Book Title: Mananiya Lekho ka Sankalan
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 22
________________ आज के "स्वराज्य' का सच्चा स्वरूप स्वराज्य प्राप्त करने के लिये भारत के अनेक सपूतों द्वारा आत्मसमर्पण कर खुद का बलिदान देने का इतिहास काफी पुराना है। १८५७ के विप्लव के बाद विदेशी शासकों को इस देश से भगाने के लिये मातृभूमि के अनेक भक्तों ने हंसते-हंसते अपना बलिदान देकर इस देश के आत्मभोग के इतिहास को ज्वलंत रखा है। पर जैसे-जैसे स्वराज्य की मांग बढ़ती गई, वैसे वैसे विदेशी शासक ज्यादा और ज्यादा आनंदित होते गये। क्योंकि लोगों में उत्पन्न हुई इस तमन्ना को एक इच्छित दिशा में मोड़ने में वे सफल हुए थे। जैसे-जैसे क्रांतिकारी लोग जोर करते गये, वैसे-वैसे अंग्रेज मुत्सद्दी ज्यादा से ज्यादा सफल होते गये। भारतीय प्रजा स्वयं की निर्दिष्ट जिस राह पर चल रही थी, उसी राह पर राज्य चलाने का वचन देकर उस समय के प्रजा के आगेवानों की चाह ब्रिटिशरों ने प्राप्त कर ली थी। अंग्रेज केवल राज्य करने, या व्यापार करने, या सिर्फ धन कमाने, या धर्म फैलाने के लिए ही इस देश में नहीं आये थे। परंतु 'उपनिवेष' अर्थात गोरी प्रजा के स्थाई निवास के लिए सानुकूल स्थान स्थापित करने आये थे। उस समय बहुत से क्रांतिकारी परदेशी राज्य को हटा कर, स्वतंत्र हो कर देशी राज्य स्थापित करने के लिए संघर्षरत थे और इस प्रकार खुद की लुप्त होती हुइ जीवन व्यवस्था पुन: प्राप्त कर के स्वतंत्र होना चाहते थे। ब्रिटिश मुत्सद्दी स्वतंत्र होने की हमारी ईच्छा को अध्यापकों के माध्यम से स्कूलों और कॉलेजों में प्रोत्साहित कर रहे थे। इतना ही नहीं, पर लोग जैसे बने वैसे स्वतंत्र होने की पुकार उठायें यह देखने के लिये वे आतुर थे। उसी समय धीरे-धीरे 'स्वतंत्रता' की व्याख्या बदलने की शुरुआत भी इन मुत्स रोओं ने कर दी थी। उपनिवेषवादी जीवन-व्यवहार को 'स्वतंत्रता' बताकर .. उसका प्रचार जोर-शोर से करने लगे। स्वयं तो प्रजा की मूल राह पर चलने का वचन दें चुके थे, इसलिए देशी राज्यों और खास कर उनके मंत्रीओं द्वारा ऐसी स्वतंत्रता के सामने दमन शुरु करवाया। ऐसा दमन कराने के लिए देशी राज्यों को बहुत सी छुटछाट दी और उनके राज्य में थोड़ी भी दखलअंदाजी न करने का, अर्थात उनके और उनकी प्रजा के बीच के घर्षण में राजाओं को मदद देने का वचन देकर देशी राज्यों में इस हलचल के सामने दमन बढ़ाने के लिये चाहिये उतनी सहूलियत कर दी। अपनी हुकुमत तले के प्रदेशों में बाहरी रूप से इस हलचल का विरोध दर्शाकर, उस हलचल के बहुत से विभाग कराकर, अलग-अलग मंडलों-संस्थाओं की स्थापना की तरफ मोड़ दिया। फलस्वरुप स्वतंत्रता, स्वराज्य जैसे शब्द ज्यादा से ज्यादा गुंजने लगे। उसमें उपनिवेषवादी ध्येय के आदर्श जुड़ते गये। वह इस हद तक कि "मूलभूत स्थिति को टिकाने के लिए स्वतंत्रता और स्वराज्य के प्रयास थे' यह तथ्य धीरे-धीरे गौण होता गया और भुला दिया गया। तदुपरांत अलग-अलग देशनेताओं के द्वारा 'स्वराज्य' की अलग अलग परिभाषा कराकर उस प्रकार के आदर्श सम्मिलित कराते चले गये। सन् १९१४ के बाद इस कार्यक्रम में गति आई। तब तक स्वराज्य की परिभाषा पूरी तरह से बदल गई थी। उस परिभाषा के आधार पर गोलमेज परिषद के समय स्वराज्य की माँग करनेवाला अलग ही वर्ग खड़ा हुआ, उसी समय हमको हल्का सा ख्याल आ गया कि इसके पीछे कोई चाल खेली गई है। एक वर्ग को स्वराज्य चाहिए था और वह भी उपनिवेषवादी स्वराज्य की परिभाषा से रंगा हुआ। दूसरे वर्ग को स्वराज्य नहीं चाहिए था ऐसा नहीं था, किंतु उनको स्वराज्य चाहिए था हकदार की तरह, और वह भी मात्र स्वयं के हक अबाधित रुप से संरक्षित रहे उस तरीके से। उनकी स्वराज्य की व्याख्या मात्र स्थानिक स्वराज्य की थी। परंतु उपनिवेषवादी स्वराज्य अर्थात क्या? यह तो ऊपर कहा जा.चका है। इस तरह एक ही चीज की दोनों वर्गों के " (20) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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