Book Title: Mananiya Lekho ka Sankalan
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

View full book text
Previous | Next

Page 31
________________ इसके बाद जापान में विश्व धर्म के उद्देश्य के एशिया में प्रचार के लिये परिषद आयोजित हुई। बहुधा १९६० में मनीला में यूनेस्को संस्था ने अल्पसंख्यक सभी धर्मों को “सर्व-धर्म'' की गिनती से बाहर कर दिया और सिर्फ पांच धर्मों के प्रतिनिधियों को बुलाकर 'सर्व-धर्म' की विश्व-धर्म परिषद आयोजित की। पांच धर्मों की गिनती ही 'सर्व-धर्म' में करके अन्य धर्मों को धर्म मानने की बात ही मिटा देने की और इस बात को प्रस्थापित कर लेने के लिये ही इस परिषद का आयोजन हुआ था। उसके बाद जुलाई १९६५ में सान फ्रांसिस्को में विश्वशांति के लिये 'सर्व-धर्म-परिषद' का आयोजन हुआ और उसमें भी पांच धर्मों को ही स्थान दिया गया। इसके बाद सितम्बर १९६५ में लंदन में एक 'सर्व-धर्म-परिषद' का आयोजन हुआ जिसमें विभिन्न धर्मों के समान तत्त्वों-सिद्धांतों की चर्चा हुई। इसमें भी इन्ही पांच धर्मों को शामिल किया गया। यह योजना का कैसा खूबी पूर्वक आयोजन है ! १८९२ में सभी धर्मों को स्थान दिया। फिर 'सर्व-धर्म' की व्याख्या में ११ धर्मों को शामिल किया। फिर उनमें से मात्र ५ को रखकर ६ धर्मों को निकाल बाहर किया। फिर भी “सर्व धर्म परिषद", "विश्व धर्म परिषद", "सर्व-धर्म के प्रतिनिधि" वगैरह शब्दों का सभी और प्रचार जारी रखकर एसा भ्रम बनाये रखा कि "अपने धर्म को विश्व-धर्मों की गिनती से बाहर कर दिया गया है" इसका किसी को भी ख्याल नहीं आया। लोग ये समझते रहे कि 'सर्व-धर्म' अर्थात् उनके धर्म को शामिल रखकर सर्व-धर्म; और पाश्चात्य मुत्सद्दी यह समझते रहे के उनके तय किये गये पांच धर्म अर्थात् सर्व-धर्म और इस भ्रम को कायम रखते हुए वे अपनी योजनानुसार काम करते रहे। सभी धर्मों के प्रथम चरण से बाद में छंटनी होकर जो ग्यारह धर्म रखे गये, वे थे - (१) वैदिक (२) जैन (३) सिक्ख (४) पारसी (५) बौद्ध (६) इस्लाम (७) ईसाई (८) शिंतो (९) ताओ (१०) कन्फ्यूशियस . .(११) यहूदी। दूसरे तबके में जब ५ धर्मों को ही सर्व-धर्म की परिभाषा में रखा गया तो इन ६ धर्मों को निकाल दिया गया - (१) जैन (२) सिक्ख (३) पारसी (४) शिंतो (५) ताओ और (६) कन्फ्यूशियस । इन छ धर्मों को सर्व-धर्म या धर्म की गणना से ही बाहर कर देने का अधिकार किसने दिय? ___तदुपरांत इस तरह की विश्व धर्म परिषद के आयोजन का निर्णय विश्व के सर्व धर्म के सच्चे प्रतिनिधियों तथा तद्-तद्धर्म के धर्मगुरुओं की एकत्र-आपसी सलाह, पूर्व सहमति के बिना ही यह निर्णय इसाई धर्मगुरुओं ने स्वेच्छा से ही ले लिया। इतना ही नहीं, सच्चे प्रतिनिधियों या अधिकृत प्रतिनिधियों को न बुलाकर कृत्रिम/ स्वयंभू/स्वयं अधिकृत प्रतिनिधि के रुप में तद्-तद्धर्म के कुछ विद्वानों को बुलाकर उनके साथ से अपनी योजना क्रियान्वित की। इस 'तरह प्रत्येक धर्म को भी दो भागों में बाँट दिया - परंपरागत प्रतिनिधियों द्वार। आचरित व प्रचारित धर्म और नये अस्तित्व में आये प्रतिनिधियों द्वारा प्रचारित धर्म । __ स्वामी विवेकानंद वैदिक धर्म के तथा वीरचंद राघवजी गांधी जैन धर्म के इस तरह के नये स्वरुप के प्रतिनिधि थे। भारत के तद्-तद्धर्मों में उस समय प्रवर्तमान स्थिति में दोनों में से किसी का भी महत्व न था। किंत पाश्चात्यों द्वारा, इस देश की तत्कालीन सरकार द्वारा तथा अन्यों द्वारा उनके व्यक्तित्व को महान स्वरुप दिया गया। (29) For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56