Book Title: Prashamrati Prakaran Ka Samalochanatmak Adhyayan
Author(s): Manjubala
Publisher: Prakrit Jain Shastra aur Ahimsa Shodh Samthan

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Page 81
________________ प्रशमरति प्रकरण का समालोचनात्मक अध्ययन 72 कथन करते हुए बतलाया गया है कि स्त्री-पुं० एवं नपुंसक वेद के उदय से रमण करने की क्रिया मैथुन है और मैथुन ही अब्रहूम है 117 । इस प्रकार मैथुन का सर्वदेश त्याग अमैथुन ( ब्रह्मचर्य) महाव्रत है। अमैथुनव्रत की भावनाएँ : इस व्रत को दृढ़ करने के लिए पाँच भावनाओं का कथन किया गया है। श्रृंगारात्मक कथावार्ता सुनना या सुनाने का त्याग करना, स्त्रियों के रमणीय अङ्गों के देखने का त्याग करना, पूर्वकाल में भीगी हुई रति के स्मरण का त्याग करना, कामोत्तेजक गरिष्ट रसों का त्याग करना और शरीर संस्कार का त्याग करना - ब्रह्मचर्य महाव्रत की पाँच भावनाएँ है । इन भावनाओं के सम्यक् पालन के लिए इनका सदैव स्मरण करना आवश्यक है। इसके पालन नहीं करने से यह महाव्रत दूषित हो जाता है। अपरिग्रह : अपरिग्रह पाँचवा महाव्रत है। अपरिग्रह का अर्थ होता है परिग्रह का न होना। प्रशमरति प्रकरण में परिग्रह के स्वरुप का कथन किया गया है और बतलाया गया है कि बाह्य गाय, भैंस, मणि, मुक्ता आदि चेतन-अचेतन वस्तुओं में तथा आन्तरिक राग-द्वेष, काम - कोधादि विकारों में जो ममत्व भाव है, वही मूर्छा है और मूर्छा ही परिग्रह है 118 । बाहूय वस्तुओं को तो इसलिए परिग्रह कहा गया है कि वे ममत्व भाव के होने में कारण होती हैं। रात्रि भोजन का अन्तर्भाव परिग्रह के लक्षण में कर लिया गया हैं, क्योंकि रात्रि भोजन अति लालसा का सूचक है 119 । इस प्रकार परिग्रह का सर्वदेश त्याग ही अपरिग्रह महाव्रत है । अपरिग्रह व्रत की भावनाएँ : इस व्रत को सृदृढ़ करने के लिए पाँच भावनाओं का कथन किया गया है । वे अपरिग्रह की पाँच भावनाएँ इस प्रकार हैं : मनोज्ञ या अमनोज्ञ स्पर्श, रस, गन्ध, रूप एवं शब्द पर समभाव रखना । अर्थात् पाँच इन्द्रियों में राग-द्वेष का सर्वथा त्याग करना ही अपरिग्रह महाव्रत की पाँच भावनाएँ हैं 120 | मुनि द्वारा मोक्ष - प्राप्ति की प्रक्रिया : उक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह - पाँच • महाव्रत हैं। जिनमें अहिंसा महाव्रत प्रमुख हैं और शेष महाव्रत अहिंसा को सुरक्षा प्रदान करते हैं। जो मुनि इन पंचमहाव्रतों का सम्यक् पालन करते हैं, वे सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र को प्राप्त कर प्रथम सुख को प्राप्त करते हैं। परन्तु व्रत तथा तप बल से युक्त होते हुए भी जो उपशान्त नहीं है, वे मुनि उस गुण को प्राप्त नहीं कर सकते जिस गुण को प्रशम सुख में स्थित साधु करते हैं। 21 । प्रशम गुण वाला सायु ही शील के अट्ठारह हजार अंगों 22 को

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