Book Title: Prashamrati Prakaran Ka Samalochanatmak Adhyayan
Author(s): Manjubala
Publisher: Prakrit Jain Shastra aur Ahimsa Shodh Samthan
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प्रशमरति प्रकरण का समालोचनात्मक अध्ययन
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सर्वस्व नष्ट हो जाता है। अतः ये अत्यन्त दुःखदायी, लोक-परलोक दोनों में हानिकारक, धर्म-अर्थ एवं मोक्ष के अवरोधक तथा संसार-मार्ग के प्रर्वतक होने के कारण हेय हैं। 31 से 33 वीं का० में उक्त कषाय का ममकार और अहंकार दो भागों में वर्गीकरण कर राग-द्वेष की सेना मित्थात्व, अविरति, प्रमाद और योग का उल्लेख किया गया है तथा इन्हें आठ प्रकार के कर्मबन्ध का कारण माना गया है। 32 1
3. रागाधिकार
इस ग्रन्थ का तीसरा अधिकार रागाधिकार है । इसके 34 से 35वें कारिका में मूल कर्मबन्ध के ज्ञानावरणादि आठ भेदों एवं उसके उत्तर प्रकृतियों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया हैं ।
4. अष्ट कर्माधिकार :
इसका चौथा अधिकार आठ कर्माधिकार है। इसके 36वें का० में उत्तर प्रकृतियों के एक सौ बाईस भेदों का उल्लेख कर स्थिति बन्ध, अनुभाग बन्ध और प्रदेश बंध की अपेक्षा से प्रकृति बन्ध एवं उदय के तीव्र, मन्द या मध्यम भेदों का कथन किया गया है। 37वें कारिका में बंध के हेतु का वर्णन करते हुए बतलाया गया है कि योग में प्रदेश बंध, कषाय से अनुभाग बंध होता है तथा लेश्या की विशेषता से स्थिति और विपाक में भी विशेषता आती है। आगे 38 वें का० में लेश्या के स्वरुप एवं भेदों का वर्णन कर 39 से 40 वें कारिका में आत्मा के साथ कर्मों के संबंध होने पर नरक गति आदि जैसे दुःखों को भोगना पड़ता है, ऐसा कथन किया गया है 33
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5. पंचेन्द्रिय विषयाधिकार :
इस ग्रन्थ का पाँचवा अधिकार पंचेन्द्रिय विषयाधिकार है। इसके 41 वें कर्णेन्द्रिय के वशीभूत हिरण के नाश, 42 वें कारिका में चक्षु-इन्द्रिय के वशीभूत कीट- पंतग के नाश का दृष्टांत प्रस्तुत कर 43 वें कारिका में घ्राणेन्द्रिय के वशीभूत भौरे का तथा 44 वें रसेन्द्रिय के वशीभूत मीन के नाश और 45 वें कारिका में स्पर्शेन्द्रिय के वशीभूत हाथी के नाश का दृष्टांत उपस्थित किया गया है। 46 वें उपसंहार के रुप में बतलाया गया है कि इन्द्रिय- वशीभूत प्राणियों की नरकादि योनियों में जाकर नाना प्रकार के व्यसन भोगने पड़ते हैं। आगे 47 वें का० में पाँच इन्द्रियों के वशीभूत असंयमी जीव की दुर्दशा पर प्रकाश डालकर 48 वें कारिका में बतलाया गया है कि विषय का सेवन करने से सदैव तृप्ति नहीं होती है। परिणामवश इष्ट विषय में अनिष्ट तथा अनिष्ट इष्ट हो जाता है। 49 में बताया गया है कि जीव प्रयोजन के अनुसार इन्द्रिय व्यापार करता है। 50 में एक ही विषय प्रयोजन के अनुसार एक के लिए इष्ट है तो दूसरे के लिए अनिष्ट । 51 में यह जीव इन्हीं विषयों से द्वेष करता है और इन्हीं विषयों से राग करते बताया गया है। अतः निश्चय से इसका न कोई इष्ट है और न कोई अनिष्ट है। 52 में रागी -द्वेषी मनुष्य को केवल कर्मबंधहोने तथा इसे लोक-परलोक में किसी गुण की संभावना