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और लगभग सब लोग कुछ न कुछ करते है। लेकिन, मेरी समझ में न बहुत आता है न कुछ आता है ।
दूकानपर बैठे रहना, गाहकसे मीठी बात करना और पटा लेना, उसकी जेबसे पैसे कुछ ज्यादा ले लेना और अपनी दुकानसे सामान उसे कुछ कम दे देना, व्यापारका यही तो 'करना' है ! इसमे
'किया' क्या गया !
पर क्यो साहब, किया क्यों नहीं गया ! कसकर कमाई जो की ? गई है ! एक साल में तीन लाखका मुनाफा हुआ है, —ध्यापको कुछ पता भी है ! और आप कहते हैं किया नहीं गया !
लेकिन, दयाराम सच कहता है कि, दो रोज़के भूखे अपने समूचे तनको और मनको लेकर भी, उन तीन लाख मुनाफेवालोंका काम उसे समझमे नही आता है ।
और साहूकार रुपया दे देता है और ब्याज सँभलवा लेता है। — देता है उसी इकट्ठे हुए ब्याजमेंसे । देता कम है, लेता ज्यादा है। इससे वह साहूकार होता जाता है और मोटा होता जाता है 1 अगर वह दे ज्यादा और ले कम, तो क्या हम यह कहेंगे कि उसने काम कम किया ? क्यों ? उसने तो देनेका काम खूब किया है । लेकिन, इस तरह एक दिन आएगा कि वह साहूकार नहीं रहेगा और निकम्मे आदमियोंकी गिनतीमें आ जायगा ।
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'तो साहूकारी 'काम' क्या हुआ ? खूब काम करके भी आदमी जब निकम्मा बन सकता है तो उससे तो यही सिद्ध होता है कि साहूकारी अपने आपमें कुछ 'काम' नहीं है ।
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और राजा, राजकवि, कौसिलर, एम० ए० पास, ये सब जो जो भी है क्या वह वह मेरे अपने श्रीवास्तव होनेसे अधिक है ! मैं श्रीवास्तव
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