। उन्हें.. भी यह द्रव्य आदि से संतुष्ट करता था। यह जैसा विद्वान था. वैसा ही धनी भी था । एक जगह इसने स्वयं लिखा है कि "एक दूसरे की सौत होने के कारण महालक्ष्मी और सरस्वती में परस्पर वैर है, इसलिए इस (मंडन) के घर में इन दोनों को बड़ी जोरों से बदाबदी होतीहै अर्थान् लक्ष्मी चाहती है कि मैं सरस्वती से अधिक बर्दू और सरस्वती लक्ष्मी से अधिक बढ़ने का प्रयत्न करती है। ___ मालवे के बादशाह का इस पर बहुत ही प्रेम था। ऐसे ऐसे विद्वानों की संगति से वादशाह को भी संस्कृत साहित्य का अनुराग हो गया था। एक दिन सायंकाल के समय वादशाह वैग था। विद्वानों की गोष्ठी हो रही थी। उस समय बादशाह ने मंडन से कहा कि "मैंने कादंबरी की बहुत प्रसंशा सुनी है और उसकी कथा सुनने को बहुत जी चाहता है । परन्तु राजकार्य में लगे रहने से इतना समय नहीं कि ऐसी बड़ी पुस्तक सुन सकूँ ! तुम बहुत बड़े विद्वान् हो, अतः यदि इसे संक्षेप में बनाकर कहो, तो बहुत ही अच्छा हो" । मंडन ने हाथ जोड़कर निवेदन किया कि "वाण ने ... Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंडन का चीर वंश ३०३ स्वयं ही कादंबरी की फया संप से कही है, परंतु यदि आपकी श्राशा है, तो मैं इसकी कथा आपसे संक्षेपमें निवेदन करूँगा"यह फद फर इसने "मंडन-कादंबरी-दर्पण" नामक अनाष्टुप श्लोकों में फादंबरी का संक्षेप घनाया। एक बार पौर्णिमासी के दिन सायंकाल के समय मंडन पहाड़ों के आंगन में बैठा हुआ था। सरस साहित्य की गोष्ठी हो रही थी। इतने में चंद्रोदय हुआ। चंद्रमा कवियों की परम प्रिय वस्तुओं में से एक है। कदाचिन ही ऐसा कोई कान्य होगा, जिसमें चन्द्रमा सेक्षा की दृष्टि से देखा गया हो । चंद्रमा की अमृतमयी रश्मियों ने मंडन के एडय फो विद्वत कर दिया। उसने कई लोक चंद्रमाके वर्णन के बनाये। ऐसा मालूम होता है कि चंद्रमा की रमणीयता दखने में उसे सोने का भी स्मरण न रहा हो। चंद्रमा के उदय से यस्त तक फी भिन्न भिन्न प्रशाओं का उसने अनेक ललित पद्यों में वर्णन किया । धीरे धीरे चंद्रमा के अस्त होने का समय आया । मंडन का चित्त अत्यंत खिन्न हुश्रा। जिसके लिए वह सारी रात पेठा रहा था, उसे इस प्रकार अस्त होते देख वह कहने लगा।"हाय जिस मार्ग पर चलने से पहले सूर्य का अधःपात हो चका था, दुर्दैव-वश चंद्रमा भी उसी मार्ग पर चला और उसका भी प्रा में अधःपात हुश्रा । जब पतन होने को होता है तो जानो हुये का भी मान नष्ट हो जाता है। चंद्रमा को पहले पूर्व दिशा प्राप्त हुई थी, पर उसे छोड़ वह पश्चिम दिशा के पास गया । पहले तो उसने राग (अनुराग और रफता) प्रकाशित कर उसे अपनाया पर वेश्या की Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ राजपूताने के जैन-चीर . . . . . . . . तरह थोड़े ही समय में सर्वस्व हरण कर इसको दुतकार कर निकाल दिया ?" ___ मंडन ने देखा कि सूर्य की किरणों से तोड़ित होकर चंद्रमा भाग रहा है। उन्हों ने उसे कांतिहीन कर पश्चिम समुद्र में गिरा दिया है। उसे सूर्य के ऊपर बहुत ही क्रोध आया अपने प्रीतिपात्र चंद्रमा की विजय के लिये उसने "चंद्रविजय" नामक एक प्रबंध ललित कविता में बनाया, जिसमें चंद्रमा का सूर्य के साथ युद्धकर उसे हराना और पीछे उदयाचल पर उदय होने का वर्णन है ।.. ___ मंडन जैन संप्रदाय के खरतरगच्छ का अनुयायी था । उस समय खरतरगच्छ के प्राचार्य जिनराजसरि के शिष्य जिनभद्रसरि थे । मंडन का सारा ही कुटुम्ब इन पर बहुत ही भकि रखता था और इनका भी मंडन के कुटुम्ब पर बड़ा ही स्नेह था। "पाहू" के जिनभद्रसूरि के साथ यात्रा करने का वर्णन ऊपर आ चुका है । ये बड़े भारी विद्वान् थे। इनके उपदेश से श्रावकों ने उज्नयंत (गिरनार) चित्रकूट (चित्तड़) मांडव्यपुर (मंडोवर) आदि स्थानों में विहार बनाए थे । अणहिल्लपत्तन आदि स्थानों में उन्होंने वड़ेर पुस्तकालय स्थापित किए थे और मंडप दुर्ग (मांडू) मलादनपुर (पालनपुर) तलपाटक आदि नगरों में इन्होंने जिन-मूर्तियों की प्रतिष्ठा की थी। . "जिनमाणिक्यसूरी (वि० सं० १५८३-१६१२) के समय की लिखी हुई पट्टावली और बीकानेर के यति क्षमाकल्याणजी की बनाई हुई पट्टावली से विदित होता है कि जिनराजसूरि के पट्ट Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०५ मंडन का वीर वंश पर पहले जिनवर्द्धनसूरि को स्थापित किया था, परंतु उनके विषय. में यह शंका होने पर कि उन्होंने ब्रह्मचर्य भंग किया है, उनके स्थान पर जिनभद्रसूरि को स्थापित किया गया था। महेश्वर ने अपने काव्यमनोहर में जिनभद्रसूरि की वंशपरंपरा इस प्रकार दी है१जिनवल्लभ, २ जिनदत्त, ३ सुपर्वसरि, ४ जिनचंद्रसरि, ५ जिनसरि, ६ जिनपद्मसूरि,७ जिनलब्धिसूरि, ८ जिनराजसूरि. ९ जिनभद्रसरि। पाटण के भांडार में भगवतीसूत्र की एक प्रति है । उसके अंत की प्रशस्ति से विदित होता है कि जिनभद्रसरि के उपदेशसे मंडन ने एक बृहत् सिद्धांत ग्रंथों का पुस्तकालय "सिद्धांत कोश" नामक तय्यार करवाया था। यह भगवतीसूत्र भी उसी में की एक पुस्तक मंडन ने अपने ग्रन्थों के अंन की प्रशस्ति में अथवा महेश्वर ने अपने काव्यमनोहर में मंडन के पुत्रों के विषय में कुछ नहीं लिखा, परन्तु उपरोक्त भगवतीसूत्र के अंत की प्रशस्ति से विदित होता है कि मंडन के पूजा, जीजा, संग्राम और श्रीमाल नामक ४ पुत्र थे। मंडन के अतिरिक्त सं० धनराज, सं० खीमराज और सं० उदयराज का भी नाम इसमें लिखा है। खीमराज चाहड़ का दूसरा पत्र खेमराज है और धनराज देहड़ का पुत्र धन्यराज । उदयराज कौन था यह ज्ञात नहीं होता। महेश्वर ने झमण के छः पुत्रों में से तीनों के पत्रों का वर्णन किया है, परन्तु पछा, आल्ह और पाह की संतति के विषय में कुछ नहीं लिखा। संभव है कि उदयराज Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजपूताने के जैनवीर ३०६ इन्हीं में से किसी एक का पुत्र हो । 19 मंडन यद्यपि जैन था और वीतराग का परम उपासक था, · परन्तु उसे वैदिकधर्म से कोई द्वेप नहीं था। उसने अलंकार मडन में अनेक ऐसे पद्म उदाहरण में दिए हैं, जिनका संबंध वैदिकधर्म से है । जैसे— 1 श्रीकृष्णास्य पदद्वंद्वमघमाय न रोचते . अल० म० परि० ५ श्लोक ३३९ अर्थात् जो नीच होते हैं उन्हें श्रीकृष्ण के चरण युगल अच्छे नहीं लगते. ! . किं दुःखहारि हरपादपयोजसेवा यद्दर्शनेन न पुनर्मनुकत्वनेवि तत्रैव ९७ अर्थात् दुख को हरण करने वाला कौन है ? महादेव के चरण कमलों की सेवा; जिनके दर्शन से फिर मनुष्यत्व प्राप्त नहीं होता ( मोच हो जाता है) । . मंडन के जन्म तथा मृत्यु का ठीक समय यद्यपि मालूम नहीं होता तथापि मंडन ने अंगना मंडपदुर्ग (मांडू) में वहाँ के नरपति आलमशाह का मन्त्री होना प्रकाशित किया है । यदि उपरोक्त अनुमान के अनुसार आलमशाह हुशंगंगोरी ही का नाम है, तो कहना होगा कि मंडन ईसा की १५वीं शताब्दी के प्रारंभ में हुआ था, क्योंकि हुशंग का राज्यकाल ई० स० १४०५ से ई० स०१४३२. · Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंडन का वीर वंश ३०७ है । वि० सं० १५०४ ( ई० स० १४४७) की लिखी मंडन के ग्रन्थों की प्रतियों पाटण के भंडार में वर्तमान हैं। इससे प्रतीत होता है कि ईस्वी सन् १९४७ के पूर्व वह ये सब फ्रन्थ बना चका था । मुनि जिनविजयजी के मतानुसार ये प्रतियाँ मंडन ही की लिखवाई हुई हैं । वि० सं० १५०३ में डन ने भगवती सूत्र लिखवाया था, यह ऊपर दर्शन हो का है। इससे ष्ट है कि मंडन वि० सं० (५०४ (ई० सं० १४४७) तक वर्तमान था । महेश्वर ने काव्यमनोहर के सर्ग ७ श्रो० २० में लिखा है कि “संघपति मंगण के ये पुत्र विजयी हैं" इस वर्तमान प्रयोग से विदित होता है कि काव्यमनोहर के बनने के समय भ.म. के हों पुत्र वर्तमान थे । मंडन के ग्रन्थ पाटण (गुजरात) की हेमचंद्राचार्य सभा ने महेश्वरकृत काव्यमनोहर और मंडनवृत (१) कादंबरीदर्पण (२) चंपू मंडन (३) चंद्रविजय और (४) कार मंडन ये पौधों प्रन्थ एक जिल्द में और (५) काव्य मंडन तथा (६) श्रृंगार मंडन दूसरी जिल्द में प्रकाशित किये हैं । प्रथम जिल्द की भूमिका से विदित होता है कि इन उपरोक्त ग्रन्थों के सिवाय (७) संगीत मंडन और (८) उपसर्ग मंडन नाम के दो प्रन्थों की प्रतियाँ भी उक्त सभा के पास । उक्त सभा ने ये प्रतियाँ पाटण के बाड़ी पार्श्वनाथजी के मंदिर से प्राप्त की हैं। Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૦૮ राजपूताने के जैन-वीर . मंडन ने चंडन को सारस्वतमंडन का अनुज और काव्य-: 'मंडन के भ्रातृत्व (भाईपन) से सुशोभित कहा है और शृंगार मंडन के अंत में अपने को "सारस्वत-मंडन - कवि " कहां है। इससे सिद्ध है कि सारस्वतमंडन नामक एक और ग्रंथ मंडन ने बनाया है ।' आखूफ्रेट साहब ने अपने "केटलोगस केटलोगरम" नामक पस्तक में मंडन मन्त्री और मंडन कवि इन दो भिन्नर व्यक्तियों का वर्णन लिखा है। अंडन मंत्री के लिए लिखा है कि "ईस्वी सन् १४५६ में "कामसमूह" नामक ग्रंथ के बनाने वाले अनंत का पिता था ।" और मंडन कवि के लिए लिखा है कि "यह उपसर्ग मंडन, सारस्वत मंडन और कविकल्पद्रुम स्कंध नामक ग्रंथों का कर्ता था। जैसा कि ऊपर बतलाया जा चुका है, सारस्वतमंडन .: आदि ग्रन्थ हंमारे चरित्रनायक बाहड़ के पुत्र मन्त्री मंडन ही के बनाए हुए हैं । अतः सिद्ध है कि फ्रेट साहिव जिसे मंडन कवि कहते हैं वह बाहड़ का पुत्र मन्त्री मंडन ही है । कामसमूहके कर्ता अनंत का पिता मंत्रिमंडन इस मन्त्रिमंडन से बिलकुल 1 ही भिन्न है। दोनों के नामों की समानता दोनों का मन्त्री होना और समय भी प्रायः समान ही होना यद्यपि इस बात का भ्रम उत्पन्न करता है कि अनंत मांडू के मंत्रिमंडन ही का पुत्र हो, परन्तु अनंतकृत कामसमूह और भगवती सूत्र के अंत की प्रशस्ति 'देखने पर यह भ्रम नहीं रहता ।' : • ' ' पाठकों को विदित है कि मांडू का मंत्रि मंडन सोनगरा गोत्र का क्षत्रिय था परंतु अनंत क्षत्रिय नहीं था, वितु अहमदाबाद का Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंडन का वीर वंश ३०९ रहने वाला बढ़नगरा नागर ब्राह्मण था यथा नागरज्ञाविजातेन मंत्रिमंडनसनना अनंतेन महाकाव्ये सतीवृत्तं प्रकाशितम् । कामसमूह सतीवृत्त प्रकरण लो० २९ अहमदनिर्मितनगरे विहितावसतिश्च वृद्धनागरिक: मंडनसनुरनंतो रचयति सेवाविधिनार्याः कामसमूह-त्री-सेवा-विधी प्रकरण लो० १९ भगवतीसूत्र के अंत में जो मंडन के पुत्रों के नाम दिए हैं उनमें अनंत नाम नहीं है। "केटलोगस केटलोगरम" से मालूम होता है कि ऊपर लिखित ग्रंथों के सिवाय मंडन ने कविकल्पद्रुम स्कंध नामक एक और भी अन्य बनाया था । इस प्रकार मंडन के बनाये हुए कुल १० प्रथ .' अब तक विदित हुए हैं, जो नीचे लिखे अनुसार हैं। (१) कादंबरीदर्पण (२) चंपूमंडन (३) चंद्रविजयप्रबंध (8) अलंकारमंडन (५) काव्यमंडन (६) अंगारमंडन (७) संगीतमंडन Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० राजपूताने के जैन वीर (८) उपसर्ग मंडन (९) सारस्वतमंढन (१०) कविकल्पद्रुम इनमें से आदि के छः ग्रंथ हेमचंद्राचार्य सभा पाटण की ओर से प्रकाशित हो चुके हैं। Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आबू Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अब लुप्त सी जो हो गई रक्षित न रहने से यहाँ, सोचो, तनिक, कौशिल्य की कितनी कलाएँ, थी यहाँ ? प्रस्तर विनिर्मित पर यहाँ थे और दुर्ग बड़े बड़े, थन भी हमारे शिल्प-गुण के चिन्ह कुछ कुछ हैं खड़े ॥ अब तक पुराने खण्डहरों में, मन्दिरों में भी कहीं, बहु मूर्तियाँ अपनी कला का पूर्ण परिचय दे रहीं । प्रकटा रही हैं भग्न भी सौन्दर्य की परिपुष्टता, '' 'दिखला रही हैं साथ ही दुष्कर्मियों की दुष्टता || - मैथिली शरण गुप्त Page #331 -------------------------------------------------------------------------- Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ man NEL SENA 4AR . S 1 . HNIAR MAP प्रायू का देलवाड़ा-मन्दिर-"हिन्दुस्तान भर में यह मन्दिर सर्वोत्तम है। सिवाय ताजमहल के कोई भी स्थान इसकी बराबरी नहीं कर सकता" -फर्नल जेम्स टॉड Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिचय आबू - परिचय ३१३ ' वर्तमान आबू पर अंग्रेजी अमलदारी है, किन्तु इससे पूर्व यहाँ गुजरात के राजा शासन करते थे । गुजरात के कितने ही प्रतापी राजा और मंत्री, सेनाप त आदि जैनधर्मी हुये हैं। जिनका विस्तृत परिचय "गुजरात के जैन-वीर" में दिया जायगा । किन्तु इनके बनवाये हुये कई रमणीक दर्शनीय मन्दिर आबू पर अपनी भव्य छटा दिखला रहे हैं; और धावू राजपूताने में सम्मिलित है, इस लिये यहाँ केवल आबू का परिचय कराया जाता है । जोधपुर-राज्य के पुरातत्वविभाग के आफीसर साहित्याचार्य पं० विश्वेश्वरनाथ रेड ने, मार्च सन् १४ में जोधपुर के जैन साहित्य सम्मेलन के लिये "आबू पर्वत के प्रसिद्ध जैनमन्दिर" नामक विद्वतापूर्ण एकं निबन्ध लिखा था, जिसे यहाँ उद्धृत किया जा रहा है: Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ राजपूताने के जैन वीर । आबू पर्वत परके प्रसिद्ध जैनमन्दिर, "शाबू पर्वत सिरोही राज्यके अग्निकोण में है। यद्यपि यह . पर्वत आडावला (अली) पर्वत के सिलसिले से हट करके स्थित है, तथापि इसकी कई शाखाएं आडावला पर्वतसे । मिली हुई हैं । आबू पर्वत के उपरि भाग की लम्बाई १२ माइल और चौड़ाई २ से ३ माइल तक है। इस पर्वत के सबसे ऊँचे शिखर का नाम गुरु शिखर है । यह शिखर समुद्रतल से ५६५० फीट ऊँचा है। आबू पर्वत को समतल भूमि (अधित्यका) की ऊँचाई ४००० : फीट है। इस पर्वत की उत्पत्ति के विषय में इस तरह लिखा है:पहले इस स्थानपर उतङ्क मुनि का खोदा हुआ एक बड़ा खड्डा : था। इसी के आसपास वशिष्ठ ऋषि का आश्रम था । एक समय .. वशिष्ठ की गाय इस खड्ढे में गिर गई। इससे वशिष्ठ को बहुत खेद, हुआ। तथा वशिष्ठ ने उस खड्डे को भर देने के लिये अर्बुद नाम के सर्प द्वारा हिमालय पर्वत का नन्दिवर्धन नामक शिखर मंगवाकर उस जगह स्थापन कर दिया। वि० सं० ११८७ का एक लेख, पाटनारायण के मन्दिर में लगा है। उसमें भी इस विषय का एक :। लोक है । यथाः Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आबू पर्वत पर के प्रसिद्ध जैनमन्दिर ३१५ "उत्तङ्कषिरे भीमे वशिलो नन्दिवर्द्धनम् । किला, स्थापयामास भुजावुदसंज्ञयो ।" जिनप्रभसूरि पिरचित ' अर्बुदकस' में भी इस विषयका उल्लेख है: "नन्दिवर्द्धन इत्यासीत्प्राकशैलोऽयं हिमाद्रिजः । कलिनादनागाधिरानात्वबुद इत्यभूत ॥२५॥ अर्थात्-अर्बुद नाम के सर्प द्वारा लाया जाने के कारण यही शिवरअन्तमें बाबू (अबुद) नाम से प्रसिद्ध हुआ। प्राचीन लेखों में लिखा है कि, इसी पर्वत पर वशिष्ठ ने अग्निकुण्ड से परमार, पडिहार, सोलङ्की और चाहमान (चौहान) नामके चार वीरों को उत्पन्न किया था। इन चारों ने अपने नाम से चारवंश प्रचलित किये। __ यद्यपि इस प्रकार की उत्पत्ति पर ऐतिहासिकदृष्टि से विश्वास नहीं किया जा सकता और इस लेख के विरुद्ध भी कई : लेख मिल गये हैं जैसे अजमेर के ढाई-दिन के झोंपडे में एक शिला मिली है, इसमें चाहमान की उत्पत्ति सूर्यवंश में होनी लिखी हैतथापि इस समय इस विषय पर विशेष वादविवाद न करके हम अपने प्रस्तुत विषय को ही लिखते हैं। - यह पर्वत प्राचीन समय से ही शैव, शाक्त, वैष्णव, और जैनों द्वारा पूज्य दृष्टि से देखा जाता है । तथा वहाँ पर इन मतों के मन्दिरादिक होने से प्रतिवर्ष बहुत से यात्री भी दर्शनार्थ जाया Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३.१६ राजपूताने के जैन-वीर विक्रम संवत् १५०६ ( ई० स०१४४९) के राणा कुम्भा के लेख :, से पाया जाता है कि, उस समय घोड़ों और बैलों द्वारा वहाँ से व्यापार आदि किया जाता था; क्योंकि वहाँ पहुँचने के लिए केवल पहाड़ी मार्ग ही था । परन्तु इस समय यह पर्वत राजपूताने के एजेण्ट गवर्नर जनरल का निवासस्थान और सेनिटोरियम ( स्वास्थ्यप्रद स्थान ) वनगया है। तथा राजपूताना मालवा रेलवे के वरोड ( खराडी) स्टेशन से यहाँ तक १८ माइल लम्बी . सड़क भी बनादी गई है। ' I 7 '' वहीं पर देलवाडा नामक एकं स्थान है। यह स्थान श्रवदादेवी (अधरदेवी) से क़रीब एक माहल ईशानकोण में हैं। यह स्थान देवालयों के लिये विशेष प्रसिद्ध है । यद्यपि यहाँ पर अनेक मन्दिर हैं । तथापि यहाँ के श्रदनाथ और नेमिनाथ के जैनमन्दिर की कारीगरी संसार में अनुपम है । ये दोनों मन्दिर सङ्गमरमर के बने हुये हैं। इन दोनों मन्दिरों में भी पोवाड़ महाजन का बनवाया हुआ विमलवसही नामक आदिनाथ का मन्दिर विशेषतर सुन्दर और पुराना है । यह मन्दिर वि० सं० १०८८ ( ई० स० १०३१) में बना था । यह बात उसमें से मिली हुई वि० सं० १३७८, ( ई० स० १३२२ ) की प्रशस्ति से प्रकट होती है। जिनप्रभसरि को तीर्थकल्प नामक पुस्तक से भी इस मन्दिर का रचनाकाल वि० सं० १०८८ ही प्रकट होता है। ! खरतरगच्छ की पट्टावली में लिखा है : पोरवाड वंशोत्पन्न मंत्री विमल ने तेरह सुलतानों की छतरियों Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आबू पर्वत पर के प्रसिद्ध जैनमन्दिर ३१७ को तोड़ कर उस स्थान पर चन्द्रावती नगर बसाया, और वहाँ पर ऋषभदेव का मन्दिर बनवाया। इस मन्दिर की प्रतिष्ठा वि० सं० १०८८ में वर्धमानसूरि द्वारा की गई। प्रोफेसर बेवर के Catalogue of the Berlin Mss; ) बर्लिन नगर की प्राचीन पुस्तकों की सूची के दूसरे भाग के १०३६ और १०३७ वें पृष्ठों में उपर्युक्त कथा के साथ ही यह भी लिखा है कि, विमल ने जिस समय यह मन्दिर बनवाने के लिये यहाँ की भूमि ब्राह्मणों से खरीदी, उस समय उसको उतनी पृथ्वी पर सुवर्ण मुद्राएँ दिलाकर पृथ्वी के बदले ब्राहरणों को देनी पड़ी। उसने इस मन्दिर के बनवाने में १८ करोड़ और ५३ लाख व्यय किये । यह मन्दिर परमार धन्धुक के समय में बनवाया गया था । यह धन्धुक गुजरात के सोलंकी भीमदेव का सामन्त था । किसी कारणवश भीम और धन्धुक के बीच मनोमालिन्य हो गया । इस से धन्धुक आवू को छोड कर के मालवे के परमार राजा भोज के पास चला गया। भीम ने अपनी तरफ से विमलशाह को वहाँ का दण्डनायक ( सेनापति ) नियत किया । उसने कुछ समय बाद बंधुक और भीम के बीच का विरोध दूर कर इन दोनों के बीच . सुलह करवादी । उसी समय उसने यह मन्दिर बनवाया था। जैनसमाज में ऐसी प्रसिद्धि है कि इस मन्दिर के बनाने के लिए हाथियों और बैलों द्वारा पत्थर पहुँचाये गये थे । यहाँ पर मुख्य मन्दिर के सामने एक विशाल सभा मण्डप है। इसके चारों तरफ अनेक छोटे छोटे जिनालय हैं। यहाँ पर मुख्य Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ राजपूताने के जैन वीर मूर्ति ऋषभदेव (आदिनाथ ) की है। इसके दोनों पावों में एक एक मूर्ति खड़ी है । इनके सिवाय यहाँ पर और भी अनेक पाषाण. और पीतल की मूर्तियाँ विद्यमान हैं । परन्तु ये सब पीछे की बनी हुई प्रतीत होती हैं । हम ऊपर लिख चुके हैं कि मुख्य मन्दिर के चारों तरफ़ अनेक छोटे छोटे जिनालय हैं। इन पर के लेखों से प्रकट होता है कि इनमें की मूर्तियाँ भिन्न भिन्न समय में भिन्न भिन्न पुरुषों द्वारा स्थापन की गई हैं। मन्दिर के सामने हस्तिशाला: है । यह साढ़े पत्थर से बनाई गई है । इसने दरवाजे के सन्मुख विमलशाह की अश्वारूढ पंत्थर की मूर्ति बनी है । परन्तु चूने की लई ठीक तौर से न होने से उसमें भद्दापन आगया है । इस के मस्तक पर गोल मुकुट है। तथा पास ही में एक काठ का बना हुआ पुरुष छत्र 'लये खड़ा है । हस्तशला में पत्थर के बने 1 10 हुए १० हाथी खड़े हैं। इनमें ६ हाथी वि० सं० १२०५ ( ई० स० ११४९ ) फाल्गुण सुंदि १० के दिन नेढक, आनन्दक, पृथ्वीपाल, 'घरिक, लहरक और मोनक नाम के परुषों ने बनवाकर रक्खे थे। इन सबों के नामों के साथ महामात्य खिताब लगा है । बाक़ी के '४ हाथियों में से एक परमार ठाकुर जगदेव ने और दूसरा महामात्य धनपाल ने वि० सं० १२३७ ( ई०स० ११८०) आषाढ़ सुदि ८' को बनवाकर रक्खा था । तीसरा हाथी महामात्य धवल ने बन वाया था । इसका संवत् चूने के नीचे आजाने से पढ़ा नहीं जाता। तथा चौथे हाथी का सारा लेख चूने के नीचे दब गया है । यद्यपि पहले इन सब हाथियों पर पुरुषों की मूर्तियाँ बनी हुई थी। तथापि de Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आबू पर्वत पर के प्रसिद्ध जैनमन्दिर ३१९ इस समय केवल तीन मूर्तियाँ मौजूद हैं। ये मूर्तियाँ चतुर्भुज हैं। प्रसिद्ध इतिहासवेता रायबहादुर पं० गॅरीशंकरजी का मत है कि. विमलशाह की मूर्ति और हतिशाला, मन्दिर के साथ की बनी हुई नहीं है, पीछे से बनवाई गई हैं । हस्तिशाला के बाहर चौहान महाराव लुंढा ( लुंभा ) के दो लेख लगे हैं। इनमें का प्रथम लेख वि० सं० १३७२ (ई० स० १३१६ ) चैत्र यदि ८ का है और दूसरा वि० सं० १३७३ (ई० स० १३१७) चैत्र बदि का, सिरोही के राव इसी के वंशज हैं । जिनप्रभसरि की तीर्थकल्प नाम की पुस्तक में लिखा है:म्लेच्छों ने विमलशाह और तेजपाल के बनवाए हुए आदिनाथ और नेमिनाथ के मन्दिरों को तोड़ डाला था । शक सं० १२४३ (वि० सं० १३७८) में महणसिंह के पुत्र लल्ल ने आदिनाथ के मन्दिर का और चडसिंह के पुत्र पीथड ने नेमिनाथ के मन्दिर का पीछे से जीर्णोद्धार करवाया । वि० सं० १३७८ के आदिनाथ के मन्दिर के लेख से प्रकट होता है कि, विमल को स्वप्न में अम्बिका ने आदिनाथ का मन्दिर बनवाने की आज्ञा दी थी । उसके अनुसार विमल ने यह मन्दिर वनवाया था । तथा राव तेजसिंह के राज्य समग्र वि० सं० १३७८ ( ई० सं० १२२१ ) में लल्ल और वीजड नाम के साहूकारों ने इसका जीर्णोद्धार करवाया । जिस समय यह लेख लिखा गया था, उस समय लुंभा का देशन्स हा चुका था । ऐता इसो. लेख से ज्ञात होता है । Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० राजपूताने के जैन वीर श्री रत्नमन्दिरमणि की बनाई हुई उपदेशतरङ्गिणी में; जो विक्रम संवत् की सोलवीं शताब्दी में बनाई गई थी। इस मन्दिर के बनवाने की कथा इस प्रकार लिखी है: गुजरात के राजा भीम को दुश्मनों द्वारा भड़काया हुआ देखकर उसका सेनापति विमल वहाँ से पाँचसौ सवार और पाँच करोड़ सोने से लदे ऊँट लेकर चंद्रावती में चला गया। उसके इस प्रकार आगमन से चंद्रावती राजा धारावर्ष भयभीत होकर सिन्धु देश की तरफ भाग गया । विमल ने उसके स्थान पर पहुँच उसे ' अपना निवास नियत किया । तथा वहाँ के मांडलिकों (जागीरदारों) ने विमल को अपना राजा बना लिया । तदनन्तर उसने अपनी सेना द्वारा सांभर, मेवाड़, जालोर, आदि नगरों के सौ राजाओं को जीता । एक समय सोते हुए १२ सुलतानों को उसने ना घेव । तथा उनको भी अपने आधीन करलिया। उसके प्रत्रल प्रताप से डरकर स्वयं भीमने अपने मंत्री द्वारा विमल के पास एक करोड़ रुपये नज़र के तौर पर भेजे। परन्तु विमल ने अपने स्वामी और जन्मभूमि का विचार करके उस मंत्री को बहुत कुछ आदर सत्कार सहित पीछा भेज दिया। एक दिन श्री धर्मघोषसूरि के मुख से विमल ने एक शास्त्र वाक्य को सुना, इससे अपनी संग्राम में की हुई हिंसा पर उसको बड़ा दुःख हुआ । तथा श्रीधर्मघोषसूरि से उसने इसके प्रायश्चित्त की व्यवस्था करने की प्रार्थना की। उक्त सूरि ने उसे देवमन्दिर बनवाने आदि पुण्य कर्म करने की आज्ञा Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वू पर्वत पर के प्रसिद्ध जैनमन्दिर ३२१ 'दी। उसके बाद विमल ने अम्बादेवी की आराधना की; जिस से प्रसन्न होकर अम्बा ने वर मांगने की आज्ञा दी । विमल ने देवमन्दिर के बनने और पुत्र होने की प्रार्थना की। इस पर अंबा ने कहा कि दोनों में से एक के लिये कह, क्योंकि दो बातें नहीं हो सकती हैं । तव विमल ने अपनी स्त्री से पूछा । उसने उत्तर दिया कि, पुत्र प्राप्ति तो पशु, पक्षि-योनि में भी हो सकती है। इस लिये मन्दिर का वर मांगो । विमल ने भी ऐसा ही किया । अम्विका वर देकर धावू पर चली गई । विमल ने उसके कुंकुम से शोभित पृथ्वी पर उल्लिखित पदचिन्ह को खोदा, वहाँ से उसको ७२ लाख का द्रव्य मिला। इसको प्राप्त कर विमल ने मन्दिर बनवाना प्रारम्भ कर दिया | परन्तु यह मन्दिर दिन में बनाया जाता था और रात को स्वयं ही गिर पड़ता था । इसी तरह ६ महिने बीत गए । तब विमल नैं देवी का आह्वाहन किया। देवी ने प्रकट होकर कहा कि, यह काम इस पृथ्वी के मालिक वालीनाह नाग का है। अतः तू तीन दिन तक उपवास करके उसीकी पूजा कर और पवित्र चलि दे | परन्तु यदि वह मद्य मांस मांगे तो खड्ग निकालकर उसको धर्मका देना । यह कह कर देवी चली गई । विमल ने वैसा ही किया । तथा खड्ड में अम्बिका को देखकर वालीनाह भाग गया और उस दिन से वहाँ पर केवल क्षेत्रपाल की तरह रहने लगा ! मन्दिर निर्विघ्न समाप्त हुआ । संवत् १०८८ में आदिनाथ की मूर्ति स्थापन की गई। तथा वहीं पर अम्बिका की कृपा सूचित करने के 1 लिये खश्वर क्षेत्रपाल सहित एक अम्बिका की मूर्ति भी स्थापन Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ राजपूताने के जैन वीर की। उस मन्दिर के कार्य की समाप्ति पर विमल ने इतना छान् किया कि, जैन लोग अव तक 'विमलश्री सुप्रभातं' कहकर आशीर्वाद देते हैं । इस कथा में कहाँ तक ऐतिहासिक सत्यता है इसको पाठक स्वयं विचार सकते हैं। इसपर विवाद करना व्यर्थ है । इस मन्दिर में एक लेख वि० सं० १३५० ( ई० स० १२९४ ) माघ सुदि १ का सोलंकी राजा सारंगदेव के समय का भी लगा हुआ है । इस मन्दिर की जितनी प्रशंसा की जाय थोड़ी है। इससे इस समय की शिल्प निपुणता का भी बोध होता है। इतिहास लेखक कर्नल टॉड साहव ने इस मन्दिर के विषय में लिखा है: sparkeaton "हिन्दुस्तान भर में यह मन्दिर सर्वोत्तम है। सिवाय ताजमहल के कोई भी स्थान इसकी बराबरी नहीं कर सकता ।" इस मन्दिर के पास ही दूसरा लूणवसही नामक नेमिनाथ का प्रसिद्ध मन्दिर है । इसको वस्तुपाल, तेजपाल का मन्दिर कहते हैं। यह मन्दिर वस्तुपाल के छोटे भाई तेजपाल का बनवाया हुआ है। जिस प्रकार ताजमहल अपनी स्त्री की यादगार में शाहजहाँ बाद - शाह ने बनवाया था, उसी प्रकार तेजपाल ने अपनी स्त्री अनुपमदेवी और पुत्र लूणसिंह का नाम चिरस्थायी करने और उनके कल्याण के निमित्त यह नेमिनाथ का मन्दिर बनवाया था। इसी मन्दिर में वि० सं० १२८७ (ई० स० १२३०) फाल्गुण बंदि ३ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आबू पर्वत पर के प्रसिद्ध जैनमन्दिर ३२३ रविवार का एक लेख मिला है। उसमें लिखा है:-. ___ वस्तुपाल और उसका छोटा भाई तेजपाल ये दोनों पोरवाड़ महाराज अश्वराज के पुत्र थे। यह अश्वराज अनहिलवाड़े का रहने वाला था। वस्तुपाल और तेजपाल ये दोनों भाई गुजरात के सोलंकी राजा वीरधवल के मन्त्री थे। तेजपालने कृष्णराज के पिता सोमसिंहदेव के राज्य समय अपने पुत्र और स्त्री के कल्यापार्थ आबू पर यह नेमिनाथ का मन्दिर बनवाया। आगे चलकर इस लेख में मन्दिर का वर्णन किया गया है । इस शिला-लेख के रचयिता का नाम सोमेश्वरदेव लिखा है । यह सोमेश्वर सोलकी वीरधवल का परोहित और कीर्तिकौमुदी तथा सुरथोत्सवका कर्ता या। इसी लेखसे यह भी प्रगट होता है कि इस मन्दिर की प्रतिष्ठा . नागेन्द्र गच्छ के विजयसेनसूरि ने की थी। __इस मन्दिर की बनावट भी विमलशाह के मन्दिर की सी है। इसमें मुख्य मन्दिर (गंभारा) के सामने गुंबजदार सभा मण्डप है। और उसके इर्दगिर्द छोटे छोटे जिनालय बने हैं। तथा इसके पीछे हस्तिशाला है। इसके मुख्य मन्दिर में नेमिनाथ की मूर्ति है । तथा पास के जिनालयों में भी अनेक मूर्तियाँ हैं । इनके द्वारों पर भी अलगर लेख खदे हैं। इनमें तेजपाल के ५२ सम्बंधियोंके नाम हैं। इससे प्रगट होता है कि प्रत्येक जिनालय किसी न किसी सम्बन्धि के नाम पर बनवाया गया था। मुख्य मन्दिर के दरवाजे के दोनों पायों में बड़े ही सुन्दर दो ताक हैं। इनको लोग 'देराणी जेठाणी के आले' कहते हैं। कहा जाता है कि इसमें का एक ताक तेजपाल Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ राजपूताने के जैन-चीर. की स्त्री ने और दूसरा वस्तुपाल की स्त्री ने स्वयं अपने खर्च से वनवाया था। शान्तिविजयंजी की 'जैनतीर्थ गांइड' नामक पस्तक में भी ऐसा ही लिखा हैं । परन्तु यह बात विश्वास योग्य नहीं हो सकती, क्योंकि उन दोनों ताकों पर एक ही प्रकार के लेख हैं। उनका आशय इस प्रकार है: वि० सं० १२९० वैशाख वदि १४ वृहस्पतिवार के दिन अपनी दूसरी स्त्री सुहडादेवी के कल्याणार्थ ये ताक और अजितनाथ का चित्र तेजपाल ने वनवाया। यद्यपि इस समय गुजरात में पोरवाड और मोढ जाति के महाजनों के बीच विवाह सम्बन्ध नहीं होता है। तथापि यह संबंध बारहवीं शताब्दी में होता था। ऐसा इस लेख से प्रकट होता है। ___ इस मन्दिर की हस्तिशाला में संगमरमर की १० हथनियाँ एक पंक्ति में खड़ी हैं। इन पर चण्डप, चण्डप्रसाद सोमसिंह, अश्वराज, लुणिग, मल्लदेव, वस्तुपाल, तेजपाल, जैत्रसिंह और. लूणसिंह (लावण्यसिंह) की मूर्तियें वैठाई गई थीं। परन्तु इस समय उनमें से एक भी विद्यमान नहीं हैं । इन हानियों के पीछे की तरफ़ पूर्व की दीवार में १० ताक हैं । इनमें भी इन्हीं दुस पुरुषों की सस्त्रीक मूर्तियें बनी हुई हैं। इनके हाथों में पुष्पमालाएँ हैं । तथा वस्तुपाल के मस्तक पर छत्रं भी बना हुआ है । प्रत्येक स्त्री पुरुषों की मूर्ति के नीचे उनका नाम खुदा हुआ है। ... __ इनका संक्षिप्त वर्णन पूर्वोक्त वि० सं० १२८७ के लेख में भी . किया गया है । ०७० १२८७ के लेख में भी.. Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आबू पर्वत परः के प्रसिद्ध जैनसन्दिर ३२५. " प्रथम ताक में चार मूर्तियें हैं। पहली आचार्य उदयप्रभ की, दूसरी आचार्य विजयसेन की तथा तीसरी और चौथी चण्डप और उसकी स्त्री चाँपलादेवी की है। इस मन्दिर के बनाने वाले इश्जीनियर का नाम शोभनदेव था। इस तरह अपने सारे कुटुम्ब का स्मारकं चिन्ह बनाकर उनके नाम को अमर करने वाला, तेजपाल के सिवाय शायद ही कोई दूसरा पुरुष हुआ हो । इसी मन्दिर में वि० सं० १२८७ फाल्गुण वदि ३ रविवार का एक दूसरा शिलालेख लगा है । इसमें यहाँ के वार्षिकोत्सव आदि की व्यवस्था का वर्णन है । तथा साथ ही उसमें सहायता देनेवाले महाजनों के नाम और गाँव भी लिखे हैं । पूर्वोक्त उपदेशतरङ्गिणी में इस मन्दिर के रचना का वृतान्त इस तरह लिखा है: : एक समय बहुत से साथियों सहित वस्तुपाल और तेजपाल धवलक (धौलका) गाँव से हडाला में आए। वहाँ पहुँचने पर जब उनको विदित हुआ कि आगे रास्ते में लुटेरों का भय है, तब उन्होंने अपने विश्वासी पुरुषों सहित आपस में विचार कर रात्रि . के समय अपने धन को तांबे के कलसों में भर दिया और उन कलसों को पृथ्वी में गाड़ने के लिये तालाब के निकट एक गेहूं के खेत में ले आए तथा वहाँ पहुँचकर एक खेजड़ी के वृत्त के नीचे खोदना आरम्भ किया । वहाँ पर वस्तुपाल के भाग्य से बड़ा भारी खजाना निकला । इसको देखकर सारे पुरुष : विस्मित हो गये । ī " Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | ३२६ राजपूताने के जैन वीर इसके अनन्तर उन्होंने अपना धन भी उसी में डालकर उसे छिपा दिया और वहाँ से चले आए तथा विचारने लगे कि इतने ' द्रव्य का क्या किया जाय ? उनको चिन्तित देखकर अनुपमदेवी ने उनसे इसका कारण पूछा। इस पर एकान्त में उससे उन्होंने सारा वृतान्त कहा । यह सुन कर उसने उत्तर दिया कि, इस तरह धन को छिपाना उचित नहीं है । इसको इस तरह से छिपाना चाहिये, जिससे प्रत्येक पुरुष इसे देखकर भी ले जा न सके । अर्थात् इस द्रव्य से मन्दिर आदि बनवा देने चाहियें । इस वात को उन्होंने भी पसंद कर लिया । तथा वहाँ से द्रव्य लाकर मन्दिर श्रादिक बनवाए । आगे चलकर उसी पुस्तक में लिखा है कि, प्रथम धौलका नामक ग्राम में रहनेवाले लूणिग, मालदेव, वस्तुपाल और तेजपाल बहुत निर्धन थे। अपनी निर्धनता के कारण मरते समय अपने कुटुंब से द्रव्यादिक दान करने की प्रतिज्ञा न करवाकर लूगि ने केवल तीन लाख प्रणाम् ( नवकार) करने की प्रतिज्ञा करवाई:( अर्थात् तीन लाख नवकारों के स्मरण करने से जो पुण्य होता है वह मांगा ) अपने भाई की ऐसी अवस्था देखकर वस्तुपाल ने और भी कुछ इच्छा प्रकट करने की प्रार्थना की । यह सुन कर लूगिंग ने कहा कि, आबू के विमलवसही नाम के मन्दिर 4 में देवकुलिका ( देवालय ) बनवाने की मेरी इच्छा थी; सो यदि हो सके तो इसे पूरी करना । जब वस्तुपाल और तेजपाल को द्रव्य लाभ हुआ, तब उन्होंने Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आबू पर्वत पर के प्रसिद्ध जैनमन्दिर ३२७ चन्द्रावती के राजा धारावर्ष से मन्दिर बनवाने के लिये जमीन खरीदी। उसकी कीमत के लिये उतनी ही पृथ्वी पर द्रम्म विद्या कर राजा को दिये । तथा उस खरीदी हुई पृथ्वी पर सूत्रधार शोभन द्वारा यह मन्दिर बनवाया । परन्तु इसकी सामग्री एकत्रित करने के लिए इसके पहले उन्हें मार्ग में स्थान स्थान पर जलाशयों और भोजनालयों का प्रबन्ध करवाना पड़ा। १५ सौ कारीगर इस मन्दिर में कार्य करते थे । इस तरह यह मन्दिर तीन वर्ष में समाम हुआ। इसके लिये पत्थर इकठ्ठे करने में पत्थरों ही के समान रुपये खर्च करने पड़े । संवत् १२८३ में यह कार्य प्रारम्भ हुआ और संवत् १२९२ में इसकी प्रतिष्ठा हुई । मन्दिर में १२ करोड ५३ लाख रुपये लगे । इसका नाम लूगिगवसही रक्खा। लोग इसको तेजपाल वसही कहने लगे। इसकी प्रतिष्ठा के समय ८४ रागक, १२ मंडलीक, ४ महीधर और ८४ जाति के महाराज एकत्रित हुए थे। इन सब के सामने जालोर के राजा चौहान श्री उदयसिंह के प्रधान यशोवीर से वस्तुपाल ने इस मन्दिर की बनावट के गुण और दोष पूछे । उस समय उसने सूत्रधार शोभन से कहना प्रारम्भ किया कि, "हे शोभन ! तेरी माँ के कीर्तिस्तम्भ पर तेरी माता की मूर्ति का हाथ ऊपर को होना उचित नहीं है; क्योंकि उसका पुत्र तू केवल कारीगर ही है; जो कि स्वभावतः ही लालची होते हैं। परंतु दानी वस्तुपाल की माता का हाथ ऊपर होना ही उचित है; क्योंकि उसने अपने गर्भ से ऐसे उदार पुरुप को जन्म दिया है । अन्दर के मन्दिर के दरवाजे पर के तोरण में दो सिंह लगाए हैं। इस से Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ . राजपूताने के जैन-बीर इस में विशेष पूजा आदि का प्रभाव रहेगा। पूर्वजों की मूर्तियों को जिन के पृष्ट भांग में लगाने से इनके वंशजों का ऐश्वर्य नष्ट . होगा। ऊपर आकाश की तरफ मुनि की मूर्ति लगाने से यहाँ पर दर्शन और पूजन के लिये बहुत कम पुरुष आया करेंगे। जिनमन्दिर के रणमण्डप में विलास करती हुई पुतलियों का बताना अन.चत है। इसकी सीढ़ियाँ छोटी होने से इस वंश में सन्तान का अभाव होना प्रकट होता है । बारह हाथ लंबी छीनों के टूटने से मन्दिर का नाश हो सकता है। बाहर के दरवाजे पर कीमती स्तंभ लगवाए गए हैं। उनके लिए दुष्ट लोग मन्दिर तोड़ने की कोशिश करेंगे । मेघमण्डप में की प्रतिमा बहुत ऊंची होने से अपूज्य रहेगी । मन्दिर से मेठ ऊँचे हैं। हस्तिशाला पृष्ठं में होने से इस मन्दिर के दरवाजे पर हाथी नहीं रहेंगे, इत्यादि अनेक दोष, हे शोभन ! इसकी बनावट में रह गए हैं।" यह सुनकर वस्तुपाल ने होनहार इसी तरह समझा। __पंण्डित सोमधर्मगणिं की वनाई उपदेशसप्ततिका में, जिनप्रेमसरि रचित तीर्थकल्प में और पण्डित श्रीलावण्यसमय विरचित विमलरास में भी इस मन्दिर का वृत्तान्त रत्नमन्दिरंगणी की बनाई उपदेशतरङ्गिणी से मिलती हुआ ही है; जैसा कि ऊपर वर्णन किया जा चुका है। अतः प्रत्येक के अलग अलग वर्णन करने का विशेष प्रयोजन नहीं, परन्तु पाठकों के विचारार्थ एक विषय यहाँ पर लिख देना आवश्यक है। वह यह हैं।.. .. .हम यथास्थान लिख चुके हैं कि वि० सं० १२७ के लेख में Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आबू पर्वत पर के प्रसिद्ध जैनमन्दिर ३२९ लिखा है, अपनी स्त्री अनुपमदेवी और पुत्र लावण्यसिंह के कल्याणार्थ तेजपाल ने यह नेमिनाथ का मन्दिर बनवाया था। परन्तु उपर्युक्तं चारों पुस्तकों में अपने पुत्र लावण्यसिंह के बदले अपने भाई लूणिग के लिये तेजपाल ने यह मन्दिर बनवाया, ऐसा लिखा है। हमारी समझ में लूणिग और लूणसिंह (लावण्यसिंह) नाम बहुत कुछ मिलते हुए होने से यह गड़बड़ हुई है । तथा तेजपालं का खंद अपने सामने बनवाया हुआ होनेसे प्रशस्ति का लेख ही अधिक विश्वास योग्य है। जिनप्रभसूरि के तीर्थंकल्प मैं इसका रचनाकाल वि०सं०१२८८ लिखा है। इस मन्दिर की जीर्णोद्धारं पेंथड़ नाम के साहूकार ने करवाया था, क्योंकि, इस मन्दिर को भी मुसलमानों ने तोड़ डाला था। इसके जीर्णोद्धार का लेख स्तम्भ' पर खुदा हुआ है । परन्तु इस में संवत् नहीं है। जिनप्रभसूरिने अपने तीर्थकल्प में इसके जीर्णोद्धार का समय श०सं० १२४३ (वि० सं० १३७८) लिखा है । यह बात हम आदिनाथ के मन्दिर के जीर्णोद्धार के वर्णन में लिख चुके हैं। यद्यपि यह पता नहीं चलता कि इन मन्दिरों को मुसलमानों मैं किस समय तोड़ा। तथापि श्रीयुत पण्डित गौरीशंकरजी का अनुमान है कि तीर्थकल्प वि० सं०' १३४९ (ई० सं० १२९२) । और वि० सं०१३८४ (ई० सं० १३२७) के बीच बना था। इसमें इन मन्दिरों का मुसलमानों द्वारा तोड़ा जाना लिखा है । अतएवं वि० सं० १३६६ (ई.सं. १३०९) के आसपास जिस समय Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ....३३० .. राजपूताने के जैन-धीर.. अलाउद्दीन खिलजी की फौज ने जालोर के चौहान राजा कान्हा देव पर चढ़ाई की, शायद उसी समय ये मन्दिर तोड़े गये हों। जीर्णोद्धार में बना हुआ काम सुन्दरतामें पुराने कार्य की बराघरी नहीं कर सकता है। पुराने समय का कार्य बहुत ही सुन्दर है।' अव हम इसकी प्रशंसा में अपनी तरफ से कुछ न कहकर हि: न्दुस्तानियों के पूर्व पुरुषों को असभ्य समझनेवाली सभ्याभिमानी .. युरोपियन जाति के कुछ सहृदय विद्वानों की सम्मति उद्धृत करतेहैं। : भारतीय शिल्प के मिझ लेखक फर्गुसन साहव ने अपनी 'पिक्चर्स इलस्ट्रेशन्स ऑफ.एनशियेन्ट आर्किटेक्चर इन हिन्दु स्थान' नामक पुस्तक में लिखा है:___ "इस संगमरमर के बने हुए मन्दिर में अति कठोर परिश्रमः सहनशील हिन्दुओं की टांकी से फीते के समान धारीकी से ऐसी : मनोहर आकृतियें बनाई गई हैं, जिनका नकशा काराजपर बनाने में बहुत परिश्रम और समय नष्ट करने पर भी मैं समर्थ नहीं हो । सकता। कर्नल टॉडने यहाँ के गुम्बजकी कारीगरी के लिये लिखा है: "इसका चित्र तैयार करने में कलम थक जाती है । अत्यन्त.. परिश्रमी चित्रकार की कलमको भी इसके चित्रमें वहुत श्रम पड़ेगा। । रासमाला के लेखक प्रसिद्ध ऐतिहासिक फार्वस साहब ने इन . दोनों आदिनाथ और नेमिनाथके मन्दिरों के विषय में लिखा है:. इस मंन्दिरों की खुदाई में केवल स्वाभाविक निर्जीव पदार्थों .. • के चित्र ही नहीं बनाए गए हैं, किन्तु सांसारिक जीवन के दृश्य ... Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घ्यावृ के देलवाड़ा मन्दिर का एक दृश्य "इसका नक़शा कागज पर भी बनाने में बहुत परिश्रम समय न करने पर भी मैं समर्थ नहीं हो सकता । - फर्गुसन ( सादव ) Page #352 -------------------------------------------------------------------------- Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आबू पर्वत पर के प्रसिद्ध जैनमन्दिर ३३१ के व्यापार और नौका सम्बन्धी चित्र तथा संग्राम सम्बंधी चित्र भी किये गये हैं इसके अलावा इसकी छतों में जैनधर्म से सम्बन्ध रखनेवाली कथाओं के चित्र भी खोदे गए हैं।" कर्नल टॉड को, जिस समय वे विलायत को लौट गए थे; मिसेज विलिय हण्टरबेर ने तेजपाल के मन्दिर के गुम्बज का एक चित्र बनाकर दिया था । इससे टॉड साहब उन मेमसाहब के इतने कृतज्ञ हुए कि, आपने अपनी बनाई हुई 'ट्रेवल्स इन वेस्टर्न इण्डिया' नाम की पुस्तक उन्हें अर्पण (Dedicate) करदी | ये दोनों मन्दिर बहुत ही सुंदर और एक दूसरे की बराबरी के हैं। इनसे उस समय के इजीनियरों की शिल्प निपुणता, तथा उस समय के लोगों की सभ्यता, धर्म-निष्ठता, धनाढ्यता और उदारता साफ झलकती है । . तेजपाल के मन्दिर से थोड़ी ही दूर पर भीमासाह का ननवांया हुआ मन्दिर है । इसको अब लोग भैंसासाह कहते हैं । इसमें १०८ मन वज्रन पीतल की आदिनाथ की मूर्ति है । ( इसको सर्व धातु की मूर्ति भी कहते हैं) यह मूर्ति वि०सं० १५२५ ( ई०स० १४६९) फाल्गुन सुदि. ८ को गुर्जर श्रीमालजाति के मन्त्री सुन्दर और गंदा ने स्थापित की थी। ये दोनों मंन्त्री मण्डन के पुत्र थे । 1. म. • इन मन्दिरों के सिवाय वहाँ पर श्वेताम्बर जैनों के दो. मन्दिर और भी हैं। एक शान्तिनाथ का और दूसरा चौमुखजी का | : यहाँ पर एक दिगम्बर जैन मन्दिर भी है । । : ::: Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ राजपूताने के जैन वीर राजस्थान जैन जन-संख्या " १. जोधपुर (मारवाड़ ) २. बीकानेर (जॉगल) (सन् १९३१). ३. जैसलमेर (माड ) .. ४.. जयपुर ( ढूंढाड़). ५. उदयपुर - (मेवाड़) ६. कोटा (हाडोती) ७. अलवर ८. टोक ९. बून्दी (हाड़ोती) १०. भरतपुर ११. सिरोही : १२. बांसवाड़ा १३. ढंगरपर १४. करौली १५. घौलपुर १६: प्रतापगढ़ १७: किशनगढ़ ..... १८. झालवाड १९. शाहपूरा २०. कुशलगढ़ २१- लाव : २२ श्रीवः २३. अजमेर (मेरवाड़ा) कुल संख्या ११३,६६९ २९७७३ • ६६००१ ५१९४ ३९०९.. .६९६९: ४०१९ २३९० १५५०९ ४४५९७ ५९०१. ४४९ १७९९ २६३० १४१९ ५९३ Los ३२०५५९ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंहावलोकन Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेक और बद में है क्या फक्त बनाने वाले, .. जो गुमराह. उन्हें राह में लाने वाले रहमोउलात का सबक सब को सिखाने वाले, हैं: जमाने में हमी धाक बिठाने वाले 'बेखबर जो.थे उन्हें, हमने खबरदार किया। | . ख्वाबेराफलत सैहरइक शख्शकोहुश्यार किया।। , -"दास" Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षेप में राजपूताने के जैन-वीरों का यही परिचय है। नहीं मालूम ऐसे-ऐसे कितने नररत्न संसार-सागर के अन्तस्थल में मूल्ययान मोती की. भांति छिपे हुये पड़े हैं, वकील "इतवाल" साहब:- . अपने सहरा में अभी श्राह बहुत पोशीदा हैं। विजलियां बरसे हुये वादल में भी ख्यांचीदा हैं। इन्हीं नर-रत्नों में से कुछ को इतिहास के उदर-गाहर से निकाल कर प्रकाश में लाने का यह असफल प्रयत्न किया है। इससे अधिक साधनाभाव, समयाभाव आदि के कारण नहीं लिखा जा सका है। यद्यपि समस्त राजपूताना जैन-चीरों की क्रीड़ा स्थली रहा है, वहाँ का चप्पा-चप्पा उनके पवित्र बलिदान से देदीप्यमान है, किन्तु प्रस्तुत पृष्ठों में इनीगिनी रियासतों के कुछेक पीरों का परिचयमात्र ही दिया जा सका है। अस्तु नितना भी संकलन किया जा सका है। वह भला है या बुरा, शुष्क है या नीरस, जैसा भी है पाठकों के करकमलों में है। .. ___ एक बार राजपूताने के एक प्रसिद्ध नेताने वहाँ के वर्तमान राजाओं की शासन-प्रणाली और स्वच्छन्दवृत्ति का जिक्र करते . Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ राजपूताने के जैनवीर हुऐ दुख भरे शब्दों में कहा था कि " राजपूताने की रियासतों के निर्माण में जैनियों का पूर्ण सहयोग रहा है, यदि इनका इस में हाथ न रहा होता, तो इन रियास्तों का आज से कई सौ वर्ष पहिले अस्तित्व ही मिट गया होता। उस वक्त इन रियासतों के अस्तित्व, बनाये रखने में उन जैनों के भाव भले ही श्रेष्ठ रहे हों, पर आज तो हमें उनकी इस करनी के कड़वे फल चखने पड़ रहे हैं।" उस समय मैने उनके इन शब्दों को अत्युक्ति समझ कर उपहास में उड़ा दिया था, किन्तु अब मैं उक्त शब्दों की सार्थकता समझ पाया हूँ । जो महानुभाव राजपूताने में रहते हैं अथवा जिन्होंने राजपूताने के इतिहास का अध्ययन किया है, वह भली भान्ति जानते कि राजपूतानान्तरगत प्रायः सभी रियासतों के जैन-धर्मावलम्बी.. संदियों परतानपुश्त मंत्री, सेनापति, कोषाध्यक्ष आदि होते रहे Hi राज्य की बागडोर, सैन्य संचालन और राजकोष हस्तगत करने से पूर्व किसी जाति को, उस देश के प्रति कितना अधिक अनुराग, बलिदान, आत्म-त्याग करना पड़ता है और सदाचारपूर्ण जीवन व्यतीत करते हुये सब धर्मों और सब क़ौमों के लिये कितना उदार हृदय होना पड़ता है। यह विज्ञ पाठकों से . " नहीं। फिर संदियों जिस जाति के अधिकार में यह महत्व पूर्ण गौरवास्पद रहे हों, उस जाति की महानता, वीरता, त्याग, शौर्य आदि का अन्दाजा लगाने के लिये, सिवाय अनुमान की तराज़ पर तोलने के और क्या उपाय हो सकता है ?- सदियों एक ही וי Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंहावलोकन ३३७ · धर्मावलम्बी राज्य के भिन्न धर्मी होते हुये भी सेनापति, मन्त्री आदि होते रहे हों; राजपूताने के सिवाय संसार के किसी भी भाग. में ऐसे उदाहरण शायद ही मिलें । प्रस्तुत पुस्तक में कुछ इने गिने मंत्री और सेनापतियों का उल्लेख किया गया है, पर इनको इस पद तक पहुँचाने में, इनकी प्रतिष्ठा बढ़ाने में, और इनको विजयमाल पहनाने में इनके असंख्य अनुयाइयों को अपनी आहुति देनी पड़ी होगी, क्योंकि जब तक कोई जाति अपने को मिटाकर ख़ाक में मिला नहीं देती, तब तक उसे उपयुक्त फल की प्राप्ति नहीं होती । उस जमाने में राजपूताने के जैनियों का सैनिक जीवन था । वह अपने देश, धर्म और स्वामी के लिये मिटना अपना धर्म समगते थे। किसी ने भी देशद्रोह या विश्वासघात किया हो, अथवा युद्ध से पीठ दिखाई हो, सौभाग्य से ऐसा एक भी उदाहरण नहीं मिलता । जैन वीरों ने अपनी प्रखर प्रतिभा अद्भुत साहस अलौकिक वीरता से अनेक लोकोपयोगी कार्य किये हैं । आज भी राजपूताने के वर्तमान जैनों के पास उनके सुयोग्य पूर्वजों को उनकी सेवायों के उपलक्ष में मिले हुये राज्य की ओर से पट्टे (सनद, प्रमाण पत्र ) आदि मौजूद हैं। जिनसे प्रकट होता + जय मिटाकर अपनी हस्ती सुर्मा धन जायेगा तु । अहले आलम की निगाहों में समा जायेगा तू ॥ "दास" Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ राजपूताने के जैन-धीर है कि, राजपूताने की रियासतों का अस्तित्व यवन-शासनकाल में . उन जैन वीरों के ही बाहु-बल से ही रह सका था। उन वीरों के वंशधर उन सनदों को प्रकाशित करना तो दरकिनार. अपने राजाओं के क्षोम के भय से दिखाना भी नहीं चाहते। " पृ० ११५ पर उल्लिखित राणा राजसिंह की ओर से निकली हुई विज्ञप्ति को ही लीजिये । यह उनका पुराना हक क्यों है ? यह हक्क कैसे कब और क्योंकर प्राप्त किया गया ? "जैनस्थान के शरणागत होने पर राजद्रोही भी न पकड़ा जाय" इतना अधिकार माम करलेना क्या साधारण बात है ? राजपूताने के इन जैन-चीरों के सिवा और किसी ने भी ऐसी सनद प्राप्त की हो, ऐसा श्रमी तक देखने में नहीं आया । आज भी इम सभ्यता के युग में बड़े बड़े देशभक्त, राजभक्त धर्मभक्त मौजूद है, पर क्या किसी भी धार्मिक सम्प्रदाय को यह अधिकार प्राप्त है ? राणा राजसिंह ने यह विज्ञप्ति जैनियों के किस बलिदान से प्रभावित होकर लिखी, . इसका उत्तर देने में इतिहास के पृष्ठ असमर्थ है, केवल अनुमान करने से ही सन्तोष किया जा सकता है ! .. .... राणा कुम्भा ने गुजरात और मालवे के दोबादशाहों को पराजित करने की स्मृति में नौ मंजिला जयकीर्ति-स्तम्भ बनवाया था। उसपर उन्हें कितना अभिमान होगा यह लिखने की चीज नहीं। राममोही, चोर, लुटेरे भी जैन उपाय से गिरफ्तार नहीं किये ऑय. वध के लिये बना हुआ पशु यदि जैनउपाय के आने से निकले तो वह फिर.. न मारा जाय-यह उनका पुराना हल है आदि। Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंहावलोकन ३३९ फिर उसी के समान उसी के मुताविले में राया कुम्भा के दि० जैन मंत्री द्वारा जैन कीर्तिस्तम्भ का बनवाया जाना कुछ अभिप्राय रखता है । भज्ञे ही उस अभिप्राय का हमें पता न लगे, पर यह बात भी ध्यान देने योग्य है, कि राणा कुम्भा ने तो, दो बादशाहों से विजय लाभ प्राप्त करने में उस अपूर्व कृति का निर्माण कराया, तब उसके मंत्री ने ऐसा कौनसा महान कार्य किया था, जिसके कारण उसे भी राणा कुम्भा की हिर्स करनी पड़ी ! पूर्व काल में तो क्या वर्तमान रियासतों में अव भी कोई कितना ही सम्पन्न क्यों न हो, राजाओं की नकल नहीं कर सकता । राणा कुम्भा का मंत्री ही राणा जैसी स्मृति बनवाता है और राणा कुछ नहीं कहते हैं, तब उस मंत्री का उस समय कैसा प्रताप होगा और उसके कैसे साहस युक्त कार्य होंगे, सहज में ही अनुमान किया जा सकता है। आज भी वह कीर्तिस्तम्भ चित्तौड़ दुर्ग में जैन-वीरों की पवित्र स्मृति स्वरूप सीना ताने हुये खड़ा है। मेवाड़ राज्य में एक समय सूर्यास्त के बाद भोजन करने की आज्ञा नहीं थी । इसका उल्लेख श्री० श्रमाजी द्वारा अनु देव टाड् राजस्थान, जागीरी प्रथा पु० ११ में मिलता है । यदि यह आज्ञा भी ऐतिहासिक मानी जाय, तो इससे भी प्रकट होता है कि उस समय सर्व साधारण में जैनधर्म का काफी प्रचार था । राजा प्रजा दोनों ही जैनधर्म से प्रभावित थे । इसीप्रकार मेवाड़ राज्य में जब जब किले की नींव रखी जाय, तब तब राज्य की ओर से जैन मन्दिर बनवाये जाने की Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० राजपूताने के नैन-चीर .. रोति भी जैनियों के प्रभुत्व की परिचायक है। ..... : राजाओं द्वारा जैनाचार्यों का सन्मान, जीव-हिंसा-निषेध : * इस विज्ञप्ति की नाल मेहता बलवन्तसिंहजी की कृपा से प्राप्त हुई है, जो ज्यों की त्यों उधृत की जाती है : स्वस्ति श्री एकलिंगजी परसादातु महाराजाधिराज महाराणाजी श्री कुंभाजी । आदेसातु मैदपाट रा उमराव यावोदार कामदार समस्त महाजन.पंचाकस्यअनं. आपणे अठे श्री पूज तपागछ का तो देवेन्द्रसूरिजी का पंथ का तया पुनम्या गच्छ : का हैमाचारजनी को परमोद है। घरम शान बतायो सो अठे अणां को. पंथ को होवेगा जणीने मानागा पूजांगा । परयम (प्रथम) तो आगे सु ही आपण गढ़ कोट . में नींव दे जद पहीला श्री रिपमदेवजीरा देवरा की नाँव देवाड़े है पूजा करे है अषे यज ही मानागा । सिसोदा पग को होगा ने सरेपान ( सुरापान ) पीवेगा.. नहीं और धरम मुरजाद में जीव राक्षणो या मुरजादा लोयेगा जणी ने म्हासत्रा ( महासतियों) की आण है और फैल करेगा जणी ने तलाक है सं० १४७१ काती सुद ५ इस सम्बन्ध की भी मुझे दो विज्ञप्ति मेहता बलवन्तसिंहजी की कृपा से प्राप्त हुई हैं, एक गुजराती में (जो जैनप्रन्यगाइड में प्रकाशित हुई है) और दूसरी . मेवाड़ी भाषा में। यहां गुजराती विशक्ति का हिन्दी अनुवाद दिया जाता है और मेवाड़ी भाषा का रसास्वादन कराने के लिये दूसरी विज्ञप्ति ज्यों की त्यों दे दी गई है। -उदयपुर के महाराणा जगतसिंहजी ने आचार्य विजयदेवसूरि के उपदेश से प्रतिवर्ष पौष सुदी,१० को वरकाणा (गोड़वाड़ा तीर्थ पर होने वाले मेले में आगन्तुक यात्रियों पर से टेक्स लेना रोक दिया था और सदैव के लिये.. इस आशा को एक शिला पर सुदवाकर मन्दिर के दरवाजे के आगे लगवा दिया था, जो कि अभी तक मौजूद है। राणा जगतसिंह के प्रधान शाला कल्याणसिंह के Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'सिंहावलोकन . विज्ञप्ति, उपाश्रयों और जैन मन्दिरों को अब तक रियासतों द्वारा सहायता मिलती रहना, उस अतीव काल में की गई जैनियों को सुकृतियों का घोतक है। निमंत्रण पर उक आचार्य ने उदयपुर में चातुर्मास किया। चतुर्मास समाप्त होने के वक्त एक रात दलबादल महल में विश्राम किया, तब महराणा जगतसिंह । जी नमस्कार करने को गये और भाचार्य के उपदेश से निम्नलिखित चार बातें स्वीकार की। (क) उदयपुर के पीछोला सरोवर और उदयसागर में मछलियों को कोई न पकड़े। (ख) राज्यभिषेक वाले रोज जीव-हिंसा बन्द (ग) जन्म-भास और भाद्रपद में जीव-हिंसा बन्द । (घ) मचीददुर्ग पर राणा कुम्मा द्वारा बनवाये गये जैन चैत्यालय का. पुनरुद्धार। इन्हीं विजयदेवसूरि को जहाँगीर बादशाह ने "महातयां" पदवी प्रदान की थी। २-दूसरी मेवाड़ी विज्ञप्ति निम्न प्रकार है : स्वरत श्री मगसुदा ना म्हा सुभ सुयाने सरव औपमालाअंक भटौरकजी महाराज श्री हीरवजेसूरजी चरण कुमला भेण स्वरत श्री वजे कटक चांवडरा डेरा सुथाने महाराजाधिराज श्री राणा प्रतापसिंघजी ली: पो लागणो बचसी. अमरा समाचार भला है आपरा सदा भला छाइले आप बड़ा है पूजणीक है सदा करपा . राखे 'जीसु ससट (श्रेष्ठ) रखावेगा अप्रं! आपरी पत्र अणादना म्हे आया नहीं सो करपा कर लपावेगा । श्री बड़ा हनूर री वगत पदार वो हुबो जीमें भमसुं पाला पदारता पातसा अकन जी ने जैनाबाद म्हे ग्रानं रा प्रतिबोद दी दोजीरो चमत्कार मोटो बताया जीव हसा (हिंसा) सरकली (चिड़िया) नया नाम पपेरु Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजपूताने के जैन चीर ३४२ जिन महानुभावों ने राजपूताने के इतिहास का सूक्ष्म रीति से .. अवलोकन किया है, वे जानते हैं कि राजताने के प्रत्येक गौरव युक्त कार्य में जैनों का हाथ रहा है। जैनेतर क्षत्रियों और जैनवीरों का चान्द-चान्दनी जैसा सम्बन्ध रहा है । जब जैन धर्मनिष्ठ थे, उनकी भुजाओं में वल, व्यवहार में नन्नता, आँखों में प्रोज, गले में मधुरता, चेहरे पर कान्ति, शरीर सुडोल हृदय में साहस (पक्षी) वैती सो माफ कराई जीरो मोटो उपगार कीदो सौ बी जेनरा प्रम में आप असाहीज अदोतकारी भवार की से (समय) देखता आपज फेर वे न्ही आधी पुरव, हौद सथान अत्रवेद गुजरात सुदा चार दसा म्हे धरमरो बडो अदोतकार देखाणी, ना पछे आपरो पदारणो हुवोन्ही सो कारण कही वेगा पदारसी आसु पटा प्रवाना कारण रा दर माफक आये है जी माफक तोल मुरजाद सामो आवो सावत रेगा भी बड़ा हजूर री वषत आनी मुरजाद सामो भावारी कसर पड़ी सुणी सो काम कारण लेखे भूल रही वेगा जी रो अदेसो नहीं जाणेगा, आगे सुश्री हेमा आधारजी ने श्री राम म्हे मान्या हे जीरो पटो कर देवाणो जी माफक अरो पगरा भटारष गादी प्रभावेगा तो पटा माफक मान्या जावेगा श्री . हैमाचारनी पैला श्री बारा भटारपनी ने बड़ा कारण सुं श्री राज म्हे मान्या . जी माफक आपने आपरा पगरा गादी प्र पाटवी तपगठरा ने मान्या जावेगारी सुवाये देस म्है आने गरी देवरी त्या उपासरो वैगा जीरो मुरजाद श्री राजसु वा. दुज गठरा भयारण आवेगा सौ राषगण श्रीसमरण ध्यान देवजावा करे जठे. आदं. करावसी भुलसी नहीं ने वैगा पदारसी: प्रवानगी पंचोली गोरी समत् १६३५ रा. : वर्ष आसोज सुद ५ गुरुवार । Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . सिंहावलोकन ३४३ और दुखी निराश्रितों के लिये पहलू में दर्द, कलेजे में तड़प थी। तव उनका राजपूताने में क्या जहाँ भी वह रहते थे, उनका अलौकिक चमत्कार था, उनके पुण्यशील परमाणुओं का राजा प्रजा सभी पर असर पड़ता था। उन्होंने अपने अलौकिक. चमत्कार से कितने ही चिरस्मरणीय कार्य सम्पन्न किये, उनकी सदाचार पत्ति और वीर-प्रकृति से प्रभावित होकर कितने ही राजा और सरदार उनके धर्म के अनुयायी बने । यही कारण है कि उस काल में करोड़ों राजपूत जैनधर्म में दीक्षित होगये, जो कि अब ओसवाल कहलाते हैं। ___ जहाँ राजपताने के जैन चोरों ने युद्ध और राजनीति में साहस एवं बुद्धि का परिचय दिया है, वहाँ आबू आदि जैसे दुर्गम स्थानों पर मन्दरादि धनवाकर उन्होंने शिल्प-चातुर्यता का भी अधिकार प्राम किया है। इस मेशीनरीयग में भी बड़े इंजीनियर उन भव्य इमारतों के वनवाने में असमर्थ है, तब उन्होंने उस साधन हीन युग में उन मन्दिरों का निर्माण करके सफलता प्राप्त की है। . इसी प्रकार जब जान, माल, और आपरू की बाजी लगी हुई थी। उस युद्ध काल के दूपित और दुर्गन्धमय वातावरण में स्वच्छन्द और स्वतन्त्र स्वास लेना दूभर हो रहा था। नित्यप्रति धार्मिक स्थान धराशायी और पुस्तकालय भस्मीभूत किये जाते थे, तब ऐसी विकट परिस्थिती में रहत हुये भी उन जैनों ने अनेक प्रन्यों की रचना की है और प्राचीन परातन प्रन्यों.को सीने से लगा कर नागौर जैसलमेर आदि स्थानों पर सुरक्षित रक्खा है। . Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजपूताने के जैन वीर प्रस्तुत पुस्तक में जैन वीरांगनाओं का उल्लेख साधना-भाव के कारण नहीं किया जा सका है किन्तु इस से यह न समझ लेना चाहिये कि वह विलासिता की मूर्ति बनी रहती थीं । नहीं, वह भी वीर-दुहिता थीं। वे ही उक्त वीरों की जननी भगनी और पत्नी थीं । जब पति, भाई और पुत्र धर्म के लिये युद्ध में जम मरते थे, तब जैन महिलाएँ भी अपने कर्तव्य पालन में पुरुषों से पीछे नहीं रहती थीं। आज भी राजपूताने में विशेष कर मारवाड़ में मुहट्टों मुहल्लों में जैन सतियों के करकमलों के पवित्र चिन्ह विद्यमान हैं ।. " ३४४ यह माना कि आज हमारे उक्त पूर्वज इस भौतिक शरीर में नहीं हैं, तौभी उनकी सुकीर्ति संसार में अभीतक स्थायी बनी हुई है। ऐसे ही स्वर्गीय वीरों को सम्बोधन करके किसी सहृदय कवि : ने क्या खूब लिखा हैं : तुम्हें कहता है मुर्दा कौन, तुम ज़िन्दों के ज़िन्दा हो । तुम्हारी नेकियाँ बाकीं, तुम्हारी खूबियाँ बाक़ी ॥ 1 Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' [ १४५ ] सहायक ग्रन्थ सूची प्रस्तुत पुस्तक के निर्माण में निम्न लिखित लेखकों, सम्पादकां और कवियों की कृतियों से विशेषतया सहायता मिली है, और कई स्थलों पर उनके अवतरण और मत उद्धृत किये गये हैं, अतएवं मैं उनकी गृल्यवान रचनाओं का हृदय से आभारी हूँ । — गोयलीय रा००० गौरीशंकर हीराचन्द श्रोमा कृत-राजपूताने का इतिहास भाग चार पं० [देवप्रसाद द्वारा अनुवादिन - टॉट राजस्थान प्रथम भाग सन् १९२५ द्वितीय भाग १९०५ मुनि जिनविजय द्वारा सम्पादित-- प्राचीन जैन-लेख संग्रह द्वि०भाग पर जगदीश सिंह गहलोत कृत-- मारवाड़ राज्य का इतिहास ज्ञान गटल फाशी से प्रकाशित -- भारतवर्ष का इतिहास म० शीतलप्रसाद द्वारा सम्पादित-राजपूताने के प्राचीन जैन-स्मारक प्रो० बनारसीदास एम. ए. कृत और पं० देवीसहाय द्वारा अनुचादित- जैन इतिहास सीरीज प्र० भा० पा० उमरावसिंह टॉक कृत-Some Distinguished Jnins और जैन छिनपी में प्रकाशित लेख नागरी प्रचारणी सभा से प्रकाशित मुहणोत नेणसी फी ख्यात प्रथम भाग मुंशी देवीप्रसाद मुन्सिफ कृत--राज रसनामृत प्रथम भाग Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३४६ ] मेहता कृष्णसिंह कृत-रा०व० मेहता विजयसिंह जीवन चरित्र वम्बई से प्रकाशित-दि० जैन डायरेक्टरी मुनि शान्तिविजय कृत-श्वेताम्बर जैन-तीर्थनगाइड अति श्रीपाल कृत-जैनसम्प्रदायशिक्षा महामहोपाध्याय पं०रामकर्ण और साहित्याचार्य प्रोविश्वेश्वरनाथ रेड द्वारा लिखित-जैनसाहित्यसम्मेलन-विवरण में प्रकाशित लेख कवि रवीन्द्रनाथ कृत और बामहावीरप्रसाद द्वारा अनुदित-स्वदेश वा० सूरजमल द्वारा संग्रहीत-जैनधर्म का महत्व प्रथम भाग पं०मावरमल्ल शर्मा द्वारा लिखित-हिन्दु संसार में प्रकाशित लेख पंशोभालालशाबीद्वारा लिखित नागरीप्रचारणीपत्रिका में,, अज्ञात् विद्वानों द्वारा लिखित-चाँद, त्यागभुमि ओसवाल आदि में प्रकाशित कई लेख सर डा० मुहम्मद "इकबाल कृत चारोदर श्रीवियोगीहरि कृत-वीर-सतसई वा मैथिलीशरण गुप्त कृत-भारत भारती __पं० अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध', पं० लोचनप्रसाद पाण्डेय, पं० ठाकुरप्रसाद शर्मा, श्री सोहनलाल द्विवेदी, भारतेन्दु बाबु हरिश्चन्द्र लालाशेरसिंह साहब "नाज, पंराश्याम कविरन, श्री लबिहारी "कण्टक" महाकवि "हाली" तथा कई अज्ञात कवियों की सामयिक पत्रों में प्रकाशित कविताएँ । . "OST Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का लोकमत श्रीअयोध्याप्रसाद गोयलीय कृत "मौर्य साम्राज्य के जैनवीर" दिसम्बर सन् ३२ में प्रकाशित हुआ था। इन दो-तीन महिनों में ही उसका काफी आदर हुआ है। उस पर अनेक विद्वान् और समाचार पत्रों ने अपनी सम्मति प्रगट की हैं, जिनमें से कुछ सम्मतियाँ संक्षेप में इस प्रकार है:भूमिका-लेखक साहित्याचार्य पं० विश्वेश्वरनाथ रेड, जोधपुर: "इस पुस्तक की भाषा मनकोफड़कानेवाली, युक्तियाँ सप्रमाण और ग्राह्य तथा विचारशैली साम्प्रदायिकता से रहित, समयोपयोगी और उच्च है। हमें पूर्ण विश्वास है कि इसे एक बार आद्योपान्त पढ़ लेने से केवल जैनों के ही नहीं, प्रत्युत मारतवासी मात्र के हत्पट पर अपने देश के प्रतीत गौरव के एक अंश का चित्र अंकित हुये विना न रहेगा। ऐसा कौन अभागा भारतवासी होगा, जो अयोध्याप्रसादजी गोयलीय की लिखी भारत की करीब तादेवाईससौ वर्ष पुरानी इस सारगर्मित और सच्ची गौरव-गाथा को सुनकर उत्साहित न होगा । पुस्तक हर पहलू से उपादेय और सप्रमाण है"। प्रोफेसर हीरालाल एम. ए. एल. एल-बी. अमरावती:. "इतिहास और साहित्य दोनों दृष्टियों से पुस्तक उपयोगी है। कठिन परिस्थिति में पड़ कर भी गोयलीयजी उत्तम साहित्य सेवा Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३४८ ] कर रहे हैं, इसके लिये समाज को उनका बहुत कृतज्ञ होना • चाहिये। श्री०ए.एन. उपाध्याय एम.ए.प्रो राजाराम कालेजकोल्हापुर: "श्री गोयलीयजी. धन्यवाद के पात्र हैं कि उन्होंने अपनी प्रवाह-युक्त.भाषा में.यह पुस्तक लिखकर इक. सार्वजनिक आवश्यकता को पूरा कर दिया है । इस पुस्तक को पढ़ाकर मुझे । निश्चय है कि जैन लोग जो अपने इतिहासकी ओर से उदासीन प्रसिद्ध हैं, अपने अतीत को अपने सामने जगा हुआ देखेंगे। बा० बूलचन्द एम. ए. प्रो० हिन्दू कालेज देहली:__"पुस्तक को भली प्रकार देखने के बाद मैं यह कहने को तैयार हूँ कि पुस्तक एक ऐतिहासिक ग्रन्थ, और प्रचार का साधनं दोनों रूप में ही उपयोगी होगी। बाल त्रिलोकचन्द प्रोफेसर हिन्दू यूनिवर्सटी बनारस:-- ___ "इस: पुस्तक से जैनपाठशालाओं में पाठ्यक्रमोपयोगी ऐतिहासिक पुरतकों का प्रभाव दूर होगा, तथा विचारशील निष्पक्ष जनता पर भी इससे जैनधर्म के प्राचीनत्त्वकी छाप पड़ेगी। पुस्तक की भाषा-उत्तम है शैली भी समयोपगों है । गोयलीयजी का परिश्रम अत्यन्त प्रशंसनीय है ।आशा है वे इस दिशा में अपनी प्रगति अविछिन्न रखकर भविष्य में विशेष रूपसे समाज को लाभान्वित करेंगे। . . . १ बा०. पूर्णचन्दु-नाहर, एमाए एल एल बी कलकत्ताः-.. "गोयलीयजी की लेखनकलाऐसी चित्ताकर्षका है कि पाठक: Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३४९ ] @ को स्वतः पढ़ने की इच्छा प्रबल हो जाती है। मैं उनकी लेखन पद्धति, अगाध परिश्रम और इतिहास-प्रेम की मुक्तकंठ से प्रशंसा करता हूँ ।" बा० उमराव सिंह टांक, बी. ए. एल. एल. बी. प्लीडर देहली: , ... “श्रीयुत गोयलीय कृत "मौर्य साम्राज्य के जैन-चीर" नामक निबन्ध मैंने देखा । वास्तव में निबन्ध शिक्षाप्रद, चित्ताकर्षकं वीर रस- पूर्ण है ।: मौर्य साम्राज्य के ऊपर अनेक पुस्तकें लिखी गई हैं; परन्तु प्रिय गोयलीय ने जिस भाव को लेकर यह पुस्तक लिखी है, वह अपने ढंग की अनूठी वेजोड़ और प्रथम है ।"" वा० कीर्तिप्रसाद बी. ए. एल. एल. बी. अधिष्ठाता श्रात्मानन्द गुरुकुल गुजरानवाला (पंजाब): " पुस्तक इतिहास का अच्छा अवलोकन करने के बाद लिखी गई हैं'।' श्रीचन्द्रगुप्तकें 'सम्बन्ध' में अजैन होने के भ्रम को दूर करने का सार्थक प्रयत्न किया गया है ।" C जैनं पुरातत्व वेता' पं० जुगलकिशोर, मुख्तार: "अनेक उपवनों से फूल चुनकर जो आपने इतिहास का यह सुन्दर गुलदस्ता तय्यार किया है, उसका मैं अभिनन्दन करता हूँ। इसकी तैयारी में जो परिश्रम किया गया है और जिस प्रेम रंगी सुदृढ़ : शब्द - डोरी से इसे बान्धा गया है वह सव प्रशंसनीय है । पुस्तक की विचारसरणी उत्तम है और उसमें चन्द्रगत" का धर्म वाला 'अंश' अधिक महत्व रखता है | चन्द्रगुप्त के जैनत्व सम्बन्ध में सत्यकेतुजी की यदि वे ही आपत्तियाँ हैं, जिनका आपने उल्लेख Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३५० ] किया है, तो मैं समझता हूँ आप उनका निरसन करने में बहुत कुछ सफल हुये हैं। हाँ, आपके लेखकीय वक्तव्य में निराशामय जिस परिस्थिति का उल्लेख हुआ है, उसे पढ़कर चित्त को चोट लगी और दुःख पहुँचा । वास्तव में जैनसमाज की हालत बड़ी ही शोचनीय है, वह इतिहास और रिसर्च (शोध-खोज) के महत्व को कुछ भी नहीं समझवा और इसलिये उससे ऐसे कामों में सहयोग, सहायता और प्रोत्साहन की अधिक आशा रखना ही व्यर्थ है। न्याय-व्याकरणतीर्थ पं० वेचरदास प्रो० गुजरात पुरातत्व-मन्दिर अहमदाबाद:"पस्तक लिखने में आपने जो परिश्रम किया है वह स्तुत्य है। विद्वद्वयं पं० नाथुराम प्रेमी, वम्बई: "पुस्तक अच्छी है और प्रचार होने योग्य है”। मेहता किशनसिंह दीवान हाउस जोधपुर:___ "आपका परिश्रम सराहनीय है, आपने भारतवर्ष के प्राचीन गौरव को भली प्रकार प्रकाशित किया है।" पं०कन्हैयालाल मिश्र "प्रभाकर विद्यालंकार एम.आर.ए.एस: "पुस्तक पढ़कर लेखक के सम्बन्ध में बहुत अच्छी राय + चन्द्रगुप्त के जैनत्व के विरोध में श्रीसत्यकेतुजीने जो भी युक्तियाँ अपने "मौर्य-साम्राज्य के इतिहास" में दी हैं, वे सब की सब ज्यों की त्यों अक्षरश: मैंने "मौर्य साम्राज्य के जैनवीर में उद्धृत की हैं। और पुस्तक प्रकाशित होते ही सब से प्रथम रजिष्ट्री द्वारा सत्यासत्य निर्णय के लिये सौजन्यता के नाते उनके पास भिजवा दी गई थी। चार महिने होने आये, मुझे उक्त विद्वान् की अभी तक "मौर्य साम्राज्य के जैनवीर" पर आलोचना प्राप्त नहीं हुई है, नहीं मालूम इसका क्या कारण है ? . -गोयलीय - - Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३५१ ] फायम होती है । समाज यदि सम्मानित जीवन चाहती है तो उसे ऐसे यवक-रनों का सम्मान करना चाहिये और ऐसी पुस्तकों का उचित प्रचार भी। चा० चन्द्रराज भण्डारी "विशारद! 'भानपुरा-इन्दौर:___ "पुस्तक पढ़कर बहुत प्रसन्नता हुई। पुस्तक अत्यन्त परिश्रम और खोज के साथ लिखी गई है । लेखक ने ऐतिहासिक रिसर्च करने में काफी परिश्रम किया है। जैन इतिहास जो कि अभी तक बहुत अंधकार में है-उसको प्रकाश में लाने का यह प्रयत्न अभिनन्दनीय है। भाषा भी इसकी दौड़ती हुई और मुहावरेदार है। मेरी ओर से लेखक को बधाई दीजिये। पं० के० भुजबलि शास्त्री अध्यक्ष जैनसिद्धांत-भवन पाराः___ "प्रस्तुत कृति सर्व प्रमाण और सर्वादरणीय है"। पं० अजितकुमार शास्त्री मुलतानः___ "पस्तक परिश्रम के साथ सजीव लेखनी से लिखी गई है। ऐसी ऐतिहासिक पुस्तके ही समाज और देश के उत्थान में सहायक होती है। पं० दीपचन्द वर्णी, अधिष्ठाता ऋ०व० पाश्रम चौरासी, मथुरा: इसे देखते ही मन इसीको पढ़ने में लगगया, और आद्योपान्त . पदेविना नरहा गया। इसकीभाषा और लेखनशैली ओजस्वनी है" पं० महावीरप्रसाद जैन, देहली: गोयलीयजीने यह पस्तकलिखकर जैनसमाजका मस्तक ऊँचा किया है। यह उनकी सवा दो वर्ष की तपस्या का चमत्कार है।..." दैनिक अर्जुन २८-१-३३ देहली: "पुस्तक में वीर-रस प्रधान है । ''भाषा मुहाविरेदार और Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३५२.] रोचक है । लेखक का परिश्रम सराहनीय है " रंगभूमि २२-१-३३ देहली :___ धार्मिक महत्व के अतिरिक्त इसका ऐतिहासिक महत्व भी काफी है । पुस्तक की यक्तियाँ सप्रमाण प्राह्य हैं और धार्मिक संकीर्णता से दूर है। भाषा भी ओजस्त्री है". जैन-जगत वर्ष ८ अंक: अजमेर :-- "लेखक में उत्साह खूब है और पुस्तक पढ़ने से पाठकों में भी • उत्साह का संचार होता है। जैन-मित्र २६-२-३३ सरत: "पुस्तक पढ़ने योग्य है। बहुत परिश्रम से लिखी गई है। सनातन जैन १६-२-३३ बुलन्दशहर: "लेखक एक उत्साही परिश्रमी और विचारशील युवक है । उन्होंने इतिहास के कूड़े में से रत्न चुन चुनकर यह मणिमाला तैयार की है । भाषा बड़ी ओजस्वी और लेखनशैली युक्तियुक्त सारगर्मित, पक्षपात रहित तथा समयोपयोगी है। दिगम्बर जैन, सूरत:-- ... "वास्तव में पुस्तक बड़ी ही महत्वशाली है " । - जैन संसार (उद्दे), १-२-३३: देहली:. .. पुस्तक तवारीख की हैसियत से इस काबिल है कि, उसे एक उच्च स्थान दिया जाय . नोट-इसका द्वितीय संस्करण परिवर्द्धित. परिवर्तित और संशोधित करके नवीन रूप में संचित्र प्रकाशित करने की योजना की जा रही है। मूल्य २०० पृष्ठ का केवल एक रुपया होगा। ती:- ... . Page #375 -------------------------------------------------------------------------- Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । 10 AADAM HATV PV .. R-CE - 1 SMANABINDINI - -- !... CTRAN-GOASTE.. .. .. . . . :: - पता-हिन्दी विद्या मन्दिर - पहाड़ी-धीरज, देहली। Page #377 -------------------------------------------------------------------------- _