Book Title: Jainendra ke Vichar
Author(s): Prabhakar Machve
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी-ग्रन्य-रत्नाकरका ९५ वाँ ग्रन्थ जैनेन्द्रके विचार [श्रीजैनेन्द्रकुमारके लेखों, निबन्धों, व्याख्यानों, प्रश्नोत्तरो और पत्रांशींका संग्रह ] सम्पादक श्री प्रभाकर माचवे एम० ए०, साहित्यरत्न प्रकाशक हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर-कार्यालय, बम्बई Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक नाथूराम प्रेमी, हिन्दी-अन्य-रलाकर कार्यालय, हीराबाग-बम्बई दिसम्बर, १९३७ मूल्य तीन रुपया मुद्रकरघुनाथ दिपाजी देसाई न्यू भारत प्रिंटिंग प्रेस, ६ केलेवाड़ी, गिरगाव, बम्बई ४ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्तव्य इस किताबके नामसे शंका होती है कि जैनेन्द्र कोई व्यक्ति होगा जो अपना जीना जी चुका है। मिट्टी उसकी ठंडी हुई। बस, अब उसको लेकर जाँच-पड़ताल और काट-फाँस होगी। पाठक निराश तो कदाचित् हों, पर सच यह है कि अभी वह समाचार सच नहीं है । जैनेन्द्रके मरनेकी खबर अभी मुझको भा नहीं मिली। पाठकको मुझसे पहले वह सूचना नहीं मिलेगी। इसमें आग्रह व्यर्थ है । फिर भी, उसके जीते जी यह जो उसकी इधर-उधरकी बातोंको आंकने और भेदनेका यत्न है, यह क्या है ? ठीक मालूम नहीं, पर यह ज्यादती तो है ही । इस कर्मका मूल्य भी अनिश्चित है ! बहते पानीकी नाप-जोख पक्की नहीं उतरेगी। उसके बँध रहनेकी प्रतीक्षा उचित है। फिर भी आदमी है कि चैनसे नहीं बैठता । जीवन-मुक्तिके निमित्त उसके नियम पाना और बनाना चाहता है, और उस निमित्त उसी जीवनको घेरोंसे बाँधता-कसता है । यह मानव-पद्धति विचित्र है, पर अनिवार्य भी है। तो क्या किया जाय ? उपाय यही है कि अपने ऊपरकी शल्यक्रियाको सहते चला जाय । उपयुक्त असलमें यह है कि आदमीके मरनेपर उसके बारे में कुछ लिखा जाय । Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० मनोविज्ञानिकके लिए जो बाते पहेली बन प्रस्तुत होती हैं, उन्हे जैनेन्द्र जैसे कलाकार किस सहजता के साथ सुलझा डालते हैं, इसके प्रमाण रूप कई लेख इस संग्रहमें हैं । एक लेखनुमा कहानी, ' कहानी नहीं, ' ही ले लें। | स्वयं कथनके ( =Monologue) रूपमें अमीरके मनका चोर किस मज़ेसे पकड़ा गया है ! जैनेन्द्र जहाँ आलोचक होकर प्रस्तुत होते हैं, वहाँ भी ध्यान देनेकी बात यह है कि वे अपनेभेके कलाकारको नहीं खोते। ' प्रेमचन्दजीकी कला, ' ' रामकथा, ' अथवा नेहरूजीके आत्मचरितपर लिखे गये लेख इसी कलात्मक आलोचना शैलीके मनोहर प्रमाण हैं । वस्तुतः आलोचनाका आदर्श भी वही है जहाँ आलोचक मनके रसको नहीं खो देता, जहाँ वह एक मात्र बुद्धिवादी बनकर विश्लेषणको ही प्रधान और अन्तिम कर्तव्य नहीं मान बैठता । आलोचना भी क्यों न आत्म-रस-दान ही प्रधान हो ! इसी विचारको जैनन्द्रने अपनी प्रमुख दृष्टि मानकर सदा सामने रक्खा है । ( ४९-६४ ) ऊपर जो कहा गया है कि जैनेन्द्र निरी बुद्धिसे अधिक सर्वस्पर्शी भाव-भूमिको अपनाते हैं, उसका अर्थ विवेकशासित भावनाओके अर्थभे लेना अधिक युक्त होगा । क्योकि वैसी निरी भावनाके शिकार बननेमें वे सुख नहीं लेते, वह तो पुनः एक अन्धस्थिति है । परन्तु प्रेमकी भावनाको या कहो सर्वव्यापी सहानुभूतिको ही जैनेन्द्रने जैसे अपने भीतर रमा लिया है । इसीसे वे उस उन्नत 1 शालीनताके साथ अश्लीलताके भौतिक प्रश्नको छूते दीखते हैं ( पृ० ४२ ) कि जिससे दुश्चरित्रा ठहराई हुई और यहूदियोंद्वारा पत्थर फेककर सताई गई स्त्रीपर ईसा के करुणा-द्रवित होनेकी, मदरासमे वेश्याओके सम्मुख गॉधीजीद्वारा दिये गये करुणा रंजित ममतापूर्ण भाषणकी, अथवा बुद्ध और सुजाताकी कथाये आँखाके सामने आ खड़ी होती हैं । सच्चा कलाकार इसी अन्तिम सत्यकी अलोकिक भूमिपर खडे होकर, लौकिक सुन्दर - अमुन्दरके भेद अन्तरको आँखो के सामन चिलमते- बुझते देखता है । अरे, सत्यकी महादर्शिनी आँखो के आगे ये भेद-भाव कहाँ बचे रहते हैं ? दुर्बल मानव-मन-निर्मित मूल्य-भेद जहाँ जाकर एकमेक हो जाते हैं उसीको आध्यात्मिक या आधिदैविक दृष्टिकोण कहते हैं । आधिभौतिक आचार या नीति- अनीतिके रूढ बंधनों की कीमत कूतनेवाले शास्त्र (= एथिक्स ) की समस्यायें भी इसी तरह जैनेन्द्रके लिए बहुत कम कठिन रह जाती हैं । जैनेन्द्र क्या, प्रत्येक सुबुद्ध लेखक अपनी काल-परिस्थितिकी Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मर्यादाओसे बाहर जाकर बात करता है; वह एक प्रकारका निर्लिप्त फकीर और द्रष्टा ही होता है। (पृ० १७) इस दृष्टिसे उसका उत्तरदायित्व कम नहीं होता। उसे अपने समाजकी स्थितिको अपने साथ आगे बढा ले जाना होता है; अर्थात्, उसे कीमते बदलनी होती हैं । अब कीमते बदलनेके दो तरीके हैं। एक तो वह है जो ऑधी-सा है, जिसे 'क्रान्ति' कहते है; दूसरा वह जिसमे लोगोको किसी भी तरह खदेड़ा, कुचला या अप्रेमसे अपनी भूमिपर ज़बर्दस्ती (यानी हिंसाको जगह देकर भी) खींचा नहीं जाता, बल्कि प्रेम और समझावेसे त्याग और भलेपनकी अहानिकर और अहिंसक तथा नम्र और विनीतपद्धतिसे मनवाया जाता है। क्योंकि जहाँ दृढ हृदय झुकता है, वहाँ उस झुकनेके द्वारा क्या उतनी ही दृढताके साथ वह औरोके हृदयको भी नहीं झुकाता ? परन्तु जरूरत सिर्फ इतनी ही होती है कि वह दृढ हृदय इतना प्रेमसे लबालब, करुणासे ओत-प्रोत, इतना अलग एवं ध्येय-मय-विरागपूर्ण हो कि जिसमे रागद्वेषको पास फटकनेका अवसर तक न मिले । यही कठिन और कष्टोसे भरी दूसरी राह जैनेन्द्रने अपने लिए चुनी है । उनका मूल्यान्तरीकरण (=transvaluation) नीदोके समान दुर्द्धर्ष विद्रोह, हिंसा, और जिघासापर नही खडा हे। जहाँ जमाना क्रान्तिके नशेमे कोरे पराये शब्दोके पीछे अपनेको खोनेको तुला है, वहाँ जैनेन्द्रकी यह निष्कपट निष्ठा सराहनीय ही नहीं वरश्च महत्त्वशाली है। इस दृष्टिसे 'प्रगति क्या' यह एक पढनेकी चीज़ है। जैनेन्द्रके विचार-लोकपर वंदनीय गाँधीजीके सिद्धान्तोंका गहरा प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। अहिंसा, सत्य और अपरिग्रहकी सिद्धान्तत्रयीको जैनेन्द्रने, मी जैसे आधारके तौरपर पूरी तरह अपना लिया है । इसकी इष्टानिष्टतापर तर्क करना स्थल और विषयकी दृष्टिसे यहाँ अपेक्षित नहीं । मिसालके लिए कर्मसंबंधी महत्त्वपूर्ण प्रश्न ही ले ले। धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकायके समान उनके द्रव्यानुयोगमें विभेद नहीं और न वे जीनो या पारमिनाइडसके समान सर्व-स्थिति-मय किंवा हेराक्लाइटसकी तरह सर्वगतिमय ही होकर किसी वस्तुके अर्ध सत्यको पकड़कर ही चलते हैं । यहाँ जैनेन्द्रकी 'एक कैदी' कहानीके कुछ वाक्य देनेसे स्पष्टीकरण होगा; " सत्य स्थिर है, घिरा नहीं है, न अनुशासनसे परिबद्ध । काल भी सत्य ही है; काल जो बनने और मिटनेका Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधेय है । अतः स्थिरता सिद्धि नहीं, गति भी आवश्यक है । जीवन अस्तित्वसे अधिक कर्म है।" अब इसी कर्म-प्रश्नको जिस तरह गीतासे 'स्वभावस्तु प्रवर्तते' कहा गया है, जैनेन्द्र भी 'आप क्या करते हैं' जैसे बाह्यतः बुद्धपनस मरे दीखनेवाले निबंधमे, इस मजेदार सरलतासे प्रतिपादित कर डालते हैं कि देखते ही बनता है। किसी इन्श्योरन्स एजेंटके आग्रहसे चिढकर ही जैनेन्द्रने इस लेखकी सृष्टि कर डाली थी, वैने तो, आचार-शास्त्रसंबंधी कई प्रश्नोका समाधान मेरे द्वारा किये गये विविध प्रश्नोकी उत्तरावलीमें, जो पुस्तकके पीछे दी है, मिल जाता है। तो भी 'व्यवसायका सत्य' उपयोगिता' 'भेदाभेद,' आदि लेख भी इसी दृष्टिसे पढे जाने योग्य है । यहाँ एक मार्केकी बात है कि जैनेन्द्र कभी सामान्य समझ (Common sense) की भूमि नहीं छोड़ते। वह जैन मुनियोका सा कर्म-संवर और कर्मनिर्जरका असभाव्य उपदेश नहीं देते । जो भी हो, अपरिग्रहको वे एक राष्ट्रीय आवश्यकता समझते हैं। अब आइए जैनेन्द्रके उस प्रिय लोकमे जहाँ उनको बारम्बार उड उड़ जाना भाता है । पुस्तक-समीक्षा तकमे जो अध्यात्म-भूमि उनसे नहीं छूटती, उसीके विषयमें कुछ कहें । क्या वहाँ कुछ भी कहना चलेगा ? शब्द भी वहाँ बन्धन हैं। 'मानवका सत्य,''सत्य, शिव, सुन्दर, "कला किसके लिए,' मुझे भेजे 'पत्राग' 'दूर और पास, 'निरा अबुद्धिवाद' आदि इसी दृष्टिसे लिखे गये सुन्दर निबंध हैं । जैनेन्द्रकी, जीव, द्रव्य, आत्मवरेण्यसंबंधी विचारावलीपर जैनधर्मकी छाया उतनी नहीं जितना वेदान्तका प्रभाव है । उसे पूर्णतः वेदान्त भी कहना गलत होगा। वह तो एक तरहसे सर्वसाधारणका लोक-धर्म है। वे 'अनुभव' में विश्वास करते हैं। श्रद्धाके एकमेव साधन होनेकी बात भी स्वीकार करते हैं । संसारके आदि और अन्तकी बात साधारण जनको ज्यादह उपयोगी नहीं, और ऐसी अलिस और विच्छिन्न एवं वादग्रस्त समस्याओंमे वे नहीं पडते । कुछ तर्क-प्रधानता अपने 'एक पत्र' में उन्होंने अवश्य अंगीकृत की थी। परन्तु, वैसे उनकी साधारण विचार-भूमि व्यावहारिक वेदान्तकी अथवा आवश्यकीय साधारण समझदारीकी है। रीड आदि स्कॉटिश दार्शनिकोके समान उन्होंने Common sense को ही पुनरुज्जीवित, स्पष्ट और अभिव्यक्त किया है। इसीसे मैं जैनेन्द्रके विचारों में जनताके साथ कई दशान्दियोतक टिके रहनेकी क्षमता पाता हूँ। Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૦ दीजिए कि हमारे साहित्याकाशमे हिन्दीके भविष्योज्ज्वल सुवर्ण-कालके प्रभात-तारे युतिमान होने लगे हैं । जैनेन्द्र उनमे शुक्र हैं । ये सब उस आनेवाले भाग्योदयके सूचक मंगल-चिह्न हैं। हिन्दी माताके सौभाग्यालंकारको अब हमे समझने और जाननेके लिए अधिक समय लगाना अशान नहीं, पाप माना जायगा । हिन्दी गद्य अब पुरातन परिपाटीकी सीमासे बाहर आकर निखरने लगा है, अपने पैरोपर खडे रहनेका पर्याप्त मौलिक मनोबल उसमे अब आने लगा है और अब उसे आवश्यकता नहीं रही है कि बंगला या अंग्रेजीकी जूठनसे ही संतुष्ट रहे । उसपर युगकी चोट पड़ी है और उसे प्रस्तुत और प्रबुद्ध होकर उस युगको प्रति-चोट देने जितनी क्षमता अपने बाहुओंमे पाना है । हिन्दी लेखक उस क्षमताको विचार सूक्ष्मता, संकल्पकी दृढता, निरर्थकके मोहका परित्याग, भाषाके संबधमे उदारता, आत्म-विश्वास और आत्म-सामर्थ्यद्वारा ही विकसित कर सकता है । जैनेन्द्रमें इनमेसे बहुत-सी चीजोके बीज हैं। और मेरी इस भूमिकासे यह कदापि न समझना होगा कि मेरा कथन जैनेन्द्रपर । आन्तिम वाक्य है । लेनिनने कहा है, ' अन्तिम कुछ नहीं है' और जीवित लेखक चिर-वर्धमान होता है। उसपर जो कुछ हम कहे वह भी qualified अर्थोमे ही लेना चाहिए, क्योकि साहित्यकार और सरित्प्रवाह एकसे है। कुछ स्व-गत नदीका एक नाम है वेगवती । बहना उसके स्वभावमे है । चट्टाने राहमें आवे, पर वह रुकावटपर नहीं रुकती। वह अपने आप अपने ही समग्र जीवनसामर्थ्यके साथ, अपनी दिशा खोज लेती है, उसमें समुद्रके विराट् हृदयके साथ एकीकरण पानेकी तीव्र लगन रहती है। वह अपनी शैल-गुहासे ममताका नाता तोड़कर, पूरी गति और हार्दिकताके साथ सिर्फ बढते जाना ही जानती है । राहमे धूप और छायाकी बुनी जाली उसे डॉकती-खोलती, ककड़-पत्थरके बिछौने और निझर-वधु उसका आमंत्रण करते, कटीली झाडिया उसकी धाराकी बाधा बन आती और वालकी अपार शोषकता उसके सम्मुख विस्तृत उपेक्षा बनकर फैली रती है । तो भी नदी नदी है । नहीं है उसे परवाह इन दुनिया-भरके बन्धनोकी । वह तो निःश्रेयसकी साधिका बनी उसी आकूल महासागरकी ओर बस प्रवहमान, गतिशीला है। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिन्तक कलाकारके मुक्त विचार भी ठीक ऐसे ही होते हैं । वे सत्योन्मुख अभेदानुभूतिकी चिन्तन-लालसासे अनुप्राणित, सजीव-सहज, निष-अखंड, सहिष्णु-उदार और वेगात्मक होते हैं। ___ ऊपरा ऊपरी दर्शक नदीका एक खंड देखकर कहता है, 'ओह, कितना तरंग ताडव, कितना अनियमित बिखरा-बिखरापन, जिसमे कोई एक सूत्रता ही न दीखे !' पर वह भूलता है । थोड़ी-सी विचारपूर्वकताके साथ वह देखे तो पाये कि 'अरे, इसका प्राकृतिक प्रवेग तो देखो, इसकी सरल-सहज सत्यप्रियता तो देखो ! इसकी लक्ष्योन्मुखी कातरता ही क्या इसके प्राणोंका सुसूत्र अर्थ नहीं ? अरे, इसका नदीपन ही तो इसके अस्तित्वका नियम है ! यह लहरी-नृत्य भहीं, यह जीवन-मथन है।' जो मुक्त-विचार जीवनकी कीमत देकर पहिचाने जाते हैं उनकी ट्रेजेडी यही है कि उन्हें कोई नहीं पहिचानता। वे अपरिचित, अनएश्यूमिंग रहकर ही सुख पाते हैं । उनकी अपार आर्द्रता, उनका विश्व-वेदनाके साथ हृदयगुन्थन क्वचित् ही मर्मराकुल होता है। अधिकतर वह नीरव रहता है । वे ऊर्ध्वगामी, निरन्तर मूक, आत्माकी व्यथा-गोदसे उठनेवाली, प्रश्न और विस्मय-चिह्नाकित पुकारे हैं। __ और दुनिया जब इस पशोपेशमे ही पड़ी रहती है कि कोई समझे, हम तो नहीं समझते, तभी मेरे जैसा कोई अल्प-कौशल दृश्याकनकार (=Landscape -painter ) उस विचार-नदीके किनारो-किनारोपर पर्यटन करके किसी एक खंडको लेकर प्रयास करने बैठ जाता है कि जिसमें नदीकी पूरी आत्माकी झलक वह अपने छोटेसे चित्र-खंडमें प्रस्तुत कर दे । उसमे वह अपने दृष्टिकोणको शक्यतः विस्तृत और तटस्थ बनाकर नदी और नदीके आकाश-वातासको खींच लानेका प्रयत्न करता है। जैनेन्द्र के इस लेख-संग्रहकी भूमिका लिखते समय मुझे अपनी ओरसे इतनीसी ही कैफियत कहो या विज्ञप्ति, दे देनी है। ऊपर सहजको समझानेका और निरभ्र आकाशकी अपार नीलम गहराईमें रंगच्छटाये खोजनेका किंवा नदीके तरंग-भेदमे परिव्यात एकमेव 'जीवन-भेद' को चीहनेका असाध्य कर्म मैंने किया है। इस प्रथम प्रयासमे मैंने, हो सकता है, गलतियाँ भी की हो। कई भूलें भी Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होता है तभी आदमीमे कट्टर अन्धता (=Dogmay आती है और उसका विकास रुक जाता है। इस तरह, एक परिभाषा बनायें और उससे काम निकालकर सदा दूसरी बनानेको तैयार रहें। यह प्रगतिशील जीवनका लक्षण है और प्रगतिशील, अनुभूतिशील जीवनका लिपिबद्ध व्यक्तीकरण साहित्य है। इसीको यो कहें कि मनुष्यका और मनुष्य-जातिका भाषाबद्ध या अक्षर-व्यक्त ज्ञान साहित्य है। प्राणीमें नव वोधका उदय हुआ तभी उसमे यह अनुभूति भी उत्पन्न हुई कि 'यह मै हूँ' और 'यह शेष सब दुनिया है।' यह दुनिया बहुत बड़ी है, इसका आर-पार नहीं है, और मैं अकेला हूँ। यह अनन्त है, मै सीमित हूँ, क्षुद्र हूँ। सूरज धूप फेकता है जो मुझे जलाती है, हवा मुझे काटती है, पानी मुझे वहा ले जायगा और डुवा देगा, ये जानवर चारों ओर 'खाऊँ खाऊँ' कर रहे है, धरती कैसी कटीली और कठोर है, पर, मैं भी हूँ, और जीना चाहता हूँ। वोधोदयके साथ ही प्राणीने शेष विश्वके प्रति द्वन्दू, द्वित्व और विग्रहकी वृत्ति अपनेमे अनुभव की, इससे टक्कर लेकर मै जीऊँगा, इसको मारकर खा लेंगा, यह अन्न है और मेरा भोज्य है; यह और भी जो कुछ है, मेरे जीवनको पुष्ट करेगा। बोधके साथ एक वृत्ति भी मनुष्यमें जागी । वह थी 'अहंकार'। किन्तु ' अहंकार ' अपनेमें ही टिक नही सकता। अहंकार भी एक सम्बन्ध है जो क्षुद्रने विराटके प्रति स्थापित किया। विराटके अवबोधसे क्षुद्र पिस न जाय, इससे क्षुद्रने कहा, 'ओह, मै 'मैं' हूँ, और यह सब मेरे लिए है।' Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य क्या है? इसी ढंगसे क्षुद्ने अपना जीवन सम्भव बनाया। किन्तु, जीवनकी इस सम्भावनामें ही विराट और क्षुद्र, अनन्त और ससीमका अभेद सम्पन्न होता दीखा । वह अभेद यह है, जो कुछ है वह क्षुद्र नहीं है पर विराटका ही अंश है, उसका बालक है, अतः स्वयं विराट् है। ___ धूप चमकी, तो वृक्षने मनुष्यसे कहा, 'मेरी छायामे आ जाओ,' बादलोसे पानी बरसा तो पर्वतने कंदरामे सूखा स्थल प्रस्तुत किया और मानो कहा, 'डरो मत, यह मेरी गोद तो है।' प्यास लगी तो झरनेके जलने अपनेको पेश किया । मनुष्यका चित्त खिन्न हुआ और सामने अपनी टहनीपरसे खिले गुलाबने कहा, 'भाई, मुझे देखो, दुनिया खिलनेके लिए है।' साँझकी बेलामें मनुष्यको कुछ भीनी-सी याद आई, और आमके पेड़परसे कोयल बोल उठी, 'कू-ऊ, कू-ऊ ।' मिट्टीने कहा ' मुझे खोदकर, ठोक-पीटकर, घर बनाओ, मै तुम्हारी रक्षा करूँगी।' धूपने कहा, 'सर्दी लगेगी तो सेवाके लिए मैं हूँ।' पानी खिलखिलाता बोला, 'घबड़ाओ मत, मुझमें नहाओगे तो हरे हो जाओगे।' __ मनुष्य प्राणीने देखा-दुनिया है, पर वह सब उसके साथ है। फिर भी, धूपको वह समझ न सका, वर्षाके जलको, मिट्टीको, फूलको,-किसीको भी वह पूरी तरह समझ न सका। क्या वे सब आत्मसमर्पणके लिए तैयार नहीं है ! पर, उस क्षुद्रने अहंकारके साथ कहा, 'ठहरो, मै तुम सबको देख लूँगा । मैं 'मैं' हूँ, और मैं जीऊँगा।' Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रकार अहंकारकी टेक बनाकर, अपनेको तुद्र और सबसे अलग करके वह जीने लगा । अर्थात् , सब प्रकारकी समस्याएँ खड़ी करके उनके बीचमे उलझा हुआ वह जीने लगा। विश्वके साथ विभेद-वृत्ति ही,,उसके जीनेकी शर्त बनकर, उसके भीतर अपनेको चरितार्थ करने लगी। __ पर, इस जीवनमे एक अतृप्ति वनी रही जो विश्वके साथ मानो अभेदकी अनुभूति पानेको भूखी थी। अहंकारसे घिरकर वह अपने क्षुद्रत्वके अवबोधसे त्रस्त हुआ,-यों ही विराटसे एक होकर अपने भीतर भी विराटताकी अनुभूति जगानेकी व्यग्रता उसमे उत्पन्न हुई। इस व्यग्रताको वह भाँति-भाँतिसे शान्त करने लगा। यहींसे धर्म, कला, साहित्य, विज्ञान, सब उत्पन्न हुए। यह अभेद-अनुभूति उसके लिए जब इष्ट और सत्य हुई ही.थी तभी विभेद आया। एक आदर्श था तो दूसरा व्यवहार। एक भविष्य था तो दूसरा वर्तमान । इन्हीं दोनोके संघर्ष और समन्वयमेंसे मनुष्य प्राणांके जीवनका इतिहास चला और विकास प्रगटा। ___ मनुष्यकी मनुष्यके साथ, समाजके साथ, राष्ट्रके और विश्व के साथ, (और इस तरह स्वयं अपने साथ ) जो एक सुन्दर सामंजस्य,एकस्वरता, (=Harmony) स्थापित करनेकी चेष्टा चिरकालसे चली आ रही है, वही मनुष्य जातिकी समस्त संग्रहीत निधिकी मूल है । अर्थात्, मनुष्यके लिए जो कुछ उपयोगी, मूल्यवान् , सारभूत आज है, वह ज्ञात और अज्ञात रूपमें उसी एक सत्य-चेष्टाका प्रतिफल है। इस प्रक्रियामें मनुष्य जातिने नाना भॉतिकी अनुभूतियोका भोग किया। सफलता की, Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य क्या है? विफलता की, क्रिया की, प्रतिक्रिया की, हर्ष, क्षोम, विस्मय, भीति, आह्लाद, घृणा और प्रेम,—सब भाँतिकी अनुभूतियाँ जातिके शरीरने और इतिहासने भोगी, और वे जातिके जीवन और भविष्यमें मिल गई । भाँति-भाँतिसे मनुष्यने उन्हें अपनाया, और व्यक्त किया । मंदिर बने, तीर्थ बने, घाट बने,—वेद, शास्त्र, पुराण, स्तोत्र-प्रन्थ बने, शिलालेख लिखे गये, स्तम्भ खड़े हुए, मूर्तियाँ बनी और स्तूप निर्मित हुए । मनुष्यने अपने हृदयके भीतर विश्वको यथासाध्य खींचकर जो जो अनुभूतियाँ पाई,-मिट्टी, पत्थर, धातु अथवा ध्वनि एवं भाषा आदिको उपादान बनाकर, उन्हें ही रख जानेकी उसने चेष्टा की । परिणाममे, हमारे पास ग्रन्थोका अटूट, अतोल संग्रह है, और जाने क्या क्या नहीं है। मानव-जातिकी इस अनन्त निधिमें जितना कुछ अनुभूति-भाण्डार लिपिबद्ध है, वही साहित्य है। और भी, अक्षर-बद्ध रूपमें जो अनुभूति-संचय विश्वको प्राप्त होता रहेगा, वह होगा साहित्य । www Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर* प्रश्न - साहित्य क्या है ? उत्तर - क्या साहित्यकी परिभाषा चाहते है ? परिभाषा अनेक दी जा सकती हैं। लेकिन मैं समझता हूँ कि प्रश्नका उद्देश्य परिभाषा माँगने अथवा लेनेका नहीं है। साहित्यको हमें समझना चाहिए । समष्टि रूपमें हम एक है, व्यक्तिगत रूपमें हम अनेक है, अलग अलग है । इस अनेकताके बोधसे हम ऊपर उठना चाहते है । आखिर तो हम समयके अंग ही हैं । उस समयके साथ ऐक्य न पालें तब तक कैसे हमें चैन मिले ! इसीसे व्यक्तिमें अपनेको औरोंमे और औरोको अपने देखनेकी सतत अभिलाषा है । मनुष्यके समस्त कर्मका ही यह अर्थ है । मनुष्यके हृदयकी वह अभिव्यक्ति जो इस श्रात्मैक्यकी अनुभूति लिपिबद्ध होती है, साहित्य है । प्रश्न – साहित्यका जन्म कैसे हुआ ? उत्तर- इसका उत्तर तो ऊपर ही आ जाता है। मनुष्य अपने आपमें अधूरा है, लेकिन वह पूर्ण होना चाहता है। इस प्रयासमे क्रमशः वह भाषाका आविष्कार कर लेता है, लिपि भी बनाता है । तब वह उस लिपिवद्ध भाषाके द्वारा अपनेको दूसरे के प्रति उड़ेलता है । अपनेको स्वयं अतिक्रमण कर जानेकी इस चाहको ही साहित्यकी मूल प्रेरणा समझिए । * ये प्रश्न श्री रमेशचन्द्र आर्यने किये थे । ६ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विज्ञान और साहित्य ज्ञानकी प्राथमिक अवस्थामें मनुष्यके निकट स्वप्न और सत्यमे अधिक भेद न था । जो उसने सपनेमें देखा, जो कल्पना की, उसे ही सच मान लिया । और जिसको आजकल हम वास्तव कहकर चीन्हते हैं,-पत्थर, धातु, आदमी, समाज, सरकार,—ये सब-कुछ उसके लिए उतना ही अवास्तव अथवा संदेहास्पद था जितना कि उसका स्वप्न ।। ___ आँख खोलते ही उसने देखा,—सूरज है जो चमकता है। उसने तुरन्त कहा, 'सूरज बड़ा कान्तिमान् देवता है।' उसने और भी देखा कि सूरज पूरबमें उगता और पच्छिममें डूबता है, इस तरह वह चलता भी है, और उसने कहा 'सूरज देवताके रथमें सात घोड़े है जो उसे तेनीसे खींचते है ।' यो आदिम मनुष्यने जब सूर्यको देखा तब उसे बाह्लाद हुआ, विस्मय हुआ, भक्ति हुई और सूरजके सम्बन्धमें उसने जो धारणा बनाई उसमे ये सब भाव किसी न किसी प्रकार व्यक्त हुए । सूर्य उसके निकट एक पदार्थ-मात्र न रहा जो ज्ञान-गम्य ही हो, वह उसके निकट देवता बन गया । ___ आँख मींचनेपर उसने सपने देखे । देखा, वह पक्षीकी तरह उड़ सकता है, मछलीकी तरह पानीमे तैर सकता है,-पल-भरमें सागरोंको वह पार कर गया, सागरोंके पार हरियाली ही हरियाली है और वहाँ मीठी बयार चलती है। उसने झटसे कहा, 'वह है स्वर्ग। वहाँ अत्यन्त स्वरूपवान् व्यक्ति बसते हैं, वहाँ दुःख है नहीं, प्रमोद ही प्रमोद है।' Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह सपनेका स्वर्ग उसके निकट वैसा ही वास्तव होकर रहा जैसा आँखोंसे दीखनेवाला सूरज । सूरजके प्रति उसने जलका तर्पण दिया तो इसी प्रकार अन्य देवताओका समारोप करके उसने उनके प्रति अपनी कृतज्ञताका ज्ञापन किया । देवताओंके नाम बने, मूर्तियाँ बनीं, स्तवन बनें । और यह देवतालोग उसके जीवनके साथ एकाकार होकर, हिल- मिलकर, रहने लगे । इस प्राथमिक ज्ञानके उद्बोधनकी अवस्था में मनुष्यने अपनेको जब विश्वसे अलहदा अनुभव किया तब उसके साथ भाँति-भाँति के रिश्ते भी कायम रक्खे | — तब उसका समस्त ज्ञान अनुभूतिसूचक ही रहा । विशुद्ध बौद्धिक ज्ञान, अर्थात् विज्ञान, बहुत पीछे जाकर उदयमें आया । " देखो नानीने अपने नन्हेंसे बच्चेको चन्दा दिखाते हुए कहा, बेटा, चन्दा मामा ! ' बच्चेने उसे सचमुच ही अपना चन्दा मामा बना लिया । जब जब उसने चाँद देखा, ताली बजाकर, नानीकी उँगली पकड़कर कहा, ' देख नानी, चन्दा मामा ! ' पर जब बच्चा बढ़कर बड़ा हुआ तब चाँद देखकर उसका ताली बजाना ख़त्म हो गया । चन्द्रमा देखकर किसी भी प्रकारके आह्लादकी प्राप्ति उसे नहीं होने लगी । आह्लाद कम हो गया, उत्सुकता भी कम हुई, पर उसकी जगह एक गम्भीर जिज्ञासाका भाव जाग उठा । उस बड़ी उमर पाये हुए आदमीने कहा " चन्दा मामा नहीं है। मामा कहना तो मूर्खता है, निरा बचपन है । लाओ, टेलिस्कोप लगाकर देखें चन्द्रमा क्या है । ' ८ Coughing Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ י विज्ञान और साहित्य चन्द्रमामें कुछ काला-काला-सा दीखता है। हमारी कल्पना, जिसमें आत्मीय भावकी शक्ति है, झट वहाँतक दौड़ गई । और उसने कहा ' वहाँ बैठी बुढ़िया चर्खा कात रही है।' और कह दिया । यह कहकर मानों हमने लिया है, ऐसी प्रसन्नता मनको हुई । दूसरेने ऐसा ही कुछ सचमुच कुछ तथ्य पा पर उमरवाले बालकने फिर कहा, 'नहीं नहीं, मेरे टेलिस्कोपमें जो दीखेगा चाँदका काला काला दाग़ वही है। जबतक साफ़ साफ़ उसमे कुछ नहीं दीखता तबतक कुछ मत कहो । यह तुम क्या चर्खेवाली बुढ़ियाकी वाहियात बात कहते हो ! ' जब शनैः शनैः इस प्रकार विश्वको आत्मसात् करनेकी मानवकी प्रक्रियामें यह द्विविधा याती चली, उसी समयसे मनुष्य के ज्ञानमे भी विभक्तीकरण हो चला। इससे पहिले जो था, सब साहित्य था । उस समय मनुष्य ज्ञाता और शेष विश्व ज्ञेय न था । वह भी विश्वका अंश जैसा था । उसमें अहम् सर्वप्रधान होकर व्यक्त न हुआ था। प्रकृति सचेतन थी और जगत् विराट्मय था । पंचतत्र देवता - रूप थे और भिन्न भिन्न पदार्थ उनके प्रकाश-स्वरूप । तब विश्व मानो एक परिवार धा और मानव उसका एक एक सदस्य । मानो विराटकी गोद में बैठा हुआ वह एक बालक था । उस समय उसकी समस्त धारणाएँ अस्पष्ट थी अवश्य, पर अनिवार्य रूपमें अनुभूतिसूचक थीं, प्रसादमय थीं । आदमीने चकमकके दो टुकड़ोंको रगड़कर अग्नि पैदा की । पर उसने यह नहीं कहा, ' चकमकके टुकड़ोंको रगड़ा इससे भाग पैदा हुई है।' उसने नहीं कहा, 'देखो, मैं इस तरह याग पैदा कर लेता - ९ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।' उसने माना अग्नि देवता प्रसन्न हुए है। उन्हींका प्रसाद है कि यह स्फुलिंग उसे प्राप्त हुआ है । चकमककी रगड़ तो प्रसाद-प्राप्तिके लिए निमित्तमात्र साधन है। आज दियासलाई जलाकर हमने आग पाई और एक फार्मूला ( सूत्र ) प्रस्तुत किया कि अमुक रसायन - तत्त्वोंसे बनी हुई दियासलाईको अमुक मसालेसे रगड़नेपर अवश्य अग्नि प्राप्त होगी । उस फार्मूलेके सहारे से हमने देवताका निर्वासन कर दिया और अग्नि हमारी चेरी होकर रह गई । यह फार्मूला-बद्ध धारणा स्पष्ट, निश्चित, और कदाचित् अधिक तथ्यमय अवश्य है, किन्तु अनुभूतिसूचक नहीं है । इस धारणासे हमारे चित्तके किसी भावको तृप्ति नहीं प्राप्त होती । nc अधिकाधिक अनुभूति-संचय और अवबोधवृद्धिके बाद मनुष्यने अपनेको ज्ञाता अनुभव करना आरम्भ किया । उसने अपनेको पदार्थोंसे और पदार्थो को अपनेसे एक बार अलग करके फिर उन्हे बुद्धिके मार्गद्वारा अपने निकट लानेकी चेष्टा की । हम कह चुके हैं, मानव अपनी सब चेष्टाओं, सब प्रयत्नों और सब प्रपंचोद्वारा, जाने-अनजाने एक ही सिद्धिकी ओर बढ़ रहा है । और वह सिद्धि है, अपनेको विश्वके साथ एकाकार करना और विश्वको अपने भीतर प्रतिफलित देख लेना । बुद्धिके प्रयोगद्वारा भी वह इसी भेद-अनुभूति तक पहुँचना चाहता है । किन्तु, मानवबुद्धि उस तलकी वस्तु है जहाँका सत्य विभेद है, अभेद नही । वह अन्वयद्वारा चलती है, खण्ड खण्ड करके समयको समझती है । अहंकार उसका मूल है और ज्ञेयका पार्थक्य उसकी शर्त । जहाँ यह बुद्धि प्रधान होकर रही, जहाँ उसने पदार्थको उसके १० Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विज्ञान और साहित्य चारों ओरके सम्बन्धोंसे तोड़कर उसे समझनेकी चेष्टा की, और जिसका परिणाम जीवनके रस और नीतिसे, इस प्रकार, अधिकाधिक विच्छिन्न होकर प्रकट हुआ कि जिससे अनुभूति कम और यत्न अधिक व्यक्त हुआ, और जो अन्ततः रेखाबद्ध और फार्मूला-बद्ध विद्या हो पड़ी, वही वस्तु है विज्ञान । ___मनुष्यके विकास-आरम्भके पर्याप्त कालके अनन्तर विज्ञानका प्रादुर्भाव हुआ। आदिमें तो विज्ञानको भी अनुभूति-मय रखनेकी चेष्टा रही । अर्थात् रूपकों, कहानियों और श्लोकोद्वारा उसे प्रकट किया गया। बहुत पीछे जाकर, उसे व्यवस्था-बद्ध विज्ञानका वह रूप मिला जो जीवनकी असली आवश्यकतासे विच्छिन्न हो गया। इसके विरोधमें जब मानवने अपने व्यक्तित्वके पूरे जोरसे विश्वको अपनानेकी चेष्टाको शब्दोंमें व्यक्त किया, जो शुद्ध अनुभूतिमय है, जहाँ लगभग स्रष्टा ज्ञाता है ही नहीं वरन् वह अपनी सृष्टिसे एकाकार है, जहाँ सम्बन्ध सिरजनका है जाननेका नहीं, जहाँ ज्ञाता और ज्ञेयका पार्थक्य नहीं है और जहाँ स्रष्टा और सृष्टिकी एकता है, वह है साहित्य । इस तरह विज्ञान प्रथमावस्थामें साहित्य है। और अपनी अन्तिम अवस्थामें भी,---जब वह केवल बुद्धिका व्यापार नहीं है, और जब वह प्रसाद-मय, रहस्य-मय, और मानों ईश्वराभिमुख है, वह साहित्य है। कहा गया है जानना ही बनना है,-Knowing is becoming: जहाँ जाननेका स्वरूप बनते जानेका है, जहाँ ज्ञान संग्रहसे अधिक रचना करता है वहाँ विज्ञान शुद्ध ज्ञान है और साहित्य भी शुद्ध ज्ञान है, अर्थात् एक विज्ञान है। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य और समाज हिन्दी साहित्यमें अब जो नई शक्तियाँ आ रही है, उनमे बहुभागको सामाजिक मान्यता प्राप्त नहीं है। कुछ, काल पहले तक हमारा साहित्य उच्च-वर्गीय था। उसके उत्पादक समाजके प्रतिष्ठाप्राप्त व्यक्ति थे । अब अधिकांश ऐसा नहीं रह गया है। जिनको समाजमें पैर टेकनेको कोई ठीक ठौर नहीं है, वे लोग भी आज लिखते है। इससे प्रश्न होता है कि समाजकी और साहित्यकी परस्पर क्या अपेक्षा है ? क्या सम्बन्ध है ? साहित्य अब अधिकाधिक व्यक्तिगत होता जा रहा है । पहले वह अपेक्षाकृत समाजगत था । समाजकी नीति-अनीतिकी मान्यताओंकी ज्योकी त्यों स्वीकृति साहित्यमें प्रतिविम्वित दीखती थी। अब उसी साहित्यमें समाजकी उन स्वीकृत और निर्णीत धारणाओंके प्रति व्यक्तिका विरोध और विद्रोह अधिक दिखाई पड़ता है । अतः, यह कहा जा सकता है कि साहित्य यदि पहले दर्पणके तौरपर सामाजिक अवस्थाओंको अपनेमे विम्ब-प्रतिविम्ब-भावसे धारण करनेवाली वस्तु थी तो अब वह कुछ ऐसी वस्तु है जो समाजको प्रतिविम्बित तो करे, पर चाटुतासे अधिक उसे चोट दे, और इस भाँति समाजको आगे बढ़ानेका काम भी करे । साहित्य अत्र, प्रेरक भी है । वह ला देता ही नहीं, अब वह कराता भी है । हमारी. वीती ही उसमें नहीं है, हमारे संकल्प और हमारे मनोरथ भी आज, उसमें भरे हैं। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य और समाज जो समाजके प्रति विद्रोही है, समाजकी नीति-धर्मकी मर्यादाओंकी रक्षाकी जिम्मेदारी अपने ऊपर . न लेकर अपनी ही राह चला चल रहा है, जो बहिष्कृत है और दण्डनीय है, ऐसा आदमी भी साहित्य-सृजनके लिए आज एकदम अयोग्य नही ठहराया जा सकता । प्रत्युत देखा गया है कि ऐसे लोग भी है जो आज दुतकारे जाते हैं, पर अपनी अनोखी लगन और अपने निराले विचारसाहित्यके कारण कल वे ही आदर्श भी मान लिये जाते है। वे लोग जो विश्वके साहित्याकाशमें धुतिमान् नक्षत्रोंकी भाँति प्रकाशित है, बहुधा ऐसे थे जो आरम्भमें तिरस्कृत रहे, पर, अन्तमें उसी समाजद्वारा गौरवान्वित हुए। उन्होने अपने जीवन-विकासमें समाजकी लाञ्छनाकी वैसे ही परवा नहीं की, जैसे समाजके गौरवकी । उनके कल्पनाशील हृदयने अपने लिए एक आदर्श स्थापित कर लिया और बस, वे उसीकी ओर सीधी रेखामें बढ़ते रहे । यह समाजका काम था कि उनकी अवज्ञा करे अथवा पूजा करे । उन व्यक्तियोने अपना काम इतना ही रक्खा कि जो अपने भीतर हृद्गत लौ जलती हुई उन्होंने पाई, उसको बुझने न दें और निरन्तर उसके प्रति होम होते रहें। समाजने उन्हें आरम्भमें दरिद्र रक्खा, 'ठीक । अशिष्ट कहा, अनुत्तरदायी समझा, यातनायें तक दी, हँसी उड़ाई,यह सभी कुछ ठीक । किन्तु, जो कल्याण-मार्ग उन्होंने थामा उसीपर वे लोग सबके प्रति, आशीर्वादसे भरे ऐसे अविचल भावसे चलते रहे कि समाजको दीख पड़ा कि उनके साथ कोई सत्-शक्ति है, जब कि, समाजकी अपनी मान्यताओं में सुधारकी आवश्यकता है। । । ऐसे लोग पहले तिरस्कृत हुए, फिर पूजित हुए । संसारके महा Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरुषोंके चरित्रोमें यही देखनेमें आता है । समाजके साथ उनका नाता गुलामीका नहीं होता, नेतृत्वका होता है। वे अपनी राह चलते है। समाज उनपर हँसता है, किन्तु, फिर उन्हींके उदाहरणसे अपनी आगेकी राहको प्रकाशित भी पाता है। काल-भेदकी अपेक्षा हमने साहित्यकी , प्रकृतिमे भेद चीन्हा । किन्तु, गुण-भेदसे भी साहित्यमें दो प्रकार देखे जा सकते हैं। एक वह जो समाजके स्थायित्वके लिए आवश्यक है, दूसरा वह जो समाजको प्रगतिशील बनाता है। साहित्य दोनो प्रकारके आवश्यक हैं। लेकिन, यदि अधिक आवश्यक, अधिक सप्राण, अधिक साधनाशील और अधिक चिरस्थायी किसीको हम कहना ही चाहें तो उस साहित्यको कहना होगा जो अपने ऊपर खतरे स्वीकार करता है, और, चाहे चावुककी चोटसे क्यों न हो, समाजको आगे बढ़ता है । वह साहित्य आदर्श-प्राण होता है, भविष्यदर्शी होता है, चिरनूतन होता है, किन्तु, ऐसा साहित्य सहज मान्य नहीं होता। समाजमें दो तत्त्व काम करते हुए दीखते है। समाजके सब व्यक्ति न्यूनाधिक रूपमे इन्हीं दोनों तत्त्वोके प्रतिनिधि समझे जा सकते है। एक ग्राहक है, एक विकीर्णक । एक व्यक्तित्वशून्य, एक सव्यक्तित्व । एक वह जो अपने भीतर ही अपना केन्द्र अनुभव करता है; दूसरा वह जो अपने परिचालनके लिए अपनेसे बाहर देखनेकी अपेक्षा रखता है । एक गतिशील, दूसरा संवरणशील । सामाजिक जीवन अथवा समाजका व्यक्ति इन्हीं दोनों तत्त्वोंके न्यूनाधिक अनुपातका सम्मिश्रण है । एक ओर गाँवका बनिया है Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कला क्या है ? कुछ बातें मुझे जल्दी में कहनी हैं। क्योंकि, जब मुझे अवकाश और स्थिरता हो, तब मै इन बातोंको नहीं कहूँगा । उस समय तो चुप रहना मुझे अधिक प्रिय होता है । या, उस समय कुछ लिखूँ ही या करूँ ही, तो वह लिखना या करना अच्छा लगता है जो बृहत्-फल न हो और साधारण प्रतीत होता हो । तब कविता लिखूँगा, कहानी लिखूँगा, या इसी जोड़का कुछ निष्प्रयोजन काम करूँगा । किन्तु, अब अवकाशकी कमीमें मैं कुछ उन बातोंपर लिखकर छुट्टी चाहूँगा जिनपर झगड़ा होता है और जिन्हें लोग कामकी और ज़रूरी समझा करते है । दुनियामें एक तमाशा देखने में आता है - जो जीवनमे कलामय नहीं है उसे चिन्ता है कि समझे कि कला क्या है । दुनियाको ऐसी चिन्ता आजकल बहुत खा रही है। -~-~~-सत्य के साथ एकाकार होकर रहनेकी जिनके जीवनमे चेष्टा नहीं है वे सत्यके सम्बन्धमें विवाद उठाने में काफी कोलाहलपूर्ण है । - धर्मको लेकर धार्मिक लोग सेवा - कर्ममें और भगवत् - प्रार्थनामे जब लीन है तब और लोग हैं जिनकी धर्मके सम्बन्धमें श्राकुलता जगतमें उद्घोषित होती रहती है और जो धर्मको लेकर शास्त्रार्थ और यदा-कदा मानव - मस्तकोंकी तोड़-फोड़ किया करते है । सामाजिक क्या, राजनीतिक क्या और साहित्यिक क्या, हर क्षेत्र में जब यह विचित्रता दीखती है तब बड़ा अनोखा भी मालूम होता २२ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कला क्या है? है और समझ जैसे गड़बड़में पड़ जाती है। हर क्षेत्रमें श्रमी नीचे है, आलोचक ऊपर है । साहित्यमें स्रष्टा सृष्टि करेगा, आलोचक राज्य करेगा । समाजके क्षेत्रमें दंभी चौधरी बनेगा, धार्मिक पामाल होगा। राजनीतिके क्षेत्रमें वालंटियर सच्चा होगा, नेता सच्चेसे अधिक नीतिज्ञ होगा। ऊपरसे देखनेसे यह स्थिति मनुष्यको नास्तिक बना सकती है। नास्तिकसे अभिप्राय है श्रद्धाशून्य,-Faithless, संदेहग्रस्त । किन्तु, श्रद्धावानके लिए तो विचलित होनेकी बात कभी कुछ है ही नहीं । यह समस्त सामग्री आस्तिककी तो आस्तिकता ही बढ़ाती है, श्रद्धालुकी श्रद्धाको पुष्ट करती है। उसे कुछ और अधिक प्रबुद्ध और जाग्रत् ही करती है। ___ जो ऊपरसे देखता है वह क्रुद्ध हो रहता है,—विद्रोही, और विप्लवी बन जाता है । वह अन्तमे कहता है, 'असत्य ही सत्य है। मै ही परमेश्वर हूँ। जो दीखता है, उसे छोड़ और कोई सत्य नहीं है।' वह कहता है, 'मनुष्यकी ही जय है । हाँ, शक्ति ही नीति है।' अहंकार उसके जीवनका मूल मंत्र बनता है। किन्तु, विश्वासीको तो पत्ते पत्तेमें, घटना घटनामें, पल पलके भीतर यही ज्वलंतरूपमें लिखा हुआ दीखता है--सत्यमेव जयते नानृतम् । जब क्रूर संतकी छातीपर पैर रखकर दर्पकी हँसी हँसता है तब भी वह श्रद्धावान् संत यही देखता है-सत्यमेव जयते नानृतम् । हिरण्यकशिपुकी नियोजित हर विपदाकी गोदमे बालक प्रह्लादको यही दीखा कि इस सबमें भी उसके प्रभु रामचन्द्र ही है । कशिपुके नाश और प्रह्लादके उद्धारकी बात तो उस पुनीत कथाका अंत है,उस कथाके मर्मका बखान तो प्रहादकी वज्र-श्रद्धामें ही होता है। २३ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहले प्रकारके पुरुषके, नास्तिकके, निकट यह साबित नहीं किया जा सकता कि जो वह समझता है वही विश्त्रका सत्य नहीं है। यानी, यह कि यहाँ गर्वस्फीत शक्तिकी ही जय नहीं है, उसके अन्तर्गत किसी और ही परम सत्ताकी जय है । दूसरे प्रकारके पुरुषके निकट इसी भाँति यह कभी प्रमाणित नही किया जा सकता कि सत्य कभी हारता है । ऐसा पुरुष मरते मर सकता है, पर सत्यकी राह छोड़ते उससे नहीं बनता । इन दोनों प्रकारके तत्वोंके बीच और इन दोनों भाँतिके पुरुषों के मध्य श्रालाप - संलाप, तर्क- विग्रह और संधि-भेद चलता ही रहता है । इसीका नाम विश्वकी प्रक्रिया है । Bologn हमारी मानवीय दुनियाका जो साहित्य-कोष है, वह इसी प्रकारकी प्रक्रियाका शब्दबद्ध संग्रह है । इन दो तरह के लोगोंमे एक दूसरेको सममनेकी चेष्टाएँ और न समझनेकी महंता, परस्परको पूर्ण बनाने का उद्यम और परस्परको कृतकार्य करनेका उद्योग आदि आदि - कालसे चलता चला आ रहा है। इसी संघर्ष और इसी समन्वयमेसे, अर्थात् इसी मंथनमेंसे, ज्ञान ऊपर आता है और प्रगति संपन्न होती है। किन्तु, हम जल्दीमे हैं और यहाँ हम हठात् एक सवाल उठा लेंगे और कुछ देर उसके साथ उधेड़-बुन करके आपसे छुट्टी लेंगे । सवाल के लिए 'कला' शब्द ही लीजिए । कला क्या है, इसपर बहुत-कुछ लिखा गया है, बहुत कुछ लिखा जा रहा है । कुछ तो उसमें काफी शास्त्रीय है, कुछ ऐसा भी है जिसमे ताज़गी है। 'कला' शब्दको ऐसा विवादास्पद शब्द बनानेकी हमारी अनुमति नहीं है जिसको लेकर दो व्यक्ति प्रापसमें सहानुभूति से वंचित हो जायें । २४ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधलेटी रसीली रंभा, इन दोनोंमेसे, बताओ, साहित्य किसको लेकर धन्य होगा ? हाँ, मैं कहूँगा, 'सृष्टाके लिए Preference ( = पक्षपात ) होते होंगे और जितने स्पष्ट और पैने हो उतना अच्छा, यहाँ तक कि उनकी धार इतनी पैनी हो कि वे व्यक्तियोंमेंसे पार होते चले जायें और व्यक्तिको दैहिक चोट तनिक न अनुभव हो । और, जिस तरह रमल्ला अधिक से अधिक ईमानदार और उद्यमी ओर त्रस्त होकर भी अपने ऊपर लिखी गई रचनाको निकम्मी होनेसे नहीं रोक सकता, उसी तरह, रंभा अधिक से अधिक कुटिल होकर भी अपने ऊपर लिखी गई साहित्यिक रचनाको प्रतिशय धन्य होनेसे नहीं रोक सकती । मेरे भाई, मैं अपनेसे कहूँगा, किसीकी भी आत्मा, वेदना और स्वप्नसे खाली नहीं है । अहंकार छोड़कर उसकी आत्मामें तुम तनिक भाँक सको, चाँढाल हो कि ब्राह्मण, वेश्या हो कि संत, राजा हो या रंक, सब कहीं वह है जो तुम्हारी खोजकी वस्तु है । किसीको तजनेकी आवश्यकता नहीं, किसीको पूजनेकी ज़रूरत नही । साहित्यके दर्शकी मूर्तिको 'रमल्ला ' में स्थापित करने के लिए उसे 'रंभा' में से क्यों तोड़ते हो ? यों तो मूर्ति ही ग़लत है, क्योंकि, मूर्तिसे बाहर होकर भी साहित्यका आदर्श ठौर ठौर अणु-अणुमें व्यापा है । लेकिन, यदि तुम मूर्ति चाहते ही हो, और रमल्ला में आदर्श- दर्शन सहज तुम्हे होते हैं तो सहर्ष तुम उस मंदिर में सर्वांग- मूर्ति प्रतिष्ठित 1 करो । मैं तो कहता हूँ, मै अपनेसे कहूँगा, 'मेरे लिए पहले से वह मंदिर है, मुझे तो मूर्ति भी वहाँ पानी है । लेकिन, तुम इस नये यत्नमें 'रंभा'को, या किसी औौरकी मूर्ति या मंदिरको, तोड़नेकी ज़िद रखना ज़रूरी न समझो। इससे तुम्हारा ही अपकार होगा । ' ३२ 1 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किसके लिए लिखें? लेकिन, प्रश्न तो है, हम किसके लिए लिखें ? साहित्यिक उद्यमी होनेके नाते क्या दिशा हम उसे दे ! क्या सब अंधाधुंध चलने दें ? हमारे युवक बिगड़ते हैं, स्त्रियाँ विपथगा होती है, भृष्टाचार फैलता है, यह होने दें ? और तब, जब, दुर्भाग्यसे, संपादककी ज़िम्मेदारी हमारे अनुद्यत कंधोंपर रक्खी है, और हमें कुछ न कुछ बनाना होता है। किसके लिए लिखें ! -यह सोचते हुए जब यहाँ पहुँचता हूँ कि दुनियाकी भलाईके लिए लिखो, तब मुझे ग्लानि होती है। ध्यान आता है कि हर मिनट जीनेके लिए मैं जिसका ऋणी हूँ,-आज उसका उपकारक, उद्धारक होने चला हूँ और भलाई करूँ, इसमेंसे पर्याप्त प्रेरणा भी नहीं प्राप्त होती। अपने सुखके लिए लिखू, तो नही जानता कि लिखनेमें मुझे सुख होता है या नहीं। और मुझे सुख होता भी है तो तब, जब पाता हूँ कि छपकर वह बात सैकड़ोंके पास पहुँच गई है,'और दो-एक तारीफ भी कर रहे है । मुझे सुख भी तो 'मुझसे दूसरे सुख पा रहे हैं ', यह जानकर ही होता है। अच्छा, और जो किसीने तारीफ़ नहीं की, बल्कि मेरी रचनाकी कुछ बुराई ही हुई, तो क्या मैं न लिखू ? अपने सुखके लिए लिखू तो, ऐसी हालतमे, मुझमें लिखनेकी प्रेरणा शेष नहीं रहेगी। ___ अपने लिए लिखें, या परायेके लिए ?' जब यह प्रश्न इसी भाँति दो-मुखी होकर मेरे सामने खड़ा रहा, मुझे सूझा नहीं कि मै उसपर चलूँ या इसपर ( और दोनोंसे बच निकलनेकी राह कहाँ थी!) तब मालूम हुआ-अरे, अपने अहंकारमें भरा मैं यह क्यों नहीं सोचता कि एक वह भी तो है जहाँ पराया भी अपना है और Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपना सब कुछ भी जिसमें समाया है। बस, उसीके लिए तो यह सब रहना, करना, और लिखना है । अपने भीतर और बाहर उसी एकमात्र सत्यकी प्रतिष्ठा के लिए मै लिखूँ । 'विशाल भारत' ने जो 'जनता-जनार्दनाय ' लिखा है, वह ठीक लेकिन, क्या 'जनार्दनाय' मेरे निकट और भी ठीक न होगा क्योंकि, ' जनता ' में पशु-पक्षी कहाँ है, वनस्पति कहाँ है, यह आकार तारे कहाँ हैं ? और, 'जनार्दन ' में तो हमारा ज्ञान अज्ञान सब है लेकिन, 'जनार्दन' को आजकल कौन जाने, कौन माने ! इस आजकलकी भाषा में कहना हुआ, सत्यकी शोध, सत्यकी चर्चा सत्यकी पूजाके लिए हम लिखें । उसके बाद, गरीबके लिए लिखें, अमीरके लिए लिखे, साधारणचे लिए लिखें या किसके लिए लिखें, दुराचारी या सदाचारीके लिए के लिए या पुरुषके लिए, मनोरंजनके लिए या साधनाके लिए :-- ये बाते अधिक उलझन नहीं उपस्थित करती । सत्यके प्रसार और अंगीकारके लिए हम लिखते हैं। सत्यमे जे. बाधा है वही गिराना सत्यका ऐक्य है । कुछ एक दूसरेके निकट अछूत हैं, गलत समझे हुए ( misunderstood) हैं, आधे सम हुए (half understood ) हैं, कुछ त्याज्य हैं, दलित है, त्रस्त हैं, अपराधी है, श्रभियुक्त हैं, दीन है, बेजुबान हैं; — कुछ गर्बीले हैं, दर्पोद्धत है, रुष्ट है, निरंकुश है। यह सब सत्य है। यह क्यों ? मनुष्यकी अहंकृत मान्यताओंमें घुटकर जीवन एक समस्या बन गया है और अपने चारो ओर दुर्गकी-सी दीवारें खड़ी करके उनमें अपने स्वार्थको सुरक्षित बनाकर चलनेके लिए सब अपनेको लाचार ३४ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो, जिससे कि लोगोके छोटे छोटे दिल कैदसे मुक्ति पायें और प्रेमसे भरकर वे अनन्त शून्यकी ओर उठे। अभी चरचा हुई कि क्या लिखें, क्या न लिखें। कुछ लोग इसको साफ़ जानते है; पर, मेरी समझ तो कुंठित होकर रह जाती है। मैं अपनेसे पूछता रहता हूँ कि सत्य कहाँ नहीं है ? क्या है जो परमात्मासे शून्य है ? क्या परमात्मा अखिल-व्यापी नहीं है ? फिर जहाँ हूँ, वहाँ ही उसे क्यों न पा लूँ ! मायूँ किसकी ओर ? क्या किसी वस्तु-विशेषमें वह सत्य इतनी अधिकतासे है कि वह दूसरेमें रह ही न जाय ? ऐसा नहीं है । अतः निषिद्ध कुछ भी नहीं है । निषिद्ध हमारा दम्भ है, निषिद्ध हमारा अहंकार है, निषिद्ध हमारी आसक्ति है। पाप कहीं बाहर नहीं है, वह भीतर है। उस पापको लेकर हम सुन्दरको बीभत्स बना सकते है और भीतरके प्रकाशके सहारे हम घृण्यमें सौन्दर्यका दर्शन कर सकते हैं। एक बार दिल्लीकी गलियोंमे आँखके सामने एक अजब ग्य आ गया। देखता हूँ कि एक लड़की है । बेगाना चली जा रही है। पागल है। अठारह-बीस वर्षकी होगी। सिरके बाल कटे है । नाकसे व वह रहा है । काली है, अपरूप उसका रूप है। हाथ और बदनमें कीच लगी है । मुंहसे लार टपक रही है। वह बिल्कुल नग्न है | मैने उसे देखा, और मन मिचला आया। अपने ऊपरसे काबू मेरा उठ जाने लगा। मैने लगभग अपनी आँखे मींच ली और झटपट रास्ता काटकर मैं निकल गया। मेरा मन ग्लानिसे भर आया था । कुछ भीतर बेहद खीझ थी, त्रास था। जी घिनसे खिन्न था। काफी देर तक मेरे मनपर वह खीज छाई रही; किन्तु, स्वस्थ होनेके Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यकी सचाई ' बाद मैंने सोचा और अब भी सोचता हूँ, कि क्या वह मेरी तुच्छता " न थी ? इस भाँति सामने आपदा और विपदा और निरीह मानवताको पाकर स्वयं कन्नी काटकर बच निकलना होगा क्या ? मै कल्पना करता हूँ कि क्राइस्ट होते, गौतम बुद्ध होते, महात्मा गान्धी होते, तो वे भी क्या वैसा ही व्यवहार करते ? वे भी क्या आँख बचाकर भाग जाते ? मुझे लगता है कि नहीं, वे कभी ऐसा नहीं करते । शायद वे उस कन्याके सिरपर हाथ रखकर कहते मो बेटा, चलो । मुँह-हाथ धो डालो, और देखो यह कपड़ा है, इसे पहिन लो। मुझे निश्चय है कि वे महात्मा और भी विशेषतापूर्वक उस पीड़िता बालाको अपने अन्तस्थ स - करुण प्रेमका दान देते । पर नग्नता हमारे लिए तो अश्लीलता है न ? सत्य हमारे लिए भयंकर है, जो गहन है वह निषिद्ध है, और जो उत्कट है वह बीभत्स । अरे, यह क्या इसीलिए नहीं है कि हम अपूर्ण है, अपनी 1 छोटी-मोटी आसक्तियोंमें बंधे हुए है ! हम क्षुद्र है, हम अनधिकारी है । —मैंने कहा, अनधिकारी । यह अधिकारका प्रश्न बड़ा है। हम अपने साथ झूठे न बनें। अपनेको बहकानेसे भला न होगा। सत्यकोट थामकर हम अपना और परका हित नहीं साध सकते । हम अपनी जगह और अपने अधिकारको अवश्य पहिचानें । अपनी मर्यादा लाँघें नहीं । हठ- पूर्वक सूर्यको देखनेसे हम अन्धे ही बनेंगे; पर, बिना सूर्यकी सहायताके भी हम देख नहीं सकते, यह भी हम सदा याद रक्खें । हम जान लें कि जहाँ देखनेसे हमारी आँखें चकाचौंध में पड़ जाती हैं वहाँ देखनेसे बचना यद्यपि हितकर तो हैं, फिर भी, वहाँ ज्योति वही सत्यकी है और हम शनैः शनैः अधिकाधिक सत्यके सम्मुख होनेका अभ्यास करते चलें । ४३ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य और साधना भाइयो, __साहित्यके सम्बन्धमे मैने कुछ पढ़ा नही है, किन्तु, इस बातका मुझे गर्व है कि जो प्रेमके ढाई अक्षर पढ लेता है वही साहित्यिक है । इसे आज मै प्रत्यक्ष अनुभव करता हूँ । साहित्यकके क्षेत्रमें पुस्तकोका ज्ञान उतना आवश्यक नहीं है जितनी आवश्यकता है साधना और उपासनाकी । विश्वके हितके साथ एकाकार हो जाय, यही जीवनका लक्ष्य है । बाह्य जीवनसे अंतर-जीवनका सामंजस्य हो, इस सत्यको प्रत्यक्ष करनेमे ही जीवनकी सार्थकता है। ग्रन्थोके पढ़नेसे हममें बड़ा विभेद उत्पन्न हो जाता है । साधनाका विषय है साहित्य । आप वर्णमाला भी चाहे न जानें, आपको एक अक्षरका भी ज्ञान न हो, किन्तु, आपके मुखसे कोई वाणी उद्भूत हो और, सम्भव है, आपमेका कवि बोल उठे । वह वाणी सबके हृदयोको प्लावित कर देती है, वह पढ़ने या पढ़ानेसे प्राप्त नहीं हो सकती, उससे तो इसका कोई सम्बन्ध ही नहीं । साहित्यका सीधा सम्बन्ध साधनासे है। साहित्य यदि लिखनेकी चीज होती तो वहुत बड़ी चीज होती। पर, यदि वह लिखनेकी ही चीज होती तो मेरे हृदयकी चीज नहीं हो सकती । हमारी भावनाएँ आत्मासे निकलती है, जहाँ उनका व्यक्तीकरण हुआ वही साहित्य हुआ। जीवन तो उसके बादकी बात है। जब तक सत्यान्वेषणकी प्रवृत्ति हममें है तब तक हम सुन्दर + इन्दोर-'हिन्दी साहित्य-सम्मेलन' के भापणका अश | ४४ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य और साधना साहित्यकी सृष्टि कर सकते हैं; यदि नहीं, तो वह व्यर्थ है, उसमें केवल दो-चार बुद्धिवादी मनुष्य ही श्रानन्द पा सकते हैं । जीवनसे अनपेक्षित होकर साहित्य न ज़िन्दा रहा है, न रह सकता है । जीवनकी जितनी समस्याएँ है वे हमारे सामने जीवित समस्याके रूपमे उपस्थित हों । वाल्मीकि और तुलसी आदि कोई बड़े विद्वान् न थे,— 1 जो साहित्यके धुरन्धरचूड़ामणि कहलाते है, उन जैसे विद्वान् न थे, वे तो सन्त थे । वे ही हमारे लिए सुन्दरसे सुन्दर साहित्य छोड़ गये हैं। और उनका जीवन विश्वके हितके लिए बलिदान हो गया है। हमारा और साहित्यका जो सम्बन्ध रहा है वह किताबका विषय बना हुआ है, जीवनका नहीं । उसीको कुछ जीवित चीज़ बनाना होगा । 1 " जो विद्वानके लिए भी गूढ़ है वह जनसाधारण के लिए साधारण हो जाता है । जो साहित्य सबसे ऊँचे दर्जेका है वह विद्वानके लिए उतना ही सुन्दर है जितना जनसाधारणके लिए । फिर भी, उसमें इतनी गूढ़ता है कि उसकी सचाईका अन्त नहीं है । भाषा चाहे जैसी हो, भावना और शैली चाहे जैसी हो, व्याकरणकी कठिनता भी न हो, किन्तु, वह जीवनकी, हृदयकी चीज़ जरूर हो। वह हमारी कमजोरियों की दीवारमे झरोखे पैदा कर दे जिसमे शुद्ध हवा आने-जाने लग जाय | बीमारके लिए स्वच्छ हवा कैसे हानिकारक है ? मनुष्य - मनुष्य के बीचमें जो दीवारे खड़ी कर दी गई है साहित्य उनमे खिड़कियाँ खोल देगा। उनके बीचसे निकलेगा और वह राजाके बीच हरिजनों और किसानोंका चित्रण करेगा । राजाका चित्रण उसी स्वाभाविक रीति से होगा जिससे किसानका भी चित्र प्रतिबिम्बित हो । सब मनुष्य हैं, सब एक है, यही साहित्यका - ४५ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काम है, उसमें चोरको फाँसी देनेवाला न्यायाधीश और चोर स्वयं एक हों, सबमें ईश्वबहो, इसीका नाम साहित्य है। समन्वय करते करते वस्तुओके प्रति द्वंद्वका भाव नष्ट हो जाय । महात्माजीने अपने एक रिकार्डमें कहा है कि जो है सो परमात्मा है। फिर यह पाप और पुण्य क्या है ? परमात्मा से पाप कैसे आया ! बात यह है कि पाप भी है और पुण्य भी है, फिर भी, पापके खिलाफ लड़ते रहो । समाधान श्रद्धासे ही मिलता है। इसी स्वर्गीय समाधानमें साहित्यकी सिद्धि है। AAAAAAN लेखकके प्रति यह तत्त्व लेखक बननेकी इच्छा रखनेवाले प्रत्येक महाशयको जान लेना चाहिए कि रामचन्द्रजीको मूर्त रूपमे प्रस्तुत करनेमें ऋषि वाल्मीकिने अपनी पवित्रतम भावनाएँ और उच्चतम विचार और श्रेष्ठतम अंशका दान दिया । वाल्मीकिमें जो सर्वोत्कृष्ट है, वही राम है। लेखककी महत्ता यही है कि जो उसमें सुन्दर है, शिव है, सत्य है, जो उसमे उत्कृष्ट है और विराट् है उसीको वह सबके अर्थ दे जाय। उसे अपना और अपने नामका मोह न हो, वह अपने आदर्शके प्रति सच्चा हो, स्वप्नके प्रति खरा हो । उसका आदर्श ही अमर होकर विराजे, पूजनीय हो,—इसीमे लेखककी संतृप्ति है सफलता और सार्थकता है। मेरी इच्छा है कि जो लेखक बने वह पाठकको वह दे जो उसके पास अधिकसे भाधिक मार्मिक है, स्वच्छ है और बृहत् है । ४६ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकके प्रति ('विद्या' के सम्पादकको ) भाई, आपका पत्र मिला, क्या यह जबर्दस्ती नहीं है कि आप जो माँगें वही मुझे देना हो ! आप कहानी चाहते है । तत्त्वको तात्त्विक 1 ही न रहने देकर जब उसे व्यवहारगत उदाहरणका रूप दिया जाता है, तब वह कहानी बन जाता है। इसमें उसकी गरिष्ठता कम हो जाती है, रोचकता बढ़ती है । तत्त्व कुछ कठिन, ठोस, वजनदार चीज़ जँचती है । कहानीकी शकलमें वही हल्की, रंगीन, दिलचस्प काल्पनिक वस्तु बन जाती है । पर आपकी 'विद्या' उत्कृष्ट कोटिकी होनेका संकल्प उठाकर आनेवाली है । ऐसी हालत में, मै शिक्षितों और विद्वानोंका अपमान नहीं करूँगा, अर्थात, कहानी नहीं लिखूँगा । और, कुछ ऐसे शब्द ही लिख सकूँगा जो शिक्षितोंकी शिक्षाके अनुरूप बेरंग हों और भूलें भी सरल न हो । सच यह है, दुनियाँ में द्वन्द्व दिखाई देता है । मनमें भी द्वन्द्व है, बाहर भी द्वन्द्व है। बाहरके द्वन्द्वको कुछ लोग व्यक्तियोंकी लड़ाई समझते है, कुछ वर्गों और जातियोंका संघर्ष मान लेकर अपना समाधान करते हैं । कुछ और विचक्षण लोग उसे सिद्धान्तोंकी लड़ाई समझते है । वे लोग राजाओं और राजवंशोंके कृत्योंकी तारीखोंसे भरे हुए इतिहासको पढ़ पढ़कर, उसमेंसे सिद्धान्त निकालते हैं । इतिहास, उनके निकट, अमुक सिद्धान्त, अमुक तत्त्वके क्रम विकासको संपन्न करनेवाली अतीत क्रियाका नाम है। उस तमाम इतिहासमें उनके निकट एक अनुक्रम है, निश्चित निर्देश है, एक तर्क है । I ४७ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ये सब ठीक है; और, जो दुनियाको व्यक्तिके अर्थ रखनेवाली मानें वे उनसे गलत क्यो है ? जो व्यष्टिको समष्टिके प्रयोजनार्थ समझते है वे गलत क्यों है ? और वे गलत क्यों है जो इतिहासका तमाम तत्त्व इसमें समझते है कि हम जानें कि अमुक राजा किस सन्में मरा और फला लड़ाई किस सन्मे लड़ी गई ? सब बात अपनी अपनी भूमिका और अपनी अपनी दृष्टिकी है। और जो द्वन्द्व इस घोरता के साथ घट-घटमे व्याप रहा है उसे मै सत्-असत्का द्वन्द्व कहकर समझ, इसमें मुझे सुख मिलता है । साहित्य में भी सत् असत् की लड़ाई है। असत् कहने से यह न समझा जाय कि जिसमें बल नहीं है वह ही असत् है । नहीं। बल्कि, मात्र आँखोंसे देखें तो बात उल्टी दीखेगी । क्रोधमें जो बल है, शान्तिमें कहाँ है? और हिंसाका प्राबल्य किसने नहीं देखा ? अहिंसाको कौन मानेगा कि वह उससे चौथाई भी प्रबल है ? लेकिन, फिर भी, हम क्रोधको कहेगे प्रसव, हिंसाको कहेगे असत् । किसीको असत् कह कर व्यक्तिके ऊपर जिम्मेदारी या जाती है कि वह सिद्ध करे, अपने आचरण और उदाहरणद्वारा प्रमाणित करे, कि जिसको उसने सत् माना है वह उससे कहीं शक्तिशाली है— अर्थात् क्रोध शान्तिकी शक्तिके सामने अपदार्थ है और हिंसा हिंसाकी सात्त्विक शक्तिके आगे सदा ही पराजित है । मैं विश्वास करना चाहता हूँ कि इस सत् असत्के युद्धमें साहित्यिक सत्के पक्ष में अपनेको खपायेगे; यानी लिखेगे तो उसपर आरूढ़ भी होगे । इस भावना के साथ नवंबर १९३४ ४८ आपका जैनेन्द्रकुमार 1 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोचकके प्रति कई बातें जो आलोचकको उलझाती हैं अपनी ख़ातिर इतनी ध्यान देने योग्य नहीं हैं। उन्हें जल्दी पार कर लें। पहली बात है भाषा । भाषापर मै किसीको रोकना नहीं चाहता हूँ। भाषा है माध्यम,-मन उलझा है तो भाषा सुलझी कैसे बनेगी ! इसलिए, भाषाके निमित्तको लेकर भी ध्यान यदि मनका रक्खा जाय, तो क्या उत्तम न हो ! मनके भीतरसे भाषाका परिष्कार स्थायी होगा। पर, एक कठिनाई भी है। वह यह कि गहन गहराईमें उतरकर चलना ऐसा सरल नहीं होता जैसा ऊपर मैदानमें चलना । लिखना क्यों है ? अपने भीतरकी उलझनोंको खोलनेके लिए ही तो वह है। वहाँ भीतर बड़ी अँधेरी गलियाँ हैं, वहाँ प्रकाश हो जाय तो बात ही क्या ? इससे, वहाँ पैठकर राह खोजनेवालेकी गति कुछ धीमी या कुछ दुर्बोध या चकरीली-सी हो जाय तो क्षम्य मानना चाहिए । यह उसके लिए गर्वकी बात नहीं है, लाचारीकी बात है। __ आलोचकको एक नई कृतिमें भाषाके प्रयोग कहीं कुछ अनहोनेसे लगेंगे ही। ऐसा न होना चिंताका विषय हो सकता है, होना तो स्वाभाविक है । प्रत्येक व्यक्ति अद्वितीय है । उसकी वह अद्वितीयता खुरचकर मिटानेसे भी बाहरसे और भीतरसे नहीं मिट सकती। राह यही है कि विनम्र भावसे उस अद्वितीयताके साथ * 'सुनीता' की आलोचना करनेवाले आलोचककोको लक्ष्य करके लिखा गया। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समझौता कर लिया जाय । उससे विरोध नहीं ठाना जा सकता । परन्तु, भाषाके प्रयोग मनमाने हों और चौकानेके लिए हों तो बुरा है। पाठकको चौकाये, इसमें तो लेखकका अहित ही है, चौकाकर वह किसीको अपना मित्र नहीं बना सकता। फिर भी, यदि चौंका देता है तो उसे क्षमाप्रार्थी भी समझिए, इसे कुशलताका परिणाम मान - - लेना चाहिए । अगर, अपनी ओरसे कहूँ कि वह आग्रहका परिणाम नहीं है, तो पाठकको इसे असत्य माननेका आग्रह नहीं करना चाहिए। भाषापर मै क्वचित् ही ठहरता हूँ । राह दीर्घ है, यहाँ ठहरना कहाँ ? जब ठहरनेका अवकाश नहीं है तब सोच-विचार कहाँसे हो कि भाषाको ऐसा बनाओ अथवा ऐसा न बनाओ । बनानेसे भाषाके बिगड़नेका देशा है। सोचकर चलनेसे भाषापर व्यक्तिका अहंकार लद जाता है । यो भाषा बढ़िया भी लगे, पर, कृत्रिम हो जाती है । I बढ़िया - घटिया तो फैशनकी बातें हैं। फैशन बदलता रहता है । बढ़ियापनका लालच पाकर मै कृत्रिम भाषा पाठकको कैसे दूँ ! यदि मैं पूर्ण तरह परिष्कृत नहीं हूँ तो यह मेरा अपराध है; पर, जो हूँ वही रहकर मै पाठकके समक्ष क्यो न आऊँ ! बन-ठनकर कैसे आऊँ ? पाठकका तिरस्कार मुझे सह्य होगा; पर, पाठकको धोखेमे मै नहीं रक्खूँगा। यह विश्वास रक्खा जाय कि मैं सुगम होना चाहता क्योंकि, पाठकसे घनिष्ठ और अभिन्न होना चाहता हूँ । - साधारण और स्वच्छ रहना चाहता हूँ, क्योंकि, अपने और सबके प्रति संभ्रमशील रहना चाहता हूँ । दर्प दयनीय है । तब मैं भला किसकी रुचिको चुनौती देनेकी ठानूँ ? 1 एक बात और भी । किताबों में प्रेसकी भूले भी होती है। वे ऐसी दक्षतासे किताबमें अपनी जगह बना लेती है कि प्रति सावधान ५० Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोचकके प्रति पाठक भी उन्हें नहीं पकड़ सकता । वे वहाँ वाक्योंके बीचमे जम बैठती हैं और मनमानी करती है। दूसरे यह, कि हिंदीमें पंक्चुएशन किसी निश्चित और अनुकूल पद्धतिपर अभी नहीं जम पाया है। उसे स्थिर होना चाहिए । भाषाको वशमें लानेके लिए वह आयुध हिन्दीमें अभी पूरा काम नहीं देता । फिर यह, कि प्रत्येक परिचयमें कुछ नवीनता होती है। परिचयकी प्रथमता धीरे धीरे जब दूर होगी तब भाषाके पहनावेपर ध्यान गौण होता जायगा, उसकी आत्माके साथ घनिष्ठता बढ़ेगी । यहाँ घबराहट उचित नहीं है, क्योंकि, पहनावा ही आदमी नहीं है, अतः, वह वृत्ति भली नहीं है जो नवीनताको शनैः शनैः पककर अपने साथ घनिष्ठ नहीं होने देना चाहती। __ अपने लेखन-कालमें पाठकको हैसियतसे मैने एक बात सीखा है। वह यह कि जगत्के प्रति विद्वान् बनकर रहनेसे कुछ हाथ नहीं लगता । जो पाना चाहता हूँ वह, इस भाँति, कुछ दूर हो जाता है। जगत्के साथ विद्वत्ताका नाता मीठा नाता नहीं है । विद्वान्के निकट जगत् पहेली हो जाता है,-जगत् अज्ञेय बनता है, और विद्वान् , उसी कारण, उसे स्पर्ध-पूर्वक ज्ञेय-रूपमें देखता है। फलतः, विद्वान्में एक रसहीन कुण्ठा और धारदार आग्रह पैदा होता है । जगत् उसके लिए प्रेमकी और आनन्दकी चीज़ नहीं हो पाता । विद्वान् प्रत्याशा बाँधता है कि जगत् उसकी थियरीमें,—उसके 'वाद'में, चौखूट बैठ जायगा; पर, ऐसा होता नहीं और विद्वान् अपनी प्रत्याशाओमें विफल अतः जगत्के प्रति रूक्ष और रुष्ट रहता है। विद्या-गर्वके ऊपर जीवन जीनेकी यह पद्धति सम्पूर्ण नहीं है। यह सच्चिदानन्दकी ओर नहीं ले जाती।-उपलब्धिकी यह राह नहीं । अपना एक 'कोड' Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - बना लिया जाय और दुनियाके प्रति अधीर और असन्तुष्ट रहा जाय कि वह क्यों सीधे तौरपर उस 'कोड' में बँधकर नहीं बैठती है, ऐसे क्या मिलेगा ? इस मनोवृत्तिमें सुधारका नशा मिल सकता है, पर, किसी हित अथवा किसी विद्याकी अभिवृद्धि इस भाँति कठिनतासे ही हो सकती है। इस वृत्तिसे पाठक बचे तो ठीक । उसे रसग्राही वृत्ति चाहिए । वह अपनेको खुला रक्खे, जमकर निर्जीव बन गई हुई धारणाएँ अपने पास न रक्खे | विद्वत्ताका बोझ बोझ ही है। उससे जीवनानन्दके प्रति खुले रहनेकी शक्ति ह्रस्व होती है । मैने अपने सम्बन्धमें पाया है कि जब जब चीज़को स्पर्द्धापूर्वक मैंने अधिकृत कर लेना चाहा है, तभी तब मेरी दरिद्रता ही मुझे हाथो लगी है । और जितना मैंने अपनेको किसीके प्रति खोलकर बहा दिया है उतना ही परस्परके बीचका अन्तर दूर हुआ है और एकता प्राप्त हुई है । ऐक्य बोध ही सबसे बड़ा ज्ञान है, और तबसे मैंने जाना है कि आत्मार्पणमें ही श्रात्मोपलब्धि है, आग्रह-पूर्ण संग्रहमें लाभ नहीं है । एक और तत्त्व ज्ञातव्य है । — कुछ भी, कोई भी, अपने आपमें महत्त्वपूर्ण नहीं है । कोई कथन अपने शब्दार्थमे और कोई घटना अपने सीमित अर्थमे सार्थक नही होती । सबका अर्थ विस्तृत है, - वह अर्थ निस्सीम में पहुँचने के लिए है । — उसी ओर उसकी यात्रा है। इससे, सब-कुछ मात्र संकेत रूपमे, इंगित रूपमें, ही अर्थकारी है । समप्रसे टूटकर अपने खंडित गर्वमें वह निरर्थक रह जाता है। निरर्थक ही क्यो, – इस भाँति वह अनर्थक भी है । इसलिए, प्रत्येक ५२ - Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोचकके प्रति विवरणको, जहाँ तक हो वहाँ तक, मूल जीवन-तत्त्वके साथ योगयुक्त देखना होगा। पुस्तकमे भी यही बात है । हर बात वहाँ पात्रकी मनोदशाकी अपेक्षामे आशय-युक्त बनती है । पात्रकी मनोदशाको व्यक्त, अर्थात् पुस्तकगत जीवन-तत्त्वको उद्घाटित, करनेके लिए जो आवश्यक नहीं है वह वर्णन परिहार्य है। ऐसा मोह न लेखकको भला, न पाठकको उचित । ' यह और भी लिख दूँ, कैसा अच्छा आइडिया है!अरे ! आगे क्या हुआ ? फिर क्या हुआ ? हमे यह लेखकने बीचमें कहाँ छोड़ दिया !'-इस तरहकी बाते मोहजन्य है । अपने आपमें कुछ उल्लेखनीय नहीं है । जो सर्वाशतः पुस्तकके प्राणके प्रति समर्पित और सम्मुख नहीं है वह वर्णन बहुमूल्य होनेपर भी त्याज्य बनता है। ऐसे बाह्य वर्णनपर लेखक अपनी लुब्ध दृष्टि कैसे डाल सकता है? इस भाँति, स्पष्ट है कि, बड़ीसे बड़ी वस्तु भी अनुपयोगी और छोटीसे छोटी घटना भी व्यक्ति और ग्रंथके जीवन में विराटू-आशय बन सकती है । तुच्छ इस सृष्टिमें कुछ भी नहीं; किन्तु, यह सृष्टि इतनी अछोर, अपार, अनंत है कि यहाँ बड़ीसे बड़ी चीज़ भी अपने आपके गर्वमें उपहासास्पद हो जाती है। ___ यहाँ साहित्यकी मर्यादा भी हम सममें । पुस्तकमें और हमारी आँखोंके सामनेके ठोस जगतमें अन्तर है । पुस्तक दर्पण नहीं है । साहित्य ज्योका त्यों बाज़ारी दुनियाके प्रतिबिम्बको अंकित करनेके लिए नही है। इस दृष्टिसे साहित्य विशिष्टतर है, यह विशिष्टता उसकी मर्यादा भी है । साहित्यके नायक और पात्र दुनियाके आदमीकी तुलना नहीं कर सकते । यहाँ दीन-हीन आदमी भी मन-भरसे ऊँचा तुलता है Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और पुस्तकोके महापुरुष मिलकर भी तराजूमें फूँक जितने भी नही तुल सकते। फिर भी, वे सत्यतर हो, तो यह कम सत्य नहीं है। इस अन्तरको - खूब समझ लेना चाहिए । पुस्तकके पात्र अशरीरी होते है, हमारी भावनाएँ ही हैं उनका शरीर । यो एक ही दम सामाजिक मनुजसे वे अतुलनीय हो जाते है। वे नही दीख सकते, क्योकि, जड़ शरीर उनके पास नहीं है । फिर भी, वे सतत रूपसे हमारे सामने हैं, हमारे भीतर है और अमर हैं, ठीक इसीलिए कि वे पंच - भूतजड़ित नहीं हैं । उनका अस्तित्व मानसिक है, उनका जीवन तर्क हमारी जीवन-नीति से भिन्न है, वह और ही तलपर हैं और हमारे मनोविज्ञानशास्त्रका बंधन उनपर नहीं है । हमारी संभव-संभवकी मर्यादा भी उनपर लागू नहीं है। वे हमारी ही कृति हों और है, पर हमसे कहीं चिरजीवी सूक्ष्मजीवी हैं। वे हमारी Rarefied वृत्तियाँ हैं जो हमारे भीतर घिरी नहीं हैं, बाहर भी नही हैं। देखा जाय, तो भीतर और बाहरसे हम ही उनमें घिरे हैं । साहित्यमें भूत हो सकते है और परियाँ भी हो सकती हैं। वहाँ चर-अचर, मानव-मानव, समाज और प्रकृति, देवता और दैत्य, सब हो ही नहीं सकते प्रत्युत सब आपसमें एकम-एक भी हो जा सकते है। गूँगी पृथ्वी अपनी सूनी, फटी, तप्त आँखोंसे ताकती रहकर काले रोषसे घुमड़ते हुए बिजलीसे भरे समानमेंसे झर झर ऑसू खींच ला सकती है और उस आदमीको अपनी अथाह करुणामें क्षमा कर सकती है जो इनमें भरती पीरको बस, वारिश कहकर विद्वान् बना बैठा है । वहाँ समन्दरकी मछली उड़कर सातवें आसमानमें बैठे परमात्मा के पास भी फरियाद ले जा सकती है और न सुननेपर घोषणा कर ५४ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोचकके प्रति सकती है कि परमात्मा दयाल नहीं है। यह सब कुछ हो सकता है। जो अपनी विज्ञानकी खोजमें सच्चा है, वह जानता है कि मानव परिमित है, पंगु है । वह जानता है कि जो 'मानवीय' है झूठ है, और झूठका सहारा लेकर ही बेचारा मानव सत्यकी ओर बढ़ सकता है । समस्त ज्ञान छल-ज्ञान है। यहाँ सत्याभिमुखता ही सत्य है। __ आशय मेरा, झूठकी बढ़ाईसे पाठकको आतंकित करना नहीं है। सीमित धारणाओं से उठाकर पाठकको असीममें पटक देने जैसी भी इच्छा नहीं है। हमारा वहाँ वश भी नहीं । उद्दिष्ट मात्र यह दिखाना है, कि हम अपनी ससीमता सत्यपर जब ओढ़ाते हैं तब मानो अपनी ही तुच्छता स्वीकार करते है । यदि हम असीमको और अरूपको स्वरूपवान् बनाकर ही हृदयंगम कर सकते है, तो अवश्य ऐसा करें। ऐसा करे बिना गति कहाँ ! पर, हमारा सब-कुछ मात्र इस प्रतीतिके पारस-स्पर्शसे स्वर्ण बन जाता है कि हममें अव्यक्त ही व्यक्त हो रहा है, हमारे ज्ञान-विज्ञानकी यात्रा अज्ञेयकी ओर है। यह प्रतीति नहीं तो हमारा सब-कुछ मिट्टी ही है। ___ इसीसे जिज्ञासा एक वस्तु है स्वप्न और । साहित्य मर्यादा-हीनता नहीं है, जिज्ञासा संशय नहीं है । पुस्तकके पात्रोंमें उनकी अपनी ही एक एक मर्यादा होती है। उनका तर्क उनके ही भीतर सनिहित रहता है। मनोविज्ञानकी किसी प्रवेशिकामेंसे उनका नियामक नियम नहीं निकाला जा सकता । यदि पुस्तकके चरित्र हमारी इस दुनियाके आदमियोंके अनुरूप चलते दीखते हैं तो इस हेतु नहीं कि वैसी अनुरूपता उनका लक्ष्य है, प्रत्युत, केवल इसलिए कि उस ५५ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुरूपताके सहारे लेखक अपनेको दुनियाके उन लोगोके निकट और उन्हें अपने निकट पहुँचाना चाहता है। किन्तु, साहित्यकी प्रेरणा आदर्श है । जब तक वह है ( और वह तो सर्वथा सनातन है), तब तक चरित्र आदर्शानुगामी होगे, जगदनुगामी नहीं भी हो सकते हैं। उनका हक है कि वे सामान्य पथपर न चलें, सामान्यतया साधारण न हों, किसी भी परिचित पद्धतिका समर्थन न करे और दुस्साहसिक होकर भी उर्द्धगामी बने । इस स्थलपर वे शब्द दोहराये जा सकते है जो ' सुनीता' पुस्तककी प्रस्तावनामें आ गये है; वे बहुत कामके मालूम होते हैं। '....पुस्तकमे रमे हुए लेखकको जैसे चाहो समझो, किसी पात्रमे वह अनुपस्थित नहीं है और हर पात्र हर दूसरेसे भिन्न है। पात्रोंकी सब बातें लेखककी बातें है, फिर भी, कोई बात उसकी नहीं है। क्योंकि, उसकी कहाँ-वह तो पात्रोंकी है। कहानी सुनाना लेखकका उद्देश्य नहीं । (उन सबका नहीं जो अपने साहित्यमें जीवन-लक्ष्यी है।) इस विश्वके छोटेसे छोटे खण्डको लेकर चित्र बनाया जा सकता है । उस खंडमें सत्यके दर्शन पाये जा सकते है और उस चित्रमें उसके दर्शन कराये भी जा सकते है । जो ब्रह्माण्डमे है वह पिण्डमें भी है ।....थोड़ेमें समग्रताको दिखाना है....।' ___ असल बात उस मॉकीको देना और लेना है जिसको लेकर अक्षर शब्दमें खो गये हैं,-शब्द वाक्योंमें और वाक्य पुस्तकके प्राणोंमें । अपने आपमें वाक्य भी निरर्थक है, शब्द भी निरर्थक हैं, अक्षर भी निरर्थक हैं । वे अपनेमें गलत भी नहीं हो सकते, सही भी नहीं हो सकते । वे वही हो सकते है जो हैं; और वे मात्र जड़ हैं। ५६ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोचकके प्रति की सार्थकता उस जीवन-तत्त्वके वाहन होने में है जिसकी सेवामें " योजित हैं । वह जीवन-तत्त्व मनोविज्ञानिक नहीं है । वह व्यवहारसिद्ध नहीं, स्वभावसे घिरा नहीं । वहाँ हमारा ज्ञान-विज्ञान लय होता है, नदियाँ समुद्रमें लय हो जाती है । वही इन सबको फिर पोषण देता है, पर, वह इन सबसे अतीत है, इनकी रक्षाके दायित्व से : परिबद्ध नहीं है, क्योकि, वह तो उनकी आत्मा है। पुस्तक भौतिक विवरण भी इसी भाँति स्वाधीन समझे जावें से सजीव पात्र । पुस्तकका हरिद्वार ( प्रेमचंदकी ' कर्मभूमि' का ) गोलवाला हरिद्वार नहीं है । ह्यूगोका पैरिस फ्रांससे अधिक ह्यूगोका । वह नकरोमें नहीं हो सकेगा, क्योंकि, वह ह्यूगो के मनमें ही होने यक था । किन्तु, नामोंमें क्या है ? पैरिसका वर्णन देनेवाली हर ई पुस्तिका तो अपने लेखकको ह्यूगो नहीं बना दे सकती । इससे, चित है कि, पाठक इनपर अटके नहीं। इस प्रकारकी स्थान - रूपकी माणिकता कोई बहुत अंतिम वस्तु नहीं है । 1 ये ऊपरी बातें है । वैसी त्रुटियाँ तो होती ही है । कहाँ वे नहीं ती खंडित करके देखा गया चित्र धब्बोके अतिरिक्त क्या ? खेगा ? प्रत्येक लेखक अपने लेखमें वर्कमैनशिपकी ऐसी अनेक भूलोंको आलोचकके हाथों स्वयं गिरफ्तार करा दे सकता है । सच छा जाय तो इस दृष्टिसे सब कुछ भूल ही है । ठीक Perspective स न हो तो कौन चित्र असुन्दर नहीं है ? पर, इस प्रकारकी त्रुटियाँ लेखककी चिन्ताका विषय नहीं हैं। आलोचकके लालचका विषय भी उन्हें नहीं होना चाहिए । जिसके लिए मालोच्य विषय ५७ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलेवर है, लेखकका हृदय उसकी ओर भूखी निगाहोंसे देखता रह जाता है । कलेवरके भीतरसे तो झाँक हृदय रहा है । वह हृदय अपनी स्वीकृति चाहता है, वह अपनेको पहिचनवाना चाहता है। जो कलेवर लेकर उसीके साथ शल्य क्रिया करते मोर हृदयको छूछा समझ छोड़ देते है, उनको कृतज्ञ दृष्टिसे देख सकनेके लिए वह हृदय तरसता ही रह जाता है । एक लोचने रविबाबूके ' घर और बाहर' का जिक्र किया । मुझे इससे खुशी हुई। दिन हुए मैंने वह पुस्तक पढ़ी थी । तब मेरा लिखना प्रारम्भ न हुआ था । मुझे अब भी उसकी याद है । बेशक जो 'घर और बाहर' में है वही 'सुनीता' में भी है । — वही समस्या है। मनजाने ऐसा नहीं हो गया है, जान-बूझकर ऐसा हुआ है । किन्तु, 'घर और बाहर' की समस्या रविबाबूकी समस्या तभी तो बनी, जब कि वह जगत्की समस्या है । उसे उस रूपमें रविबाबूसे पहले भी लिया 1 गया, उन्होंने भी लिया, और पीछे भी लोग लेंगे। जगकी केन्द्रीय समस्याको व्यक्ति - हृदयकी परिभाषामे रखकर जब भी देखा और सुलझाया जायगा, तब उसका वही रूप रहेगा। समस्या सदा तिखूँट है । जगतमें मूल पक्ष दो है' स्व ' और | ' पर ' । ' स्त्र', यानी 'मैं' । 'मैं', अर्थात् भोक्ता और ज्ञाता । ' पर' अर्थात् भोग्य और ज्ञेय । अपनेको भोक्ता मानकर अपनी भोग्य बुद्धिके परिमाणके अनुसार 'मै ' 'पर' को फिर दो भागो में बाँट डालता हूँ - पहला जो मेरा है, दूसरा जो मेरा नहीं है । इसी । स्थानपर समस्या बन खड़ी होती है। जिसे ' मेरा' माना उसपर मै ५८ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोचकके प्रति कब्जा चाहता हूँ, जो 'मेरा ' नही है उससे विरोध ठानता हूँ । इस भाँति, ' मैं ' जीता और बढ़ता हूँ । – यही जीवनकी प्रक्रिया है । असल 'स्व' और 'पर' का विभेद माया है । जीवनकी सिद्धि उनके भीतर अभेद - अनुभूतिमें है । पर अभेद कहनेहीसे तो संपन्न नहीं हो जाता, उसीके लिए है साधना, तपस्या, याग -यज्ञ | जाने अनजाने प्रत्येक ' स्व ' उसी सिद्धिकी ओर बढ़ रहा है । कुछ लोग वस्तु - जगत्को अपने भीतरसे पाना चाहते है, दूसरे उसे बाहरसे भी ले रहे हैं । संसारमें इस प्रकारकी द्विमुखी प्रवृत्तियाँ देखने में आती ही हैं जिन सबके भीतरसे 'स्व' विशद ही होता चलता है, 'मेरा' का परिमाण संकीर्ण न रहकर विस्तृत ही होता है । जितना वह ' मै ' विशद और विस्तीर्ण होता है, अहंकारके भूतका जोर उसपरसे उतना ही उतरता जाता है । ---- 'मै' और 'मेरा' इन दोनोंको मिलाकर व्यक्ति अपना घर बनाता है । उस घरमें व्यक्ति अपना विसर्जन देता और शेष विश्वसे आहरण करता है । —दुनियामेंसे कमाता है, घरमें खर्च करता है; जगत् से लड़ता है, घरकी चौकसी करता है; संसारपर अपनी शक्तिका परीक्षण करता है, घरमें प्रेमका आदान-प्रदान । घर उसके लिए हाट नहीं है । इस 'घर' का ही नाम विकास क्रमसे परिवार, नगर, समाज, जाति, राष्ट्र आदि होता है । इसलिए, अगर समस्याको श्राब्जेक्टिव विज्ञानकी राहसे नहीं सब्जेक्टिव कला और हृदयकी राहसे अवगत और आयत्त करना है, तो उसका यही तिखूँट रूप होगा – मै, मेरा, मेरा नहीं । अब यहाँ एक और भी तत्त्व है जिसे मैं अपना मानता हूँ; ५९ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थात् , मेरी संपत्ति, मेरी चीज़ आदि, वह भी अपने आपमे अहंशून्य नहीं है । उसमे भी सब्जेक्टिविटी है। फिर भी, जो अंश मेरा बन चुका है उसकी सब्जेक्टिविटी कुछ अनुगत हो गई हुई है। इसीसे, समस्याके चित्रणमें मानव-सम्बन्धोंकी अपेक्षा 'मेरा'का प्रतीक बन जाती है पत्नी । पत्नी घरका केंद्र है । वह ' मेरी' है पर स्वयं भी है, अनुगत है पर जड़ पदार्थ नहीं है, सहृदय है और उसमें भी व्यक्तित्व है। ___ इन स्वामी और पत्नीके साथ ही, किसी कदर उनके बीचमे, आता है तीसरा व्यक्ति जो 'पर'का प्रतीक है । वह भी एकदम अपरिचित नहीं है ( अपरिचित कैसे हो सकता है भला ! ) प्रत्युत स्पृहणीय है, और वह स्वाधीनतापूर्वक प्रबल है। __ कवि रवीन्द्रने 'घर'में 'वाहर'का प्रवेश कराया । 'घर' इससे विक्षुब्ध हो उठा है। वहाँ 'वाहर ' संदीपके रूपमें अनिमंत्रित है पर प्रबल है । 'घर'की विक्षुब्धता गहन होती जाती है, मानो, 'बाहर के धक्केसे घर टूट जायगा । 'वाहर'का धक्का दुर्निवार है, सर्वग्रासी है । समस्या घोरतरसे घोरतम होती जाती है । तब क्या होता है ?-तब कुछ होता है जिससे समस्या बन्द हो जाती है। संदीप पलायन कर जाता है । पत्नी मुड़कर पतिके प्रति क्षमाप्रार्थिनी, बनती है और फिर पत्नीत्वमें अधिष्ठित होती है। एवं, मानो तय होता है कि,'घर'को 'बाहर के प्रति निरभिलाषी विमुख होकर ही बैठना होगा। __'कवि'की लेखनीकी समता ही क्या ! वह अतुलनीय ही है। पर मेरे मनको समाधान नहीं मिला ।' घर' अपने आपमे अपनेको 'वाहर के प्रति दुष्प्राप्य और प्रतिकूल बनाकर बैठे और उस Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'आलोचकके प्रति " 'बाहर' को सर्वथा बहिष्कृत और विरुद्ध बनाये रक्खे, क्यो यह समाधान है ? क्या यह सिद्धि है ? यहाँ अभेद कहाँ है, यहाँ तो भय है। प्रेम कहाँ है, यहाँ तो प्रेम भी है । —ऐसा हो तब तो समस्या ही क्या हुई ! ऐसा कुछ समाधान क्या चिर- प्राप्त अहंसिद्ध कंज़र्वेटिव समाज-नीति से भी नहीं प्राप्त हो सकता ? I सो, मनके इस तरहके असंतोषका भी ' सुनीता' के जन्ममें प्रभाव है। मैने 'सुनीता' में अपनी बुद्धिके अनुसार दुस्साहसपूर्वक भी समस्याको ठेलकर आगे बढ़ाया है । मैंने इसमे अपनेको बचाया नहीं है और वहाँ तक मै उसके साथ चला हूँ जहाँ तक समस्याने चलना चाहा है। - क्या ' सुनीता' का ' घर ' टूटा है ? नहीं, वह नहीं टूटा । क्या उस 'घर' को 'बाहर' के प्रति बंद किया गया है ? नहीं, ऐसा भी नहीं । दोनोंमेंसे कौन किसके प्रति सहानुभूतिसे हीन है ? शायद कोई भी नहीं । दोनो शाश्वत रूपमें क्या परस्परापेक्षाशील नहीं हैं ? भिन्नता देखी और रखी मैने, चुनाँचे, समस्याके रूपमें भी कुछ 'बाहर' को निरे आक्रमणके रूपमें मैने ' घर के भीतर नहीं प्रविष्ट किया । हरिप्रसन्न ( पुस्तकमें वही 'बाहर' का प्रतीक पुरुष है ) किंचित् प्रार्थी भी है। वह निरा अनिमंत्रित वहाँ नहीं पहुँचा, प्रत्युत् वहाँ मानो उसकी अभीष्टता है । उसके अभाव . घर ' एक प्रकारसे प्रतीक्षमान् है । वहाँ अपूर्णता है, वहाँ अवसाद है, मानो उस ' घर' में 'बाहर' के प्रति पुकार है । इधर हरिप्रसन्न स्वयं अपने आपमें अधूरेपनके बोधसे मुक्त नहीं है; और वह जैसे ६१ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक प्रकारके उत्तरमे और एक नियतिके निर्देशसे ही एक रोज अनायास 'घर'के बीचमें आ पहुँचा है। पहुँच कर वह वहाँ स्वत्वारोपी लगभग है ही नहीं। अपनेसे विवश होकर ही जो है सो है। कवीन्द्रका 'घर' भिन्न है और 'बाहर' भी भिन्न है । वह 'घर' आत्म-तुष्ट-सा है, मानो 'बाहर' उसके निकट अभी अनाविष्कृत है। 'बाहर'का आगमन वहाँ एक रोज अप्रत्याशित अयाचित घटनाके रूपमें होता है । वह संदीप मित्र है; पर, यह मित्रत्व उसके व्यक्तित्वका अप्रधान पहलू है।मानो मित्र होना उसे मात्र सह्य है। वह आग्रहशील है, अधिकारशील है, मानो सहानुभूतिशील है ही नहीं। घरकी रानीका संदीपकी ओर खिंचना स्पष्ट गिरना है। जैसे संदीप अहेरिया है, जाल फैलाता है, और मक्खी फंसनेको ही उस ओर खिंच रही है। संदीप इस तरह कुछ अति-मानव,-अप-मानव हो उठता है। तदनुकूल भिन्नता सुनीता और कविकी मधुरानीमें भी है। मधुरानी बीचमें मानो स्खलन-मार्गपर चलकर अन्तमे प्रायश्चित्तपूर्वक पति-निष्ठामे पुनः प्रतिष्ठित होती है । संदीपका गर्व खर्व होता है और मधुरानीकी मोह-निद्रा भंग होती है । संदीपके लिए पलायन ही मार्ग है। क्योकि, मधुरानी अब पति-परायणा है। सुनीताको पतिपरायणता इतनी दुष्प्राप्य किसी स्थलपर नहीं हुई है कि प्रायश्चित्तका सहारा उसे दरकार हो । पतिमें उसकी निष्ठा उसे हरिप्रसन्नके प्रति और भी स्नेहशील और उद्यत होनेका बल देती है । आरम्मसे उसकी आँख खुली है और अन्त तक जो उसने किया और उससे हुआ है, उसमें वह मोह-मुग्ध नहीं है । प्रारम्भसे वह जागरूक है और कही गृहिणी-धर्मसे च्युत नहीं है। उस 'घर' में ६२ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोचकक प्रात अन्त तक इतना स्वास्थ्य है कि हरिप्रसन्नको हठात् स्मृतिसे दूर रखना उसके लिए जरूरी नहीं है। प्रत्युत, हरिप्रसन्नके प्रति सदा वह 'घर' अपना ऋण मानेगा और उसकी याद रक्खेगा। असलमें 'घर' और 'बाहर में परस्पर सम्मुखता ही मैं देखता हूँ। उनमे कोई सिद्धान्तगत पारस्परिक विरोध देखकर नहीं चल पाता। खीन्द्र कवि है । अपनी भाव-प्रवणतामें मानवको उसके मानवीय कॉन्टेक्स्टसे उठाकर उसे अतिमानुषिक बना देनेकी उनमे क्षमता है। यह उनकी शैलीकी विशेषता है । यह उनकी दक्षता उपन्यासपाठकके बूतेसे बड़ी चीज़ भी हो सकती है। नित्य नैमित्तिक जीवनके दैनिक व्यापारकी संकीर्णतासे कविके उपन्यासका पात्र सहज उत्तीर्ण है। दुनियाके धरातलसे उठकर कविके हाथों वह दार्शनिक भावनाओके धरातलपर जा उठता है। वहाँ उसके लिए विचरण अधिक बाधाहीन और उसकी संभावनाएँ अधिक मनोरम बनती है। पर, हर किसीको वह सामर्थ्य कब प्राप्त है ? उपन्यासकारको तो कदाचित् वह अभीप्सित भी नहीं। 'सुनीता'के पात्रोके पैरोंको मैं इस धरतीके तलसे ऊँचा नहीं उठा सकता । न वहाँ मेरी क्षमता है, न कांक्षा है। फिर भी, मै उनके मस्तकको धूलमें नहीं लोटने दूंगा,-वे आसमानमें देखेंगे। इस दृष्टिसे सुनीताके पात्रोंका बनना असाधारण भी हुआ है। फिर भी, उनके चित्रणमें साधारणताके सम्मिश्रणकी कमी नहीं है । इससे 'सुनीता' पुस्तक अतिशय भावनात्मक नहीं हो सकी,--उसके अवयवोमें पर्याप्त मात्रामें स्थूल साधारणता है । ___खैर, वह जो हो । याद रखनेकी बात यह है कि हमारा ज्ञान आपेक्षिक है । वह अपूर्ण है। जगत्की विचित्रता उसमें कहाँ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमाती है। अपनेको मानव कब पूरा जान सका है ? जाननेको शेष तो रह ही जायगा । इसलिए, सदा वह घटित होता रहता है जो हमारे ज्ञानको चौंका देता है | Truth is Stranger than Fiction के, नही तो, और माने क्या है ? Truth को क्या यह कहकर बहिष्कृत करें कि वह ज्ञात नहीं है? तब फिर बढ़नेके लिए आस क्या रक्खें ? जीवनकी टेक किसे बनावे ? आलोचकके समक्ष मैं नत-मस्तक हूँ। सविनय कहता हूँ कि 'जी हाँ, मैं त्रुटिपूर्ण हूँ। आपको संतोष नहीं दे सका इसके लिए क्षमाप्रार्थी हूँ। शायद, मैं आपकी चिन्ताके योग्य नहीं हूँ। पर जब आप जज हैं, तब अभियुक्त बने ही तो मुझे गुजारा है । क्या हम दोनों बराबर आकर मिल नहीं सकते ! मान लीजिए कि आप जज नहीं है, और भूल जाते है कि मै अभियोगी हूँ, तब उस भाँति क्या आदमी आदमीकी हैसियतसे हम एक-दूसरेको ज्यादा नहीं पायेगे ! मै जानता हूँ, जजकी कुर्सीपर बैठकर अभियुक्तको कठघरेमें खड़ा करके उसके अभियोगकी छान-बीनका काम करनेमे आपके चित्तको भी परा सख नहीं है। तब क्या चित्तका चैन ऐसी चीज नहीं है कि उसके लिए आप अपनी ऊँची कुरसी छोड़ दे ? आप उस कुर्सीपर मुझसे इतने दूर, इतने ऊँचे, हो जाते है कि मै संकुचित होता हूँ। आप जरा नीचे आकर हाथ पकड़कर मुझे ऊपर तो उठावे, और फिर चाहे भले ही कसकर दो-चार मिडकियाँ ही मुझे सुनावें। क्योकि, तभी मेरे मनका संकोच दूर होकर मुझे हर्ष होगा । और तब, आप पायेंगे कि और कुछ भी हो, मैं आपका अनन्य ऋणी बना हूँ।' Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर प्रश्न - साहित्यका जीवनसे क्या सम्बन्ध है ? उत्तर—जीवनकी अभिव्यक्तिका एक रूप साहित्य है । कहा जा सकता है कि व्यक्ति - जीवनकी सत्योन्मुख स्फूर्ति जब भापाद्वारा मूर्त्त और दूसरेको प्राप्त होने योग्य बनती है, तब वही साहित्य होती है। प्रश्न – क्या साहित्यके बिना जीवन अपूर्ण है ? - उत्तर ——— कहना पड़ेगा कि अपूर्ण ही है । पूर्ण न होता तो 1 साहित्य जन्मता ही क्यों ? यह तो जातिकी और इतिहासकी अपेक्षासे समझिए । व्यक्तिकी अपेक्षासे आप पूछ सकते है कि स्वप्नके बिना क्या व्यक्ति नहीं जी सकता ? असल बात तो यह है, कि स्वप्नके साथ भी व्यक्ति अपूर्ण है । क्या स्वप्न किसी क्षण भी सम्पूर्णताका आकलन कर सकता है ! पर वह सम्पूर्णताकी ओर उड़ता तो है, छूता तो है; फिर भी, स्वप्नके योगके साथ भी व्यक्ति क्या अपूर्ण नहीं है? स्वप्नके बिना तो है ही । तब, आप उत्तर यही समझें कि साहित्यके साथ भी जीवन सम्पूर्ण नहीं है । इतना अवश्य है कि साहित्यके बिना तो वह और भी अपूर्ण है । अपूर्णताका आधार लेकर जो सम्पूर्णताकी चाह प्राणीमें उठती है, वही साहित्यकी आत्मा है। उसे प्रश्न -- रोटी मुख्य है या साहित्य ? उत्तर -- यह सवाल तो ऐसा है जैसे यह पूछना कि जब आप पानी पीते हैं, तो हवाकी आपके लिए क्या ज़रूरत है ? आदमी सिर्फ पेट ही नहीं है। और मै यह भी कहना चाहता हूँ कि पेट भी वह चीज़ नहीं है जिसे सिर्फ रोटीकी ही ज़रूरत ७० Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन और साहित्य हो, हृदय बिना पेटका भी काम नहीं चलता। जब आपने रोटीके मुकाबिलेमे साहित्य रक्खा है, तो मैं समझता हूँ आपका आशय किसी जिल्द बंधी पोथीसे नहीं है । आशय उस सूक्ष्म सौन्दर्य-भावनासे है जो साहित्यकी जननी है। मै तो उस स्थितिकी भी कल्पना कर सकता हूँ जब रोटी छूट जायगी, साहित्य ही रह जायगा । जातीय आदर्श रोटी नहीं है, रोटीमें नहीं है । रोटी तो जीनेकी शर्त मात्र है। रोटी ही क्यों, क्या और प्राकृतिक कर्म नहीं है जो जीवनके साथ लगे है ? लेकिन, उनके निमित्त हम नहीं जीते और न उनके लिए हम मरते है । आदर्श रोटीमय नही है, रोटी-सा पदार्थमय भी नहीं है । वह चाहे वायवीय ही हो, लेकिन, उस आदर्शके लिए हम मरते रहते है, --उसीमेसे मरनेकी शक्ति पाते हैं । साहित्य उस आदर्शको पानेका, उसे मूर्त करनेका, प्रयास है । रोटीके बिना हम कई दिन रह लेगे, हवाके बिना तो कुछ क्षणोंमें ही हमारा काम तमाम हो जायगा,साहित्य उस हवासे सूक्ष्म, किन्तु, उससे भी अधिक अनिवार्य है। लेकिन, साहित्य और रोटीमे विरोध ही भला आपको कैसे सूझा ? वैसा कोई विरोध तो नहीं है । यह ठीक है कि जो रोटीको तरसता है उसके फैले भूखे हाथोंपर साहित्यकी किताब रखना विडम्बना है। लेकिन, यह भी ठीक है कि भारतके भूखे कृषक-मजूर रामायणके पाठमेंसे रस लेते हैं । उनके उस रसपर प्रश्न करना, उसे छीन लेना, भी क्या निरा असम्भव नहीं है ? अन्तमें, मै कहूँगा कि आपके प्रश्नमें संगति नहीं है । साहित्य आदमीसे सर्वथा अलग करके रखी जानेवाली चीज़ नहीं है। रोटीका अस्तित्व मनुष्यसे अलग है, साहित्यका वैसा अलग है ही नहीं । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी और हिन्दुस्तान* भाइयो, आपने इस संघके वार्षिकोत्सवपर इतनी दूरसे मुझे बुलाया, इसमें मेरे संबंधमें कुछ आपकी भूल मालूम होती है। आ तो मै गया, क्योकि, इनकार करनेकी हिम्मत मुझे नहीं हुई। लेकिन, अब तक मुझको आश्वासन नहीं है कि आपने मुझे बुलाकर और मैने आकर सत्कर्म किया है। लोकन, जो हुआ हो गया | अब तो हम सबको उसका फल-भोग ही करना है। और इस सिलसिलेमें आपके समक्ष पहले ही यह कहना मेरी किस्मतमें बदा है कि मै साहित्यका ज्ञाता नहीं हूँ साहित्यमें विधिवत् दीक्षित भी नहीं हूँ। लेकिन, साहित्य-सम्बन्धी उत्साहके बारेमे भी मेरा अनुभव है कि किन्हीं लौकिक हेतुओंपर टिककर वह अधिक प्रवल नहीं होता। लाम और फलकी आशा मूलमें लेकर कुछ काल बाद वह उत्साह मुझाने भी लगता है । स्थूल लाम वहाँ नहीं है । इसलिए, साहित्यसंबंधी उत्साहको अपने वलपर ही जीवित रहना सीखना है। अँधेरेसे घिरकर भी वत्ती जैसे अपनी लोमे जलती रहती है और जलकर उस अंधकारके हृदयको प्रकाशित करती है, उसी भाँति, उस उत्साहको अपने आपमें जलते रहकर स्व-परको प्रकाशित करना है। साहित्यका यही विलक्षण सौभाग्य है, दुर्भाग्य इसे नहीं मानना चाहिए । अमान्यताके बीचमें वह पलता और जीता है, फिर भी, * सुहृद्-संघके (मुजफ्फरपुर) वार्षिकोत्सवपर दिया गया भाषण । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाय ! इसमें हिन्दीके वर्तमान रूपपर, आजकी बनावटपर, निस्सन्देह बहुत दबाव पड़ेगा। लेकिन, जिसको बड़ा बनाया जाता है उसको उतना ही अपना अहंकार छोड़कर सबका आभार स्वीकार करना होता है । इसी तरह, जब हिन्दीके कन्धोंपर भारी दायित्व आ गया है, तब उस हिन्दीको अपना जीवन सर्व-सुलभ, विशद और निराग्रही बनानेमें आपत्ति नहीं करनी होगी। उसे अपने योग्य ऊँचाई तक उठना होगा । और, जो हिन्दीका साहित्यकार इस विषयमें जाग्रत् न होकर आग्रही होगा, मुझे भय है कि वह राष्ट्रभाषा हिन्दीसे की जानेवाली प्रत्याशाएँ पूरी न कर सकेगा। अब दिन दिन हमारे जीवनका और अनुभूतियोका दायरा बढ़ता जाता है । हमारी चेतना घिरी नहीं रहना चाहती। हम रहते है तो अपने नगरमे, पर जिले और प्रान्तके प्रति भी आत्मीयता अनुभव करते है । इसके आगे हमारा देश भी हमारे लिए हमारा है। उसके भी आगे अगर हम सच्चे है और जगे हुए हैं, तो इतनेमे भी हमारी तृप्ति नहीं है। हम समूची मानवताको, निखिल ब्रह्मांडको, अपना पाना चाहते है । 'हम सबके हों', 'सब हमारे हों'यह आकांक्षा गहरीसे गहरी हमारे मानसमें बिधी हुई है। यह आकांक्षा अपनी मुक्ति-लाभ करनेकी ओर बढ़ेगी ही। उस सिद्धिकी ओर बढ़ते चलना ही सच्ची यात्रा और सच्ची प्रगति है। ___ अब निरन्तर होती हुई प्रगतिके बीच बिलकुल भी गुंजाइश नहीं है कि हम अपनेको समस्तसे काटकर अलहदा कर लें । वैसी पृथक्ता भ्रम है, झूठ है । और जहाँ उस पार्थक्यकी भावनाका सेवन है, जहाँ पार्थक्य सहा नहीं वरन् आसक्ति-पूर्वक अपनाया जाता Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी और हिन्दुस्तान वहाँ जीवन निस्तेज और जड़ हो चलता है । यही प्रतिगामिता " है, क्योकि, इसके सिरों पर केवल अहंकार है और मौत है । इसलिए, हिन्दीको भी बंद रहने और बंद रखनेमें विश्वास नही करना होगा । बंद तो वह है ही नहीं, बंद इस जगतमे कुछ भी " 1 1 नहीं है । सब कुछ सबके प्रति खुला है । और साहित्य वह वस्तु है 1 जो सब ओर ग्रहणशील है । वह सूक्ष्म चिन्ता - धाराओ के प्रति भी जागरूक है, हलका-सा स्पर्श भी उसे छूता और उसपर छाप छोड़ता ' है । ऐसी अवस्थामें, हिन्दीके साहित्यको विश्वकी साहित्य - धाराओोसे अलग समझना भूल होगी । आदान-प्रदान, घात- संघात, चलता ही रहा है । हम जानें या न जानें, वह संघर्ष न कभी रुका न रुक सकता है। आज, जब कि बातचीत और आने-जाने के साधन विद्युगामी हो गये है, उस संघर्षको काफ़ी स्पष्टता मे चीन्हा जा सकता है । अतः, आज यदि हिन्दीके प्रस्तुत साहित्यको कना हो तो उसे इसी परस्परापेक्षामें रखकर देखना होगा । और इस प्रकारकी उस सम्यक्-समीक्षा और विद्वान् समीक्षकोंकी हिन्दीको श्रावश्यकता है । आदमी आदमीके, देश देशके, द्वीप द्वीपके, क्षण क्षण पाससे और पास आता जा रहा है । निस्सन्देह, इस ऐक्यकी साधनामे मानवताको बड़े प्रयोग और परिश्रम भी करने पड़ रहे है। आदमी आदमी में, देश देशमें, द्वीप द्वीपमे डाह और बैर भी दीखते है । महायुद्ध होकर चुका है; छुट-मुट युद्ध आँखों-आगे नित्य प्रति हो रहे है और आसन्न भविष्य में अगले महायुद्धकी घटाएँ छाई हैं । उस युद्धकी विभीषिका अब भी मनुष्यके मानसपर दबाव डाल रही है । ८१ । · Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर, चाहे मार्ग बिकट हो, मानवताको उसपरसे बढते ही चलना है। मेरी अंतिम प्रतीति है कि जाने-अनजाने अपनी दुर्भावनाओ और दुर्वासनाओकी मार्फत भी हम अंततः एक दूसरेके निकट ही आ रहे हैं। इससे हमें परीक्षणों और विफलतासे घबराना नहीं होगा और लक्ष्यपरसे आँख नहीं हटाना होगा। ___ जीवनकी आस्थाको और अपनी अंतस्थ लौको सँभाले रखकर व्यक्ति राहके ऊबड़-खाबड़को पार करता, दुःख-विषाद झेलता, जिये ही चलता है । कभी त्राससे घिर जाता है, कभी अश्रद्धासे भर पाता है । तव, वह एकांतमे ऊपरके सूनेको देखता और दो-एक भरी साँस छोड़कर फिर अपने जीको कसकर चल पड़ता है। कभी कभी यह सव-कुछ बहुत भारी हो आता है । यहाँ तक कि मृत्यु उसे प्रिय और जीवन विष मालूम होता है । ऐसे समय, वह आत्मघात भी कर बैठता है। लेकिन, जब तक बस है, वह जीवनको भाग्यकी धाराके साथ आगे खेये ही चलेगा । जीवनके अनेकानेक व्यापारोके मंथनमेसे जो कटुताका, कल्मषका, व्यथाका गरल उसके कंठमे भरता है, नानाविध उपायोसे वह अपने भीतरकी, आस्थाके संयोगसे उसीको अमृत बना लेगा। उसे पियेगा, पिलायेगा, और चलता रहेगा। __ इसी व्यथा-विसर्जनके यत्नमें उस मानवद्वारा कलाके नाना स्वरूपोको जन्म मिलता है और साहित्यको जन्म मिलता है। मानवकी अन्तस्थ जीवन-प्रेरणा चुक भले जाय, पर चुप नहीं रह सकती; और वह, बिना चैन, बिना विराम, नये नये भावोमें अभिव्यक्त होती है । उससे जीवन-यापनमे, जीवन-संवर्धनमे, बल मिलता है, उससे एकसे दूसरेको रस मिलता है । ८२ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उठाई और किस बलपर मै उसे चलाता भी रहा । लेकिन, सच बात यह है कि यदि मुझे स्वप्नमें भी कल्पना होती कि मेरा लिखा छापेमें आ जायगा तो लिखनेका दुस्साहसिक कर्म मुझसे न बनता । इसीसे जब मै पढ़ता हूँ कि ईश-कृपासे बहरा भी सुन पड़ता और मूक बोल उठता है, और उस ईश-महिमासे पंगु भी गिरि लाँघ जाता है, तब, यह देखकर कि मैं आज लिखता हूँ, मुझे उस सब अनहोनी के होनेका भी विश्वास हो जाता है। इसलिए, घमंड-पाखंडकी सब बात परमात्मा ही जाने । उसकी कृपा ही हुई होगी कि मै कुछ लिख भी सका, नहीं तो---- लेकिन, उसे छोड़िए । अब मैं पूछता हूँ कि जो मैंने आरंभमें लिखा, क्या 'स्वान्तः सुखाय' लिखा ! मुझे नहीं मालूम । जो करता हूँ मैं अन्तःमुखके लिए करता हूँ या परिस्थितियोंके कारण करता हूँ,यह मै कुछ खोल कर समझ नहीं पाता हूँ। 'अलबत्ता इतना जानता हूँ कि आरंभमे जो लिखा, वह किसी भी प्रकार, किसीके उपकार, सुधार या उद्धारका प्रयोजन बाँध कर मैं नहीं लिख सका था। मैं तब इतना अज्ञातनाम, अपने आपमें इतना संत्रस्त, हीन, निरीह प्राणी था कि परहितकी कल्पना ही उस समय मुझे अपनी विडम्बना जान पड़ती। इसलिए, मै किस प्रकार इन चर्चाओंमें जाऊँ कि साहित्य-कला किसके लिए है, अथवा किसके लिए हो ! यह बात महत्त्वपूर्ण होगी, लेकिन, मैं उस बारेमें कोरा हूँ। हाँ, इधर आकर एक विश्वास मेरी सारी चेतनामे भरता-सा जाता है कि जो कुछ हो रहा है, वह सब-कुछ 'एक' के लिए हो Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , हिन्दी और हिदुस्तान रहा है उसी एक 'से' और उसी एक 'में' हो रहा है । और वह एक है, 'परमात्मा' । लेकिन, उस बातको आप मेरी सलज्ज अपराधस्वीकृति, Confession, ही मानिए । उसमें, हो सकता है कि, न कुछ भावार्थ मिले, न चरितार्थ दीखे । हो सकता है कि वह प्रतीति मेरी असमर्थताकी प्रतीक हो । लेकिन, मै आरम्भमे ही कह चुका हूँ कि ठीक ठीक मै कुछ जानता नहीं हूँ । साहित्य क्यो, क्या, किसके लिए ? - इसकी प्रामाणिक सूचना मै कहाँसे लाकर दूँ ? और जहाँसे लाकर दूँ वहाँसे आप क्या स्वयं नहीं ले सकते जो मेरा अहसान बर्दाश्त करें ? कैसे लिखा जाता है, इस वारेमे कहनेको मेरे पास अपना अनुभव और उदाहरण ही हो सकता है। यह कौन जाने कि किस हद तक वह आपके मनोनुकूल होगा, या प्रामाणिक अथवा विश्वसनीय होगा । ¿ आजकल मानवका समस्त ज्ञान वैज्ञानिक बने तब ठीक समझा जाता है । इस तरह, वह सुनिश्चित और सुप्राप्त बनता है और तभी प्रयोजनीय बनता है । सो, अव्वल तो ज्ञान ही मेरे पास नहीं, और जो निजी व्यक्तिगत कुछ बोध-सा है वह वैज्ञानिक तो है ही नहीं । इसलिए, उसे माप सहज अमान्य ठहरा दे तो मुझे कुछ आपत्ति न होगी । ज़िन्दगीका मन्त्र क्या है ? मेरे ख्यालमे वह मंत्र है, प्रेम । सूरज-धरतीको, घरती - चादको, शत्रु- शत्रुको, पिता-पुत्रको, जन्ममृत्युको, 'मै' – 'तूको,' स्त्री- पुरुषको, परस्पराकर्षण में कौन थाम रहा है ? वही प्रेम । विराट्की शाश्वत अनन्त महिमा और हमारी क्षराजीवी अपार लघुता, जो इन दोनोंको परस्पर सह्य और सम्भव बनाता है ९१ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वही प्रेम है । मुझे जान पड़ता है कि साहित्यका भी दूसरा कोई मंत्र नहीं है। प्रेमसे बाहर होकर साहित्यके अर्थमें कुछ भी जानने योग्य बाकी नहीं रहता। 'ढाई अच्छर प्रेमके पढ़े सो पण्डित होय' यह बात निरी कल्पना मुझे नहीं मालम होती, सबसे सच्ची सच्चाई मालूम होती है। एक जगह कबीरने बालक प्रहादके मुंहसे गाया है मोहे कहा पढ़ावत आल-जाल, मोरी पटियापै लिख देउ 'श्रीगोपाल' । ना छोहूँ रे बाबा राम नाम मोकों और पढ़नसों नहीं काम । कबीरकी बानीमें उसी प्रेमके माहात्म्यका गान मुझे सुन पड़ता है । न ऊपरकी उक्तिका, न कबीर-बानीका, यह आशय समझा जाय कि सब पढ़ना-लिखना छोड़ देना होगा । पर, यह मतलब तो ज़रूर है कि जो प्रेम-विमुख है, ऐसा, पढ़ना हो या लिखना, सब त्याज्य है । जिसमें केवल बुद्धिका विलास है, जिससे अपने भीतर सद्भावना नहीं जागती और जगकर पुष्ट नहीं होती, वैसा पढ़नालिखना वृथा है । और यदि वह पठन-पाठन निरुद्देश्य है, तो वृथासे भी बुरा है, हानिकारक है। गलत समझा जाऊँ, इस खतरेको भी उठाकर मै यह प्रतीति अपनी स्पष्ट कहना चाहता हूँ कि, जो जानता है कि वह विद्वान् है, ऐसे महापंडितको सँभालनेकी शक्ति शायद साहित्यमे नहीं है । साहित्य जिस तरल मनोभावनाके तलपर रहता है, ऐसे महापडितका स्थान उससे कहीं बहुत ऊँचेपर ही रह जाता है। ९२ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी और हिन्दुस्तान जान जान कर जितना जो मैंने जाना है वह ऊपर कह दिया है। वह एकदम कुछ न जाननेके बराबर हो सकता है। ऐसा हो, तो कृपापूर्वक आप मुझे क्षमा कर दे । शायद, आपकी कृपा के भरोसे ही उसका दुर्लभ उठाकर, ऊपर कुछ अपने मनकी निरर्थक-सी बात कह गया हूँ | " आधुनिक हिन्दी - साहित्यकी समीक्षामे मै नही जा सकूँगा । वह अधूरा है, अपर्याप्त है, पर यह भी निश्चित है कि वह सचेत है और यत्नशील है । वह बराबर बढ़ रहा है, गद्यके क्षेत्रमे वह तेजस्विताकी ओर भी बढ़ चला है । पद्यमे सूक्ष्मताकी ओर अच्छी प्रगति है | हिन्दी - साहित्यमे चहुँ -मुखता बेशक अभी नहीं है । वह 1 इसलिए, कि जीवन ही अभी चहुँओर नही खुला है । पराधीन देशमें राष्ट्रीयता इतनी जरूरी - सी प्रवृत्ति हो जाती है कि वह समूचे जीवनको उसी ओर खींचकर मानो नुकीला बनानेका प्रयास करती है। स्वाधीनताकी ज़रूरत है तो मुख्यतः इसीलिए कि जिंदगी सब तरफकी माँगोंके लिए खुले और फैले । अनिवार्यतया राष्ट्रीय भावकी प्रधानता अपने साहित्यमें रही और अब, जब कि हिन्दी राष्ट्र-भाषा है, 'संभावना है कि उस प्रकारकी साहित्यकी एकांगिता दूर होनेमे कुछ और भी समय लगे । आधुनिक समाजवाद भी साहित्यकी सर्वाङ्गीनताको संपन्न करनेमें विशेष उपयोगी नही हो रहा है । उपाय इसका यही है कि साहित्यकार व्यापक और विस्तृत जीवनकी ओर बढ़े, नगरसे गॉवकी ओर, गाँवसे प्रकृतिकी भोर, प्रकृतिसे परमात्माकी ओर बढ़े । हमारे साहित्यकारको गण-वायु, शुद्ध जीवन और आसमानकी अधिक आवश्यकता है। वह - ९३ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नगर-जीवनकी कृत्रिम समस्याओंसे घुटता जा रहा है । उसको शहरकी तंग गलियो और सटी दीवारोको लाँघकर, न हो तो तोड़कर, खुले मैदानमे साँस लेने बढ़ना चाहिए । उससे फेंफड़े मजबूत होंगे और सबका भला होगा। हिन्दी-साहित्यके सम्बन्धमें बात करते हुए यह कहना भी जरूरी मालूम होता है कि जैसे सुचारुताके लिए व्यक्तिमे विविध वृत्तियोंका सामंजस्य आवश्यक है, उसी भाँति, साहित्यमें आदर्शोन्मुख भावनाओं और परिणामोंके सामंजस्यकी ओर हमें ध्यान देना होगा। ऐसा न होनेसे साहित्य जब कि रोमांटिक (=कल्पना-विलासी ) हो उठता है तब उसकी ओट लेनेवाला जीवन संगति-हीन और उथला हो चलता है । कल्पनाका विलास तथ्य वस्तु नहीं है । इस प्रकार, जो अध्यात्मका अथवा दर्शन-ज्ञानका वातावरण बनता है वह भ्रामक होता है, प्रेरक नहीं होता। वह छलमें डालता है, बल नहीं देता। स्वप्न खूब मनोरम हो, पर वह स्वप्न ही है तो किस कामका ! उसी स्वप्नकी कीमत है जिसके पीछे प्रेरणा,-Will भी है । और ऐसा स्वप्न स्वप्न कम, संकल्प अधिक हो जाता है । साहित्यके मूलमें यदि कल्पना है तो वह श्रद्धामूलक है; अन्यथा, विवेक-वियुक्त कल्पना धोखा दे सकती है, निर्माण और सर्जन नहीं कर सकती। यूरोपके साहित्यको जो बात प्रबल बनाती है वह उसकी यही प्रेरक शक्ति है । स्वम उनके उतने ऊँचे न हो, और नहीं हैं, लेकिन, उनके संकल्पों और उन स्वमोमे उतनी दूरी भी नहीं है कि विरोध मालूम हो । मन-वचन-कर्मका यह सामंजस्य,--यह ऐक्य, ही असली तत्त्व है। इस समन्वयसे मनको भावना अधिक प्रेरक, वचन Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी और हिन्दुस्तान अधिक सफल और कर्म अधिक सार्थक बनता है । इस एकताके साथ तीनो ( भावना, शब्द, कृत्य ) अलग अलग भी अपने आपमें सत्यतर बनते है । उस एकताके अभाव मे तीनो झूठ हो जाते हैं । तभी तो प्रमत्तका स्वम, दम्भीके मुखका शास्त्र - वचन, और पाखण्डीका धर्म-कर्म अपने आपमे सुन्दर होते हुए भी असत्य हो जाता है । राजनीति से अधिक साहित्यके क्षेत्रमे यह एकता जरूरी है । क्योकि स्थूल कर्मका परिणाम तो थोड़ा बहुत होता भी है पर शब्द में तो वैसी स्थूल शक्ति है नहीं, उसमे उतनी ही शक्ति है जितनी अपने प्राणोसे हम उसमे डाल सकते हैं । अतः, साहित्यकार के लिए मन-वचन-कर्म की एकता साधना जरूरी मानना चाहिए । एक बात और, और बस । एक प्रकारसे वह ऊपर भी आ गई है, पर उसको स्पष्ट कह देना भला ही हो सकता है । वह यह कि हमको सबके प्रति विनयशील होना होगा । अविनय जड़ता है । जीवन पवित्र तत्व है और साहित्यके निकट, क्योंकि, सब कुछ सजीव है इससे साहित्य - रसिकके लिए सब कुछ पवित्र है । उसके मनमे किसीके लिए अबज्ञा नहीं हो सकती। ऐसी अवज्ञाके मूलमे अहंकार और पूर्णता है । इस बातके संबंध मे अधिकसे अधिक सावधानी भी इसलिए कम है कि आज चारो ओर राजनीतिक प्रचारके कारण सहानुभूतिकी मर्यादा - रेखाएँ खीच दी गई है और प्रेम दलोंमे बॅट गया है। इस भाँति अवज्ञाकी भावना सहज भाव में घर कर जाती है और वह उपयुक्त भी जान पड़ने लगती है । पर निश्चय रखिए कि ९५ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनादरकी भावनामेसे कोई निर्माण नहीं हो सकता। सर्जन स्लेहद्वारा ही संभव है। पर यहाँ भूल न हो । जीवन निरी मुलायम चीज़ नहीं है। वह युद्ध है । वह इतना सत्य है कि काल भी उसे कभी तोड़ नहीं सकता । निरंतर होती हुई मृत्युके वावजूद जीवनको धारा अनवच्छिन्न भावसे बहती चली आ रही है, बहती चली जायगी। सत्यको सदा ही असत्से मोर्चा लेना होगा, जबतक व्यक्ति है तब तक युद्ध है। वहाँ कोई समझौता नहीं है, और कोई अंत नहीं है। पर युद्ध किससे ? व्यक्तिसे नहीं, घनीभूत मैलसे । पापीसे नहीं, पापसे । क्योंकि जिसे पापी माना है, उसके भीतर आत्माकी आग है और आग सदा उज्ज्वल है। वह पापको क्षार करती है। यह ..पापसे अडिग भावसे जूझनेकी क्षमता पापीको प्रेम और उसके भीतरकी आगमे विश्वास करनेकी साधनामेसे पावेगी। मैने आपका बहुत समय लिया। इस समयमें जो सूझा है मै. कहता रहा हूँ। आप मेरे प्रति करुणाशील हुए तो मै यह अपना कम लाभ नहीं मानूंगा । आप देखते तो है कि आपकी कृपाका मैने कैसा फायदा उठा लिया है। मै उस सबके लिए आपसे क्षमा चाहता हूँ और आपको फिर धन्यवाद देता हूँ। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमचन्दजीकी कला श्रीप्रेमचन्दजीका ताज़ा उपन्यास ' ग़बन ' हाल ही निकला है । निकला तभी मैने इसे पढ़ लिया। लेकिन, जो मुझे वक्तव्य हो सकता है, वह लिखता अब हूँ | चीज़को समझने और पुस्तकके असरको ठंडा होने देनेके लिए मैंने कुछ समय ले लिया है। ठंडा होकर बात कहना ठीक होता है, जब व्यक्ति पुस्तकसे अपनेको अलहदा खड़ा करके मानो उसपर सर्वभक्षी निगाह डाल सके । प्रेमचन्दजी हिन्दीके सबसे बड़े लेखक है । हम हिन्दीभाषाभाषी उनके मूल्यको ठीक आँक नहीं सकते। हम चित्रके इतने निकट है कि उसकी विविधता, उसका रंग-वैषम्य हमें प्रच्छन्न कर देता है; उसमें निवास करती हुई और उस चित्रको सजीवता प्रदान करती हुई एकता हमारी पकड़ने नहीं आती। जो एकाध दशाब्दि अथवा एकदो भाषाका अंतर बीचमे डालकर प्रेमचन्दको देखेगे, वे, मेरा अनुमान है, प्रेमचन्दको अधिक समझेंगे, अधिक सराहेंगे । वर्तमानकी अपेक्षा भविष्य में और हिन्दीको छोड़कर जहाँ अनुवादोद्वारा अन्य भाषाओंमे पहुँचेंगे, वहाँ उनको विशेष सराहना प्राप्त होगी । लेकिन, यत्नद्वारा हम अपनी दृष्टिमें कुछ कुछ वैसी क्षमता ला सकते है कि बहुत पासकी चीज़को मानों इतनी दूरसे देख सके कि वह हमें अपनी सम्पूर्णतामें, अपनी एकतामें, दीखे । अगर रचनाओके भीतर पैठकर, मानों इस सीढ़ीसे, हम रचनाकारके हृदयमें पहुँच ९७ ७ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाँय जहाँसे कि उसकी रचनाओंका उद्गम है और जहाँसे उसे एकता प्राप्त होती है, तो हम रसमे डूब जायें । __ अपने भीतरके स्नेह, सहानुभूति और कौशलको विविध भाँतिसे कलमकी राह उतार कर कलाकारने तुम्हारे सामने ला रक्खा है। तुम उन शब्दों, भाषा, प्लाट, और प्लाटके पात्रोंका मानों सहारा भर लेकर यदि हृदयमेंसे फूटते हुए झरनों तक पहुँच जा सकते हो, तो वहाँ स्नान करके आनंदित और धन्य हो जाओगे । नहीं तो, कालिजीय विद्वानकी तरह उसकी भाषाकी खूबी और त्रुटि और उसके व्याकरणकी निर्दोषता-सदोषतामे फंसे रहकर उसकी छान-बीनका मज़ा ले सकते हो। मुझे व्याकरणकी चिन्ता पढ़ते समय बहुत नहीं रहती । भाषाकी चुस्तीका या शिथिलताका ध्यान उसीके ध्यानकी गरजसे मै नहीं रख पाता । भाषाकी खूबी या कमीको, सम्पूर्ण वस्तुके मर्मके साथ उसका किसी न किसी प्रकार सामंजस्य बैठाकर, मैं देख लेना चाहता हूँ। अतः, यह नहीं कि मै उस ओरसे नितांत उदासीन या क्षमाशील हो रहता हूँ, किन्तु वहाँ समात करके नहीं बैठ रहता। प्रेमचंदजीकी कलमकी धूम है । बेशक, वह धूमके लायक है। उनकी चुस्त-दुरुस्त भाषापर, उनके सुजड़ित वाक्योपर, मै किसीसे कम मुग्ध नहीं हूँ। बातको ऐसा सुलझाकर कहनेकी आदत, मैं नहीं जानता, मैंने और कहीं देखी है। बड़ीसे बड़ी बातको बहुत उलझनके अवसरपर ऐसे सुलझा कर, थोड़ेसे शब्दोंमें भरकर कुछ इस तरहसे कह जाते हैं जैसे यह गूढ, गहरी, अप्रत्यक्ष बात उनके लिए नित्यप्रति घरेलू व्यवहारकी जानी-पहचानी चीज़ हो । इस तरह, जगह Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमचन्दजीकी कला जगह उनकी रचनाओंमें ऐसे वाक्यांश बिखरे भरे पड़े है, जिन्हें जी चाहता है कि आदमी कंठस्थ कर ले । उनमें ऐसा कुछ अनुभवका मर्म भरा रहता है! प्रेमचन्दजी तत्त्वकी उलझन खोलनेका काम करते हैं, और वह भी सफाई और सहजपनके साथ । उनकी भाषाका क्षेत्र व्यापक है, उनकी कलम सब जगह पहुँचती है; लेकिन, अंधेरेसे अंधेरेमें भी वह धोका नहीं देती । वह वहाँ भी सरलतासे अपना मार्ग वनाती चली जाती है । सुदर्शनजी और कौशिकजीकी भी कलम वड़े मजे-मजेमें चलती है, लेकिन, जैसे वह सड़कोपर चलती है, उलझनोंसे भरे विश्लेषणके जङ्गलमे भी उसी तरह सफाईसे अपना रास्ता काटती हुई चली चलेगी, इसका मुझे परिचय नहीं है। स्पष्टताके मैदानमे प्रेमचन्द सहज अविजेय हैं। उनकी बात निति, खुली, निश्चित होती है। अपने पात्रोको भी सुस्पष्ट, चारों ओरसे सम्पूर्ण बना कर वह सामने लाते है। उनकी पूरी मूर्ति सामने आ जाती है । अपने पात्रोंकी भावनाओके उत्थानपतन, घात-प्रतिघातका पूरा पूरा नकशा वह पाठकके सामने रख देते हैं। तद्गत कारण, परिणाम, उसका औचित्य, उसकी अनिवार्यता आदिके संबन्धमे पाठकके हृदयमें संशयकी गुंजायश नहीं रह जाती। इसलिए, कोई वस्तु उनकी रचनामे ऐसी नहीं आती जिसे अस्वाभाविक कहनेको जी चाहे, जिसपर विस्मय हो, प्रीति हो, बलात् श्रद्धा हो । सबका परिपाक इस तरह क्रमिक होता है, ऐसा लगता है, कि मानों बिल्कुल अवश्यम्भावी है । अपने पाठकके साथ मानों वे अपने भेदको बाँटते चलते हैं । अंग्रेजीमें यों ९९ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहगे कि वह पाठकको Confidence मे, विश्वासमें, ले लेते है । अमुक पात्र क्यो अब ऐसी अवस्था में है,-पाठक इस बारेमें असमंजसमे नही रहने दिया जाता । सब-कुछ उसे खोल खोलकर बतला दिया जाता है। इस तरह, पाठक सहज रूपमे पुस्तककी कहानीके साथ आगे बढ़ता जाता है, इसमें उसे अपनी ओरसे बुद्धि-प्रयोगकी आवश्यकता नहीं होती,—पात्रोंके साथ मानो उसकी सहज जान-पहचान रहती है । इसलिए, पुस्तकमें ऐसा स्थल नही आता जहाँ पाठक अनुभव करे कि वह पात्रके साथ नहीं चल रहा है,--जरा रुककर उसके साथ हो ले । वह पुस्तक पढ़नेको ज़रा थामकर अपनेको सँभालनेकी जरूरतमे नहीं पड़ता। ऐसा स्थल नहीं आता जहाँ आह खींचकर वह पुस्तकको बन्द करके पटक दे और कुछ देर आँसू ढालने और पोछनेमें उसे लगाना पड़े और फिर, तुरत ही फिर पढ़ना शुरू कर दे । पाठक बड़ी दिलचस्पीके साथ पुस्तक पढ़ता है, और उसके इतने साथ साथ होकर चलता है कि कभी उसके जीको जोरका आघात नहीं लगता जो बरबस उसे रुला दे। __गबन में मार्मिक स्थल कम नहीं हैं, पर, प्रेमचन्दजी ऐसे विश्वास ऐसी मैत्री और परिचयके साथ सब-कुछ बतलाते हुए पाठकको वहॉ तक ले जाते है कि उसे धक्का-सा कुछ भी नहीं लगता। वह सारे रास्ते-भर प्रसन्न होता हुआ चलता है, और अपने साथी ग्रंथकारकी जानकारीपर, कुशलतापर, और उसके अपने प्रति विश्वासपर, जगह जगह मुग्ध हो जाता है। पग-पगपर उसे पता चलता रहता है कि इस कहानीके स्वर्ग से उसका हाथ पकड़कर ले जाता हुआ उसका पथदर्शक बड़ा सहृदय और Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमचन्दजीकी कला विलक्षण पुरुष है । पाठक बिलकुल उसका होकर रहनेको तैयार होता है । यह बहुत सतर्क और उबुद्ध होकर नहीं चलता, क्योकि, उसे भरोसा रहता है कि ग्रंथकार उसे छोड़कर इधर-उधर भाग नहीं जायगा, उसको साथ लिये चलेगा। इसलिए, ग्रंथकारको भागकर छुनेका अभ्यास करके उसके साथ रहने और, इस प्रकार, अपरिचित रास्तेपर झटकों-धक्कोंको खाते कभी उनपर हँसते और कभी रोते हुए चलनेका मजा पाठकको नहीं मिलता; पर पाठक इस स्वादको भी चाहता है। मैं 'गबन' पढते हुए कहीं भी रो नहीं पड़ा। रवीन्द्रकी एकाच किताब पढ़नेमें, बंकिम पढ़नेमे, शरद पढ़नेमें, कई बार बरबस आँखोंमें ऑसू फूट आये है। फिर भी, प्रेमचन्दकी कृतियोंसे जान पड़ता है कि मै उनके निकट आ जाता हूँ, उनपर विश्वास करने लगता हूँ। शरद पढ़ते हुए कई बार गुस्सेमें मैने उसकी कृतियोको पटक दिया है, और रोते रोते उसे कोसनेको जी किया है । 'कम्बख्त न जाने हमें कितना और तंग करेगा!', इस भावसे फिर उसकी पुस्तक उठा कर पढ़ना शुरू कर दी है। ऐसा मेरे साथ हुआ है। इसके प्रतिकूल, प्रेमचन्दकी कृतियोसे उनके प्रति अनजाने सम्मान और परिचयका भाव उत्पन्न होता है। शरद और कई अन्यकी रचनाएँ पढ़ते वक्त जान पड़ता है जैसे इनके लेखक हमसे परिचय बनाना नहीं चाहते; हमारी, अर्थात् पाठककी, इन्हे बिलकुल पर्वाह नहीं है। हमारे भावोंकी रक्षा करनेकी इन्हें बिल्कुल चिन्ता नहीं है। जैसे हमारा जी दुखता है या नहीं दुखता, हम नाराज़ होते हैं या खुश, हमे अच्छा लगता है या बुरा, इसके १०१ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस वेदनाको हृदयंगम करके हम फिर तनिक जवाहरलालकी जीवन- धाराकी ओर मुड़े और स्रोतपर पहुँचें— युवा नेहरूने जीवनमें प्रवेश किया है । उत्साह उसके मनमें है, प्रेम और प्रशंसा तथा सम्पन्नता उसके चारों ओर है और सामने विस्तृत जीवन के अनेक प्रश्न है, अनेक आकांक्षाएँ और भविष्यकी यवनिकाके शनैः शनैः खुलने की प्रतीक्षा है। अभी तो वह अज्ञेय है, अँधेरा है । जवान नेहरू प्रशासे भरा है । आशा है, इसीलिए असंतोष है। भविष्य के प्रति उत्कंठा है, क्योंकि वर्तमानसे तीव्र तृप्ति है। वह विलायत में रहा है, वहीं पला है । जानता है, आज़ादी क्या होती है । जानता है, ज़िन्दगी क्या होती है । साहित्य पढ़ा है और उसके मनमें स्वप्न हैं । लेकिन, अब यही आदमी हिन्दुस्तानमें क्या देखता है ? देखता है गुलामी ! देखता है गंदगी !! देखता है निपट गरीवी !!! उसके मनमें हुआ कि यह क्या अन्धेर है ? यह क्या गजब है ! उसका मन छटपटाने लगा। ऐसे और भी युवा थे जो परेशान थे । - जहाँ-तहाँ राष्ट्रीय यत्न चल रहे थे । वह इधर गया उधर मिला, पर कहीं तृप्ति नहीं मिली । ये लोग और ऐसे स्वराज्य लेगे ! - वह शान्त रहने लगा । जिनका प्रशंसक था उनकी आलोचना उसके मनमें जागने लगी । वह युवक था आदर्शोन्मुख, अधीर, सम्पन्न और विद्वान् | कुछ वह चाहने लगा जो वास्तव इतना न हो जितना स्वप्न हो । पर, स्वप्न तो शरीर होता है और मानव सशरीर । स्वप्न भला कब कब देह धारण करते हैं ? लेकिन, इस जवाहरका -मन उसीकी माँग करने लगा । उसके छटपटाते मनने कहा कि ये ११० Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेहरू और उनकी 'कहानी' उदार, लिबरल लोग बूढ़े हैं । ये क्रान्तिकारी लोग बच्चे है। होमरूलमें क्या है ? समाज-सुधारसे न चलेगा। ये छोटे छोटे यत्न क्या काम आयेंगे? अरे! कुछ और चाहिए, कुछ और !-बैरिस्टर जवाहरकी सम्पन्नता और उसकी पढ़ाईने उसमे भूख लहकाईकुछ और, कुछ और !! __और जवाहरलालको वह 'कुछ और' भी मिला । स्वप्न चाहता था, वह स्वप्न भी मिला ! जवाहरलालको गाँधी मिला!! ____ जवाहरलालने अपने पूरे बलसे गाँधीका साथ पकड़ लिया । साथ पकड़े रहा, पकड़े रहा। पर गाँधी यात्री था। जवाहरने अपने रास्तेपर गॉधीको पाया हो और, इस तरह, उसे अपने ही मार्गपर गाँधीका साथ मिल गया हो, ऐसी तो बात नहीं थी । इसलिए, थोड़ी ही दूर चलनेपर जवाहरलालके मनमें उठने लगा, ' हैं, यह क्या ' मैं कहाँ जा रहा हूँ ? क्या यही रास्ता है ? यह आदमी कहाँ लिये जा रहा है ! हैं, यह आदमी सच्चा जादूगर भी है ! लेकिन, मुझे तो सँभलना चाहिए। गाँधीका साथ तो पकड़े रहा, लेकिन, शंकाएँ उसके मनमें गहरा घर करने लगी। लेकिन, जब साथ पकड़ा, तो छोड़नेवाला जवाहरलाल नहीं । हो जो हो। और वह अपनी शंकाओंको अपने मनमें ही घोंट घोट कर पीनेका यत्न करने लगा। ___ उसके मन में क्लेश हो आया । शंकाएँ दाबे न दबती थी। उसने आखिर लाचार हो जादूगर गाँधीसे कहा-ठहरो, ज़रा मुझे बताओ कि यह क्या है ! और वह क्या है ! आओ, हम ज़रा ठहर कर सफ़रके बारेमें समझ-बूझ तो लें। १११ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाँधीने कहा-यह तो यह है और वह वह है । मै जानता हूँ, सब ठीक है । पर ठहरो नहीं, चले चलो। ___ जवाहरने कहा- ठहरो! ठहरो!! विना समझे चूके मै नहीं चलेगा। गाँधीने कहा- यह बहुत जरूरी बात है। ज़रूर समझ-बूझ लो। लेकिन मैं चला। __ गाँधी रुका था कि चल पड़ा। जवाहरलालने कहा-चलनेमें मै पीछे नहीं हूँ, लो, मैं भी साथ हूँ। लेकिन, समदूं वूमँगा ज़रूर । गाँधीने चलते चलते कहा-हॉ ! हाँ!! ज़रूर ! लेकिन, जवाहरलालकी मुश्किल तो यह थी कि गाँधीका धर्म उसका धर्म नहीं था। गाँधी बड़ी दूरसे चला आ रहा था । जानता था कि किस राह जा रहा हूँ और कहाँ जा रहा हूँ। जवाहरलाल परेशान, जानेके लिए अधीर, एक जगह किसी स्वप्न दूतकी राह देख रहा था। उसने कोई राह नहीं पाई थी कि पाया गाँधी । और जवाहर उसी राह हो लिया । पर, उस राहपर उसे तृति मिलती तो कैसे ? हरेकको अपना मोक्ष आप बनाना होता है। इससे, अपनी राह भी आप बनानी होती है, यह तो सदाका नियम है । इसलिए, चलते चलते एकाएक पटक कर जवाहरलालने गॉधीसे कहा- नहीं! नहीं !! नहीं !!! मैं पहले समझ लूँगा और बूम लूंगा। सुनो तो, इकोनॉमिक्स यह कहती है और पॉलिटिक्स वह । अब बताओ, हम क्यों न समझ-बूझ लें ! ___ गाँधीने कहा-~-ज़रूर समझ लो और ज़रूर बूझ लो। इकोनॉमिक्सकी बात भी सुनो । पर रुकना कैसा? मेरी राह लम्बी है! ११२ क्यों न ज़रूर रुकना कता Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेहरू और उनकी 'कहानी' जवाहरलालने कहा- मैं बच्चा नहीं हूँ । गाँधीने कहा – तुम वीर हो । जवाहरलालने कहा—मै हारा नहीं हूँ, चलना नहीं छोहूँगा । गाँधीने कहा- चले तो चलो । | वह यात्रा तो हो ही रही है। लेकिन, जवाहरलालके मनकी पीड़ा बढ़ जाती है । उसके भीतरका क्लेश भीतर समाता नहीं है । - गाँधी स्वप्न - पुरुषकी भाँति उसे मिला । अब भी वह जादूगर है !.... लेकिन, अरे ! यह क्या बात है ! देखो, पॉलिटिक्स यह कहती है, इकोनॉमिक्स वह कहती है। और गाँधी कहता है, धर्म । धर्म I दकियानूसी बात है कि नहीं !....है गाँधी महान्, लेकिन, आाखिर तो आदमी है। पूरी तरह पढ़ने-पढ़ानेका उसे समय भी तो नहीं मिला । इन्टरनेशनल पॉलिटिक्स ज़रा वह कम समझे, इसमें अचरजकी बात क्या है ?.... और हाँ, कहीं यह रास्ता तो गलत नहीं है ?.... पॉलिटिक्स....इकोनॉमिक्स.... लेकिन गाँधी महान् है, सच्चा नेता है । जवाहरलालने कहा —— गाँधी, सुनो, तुम्हें ठहरना ज़रूर पड़ेगा। हमारे पीछे लाखोंकी भीड़, यह कांग्रेस, आ रही है। तुम और हम चाहे गड्ढे में जायँ, लेकिन कांग्रेसको गड्ढे में नहीं भेज सकते । बताओ, यह तुम्हारा स्वराज्य क्या है जहाँ हम सबको लिये जा रहे हो ? गॉधीने कहा -- लेकिन ठहरो नहीं, चलते चलो। हाँ, स्वराज्य ? वह राम-राज्य है | - राम-राज्य ! लेकिन हमको तो स्वराज्य चाहिए, आर्थिक, राजनीतिक, सास्कृतिक...। ११३ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - हाँ ! हाँ !! ठीक तो है, आर्थिक, राजनीतिक.... पर धीमे न पड़ो, चले चलो । — धीमे ! लेकिन, आपका रास्ता ही गलत हो तो ! - सही होनेकी श्रद्धा नहीं है तो अवश्य दूसरा रास्ता देख लो । मैं जा रहा हूँ । जवाहरलाल समझने-बुझनेको ठहर गया । गाँधी अपनी राह कुछ आगे बढ़ गया । जवाहरलालने चिल्लाकर कहा - लेकिन सुनो ! अरे जरा सुनो तो !! तुम्हारा रास्ता गलत है । मुझे थोड़ा थोड़ा सही रास्ता दीखने लगा है । गाँधी ने कहा- हाँ होगा, लेकिन जवाहर, मुझे लम्बी राह तय करनी है । तुम मुझे बहुत याद रहोगे । जवाहरलालको एक गुरु मिला था, एक साथी । वह कितना जवाहरलालके मनमें बस गया था ! उसका प्यार जवाहरलालके मनमें ऐसा ज़िन्दा है कि खुद उसकी जान भी उतनी नहीं है । उसका साथ अब छूट गया है। — लेकिन, राह तो वह नहीं है, दूसरी है, यह बात भी उसके मनके भीतर बोल रही है । वह ऐसे बोल रही है जैसे बुखार में नब्ज़ । वह करे तो क्या करे ! 'इतनेमें पीछेसे काँग्रेसकी भीड़ आ गई । पूछा – जवाहर, क्या बात है ! हाँफ क्यों रहे हो ? रुक क्यों गये ? जवाहरलालने कहा— रास्ता यह नहीं है । भीड़के एक भागने कहा --- लेकिन, गाँधी तो वह जा रहा है ! जवाहरलालने कहा- हाँ, जा रहा है। गाँधी महान् है । लेकिन, रास्ता यह नही है। पॉलिटिक्स और कहती है। ११४ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेहरू और उनकी कहानी भीड़मेंसे कुछ लोगोंने कहा-ठीक तो है । रास्ता यह नहीं है। हम पहलेसे जानते थे, आओ जरा सुस्ता लें, फिर लौटेंगे। जवाहरलालने कहा-हाँ, रास्ता तो यह नहीं है और आओ जरा सुस्ता भी लें । पर लौटना कैसा ? देखो, दायें हाथ रास्ता जाता है। इधर चलना है। भीडमेंसे कुछ लोगोंने कहा लेकिन गाँधी...? जवाहरलालका कण्ठ आई हो आया। बड़ी कठिनाईसे उसने कहा-गाँधी महान् है, लेकिन रास्ता... ___ आगे जवाहरलालसे न बोला गया। वाणी रुक गई, आँखोंमें आँसू आ गये। इसपर लोगोंने कहा-जवाहरलालकी जय ! कुछने वही पुराना घोष उठाया-गाँधीकी जय ! और गाँधी उसी रास्तेपर आगे चला जा रहा था जहाँ इन जयकारोकी आवाज़ थोड़ी थोड़ी ही उस तक पहुँच सकी। . ऊपरके कल्पना-चित्रसे जवाहरलालकी व्यथाका अनुभव हमें लग सकता है । उस व्यथाकी कीमत प्रतिक्षण उसे देनी पड़ रही है, इसीसे जवाहरलाल महान् है । उस व्यथाकी ध्वनि पुस्तकमे व्यापी है, इसीसे पुस्तक भी साहित्य है । जिसकी ओर बरबस मन उसका खिंचता है, उसीसे बुद्धिकी लड़ाई ठन पड़ी है। शायद, भीतर जानता है, यह सब बुद्धि-युद्ध व्यर्थ है, लेकिन व्यर्थताका चक्कर एकाएक कटता भी तो नहीं । बुद्धिका फेर ही जो है । आज उसीके व्यूहमें घुसकर योद्धाकी भाँति जवाहरलाल युद्ध कर रहा है, पर निकलना नहीं जानता। ११५ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यहाँ मुझे अपने ही वे शब्द याद आते है जो न जाने कहाँ लिखे थे“While Gandhi is a consummation, Jawaharlal is a noble piece of tragedy. Describe Gandhi as inhuman if you please, but Jawaharlal is human to the core. May be, he is concertingly so." जहाँसे जवाहरलाल दूसरी राह टटोलते हैं और अपना मत-भेद स्पष्ट करते दीखते हैं, उसी स्थलसे पुस्तक कहानी हो जाती है । वहाँ जैसे लेखकमें अपने प्रति तटस्थता नहीं है । वहाँ लेखक मानो पाठकसे प्रत्याशा रखता है कि जिसे मैं सही समझता हूँ, उसे तुम भी सही समझो, जिसे गलत कहता हूँ उसे गलत । वहाँ लेखक दर्शक ही नहीं, प्रदर्शक भी है। वहाँ भावनासे आगे बढ़कर वासना भी आ जाती है। यों वासना किसमें नहीं होती! वह मानवका हक है। लेकिन, लेखकका अपनी कृतिमें वासना-हीनका ही नाता खरा नाता है। वही आर्टीिस्टक है । जवाहरलालकी कृतिमें वह श्रा गया है जो इनार्टिस्टिक है, असुन्दर है । आधुनिक राजनीति (या कहो कांग्रेस-राजनीति) में निस समयसे अधिकारपूर्वक प्रवेश करते हैं, उसी समयसे अपने जीवनके पर्यवेक्षणमें लेखक जवाहरलाल उतने निस्सग नहीं दीखते। ___ आत्मचरित लिखना एक प्रकारसे आत्म-दानका ही रूप है। नहीं तो, मुझे किसकि जीवनकी घटनाओंको जानने अथवा अपने जीवनकी घटनाओंको जतानेसे क्या फायदा ! परिस्थितियाँ सबकी अलग होती हैं। इससे घटनाएँ भी सबके जीवन में एक-सी नहीं घट सकतीं । लेकिन, फिर भी, फायदा है । वह फायदा यह है कि दूसरेके जीवनमें हम अपने जीवनकी झाँकी लेते हैं। जीवन-तत्त्व, ११६ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेहरू और उनकी 'कहानी' सब जगह एक है और हर एक ज़िन्दगीमें वह है जो हमें लाभ दे सके । वस्तुतः जीवन एक क्रीड़ा है। सबका पार्ट अलग अलग है । फिर भी, एकका दूसरेसे नाता है । लेकिन, यदि एक दूसरेसे कुछ I पा सकता है तो वह उसका आत्मानुभव ही, अहंता नहीं । इस भाँति, आत्म-चरित अपनी अनुभूतियोंका समर्पण है । जवाहरलालजीका आत्म-चरित सम्पूर्णतः वह ही नहीं है। उसके समर्पणके साथ आरोप भी है, आग्रह भी है । लेखककी अपनी अनुभूतियाँ ही नहीं दी गई हैं, अपने अभिमत, अपने विधि - निषेध, अपने मतविश्वास भी दिये गये है और इस भाँति दिये गये है कि वे स्वयं इतने सामने आ जाते है कि लेखकका व्यक्तित्व पीछे रह जाता है । यहाँ क्या एक बात मै कहूँ ? ऐसा लगता है कि विधाताने जवाहरलालमे प्राणोंकी जितनी श्रेष्ठ पूँजी रक्खी उसके अनुकूल परिस्थितियाँ देनेकी कृपा उसने उनके प्रति नहीं की । परिस्थितियोंकी जो सुविधा जन-सामान्यको मिलती है, उससे जवाहरलालको वंचित रक्खा गया है । जवाहरलालजीको वाजिब शिकायत हो सकती है कि उन्हें ऊँचे घराने और सब सुखसुविधाओं के बीच क्यों पैदा किया गया ! इस दुर्भाग्यके लिए जवाहरलाल सचमुच रुष्ट हो सकते हैं और कोई उन्हें दोष नहीं दे सकता । इस खुश और बदनसीबीका परिणाम आज भी उनके व्यक्तित्वमेंसे घुलकर साफ नहीं हो सका है। वह हठीले समाजवादी हैं, इतने राजनीतिक हैं कि बिल्कुल देहाती नहीं हैं । सो क्यों ? इसीलिए तो नहीं कि अपनी सम्पन्नता ११७ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और कुलीनता के विरुद्ध उनके मनमें चुनौती भरी रहती है ! वह व्यक्तित्वमें उनके हल नही हो सकी है, फूटती रहती है और उन्हें बेचैन रखती है । बीससे चौबीस वर्ष तककी व्यवस्थाका युवक सामान्यतया अपनेको दुनियाके श्रामने- सामने पाता है । उसे झगड़ना पड़ता है तब जीना उसके लिए सम्भव होता है। दुनिया उसको उपेक्षा देती है और उसकी टक्करसे उस युवामें श्रात्म- जागृति उत्पन्न होती है । चाहे तो वह युवक इस संघर्षमें डूब सकता है चाहे चमक सकता है। इतिहास के महापुरुषों में एक भी उदाहरण ऐसा नहीं है जहाँ विधाताने उन्हें ऐसे जीवन-संघर्षका और विपत्तियोंका दान देनेमें अपनी ओरसे कंजूसी की हो। पर, मै क्या आज विधातासे पूछ सकता हूँ कि जवाहरलालको आत्मा देकर, जवाहरलालकी किस भूलसे, उसने लाड़-प्यार और प्रशंसा - स्वीकृति के वातावरण में पनपनेको लाचार किया ? मैं कहता हूँ, विधनाने यह छल किया । परिणाम शायद यह है कि जवाहरलाल पूरी तरह स्वयं नहीं हो • सके । वह इतने व्यक्तित्व नहीं हो सके कि व्यक्ति रहे ही नही । थियरी उनको नही पाने चलती, वही उसको खोजते हैं। शास्त्रीय ज्ञानकी टेकन उनकी टेकन है, हाँ, शास्त्र याधुनिक हैं । ( पुस्तकमे कितने और कैसे कमालके रेफरेन्स और उदाहरण हैं ! ) शास्त्र उनके मस्तक में है, दिलमें नही । दिलमें शास्त्रका सार ही पहुँचता है, बाकी छूट जाता है। इसीसे अनजानमें वह शास्त्र के प्रति श्रवज्ञाशील हो जाते हैं। एक 'इज्म' का सहारा लेते हैं, दूसरे 'इज़्मों ' पर ११८ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेहरू और उनकी 'कहानी' प्रहार करते हैं। सच यह है कि वह पूरे जवाहरलाल नहीं हो सके है तभी एक 'इस्ट ' ( सोशलिस्ट ) हैं और, ध्यान रहे, वह पैतृक 'इज्म' नहीं है । चूँकि उन समस्याओंसे उन्हें सामना नहीं करना पड़ा जो आये दिनकी आदमीकी बहुत करीबकी समस्याएँ हैं, इसीसे उनके मनमें जीवन - समस्याओं के अतिरिक्त और अलग तरहकी बौद्धिक समस्याएँ घिर आई । आदमीका मन और बुद्धि खाली नहीं रहते । सचमुचकी उन्हें उलझन नहीं है, तो वह कुछ उलझन बना लेते हैं । जीवन - समस्या नहीं तो बुद्धि- समस्याको वे बौद्धिक रूप ही दे देते है। क्या यह इसीसे है कि उनकी बौद्धिक चिन्ता रोटी और कपड़ेके राजनीतिक प्रोग्रामसे ज्यादा उलझी रहती है, क्योकि, रोटी और कपड़े की समस्या के साथ उनका रोमांसका सम्बन्ध है। - स्थूल अभावका जीवन उनके लिए रोमांस है। क्या ऐसा इसीलिए है कि उनका व्यावहारिक जीवन जब कि देहाती नहीं है तब बुद्धि उसी देहात के स्थूल जीवनकी ओर लगी रहती है ! और लोग तो चलते धरतीपर है, कल्पना आस्मानी करते है । जवाहलालजीके साथ ही यह नियम नहीं है। क्या हम विधातासे पूछ सकते हैं कि यह विषमता क्यों है ? जवाहरलालजीको देखकर मन प्रशंसासे भर जाता है । पुस्तक पढ़कर भी मन कुछ सहमे बिना न रहा । जब उस चहरेपर झल्लाहट देखता हूँ, जानता हूँ कि इसके पीछे ही पीछे मुस्कराहट आ रही है । ११९ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर उनका मुस्काराता चेहरा देखकर भय-सा होता है कि अगली ही घड़ी इन्हें कहीं झींकना तो नहीं पड़ेगा ! पुस्तकमें उसी रईस और कुलीन, लेकिन मिलनसार, वेदनामें भीनी, खुली और साफ तबीयतकी झलक मिलती है। मनका खोट कहीं नहीं है, पर मिज़ाज जगह जगह है। निकट भूत और वर्तमान जीवनके प्रति असंलग्नता पुस्तकमें प्रमाणित नहीं हुई है, फिर भी, एक विशेष प्रकारको हृदयकी सच्चाई यहाँसे वहाँ तक व्याप्त है। पुस्तकमें अन्तकी ओर खासे लम्बे विवेचन और विवाद है। हमारे अधिकतर विवाद शब्दोका ममेला होते है । जब तक मतियाँ मिन हैं, तब तक एक शब्दका अर्थ एक हो ही नहीं सकता । सजीव शब्द अनेकार्थवाची हुए बिना जियेगा कैसे? यह न हो तो वह शब्द सजीव कैसा ! पर जवाहरलालजी इसी कथनपर विवादपर उतारू हो सकते हैं । उन्होंने एक लेखमें लिख भी दिया था कि एक शब्द दिमागपर एक तस्वीर छोड़ता है और उसे एक ओर स्पष्टार्थवाची होना चाहिए वगैरह वगैरह.... पर, वह बात उनकी अपनी अनुभूत नहीं हो सकती । सुननेमें भी वह किताबी है। इसलिए, उन विद्वत्तापूर्वक किये गये विवादोंको हम छोड़ दें। यह अपनी अपनी समझका प्रश्न है । कोई नहीं कह सकता है कि जवाहरलाल गलत है, चाहे वह यही कहें कि वह और वही सही है। जवाहरलालजी आजकी भारतकी राजनीतिमें जीवित शक्ति हैं। उनके विश्वास रेखाबद्ध हों, पर वे गहरे हैं । कहनेको मुझे यही हो सकता है कि रेखाबद्ध होनेसे उनकी शक्ति बढ़ती नहीं घटती है, १२० Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेहरू और उनकी 'कहानी' और स्वरूप साफ नहीं विकृत होता है। उसपर वह कर्म-तत्पर सी हैं । विभेद उनके राजनीतिक कर्मकी शिला है। वे जन्मसे ब्राह्मण, वर्गसे क्षत्रिय हैं, पर मन उनका अत्यन्त मानवीय है। सूर्योदयकी वेलाके प्रभातमें भी उन्हें प्रीति है। पशु-पक्षियोंमें, वनस्पतियोमें, प्रकृतिमें, तारोंसे चमक जानेवाली अँधेरी-उजली रातोंमें, भविष्यमें, इस अज्ञेय और अजेय शक्तिमें, जो है और नहीं भी है,—इन सबमें भी जवाहरलालजीका मन प्रीति और रस लेता है । उस मनमें कट्टरता हो, पर जिज्ञासा भी गहरी भरी है। वही जिज्ञासासे भीना स्नेहका रस जब तनिक तनिक अविश्वस्त उनकी मुस्कराहटमें घटता है, तब कट्टरता भी अमृतमे नहा जाती है । वह नेता है और चाहे पार्टी राजनीतिक भी हो, पर यह सब तो बाहरी और ऊपरी बातें है। जवाहरलालजीका असली मूल्य तो इसमें है कि वह तत्पर और जाग्रत् व्यक्ति है। उस निर्मम तत्परता और जिज्ञासु जागृतिकी छाप पुस्तकमें है और इसीसे पुस्तक सुन्दर और स्थायी साहित्यकी गणनामें रह जायगी । १२१ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आप क्या करते हैं ? जब पहले पहल दो व्यक्ति मिलते है तो परस्पर पूछते है, 'आपका शुभ नाम ?' नामके बाद अगर आगे बढ़नेकी वृत्ति हुई तो पूछते है, 'आप क्या करते है ?' 'क्या करते हैं !' इसके जवाबमें एक दूसरेको मालूम होता है कि उनमेंसे एक वकील है, दूसरा डाक्टर है। इसी तरह वे आपसमे दूकानदार, मुलाजिम, अध्यापक, इंजीनियर आदि आदि हुआ करते हैं। पर इस तरहके प्रश्नके जवाबमें मै हक्का-बक्का रह जाता हूँ। मैं डाक्टर भी नहीं हूँ, वकील भी नहीं हूँ, कुछ भी ऐसा नहीं हूँ जिसको कोई संज्ञा ठीक ठीक ढंक सके । बस वही हूँ जो मेरा नाम है। मेरा नाम दयाराम है तो दयाराम मै हूँ । नाम रहीमबख्श होता तो मैं रहीमबख्श होता । 'दयाराम' शब्दके कुछ भी अर्थ होते हों, और रहीमबख्श'के भी जो चाहे माने हों, मेरा उनके मतलबसे कोई मतलब नहीं है । मै जो भी हूँ वही बना रहकर दयाराम या रहीमवख्श रहूँगा । मेरा सम्पूर्ण और सच्चा परिचय इन नामोंसे आगे होकर नहीं रहता, न भिन्न होकर रहता है। इन नामोंके शब्दोंके अर्थतक भी वह परिचय नहीं जाता। क्योंकि, नाम नाम है, यानी, वह ऐसी वस्तु है जिसका अपना आपा कुछ भी नहीं है। इसलिए, उस नामके भीतर सम्पूर्णतासे मैं ही हो गया हूँ। खैर, वह बात छोड़िए । मुझसे पूछा गया, 'आपका शुभ १२२ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आप क्या करते हैं? नाम ! ' मैंने बता दिया- दयाराम' । दयाका या और किसीका राम मै किसी प्रकार भी नहीं हूँ। पर किसी अतयं पद्धतिसे मेरे दयाराम हो रहनेसे उन पूछनेवाले मेरे नए मित्रको मेरे साथ व्यवहारवर्णन करनेमें सुभीता हो जायगा । जहाँ मैं दीखा, बड़ी आसानीसे पुकार कर वह पूछ लेंगे, 'कहो दयाराम, क्या हाल है ?' और मै भी बड़ी आसान से दयारामके नामपर हँस-बोल कर उन्हें अपना या इधर-उधरका जो हाल-चाल होगा बता दूंगा। __ यहाँतक तो सब ठीक है। लेकिन, जब यह नए मित्र आगे बढ़ कर पूछते है, ' भाई, करते क्या हो ?' तब मुझे मालूम होता है कि यह तो मै भी जानना चाहता हूँ कि क्या करूँ ? 'क्या करूँ' का प्रश्न तो मुझे अपने पग-पग आगे बैठा दीखता है। जी होता है, पू), 'क्या आप बताइएगा, क्या करूँ ?' मैं क्या क्या बताऊँ कि आज यह यह किया ।-सबेरे पाँच बजे उठा, छह बजे घूम कर आया; फिर बच्चेको पढ़ाया; फिर अखबार पढ़ा; फिर बगीचेकी क्यारियाँ सींची; फिर नहाया, नाश्ता किया, फिर यह किया, फिर वह किया । इस तरह अब तीन बजेतक कुछ न कुछ तो मुझसे होता ही रहा है, यानी मैं करता ही रहा हूँ। अब तीसरे पहरके तीन बजे यह जो मिले है नए मित्र, तो इनके सवालपर क्या मै इन्हें सबेरे पाँचसे अब तीन बजेतककी अपनी सब कार्रवाइयोंका बखान सुना जाऊँ ? लेकिन, शायद, यह वह नहीं चाहते । ऐसा मै करूं तो शायद हमारी उगती हुई मित्रता सदाके लिए वहीं अस्त हो जाय । यदि उनका अभिप्राय वह जानना है जो उनके प्रश्न पूछनेके समय में कर रहा हूँ, तो साफ है कि मै उनका प्रश्न सुन Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहा हूँ और ताज्जुब कर रहा हूँ। तब क्या यह कह पहूँ कि, 'मित्रवर, मैं आपकी बात सुन रहा हूँ और ताज्जुब कर रहा हूँ।' नहीं, ऐसा कहना ठीक न होगा। मित्र इससे कुछ समझेंगे तो नहीं, उल्टा बुरा मानेगे । दयाराम मूर्ख तो हो सकता है, पर बुरा होना नहीं चाहता । इसलिए, उस प्रश्नके जवाबमें मै, मूर्खका मूर्ख, कोरी निगाहसे बस उन्हे देखता रह जाता हूँ। बल्कि, थोड़ा-बहुत और भी आतिरिक्त मूढ़ बनकर लाजमें सकुच जाता हूँ। पूछना चाहता हूँ कि 'कृपया आप बता सकते है कि मैं क्या करूँ ?-यानी क्या कहूँ कि यह करता हूँ।' किन्तु, यह सौभाग्यकी बात है कि मित्र अधिकतर कृपापूर्वक यह जान कर संतुष्ट होते हैं कि दयाराम मेरा ही नाम है। वह नाम अखबारोंमें कभी कभी छपा भी करता है। इससे, दयाराम होनेके बहाने मैं बच जाता हूँ। यह नामकी महिमा है । नहीं तो, दिनमें जाने कितनी बार मुझे अपनी मूढ़ताका सामना करना पड़े। आज अपने भाग्यके व्यंग्यपर मैं बहुत विस्मित हूँ। किस बड़भागी पिताने इस दुर्भागी बेटेका नाम रक्खा था 'दयाराम' । उन्हे पा सकूँ तो कहूँ, 'पिता, तुम खूब हो ! बेटा तो डूबने ही योग्य था, किंतु तुम्हारे दिये नामसे ही वह भोला, चतुर मित्रोंसे भरे, इस दुनियाके सागरमें उतराता हुआ जी रहा है। उसी नामसे वह तर जाय तो तर भी जाय । नहीं तो, डूबना ही उसके भाग्यमें था । पिता, तुम जहाँ हो, मेरा प्रणाम लो । पिता, मेरा विनीत प्रणाम ले लो । उस प्रणामकी कृतज्ञताके भरोसे ही, उसीके लिए, मै जी रहा हूँ, जीना भी चाहता हूँ पिता, नहीं तो, मैं एकदम मतिमंद हूँ और जाने क्यों जीने-लायक हूँ!" १२४ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आप क्या करते हैं। पर आपसे बात करते समय पिताकी बात छोडूं। अपने इस जीवनमें मैंने उन्हें सदा खोया पाया । रो-रोकर उन्हें याद करनेसे आपका क्या लाभ ! और आपको क्या, मुझे क्या-दोनोंको आपके लाभकी बात करनी चाहिए। ___ तो मैंने कहा, 'कृपापूर्वक बताइए, क्या करूँ ? बहुत भटका, पर मैने जाना कुछ नहीं। आप मिले हैं, अब आप बता दीजिए।' उन नए मित्रने बताया कुछ नहीं, वे बिना बोले आगे बढ़ गये। मैं भी चला । आगे उन्हे एक अन्य व्यक्ति मिले । पूछा, 'आप क्या करते हैं ? उत्तर मिला, ' मैं डाक्टर हूँ।' सज्जन मित्रने कहा, 'ओः आप डाक्टर है ! बड़ी खुशी हुई। नमस्ते डाक्टरजी, नमस्ते । खूब दर्शन हुए । कभी मकानपर दर्शन दीजिएन। जी हाँ, यह लीजिए मेरा कार्ड।"रोडपर""कोठी है। -जी हॉ, आपकी ही है। पारिएगा। कृपा कृपा । अच्छा, नमस्ते।' __मुझे इन उद्गारोंपर बहुत प्रसन्नता हुई । किन्तु, मुझे प्रतीत हुआ कि मेरे दयाराम होनेसे उन व्यक्तिका डाक्टर होना किसी कदर अधिक ठीक बात है । लेकिन, दयाराम होना भी कोई गलत बात तो नहीं है! किन्तु, मित्रवर कुछ आगे बढ़ गये थे । मै भी चला । एक तीसरे व्यक्ति मिले । कोठीवाले मित्रने नाम-परिचयके बाद पूछा, 'आप क्या करते है ! 'वकील हूँ।' 'ओः वकील है ! बड़ी प्रसन्नताके समाचार हैं । नमस्ते, वकील १२५ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहब नमस्ते । मिलकर भाग्य धन्य हुए। मेरे बहनोईका भतीजा इस साल लॉ फाइनलमें है। मेरे लायक खिदमत हो तो बतलाइए । जी हाँ, आपहीकी कोठी है। कमी पधारिएगा। अच्छा जी नमस्ते, नमस्ते नमस्ते ।' इस हर्षोद्गारपर मै प्रसन्न ही हो सकता था। किन्तु, मुझे लगा कि बीचमे वकीलताके आ उपस्थित होनेके कारण दोनोंकी मित्रताकी राह सुगम हो गई है। ___ यह तो ठीक है । डॉक्टर या वकील या और कोई पेशेवर होकर व्यक्तिकी मित्रताकी पात्रता बढ़ जाय इसमें मुझे क्या आपत्ति ? इस संबंधमें मेरी अपनी अपात्रता मेरे निकट इतनी सुस्पष्ट प्रकट है, और वह इतनी निविड़ है कि उस बारेमें मेरे मनमें कोई चिंता ही नहीं रह गई है । लेकिन, मुझे रह-हकर एक बातपर अचरज होता है। प्रश्न जो पूछा गया था वह तो यह था कि, 'आप क्या करते है ?' उत्तरमें डाक्टर और वकीलने कहा कि वे डाक्टर और वकील हैं । मुझे अब अचरज यह है कि उन प्रश्नकर्ता मित्रने मुड़कर फिर क्यो नहीं पूछा कि, 'यह तो ठीक है कि आप डाक्टर और वकील है । आप डाक्टर रहिए, श्राप वकील रहिए । लेकिन, कृपया, आप करते क्या है ? समझमें नहीं आता कि प्रश्नकर्ता मित्रने अपने प्रश्नको फिर क्यों नहीं दोहराया, लेकिन, मतिमूढ़ मैं क्या जानूँ ! प्रश्नकर्ता तो मुझ जैसे कमसमझ नहीं रहे होंगे । इसलिए, डाक्टर और वकीलवाला जवाब पाकर वह असली भेदकी बात समझ गये होंगे । लेकिन, वह असली बात क्या है। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आप क्या करते हैं? खैर, इन उदाहरणोंसे कामकी सीख लेकर मै आगे बढ़ा । राहमें एक सदभिप्राय सज्जन मिले जिन्होंने पूछा--- 'आपका शुम नाम ?' 'दयाराम ।' 'आप क्या करते हैं !' 'मैं कायस्थ हूँ, श्रीवास्तव ।' 'जी नहीं, आप करते क्या है ?' 'मै श्रीवास्तव कायस्थ हूँ। पाँच बजे उठा था, छः बजे घूम कर लौटा, फिर...और फिर...' लेकिन, देखता क्या हूँ कि वह सजन तो मुझे बोलता ही हुआ छोड़कर आगे बढ़ गये है, पीछे घूमकर देखना भी नहीं चाहते । मैंने अपना कपाल ठोक लिया। यह तो मै जानता हूँ कि मै मूढ़ हूँ। बिलकुल निकम्मा आदमी हूँ। लेकिन, मेरे श्रीवास्तव होनेमें क्या गलती है ? कोई वकील है, कोई डाक्टर है। मै वकील नहीं हूँ, डाक्टर भी नहीं हूँ। लेकिन, मैं श्रीवास्तव तो हूँ। इस बातकी तसदीक दे और दिला सकता हूँ। अखबार वाले 'दयाराम श्रीवास्तव' छाप कर मेरा श्रीवास्तव होना मानते है । मतलब यह नहीं कि मेरी श्री वास्तव है, न यही कि कोई वास्तव श्री मुझमे है। लेकिन जो मेरे पिता थे वही मेरे पिता थे । और वह मुझे अकाटय रूपसे श्रीवास्तव छोड़ गये हैं। जब यह बात बिलकुल निर्विवाद है तो मेरे श्रीवास्तव होनेकी सत्यताको जानकर नए परिचित वैसे ही आश्वस्त क्यों नहीं होते जैसे किसीके वकील या डाक्टर होनेकी सूचनापर आश्वस्त होते हैं। १२७ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'आप क्या करते हैं?' 'मैं डाक्टर हूँ। 'आप क्या करते है !' 'मैं वकील हूँ।' 'तुम क्या करते हो ! 'मै श्रीवास्तव हूँ।' मैं श्रीवास्तव तो हूँ ही । इसमें रत्ती-भर झूठ नहीं है । फिर, मेरी तरहका जवाब देनेपर वकील और डाक्टर भी बेवकूफ क्यों नही समझे जाते ! वे लोग मेरे जैसे, अर्थात् बेवकूफ़, नहीं है यह तो मैं अच्छी तरह जानता हूँ। तब फिर उनके वकील होनेसे भी अधिक मैं श्रीवास्तव होकर बेवकूफ़ किस बहाने समझ लिया जाता हूँ, यह मैं जानना चाहता हूँ। 'मूर्ख!' एक सद्गुरुने कहा, 'तू कुछ नही समझता । अरे, डाक्टर डाक्टरी करता है, वकील वकालत करता है। तू क्या श्रीवास्तवी करता है।' यह बात तो ठीक है कि मै किसी 'श्री' की कोई 'वास्तवी' नहीं करता । लेकिन, सद्गुरुके ज्ञानसे मुझमें बोध नहीं जागा | मैने कहा, 'जी, मैं कोई श्रीवास्तवी नहीं करता हूँ। लेकिन, वह वकालत क्या है जिसको वकील करता है ! और वह डाक्टरी क्या है जिसको डाक्टर करता है !' 'अरे मूढ़ !' उन्होंने कहा, 'तू यह भी नहीं जानता! अदालत जानता है कि नहीं ? अस्पताल जानता है कि नहीं ?' १२८ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आप क्या करते हैं? 'हाँ', मैने कहा, 'वह तो जानता हूँ।' 'तो बस' गुरूने कहा, 'अदालतमे वकील वकालत करता है । अस्पतालमे डाक्टर डाक्टरी करता है।' 'अजी, तो वकालतको वह 'करता' क्या है ! जैसे मैं खाना खाता हूँ, यानी, खानेको मैं खा लेता हूँ, वैसे वह वकालतको क्या करता है ?' 'अरे तू है मूढ़ ।' उन्होंने कहा, 'सुन, वह अदालतके हाकिमसे बोलता है, बतलाता है, बहस करता है, कानूनी बात निकालता है। कानूनमे फंसे लोगोकी वही तो सार-संभाल करता है !' 'तो यह बात है कि वह बात करता है, बतलाता है, बहस करता है । कानूनकी बात निकालता है, उसके सताए आदमियोकी मदद करता है। लेकिन, आप तो कहते थे कि वह 'वकालत करता है ! वकालतमे बात ही तो करता है ! फिर, 'वकालत' कहाँ हुई :बात हुई । बात तो मैं भी कर रहा हूँ। क्यों जी !' ___ उन्होने झल्लाकर कहा, 'अरे, इस सब कामको ही वकालत कहते हैं।' 'तो वकालत करना, बात करना है । मैं तो सोचता था, न जाने वह क्या है । अच्छा जी, वकालतको करके वह क्या करता है? —यानी, अदालतमें वह बहुत बाते करता है। उन बातोंको करके भी, वह क्या करता है?' ____ उन्होंने कहा, 'रे मतिमंद, तू कुछ नहीं जानता। बातोहीका तो काम है। बात बिना क्या ! वकीलके बातोके ही तो पैसे हैं। उन बातोंसे वह जीता है, और फिर उन्हींसे बड़ा आदमी बनता है।' १२९ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन बातोंको करके वह बड़ा आदमी बनता है, अब मैं समझ गया, जी । लेकिन जो बड़ा नहीं है, आदमी तो वह भी है न-क्यों जी ? मै दिनभर सच-मूठ बात करूँ तो मैं भी बड़ा हो जाऊँ ? और बड़ा न होऊँ, तब भी मैं आदमी रहा कि नहीं रहा ? उन्होंने कहा, 'तू मूढ़ है । बड़ा तू क्या होगा ? तू आदमी भी " नहीं है।' ' लेकिन जी, बात तो मैं भी करता हूँ । अब कर रहा हूँ कि नहीं ? लेकिन, फिर भी मैं अपनेको निकम्मा लगता हूँ। ऐसा क्यों है ? ' 'अरे तू मतलबकी, कामकी बात जो नहीं करता है ! ' " प्रजी, तो बात करनेका काम तो करता हूँ ! यह कम मतलब है ? ' वह बोले, ' अच्छा, जा जा, सिर न खा । तू गधा है। ' अब यह बात तो मै जानता हूँ कि गधा नहीं हूँ । चाहूँ तो भी नहीं हो सकता । गधेकी तरह सींग तो अगर्चे मेरे भी नहीं हैं, लेकिन, इतना मेरा विश्वास मानिए कि यह साम्य होनेपर भी गधा मैं नहीं हूँ। मैं तो दयाराम हूँ। कोई गधा दयाराम होता है ? और मे श्रीवास्तव हूँ, कोई गधा श्रीवास्तव होता है ? वकील - डाक्टर नहीं हूँ, लेकिन श्रीवास्तव तो मै हर वकालत - डाक्टर रीसे अधिक सचाई के साथ हूँ। इसलिए, उन गुरुजनके पाससे मै भले आदमीकी भाँति सिर झुकाकर चला आया । चुपचाप लेकिन, दुनियामें वकील - डाक्टर ही सब नहीं है । यों तो इस 1 दुनियामें हम जैसे लोग भी हैं जिनके पास बतानेको या तो अपना नाम है या बहुत से बहुत कुल गोत्रका परिचय है ! इसके अलावा १३० Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आप क्या करते हैं। . जिन्होंने इस दुनियामें कुछ भी अर्जित नहीं किया है, ऐसे अपने जैसे लोगोकी तो इनमें गिनती क्या कीजिए ! पर सौभाग्य यह है कि ऐसे लोग बहुत नहीं हैं। अधिकतर लोग संभ्रान्त है, गणनीय हैं, और उनके पास बतानेको काफ़ी कुछ रहता है। 'आप क्या करते है !' 'बैकर हूँ। जी हाँ, साहूकार ।' * आप क्या करते हैं !' 'कारोबार होता है । बम्बई, कलकत्ता, हाँगकाँगमें हमारे दफ्तर है।' 'आप क्या करते है?' ' मै एम० ए० पास हूँ। 'आप क्या करते हैं।' 'मैं एम० एल० ए० हूँ, लाट साहबकी कौंसिलका मेंबर ।' 'आप क्या करते है !' 'ओः! आप नहीं जानते ? है, हः हः राजा चंद्रचूसिंह मुझे ही कहते हैं। गोपालपुर,-८६ लाखकी स्टेट, जी हाँ, आपकी ही है।' 'आप क्या करते है !' 'मुझ राजकविसे आप अनभिज्ञ हैं ? मैं कविता करता हूँ।' 'कविता ! उसका क्या करते है !' ' श्रीमान्, मैं कविता करता हूँ। मैं उसीको कर देता हूँ, साहब। और क्या करूँगा?' अत्यन्त हर्षक समाचार हैं कि बहुत लोग बहुत-कुछ करते हैं Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और लगभग सब लोग कुछ न कुछ करते है। लेकिन, मेरी समझ में न बहुत आता है न कुछ आता है । दूकानपर बैठे रहना, गाहकसे मीठी बात करना और पटा लेना, उसकी जेबसे पैसे कुछ ज्यादा ले लेना और अपनी दुकानसे सामान उसे कुछ कम दे देना, व्यापारका यही तो 'करना' है ! इसमे 'किया' क्या गया ! पर क्यो साहब, किया क्यों नहीं गया ! कसकर कमाई जो की ? गई है ! एक साल में तीन लाखका मुनाफा हुआ है, —ध्यापको कुछ पता भी है ! और आप कहते हैं किया नहीं गया ! लेकिन, दयाराम सच कहता है कि, दो रोज़के भूखे अपने समूचे तनको और मनको लेकर भी, उन तीन लाख मुनाफेवालोंका काम उसे समझमे नही आता है । और साहूकार रुपया दे देता है और ब्याज सँभलवा लेता है। — देता है उसी इकट्ठे हुए ब्याजमेंसे । देता कम है, लेता ज्यादा है। इससे वह साहूकार होता जाता है और मोटा होता जाता है 1 अगर वह दे ज्यादा और ले कम, तो क्या हम यह कहेंगे कि उसने काम कम किया ? क्यों ? उसने तो देनेका काम खूब किया है । लेकिन, इस तरह एक दिन आएगा कि वह साहूकार नहीं रहेगा और निकम्मे आदमियोंकी गिनतीमें आ जायगा । - 'तो साहूकारी 'काम' क्या हुआ ? खूब काम करके भी आदमी जब निकम्मा बन सकता है तो उससे तो यही सिद्ध होता है कि साहूकारी अपने आपमें कुछ 'काम' नहीं है । - और राजा, राजकवि, कौसिलर, एम० ए० पास, ये सब जो जो भी है क्या वह वह मेरे अपने श्रीवास्तव होनेसे अधिक है ! मैं श्रीवास्तव १३२ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरोसा अब भी कायम था। ताज्जुब है, क्यों कायम था, क्यों उठ नहीं चुका था । वह बिना पैसा पाये आसानीसे डिब्बा न छोड़ते थे। इस डिब्बेसे वह डिब्बा और फिर अगला डिब्बा और फिर अगला और___ अजब हैरानी तो यह है कि मैं उन्हें देखकर फिर भी देखता ही रह गया । क्यों नहीं उधरकी खिड़की चढ़ाकर मैं अपना अंग्रेजी जासूसी नाविल पढ़ने लगा ! सचमुच ख्याल आता है कि इतनी ज़रा-सी समझ मुझे उस वक्त क्यों न हुई ! नाविल मजेदार था और हिज़ लार्डशिपके कत्लका भेद कुछ इस तरीकेसे खुलता जाता था कि हर लेडीशिप परेशान थीं और अगलब था कि कलमें मुद्दई यानी हर लेडीशिपकी शरकत ही न साबित हो जाय ! नाविलके उस संगीन मामलेको छोड़कर इधर इन वाहियात भिखमंगे लड़के लड़कियोकी बदनसीबी देखनेमें लग जाना सरासर हिमाकत थी, लेकिन फिर भी मै उस तरफ़ क्यों देखता रह गया, यह ताज्जुब है। आखिर वे मेरे डिब्बेके नीचे ही आ खड़े हुए। मैंने झिड़क कर कहा-हटो, हटो! -बाबू, तुम्हारे लड़के-बच्चे जियें ! बाबू, तुम्हें राजपाट मिले। । बाबू, तुम्हारी नौकरी बढ़े ! बाबू, तुम्हें धन मिले ! बाबू, एक पैसा!' मैने कहा-यह सेकिंड क्लास है ! हटो, हटो!! -बाबू , तुम्हारे औलाद-पुत्तर जियें ! बाबू, तुम्हें धन मिले। तुम्हें राज्य मिले ! नौकरी बढ़े ! बाबू, एक पैसा! ___ मैंने झिड़ककर कहा-क्या है ! भीख माँगते शर्म नहीं आती है ! आगे बढ़ो, आगे बढ़ो! १४० Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहानी नहीं इस मॅडमे पीछेकी तरफ़ एक लड़की खड़ी थी। दस वरसकी उसकी उम्र होगी । वह सबसे डरपोक थी, शर्मीली थी और पीछे पीछे रहती थी । वह सबसे दुबली थी और आँखे उसकी सबसे बड़ी थीं। वह मुंहसे कुछ भी नहीं कहती थी, बस आँखोंसे देखकर रह जाती थी। ऐसा मालूम होता था कि एक डिब्बेके सामने खड़े होकर वह किसी एक आदमीपर आँखें गड़ा लेती थी। जब मुड चलता, वह भी चल पड़ती थी। उससे पहले वहाँसे आँख न हटाती थी। मैने देखा, उसकी आँखें मुझपर एक-टक गड़ गई है। इतनेमें अगले, शायद तीसरे दर्जेके, डिब्बेसे किसीने उसी लड़कीको मुखातिब करके एक पैसा पीछेकी तरफ़ फेका । पैसा गिरा, कई बच्चे झपटे । लड़की नज़दीक थी और पैसा भट मपट कर उसने उठा लिया । इतनेमें देखता क्या हूँ कि एक लड़का उसपर झपट पड़ा है और उसकी गत बना कर पैसा उसने छीन लिया है। बाल उसके और फैल गये है, तनपर खरोंच लग गई है, लेकिन लड़की फिर वैसी ही गुम-सुम सूनी आँखोसे मेरे डिब्बेमे मुझे देखती हुई वहीं खड़ी हो गई है! इतनेमे रेल चल दी। पहले तो लड़की खड़ी ही रही, फिर दौड़कर मेरे डिब्बेके पास आ गई और साथ साथ भागने लगी। -बाबू ! एक पैसा! वह साथ साथ भागती रही। प्लेटफार्मका करीब करीब किनारा ही आ गया था। मैंने पैसा निकाला और उसकी तरफ़ फेंक दिया। -जी हाँ, यह बेवकूफ़ी भी की! वह तो, खैर, हुआ, लेकिन सवाल यह है कि मेरी परेशानीका १४१ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सबब क्या है ? यह सही है कि भिखमंगे नहीं होने चाहिए। लेकिन, यह सही क्यों है कि अगर भिखमंगे हैं तो मुझे परेशान होना चाहिए, मेरा क्या जिम्मा है ! मैं तो भिखारी नहीं हूँ। मेरे पास तो पैसा है और मैं तो चैनसे रह सकता हूँ। फिर रहें भिखारी तो रहें। मेरा उनसे क्या सरोकार है ? क्या वास्ता है ? लेकिन, सवाल तो असल यही है कि मैं जानता हूँ, ताहम मै परेशान हूँ। आखिर किस वजहसे परेशान हूँ ! सबब क्या ? अलीगढ़ स्टेशन अब कोसों दूर गया । मै नई दिल्लीकी कोठीमें हूँ। यहाँ बीबी है, बच्चे है, लायब्रेरी है, दोस्त-अहबाब है, सिनेमातमाशे है । तब फिर मेरा दिल आराम क्यों नही पा रहा है? ___ क्या मै समझता हूँ कि मेरा एक पैसा हालातमें कुछ भी फ़र्क डालेगा ! पैसा न देता तो क्या कोई खास ख़राबी हो जाती ! ताहम एक पैसा मैने निकाल फेंका, वह क्यों ? सवाल यही है कि क्यों मै पैसा दे छूटा ? भिखमंगा मेरा कौन था ? कौन है ? किस इख्तियारसे, किस हकसे, वह मेरे दिलके सकूनमें दखलन्दाज़ होता है ! क्यों कर उसे यह जुरअत है ? क्यों वह मेरे दिमागका पीछा करता है ? किसने उसे यह इजाजत दी ? क्यों उन्हें कोई जेलखानेमें बन्द नहीं कर देता ? -मेरी, आँखोंसे दूर रहें। लेकिन, क्या जेलखाने में होकर मुझसे दूर वह हो 'जाएँगे ! हकीकतन, हो जाएँगे ! जी हाँ,-सवाल यह है । यह सवाल बड़ा है और मुझे परेशान कर रहा है। यही मुझमें भरा है और इस वक्त मैं आपकी कहानीवहानी कुछ नहीं जानता। १४२ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थोड़ी देर बाद हरीशने कहा-अच्छा बताओ विमला, मेह कौन बरसाता है ? विमला-बादल बरसाते हैं। हरीश बादल नहीं बरसाते है। विमला-तो कौन बरसाता है ? हरीशने बताया-रामजी बरसाते हैं । उस समय मुझसे रुका न गया और चलता हुआ मै पास पहुँच गया; कहा- कोई भी मेह नहीं बरसाता जी । इतनी देरसे बादल भर रहे हैं। बताओ, कहीं मेह बरस भी रहा है ? (और मैंने विमलाको गोदीमे उठा लिया ) और क्यों जी हरीश बाबू, तुम्हारा रामजी मेह जल्दी क्यो नहीं बरसाता है, क्या बैठा सोच रहा है ! हरीश लजा गया और विमला भी लजा गई। पंडितजीकी कथा सुनकर मुझे वह बालकोंवाला रामजी याद आ गया । पंडितजीवाले रामचन्द्रजी, जो बाकायदा दशरथके पुत्र है और जो निश्चित घड़ीमें जन्म लेते हैं, क्या वही है जो बालकोंका मेह बरसाते है ! दशरथके पुत्र रामचन्द्रजी तो पंडितजीकी पंडिताईके मालूम हुए । बादलोके ऊपर, आसमानके भी ऊपर, सभी कुछके ऊपर, फिर भी सब कहीं जो एक अनिश्चित आकार-प्रकारके रामजी रहा करते है, मेह तो वह बरसाते है । वह रामजी पंडिताईके नहीं, वह तो बालकोके बालकपनके ही दीखते है । मै सोचने लगा कि पंडितका पाण्डित्य क्या सचमुच बच्चेके बचपनसे गम्भीर सत्य नहीं है ? बालकका रामजी, जिसका उसे कुछ भी ठीक अता-पता नहीं है, उन राजा रामचन्द्रसे, जिनका रत्ती रत्ती १५० Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राम-कथा - ब्यौरा पंडितजीको मालूम है, क्या कभी जीत सकेगा ! क्या बालक बालक और पण्डित महान् नहीं है ! लेकिन वहाँ बैठे बैठे मुझे प्रतीत हुआ कि दशरथके पुत्रवाले रामचन्द्रमें, जो कि पण्डितकी व्याख्याओंमे प्रत्यक्षतः अधिकाधिक ठोस होते जा रहे है, मेरे मनको उतनी प्रीति नहीं प्राप्त होती है जितनी बच्चोके 'रामजी' में। बच्चोंका रामजी, कुछ हो, मुझे प्यारा तो मालूम होता है। तमी पण्डितजीकी ओर मेरी निगाह गई । उन्होंने मुखपर हाथ फेरा, केशोंको तनिक संवारा, शिखा ठीक की, किंचित् स्मितसे मुस्कराये और अत्यन्त सुरीली वाणीमें तनिक अतिरिक्त मिठासके साथ ताल-लयके अनुसार रामायणकी चौपाई गा उठे। उनके निर्दोष गायन और पाण्डित्य-पूर्ण वक्तृत्त्वसे प्रभावित होकर मै सोचने लगा कि क्या सचमुच इस समय पंडितजीके निकट अपना वाणी-विलास, अपना वाक्-कौशल, अपनी ही सत्ता दशरथपुत्रकी सत्तासे अधिक प्रमुख और अधिक प्रलोभनीय नहीं है। मुझको ऐसा लगा कि उन पुण्यश्लोक रामचन्द्रको तो मै माने या न भी मानें; पर उनकी कथाको लेकर इन पंडितजीके मुँहसे अविराम निकलती हुई सुललित वाग्धाराको तो मुझे प्रामाण्य मानना ही होगा, कुछ ऐसा जादू पंडितजीमें था। मुझे प्रतीत हुआ कि राम-कथा साधन है, साध्य तो रामकथाका सुमिष्ट वाचन है। राम तो राम थे वह कमी रहे होंग; पर आज तो देखो, यह पंडितजी उस कथाका कैसा सुन्दर पारायण करते है ! कहो, पण्डितजी श्लाघनीय नहीं है ! मुझको वे बच्चे याद हो आये जो रामजीकी यादमे जैसे सुध-बुध बिसार बैठे थे। उनके लिए रामजी चाहे कितना ही अरूप-अव्यक्त ऐसा जादू पंडिनाराको तो मुझे प्राक मुँहसे अविराम मानें; Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो; पर वह था । उस नामपर वे उत्साहित हो सकते थे, या चुप हो सकते थे। था तो वह बालकोंका बचपन ही, पर फिर भी वह बचपन उनका भाग था । 'राम'-यह मात्र शब्दके लिए न था, इससे कुछ बहुत अधिक था, बहुत अधिक था। ___ पण्डितजीके दशरथ-पुत्र रामचन्द्र भी क्या वैसे उनके निकट हैं ! मुझे जानना चाहिए कि वह रामचन्द्र अधिक स-इतिहास है, उनका नाम-धाम, पिता-माता, सगे-सम्बन्धी, तिथि-ब्यौरा, उनके बारेका सब कुछ यह पण्डितजी जानते हैं । वह रामचन्द्रजी आवश्यक-रूपमें अधिक प्रमाण-युक्त, शरीर-युक्त, तर्क-युक्त हैं। उनके सम्बन्धमें कम प्रश्न किये जा सकते हैं और लगभग सब प्रश्नोंका उत्तर पंडितजीसे पाया जा सकता है। लेकिन, क्या इसी कारण वह रामचंद्र पंडितजीसे दूर और अलग नहीं बन गये हैं ? रामचन्द्र दशरथके पुत्र थे, पर पण्डितजी अपने पिताके पुत्र है। इसलिए रामचन्द्रजी जो रहे हों रहें, पण्डितजी तो पण्डित ही रहेंगे। हाँ, राम-कथा करना उनका काम हो गया है, सो बड़े सुन्दर दंगसे वे उस कथाको कहेंगे । तदुपरांत, रामचन्द्र अलग वह अलग । उनका जीवन अपना जीवन है । वे जीवनका कोई भाग रामचन्द्र (के आदर्श ) के हाथमे क्यों देगे ? यह सोचते सोचते मैने देखा कि राम-कथा-स्नेहसे भीगी पण्डितजीकी तल्लीन दृष्टि असावधान और कर्म-कठोर पुरुष-वर्गकी ओरसे हटकर, रह-रहकर, धर्म-प्राण भक्ति-प्रवण अबलाओंकी ओर अधिक आशा-भावसे बँध जाती है। १५२ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राम-कथा मुझे मालूम हुआ कि मै पण्डितजीके रामचन्द्रको छोड़कर बालको के रामजीकी ओर इस समय उठकर तनिक चला जाऊँ तो यह मर्यादा पुरुषोत्तम रामचन्द्रका अपमान शायद न होगा । मैं उठा । इतनेमे पड़ोसी सज्जन लपककर पास आये, बोलेबैठिए बैठिए, बाबूजी । मैंने कहा - मै जाऊँगा जरा.... सज्जनने हाथ जोड़कर कहा— जाइएगा ? आपने बड़ी कृपा की। लीजिए, यह प्रसाद तो लेते जाइए । मैने प्रसाद लिया और चला आया । www १५३ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जरूरी भेदाभेद भेद एसोसिएशनका सदस्य तो मै नहीं हूँ, सदस्य कहींका भी नहीं हूँ, पर एक मित्र सदस्य हैं, उनकी वजहसे कभी कभी यहाँ श्रा जाता हूँ। एसोसिएशनको ज्ञात हुआ है कि मै विलायत गया हूँ, अँगरेज़ी बोल लेता हूँ, अतः मेरी उपस्थिति उन्हें अप्रिय नहीं होती। यही क्यों, कुछ लोगोंसे वहाँ बेतकल्लुफी भी हो गई है। एक हैं लाला महेश्वरनाथजी । बहुत जिन्दादिल आदमी हैं। वकील हैं, और अच्छे बड़े वकील है । जायदाद भी है । अध्ययनशील है और नये विचारोके प्रशंसक हैं । सार्वजनिक सेवाके कामोंमें अच्छा योग देते रहते हैं। दिल खोलकर मिलते और बात करते है। मै उनसे प्रभावित हूँ। आज बीचमें मसला सोशलिज्मका था और वैठक सरगर्म थी। महेश्वरजीको सोशलिज्मका कायल होनेसे कोई बचाव नहीं दीखता। उन्हें अचरज है कि कोई आदमी ईमानदार होकर सोशलिज्मको माने बिना कैसे रह सकता है ! यह सच्ची बात है, कोई जबरदस्ती सच्चाईसे आँख मीचना चाहे तो वात दूसरी; पर सोशलिज्म उजालेके समान साफ है । हम और आप उसके समर्थक हो सकते है, चाहें तो विरोधी हो सकते हैं । पर हमारे समर्थन और विरोधकी गिनती क्या है ! सोशलिज्म युग-सत्य है, वह युग-धर्म है। ___मै इस तरहकी बातोंके वीचमें कुछ विमूढ़ बन जाता हूँ,-सत्य क्या है, यह मैं नहीं जानता । और जब कोई निर्धान्त होकर सामने १५४ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जरूरी भदभदे ससम्भ्रम उसके कि वही सत्य कह सकते कहता है कि सत्य अमुक और अमुक है, तब मै चेहरेकी ओर देखकर सोच उठता हूँ 'क्या पता है हो । तुम स्वयं तो कुछ जानते हो नहीं, तब यही कैसे हो कि वह सत्य नहीं है ! 9 महेश्वरजी कहते रहे कि "जी हाँ, सोशलिज्म युग-धर्म है । मनुष्य व्यक्ति बनकर समाप्त नहीं है । वह समाजका अङ्ग है । समाज व्यक्तिस बड़ी सत्ता है । व्यक्तिगत परिभाषा खड़ी करके आदमी अपनेको बाँध लेता है, कहता है, 'यह मेरी चीज, मेरी जायदाद ! ' इस तरह जितने व्यक्ति हैं उतने असंख्य स्वार्थ खड़े होते है । उन स्वार्थोंमें संघर्ष होता है और फलतः क्लेश उत्पन्न होता है। मनुष्य के कर्ममेंसे और कर्म-फलमे से उसका, यानी एक व्यक्तिका, स्वत्व-भाव उठ जाना चाहिए। एक संस्था हो जो समाजकी प्रतिनिधि हो, जिसमे समस्त केन्द्रित हो, एक सोशलिस्ट स्टेट । वह संस्था स्वत्वाधिकारी हो, --- व्यक्ति समाज-संस्थाके हाथमे हो, वह साधन हो, सेवक हो । और 1 स्टेट (यानी वह संस्था ) ही मूल व्यवसायोंकी मालिक हो, उपादानोकी भी मालिक हो, भूमिकी भी मालिक हो और फिर पैदावारकी भी मालिक वही हो । व्यक्तिको आपाधापी न करने दी जाय ।-~~-देखिए न आज एक दास है दूसरा प्रभु है। एक क्यों, जब दस दास हैं तब एक प्रभु है। लड़ाइयाँ होती है, कमी देश-प्रेम और दायित्व - रक्षाके नामपर होती हैं पर असल में वे लड़ाइयाँ प्रमुखोंके स्वार्थो मे होती है और उन्हींके पोषण के लिए होती है । उन युद्धोमें हजारों-लाखो आदमी मरते है। पर उन लाखोंकी मौत उनको मोटा बनाती है जो युद्धके असली कारण होते है । यह हालत व्यक्ति१५५ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वातन्त्र्यसे पैदा हुई है । मनुष्य पशु है, वह एक सामाजिक पशु है, नैतिक पशु है, या और कुछ चाहे कहिए, पर वह है सतन् पशु । समाजका शासन उसपर अनिवार्य है । स्वत्व सब समाजमें रहें, व्यक्ति निस्वत्व हो । व्यक्तिका धर्म ध्यात्म-दान है, उसका स्वत्व कुछ नहीं है । उसका कर्त्तव्य सेवा है । आज इसी जीवन-नीतिके श्राधारपर समाजकी रचना खड़ी करनी होगी । सोशलिज्म यही कहता है और उसके औचित्यका खंडन नहीं किया जा सकता । " महेश्वरजीसे सहमत होनेके लिए मेरे पास अवकाश नहीं है पर उनकी-सी दृढ़ता भी मुझमें नहीं है और न उतनी साफ साफ बातें मुझे दीख पाती हैं । यह मैं जानता हूँ कि मानव पशु है, फिर भी मन इसपर सन्तुष्ट नहीं होता कि वह पशु ही है। पशु हो, पर मानवं भी क्या वह नहीं है ? और महेश्वरजीकी ओर सस्पृह - सम्भ्रमके साथ देखता रह जाता हूँ । "" याप कुछ कहिए, लेकिन मैं तो सोलह याने इस चीज़में बँध गया हूँ। आप जानते हैं, मेरे पास जायदाद है। लेकिन मै जानता हूँ वह मेरी नहीं है। मैं प्रतीक्षामें हूँ कि कब स्थिति बदले और एक समर्थ और सदाशय सोशलिस्ट स्टेट इस सबको अपने जिम्मे ले ले । मैं खुशी से इसके लिए तैयार होऊँगा । सोशलाइज़ेशन हुए बिना उपाय नहीं। यों उलझनें बढ़ती ही जायँगीं । श्राप देखिए, मेरे दस मकान हैं, मैं अकेला हूँ। मैं उन सब दस मकानों में कैसे रह सकता हूँ ? यह बिलकुल नामुमकिन है । फिर यह चीज़ कि वे दस मकान मेरे हैं, कहीं न कहीं झूठ हो जाती है, ग़लत हो जाती है । जब यह मुमकिन नहीं है कि मैं दस मकानोंमें रह सकूँ, तब यह भी १५६ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जरूरी भेदाभेद नामुमकिन है कि वे दस मकान मेरे हो । किन्तु, यही असम्भवता आजका सबसे ठोस सत्य बनी हुई है । मै कहता हूँ यह रोग है, मैं कहता हूँ यह झूठ है। लेकिन सोशलिस्ट स्टेट आनेमे दिन लग सकते हैं, तब तक मुझे यह बर्दाश्त ही करते रहना होगा कि वे दसो मकान मेरे हों और मैं उन्हे अपना मानें -यद्यपि मैं अपने मनमे जानता हूँ कि वे मकान मुझसे ज्यादा उनके है जो अपनेको किरायेदार समझते हैं और जिन्हे उनकी जरूरत है।" इस स्थलपर एकाएक रुककर मेरी ओर मुखातिब होकर उन्होंने कहा-क्यो कैलाश बाबू ? __ शायद मैने ऊपर नहीं कहा कि जिस मकानमें मै रहता हूँ वह महेश्वरनाथजीका है । मैं उनके प्रश्नका कुछ उत्तर नही दे सका। __ उन्होने फिर पूछा-क्यो कैलाश बाबू , आप क्या कहते है ! सोशलिज्ममे ही क्या समाजके रोगका इलाज नहीं है ! हमारी राजनीतिके लिए क्या वही सिद्धान्त दिशा-दर्शक नहीं होना चाहिए ! हम कैसी समाज-रचना चाहते है, कैसी सरकार चाहते है, मनुष्योके आपसी सम्बन्धोंके कैसे नियामक चाहते है ! आप तो लिखा भी करते है, बताइए क्या कहते है ! __मै लिखता तो हूँ, पर छोटी छोटी बातें लिखता हूँ। बड़ी बातें बड़ी मालूम होती है। लेखक होकर जानते जानते मैंने यह जाना है कि मैं बड़ा नही हूँ, विद्वान् नहीं हूँ । बड़ी बातोंमें मेरा वश नही है। कहते हैं, लेखक विचारक होता है। मालूम तो मुझे भी कुछ ऐसा होता है। पर मेरी विचारकता छोटी छोटी बातोंसे १५७ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुझे छुट्टी नहीं लेने देती । मैंने कहा-मैं इस बारेमें क्या कह सकता हूँ। महेश्वरजीने सहास प्रसन्नतासे कहा-वाह, पाप नहीं कह सकते तो कौन कह सकता है! ___ मैंने कहा-मुझे मालूम नहीं। मैने अभी सोशलिज्मपर पूरा साहित्य नहीं पढ़ा है । पाँच-सात किताबें पढ़ी हैं। और सोशलिज्मपर साहित्य है इतना कि उसे पढ़नेके लिए एक ज़िन्दगी काफी नहीं है। तब मै इस जिन्दगीमें उसके बारेमें क्या कह सकता हूँ ! महेश्वरजीने कहा-भाई, बड़े चतुर हो! बचना कोई तुमसे सीखे। पर मुझे जब इस तरह अपनी ही हारपर चतुराईका श्रेय दिया जाता है, तब मैं लज्जासे ढंक जाता हूँ। लगता है कि मेरी अज्ञानता कहीं उनके व्यङ्गका विषय तो नहीं हो रही है। मैंने कहा-नहीं, बचनेकी तो बात नहींमहेश्वरजी बोले-तो क्या बात है, कहिए न । अपनी कठिनाई जतलाते हुए मैंने कहा कि जब मैं समाजकी समस्यापर विचारना चाहता हूँ, तभी अपनेको ठेलकर यह विचार सामने आ खड़ा होता है कि समाजकी समस्याके विचारसे मेरा क्या सम्बन्ध है । तब मुझे मालूम होता है कि सम्बन्ध तो है, और वह सम्बन्ध बड़ा घनिष्ठ है । वास्तवमें मेरी अपनी ही समस्या समाजकी भी समस्या है। वे दोनों भिन्न नहीं है। व्यक्तिका व्यापक रूप .समाज है । पर चूकि मैं व्यक्ति हूँ, इसलिए समस्याका निदान और समाधान मुझे मूल-व्यक्तिकी परिभाषामें खोजना और पाना अधिक उपयुक्त और सम्भव मालूम होता है। इस भाँति, बात मेरे लिए १५८ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जरूरी भेदाभेद हवाई और शास्त्रीय कम हो जाती है और वह कुछ अधिक निकट, मानवीय और जीवित बन जाती है। मेरे लिए एक सवाल यह भी है कि मुझे रोटी मिले । मिलनेपर फिर सवाल होता है कि सममें, कैसे मिली ! इसी सवालके साथ लगा चला आता है पैसेका सवाल। वह पैसा काफी या और ज़्यादा क्यों नहीं आया ? या कैसे आये ! क्यों आये ? वह कहाँसे चलकर मुझतक आता है ? क्यो वह पैसा एक जगह जाकर इकट्ठा होता है और दूसरी जगह पहुँचता ही नहीं ? यह पैसा है क्या ?-ये और इस तरहके और और सवाल खड़े होते है । इन सब सवालोंके अस्तित्वकी सार्थकता तभी है जब कि मूल प्रश्नसे उनका नाता जुड़ा रहे । यह मैं आपको बताऊँ कि शङ्काकी प्रवृत्ति मुगमे खूब है । शङ्कामोके प्रत्युत्तरमे ही मेरा लेखन-कार्य सम्भव होता है। तब यह तो आप न समझिए कि मैं बहुत तृप्त और सन्तुष्ट जीवन जीता हूँ। लेकिन, सोशलिज्मके मामलेमे दखल देनेके लिए ऐसा मालूम होता है कि मुझे विचारकसे अधिक विद्वान् होना चाहिए । विद्वान् मै नहीं हो पाता । किताबें मै पढ़ता हूँ, फिर भी वे मुझे विद्वान् नहीं बनातीं । मेरे साथ तो रोग यह लग गया है कि अतीतको मै आजके सम्बन्धकी अपेक्षामें देखना चाहता हूँ, भविष्यका सम्बन्ध भी आजसे बिठा लेना चाहता हूँ और विद्याको जीवनपर कसते रहना चाहता हूँ। इसमें, बहुत-से अतीत और बहुत से स्वप्न और बहुत-सी विद्यासे मुझे हाथ धोना पड़ता है। यह दयनीय हो सकता है और मै कह सकता हूँ कि आप मुझे मुझपर छोड़ दे । सोशलिज्मका मैं कृतज्ञ हूँ, उससे मुझे व्यायाम मिलता है । वह अच्छे वार्तालापकी चीज़ है । लेकिन आज और १५९ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 इस क्षण मुझे क्या और कैसा होना चाहिए, इसकी कोई सूझ इस 'इज्म' में से मुझे प्राप्त नहीं होती। मुझे मालूम होता है कि मैं जो कुछ हूँ, सोशलिस्टिक स्टेटकी प्रतीक्षा करता हुआ वही बना रह सकता हूँ और अपना सोशलिज्म अखण्ड भी रख सकता हूँ । तब मैं उसके बारेमें क्या कह सकूँ ? क्योंकि मेरा क्षेत्र तो परिमित है न ? सोशलिज्म एक विचारका प्रतीक है । विचार शक्ति है । वह शक्ति किन्तु 'इज्म' की नहीं है, उसको माननेवाले लोगोंकी सचाई की वह शक्ति है । लोगोंको जयजयकारके लिए एक पुकार चाहिए । किन्तु पुकारका वह शब्द मुख्य उत्साह है । उसीके कारण शब्दमें सत्यता आती है। सोशलिज्मका विधान वैसा ही है, जैसा झण्डेका कपड़ा । झण्डेको सत्य बनानेवाला कपड़ा नहीं है, शहीदोका खून है । सोशलिज्मकी सफलता यदि हुई है, हो रही है, या होगी, वह नहीं निर्भर है इस बातपर कि सोशलिज्म अन्ततः क्या है और क्या नहीं है, प्रत्युत् वह सफलता अवलम्बित है इसपर कि सोशलिस्ट अपने जीवनमें अपने मन्तव्योंके साथ कितना अभिन्न और तल्लीन है और कितना वह निस्स्वार्थ है । और अपने निजकी और आजकी दृष्टिसे, अर्थात् शुद्ध व्यवहारकी दृष्टिसे, यह सोशल - इज़्म मुझे अपने लिए इतना वादमय, इतना हटा हुआ और अशास्त्रीय - सा तत्त्व ज्ञात होता है कि मुझे उसमें तल्लीनता नहीं मिलती । और मै क्या कहूँ ? धर्मसे बड़ी शक्ति मै नहीं जानता । पर जीवनसे कटकर जब वह एक मतवाद और पन्थका रूप धरता है, तब वही निर्वार्यताका बहाना और १६० Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जरूरी भेदाभेद पाखण्डका गढ़ बन जाता है। सोशलिज्मको आरम्भसे ही एक वाद बनाया जा रहा है, यह सोशलिज्म के लिए ही भयङ्कर है। महेश्वरजीने कहा- आप तो मिस्टिक हुए जा रहे हैं कैलाश बाबू, पर इससे दुनियाका काम नही चलता। आप शायद वह चाहते है जो साथ साथ दूसरी दुनिया को भी सँभाले । I हाँ, मैं वह चाहता हूँ जिससे सभी कुछ सँभले । जिससे समग्रतामें जीवनका हल हो । मुझे जीवन-नीति चाहिए, समाज अथवा राजनीति नहीं । वह जीवन-नीति ही फिर समाजकी अपेक्षा राज-नीति बन जायगी । जीवन एक है, उसमे खाने नहीं है । जैसे कि व्यक्तिका वह सॅमलना गलत है जो कि समाजको बिगाड़ता है, उसी तरह दुनियाका वह सँभलना गलत है जिसमे दूसरी दुनिया ( अगर वह हो, तो उस ) के बिगड़नेका डर है । आदमी करोड़पति हो, यह उसकी सिद्धि नहीं है । वह सम्पूर्णतः परार्थ - तत्पर हो, यही उसकी सफलता है । इसी तरह दुनियाकी सिद्धि दुनियबीपनकी अतिशयतामे नहीं है, वह किसी और बड़ी सत्तासे सम्बन्धित है । - आपका मतलब धर्मसे है ? हॉ, वह भी मेरा मतलब है । - लेकिन आप सोशलिज्म के खिलाफ तो नहीं है ? नहीं, खिलाफ नही हूँ। लेकिन बस इतना ही चाहिए । 'लेकिन' फिर देखेंगेयह कहकर महेश्वरजीने तनिक मुसकराकर चारों ओर देखा और फिर सामने रखे एक भागसे भरे गिलासको उठाकर वह दूसरी ओर चले गये। मैं बैठा देखता रह गया और फिर.... ११ -- -- १६१ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभेद रात ... सब सो गये है और समानमें तारे घिरे है। मै उनकी ओर देखता हुआ जागता हॅू। नींद आती ही नहीं। मेरा मन उन तारोंको देखकर विस्मय, स्नेह और अज्ञानसे भरा आता है। वे तारे हैं, छोटी छोटी चमकती बुन्दियोंके से कैसे प्यारे प्यारे तारे ! पर उनमेसे हरएक अपने में एक विश्व है। वे कितने है ! कुछ पार नहीं, कुछ भी अन्त नहीं । कितनी दूर है ? – कोई पता नहीं । हिसाबकी पहुँचसे बाहर, वे नन्हें नन्हें झिप झिप चमक रहे हैं । उनके तले कल्पना स्तब्ध हो जाती है। स्वर्णके चूर्णसे छाया, शान्त, सुन्न, सहास्य कैसा यह ब्रह्माण्ड है ! — एकान्त, अछोर, फिर भी कैसा निकट, कैसा स्वगत !... मुझे नींद नहीं आती और मै उसे नहीं बुलाना चाहता । चाहता हूँ, यह सब तारे मुझे मिल जायँ । वे मुझमें प्रा जायँ । मुझसे बाहर कुछ भी न रहे । सब कुछ मुझमें हो रहे, और मैं उनमें । मैं अपने को बहुत छोटा लगता हूँ, बहुत छोटा । - बिलकुल बिन्दु, एक जरी, एक शून्य । और इस समय जितना मै अपनेको शून्य अनुभव करता हूँ, उतना ही मेरा मन भरता आता है। जाने कैसे, मैं अपनेको उतना ही बड़ा होता हुआ पाता हूँ। जैसे जीके भीतर आह्लाद भरा जाता हो, उमड़ा श्राता हो। मुझे रहा है कि मैं कुछ भी नहीं हूँ। जो हूँ, समस्तकी गोदमें हूँ; और हूँ, तो बस इस ज्ञानके आनन्दके लिए हूँ कि सब है, सबमें मैं हूँ। मुझे मालूम होता है कि मेरी सीमाएँ मिट गई हैं, मै खोया जा रहा हूँ, मिला जा रहा हूँ। मालूम होता है, एक गम्भीर मानन्द... बड़ा अच्छा लग १६२ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जरूरी भेदाभेद तारे उस नीले शून्यमें गहरेसे गहरे पैठे हैं । जहाँतक नीलिमा है, वहाँ तक वे है । यह स्वर्ण- करणोसे भरा नीला नीला क्या है ? आकाश क्या है ? समय क्या है ? मै क्या हूँ ? - पर जो हो, मै आनन्दमें हूँ । इस समय तो मेरी अज्ञानता ही सबसे बड़ा ज्ञान है । मैं कुछ नहीं जानता, यही मेरी स्वतन्त्रता है । ज्ञानका बन्धन मुझे नहीं चाहिए, नहीं चाहिए । तारोका अर्थ मुझे नहीं चाहिए, नहीं चाहिए। मुझे उनका तारा-पन ही सब है, वही बस है । मैं उन्हें तारे ही समझँगा, तारे बनाकर मै उनमें अपनापन, अपना मन भिगोये रखता हूँ । मुझे नहीं चाहिए कोई ज्ञान । उस समस्तके आगे तो मै बस इतना ही चाहता हूँ कि मै सारे रोम खोलकर प्रस्तुत हो रहूँ। चारों ओर अपनेको छोड़ दूँ और भीतरसे अपनेको रिक्त कर दूँ कि यह निस्सीमता, यह समस्तता बिना बाधाके मुझे छुए और मेरे भीतर भर जाय । लोग सो रहे है । रात बीत रही है। मुझे नींद नहीं है । और लोग भी होंगे, जिन्हें नींद न होगी । वे राजा भी हो सकते है, रङ्क भी हो सकते हैं। अरे राजा क्या, रङ्क क्या ! नींदके सामने कोई क्या है ? किसकी नींदको कौन रोक सकता है ! आदमी अपनी नींदको आप ही रोक सकता है। दुनियामें भेद - विभेद है, नियम कानून हैं । पर भेद - विभेद कितने ही हो, नियम-कानून कैसे ही हो, रात रात है । जो नहीं सोते वे नहीं सोते, पर रात सबको सुलाती है । सब भेद-प्रभेद भी सो जाते है, नियम-कानून भी सो जाते हैं । रातमें रङ्ककी नींद राजा नहीं छीनेगा और राजाकी नींद भी रङ्ककी नींदसे प्यारी नहीं हो सकेगी। नींद सबको बराबर 1 १६३ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समझेगी, वह सबको बराबरीमे हुवा देगी। नींदमें फिर स्वप्न आयेगे और वे, मनुष्यकी वाधा मिटाकर, उसे जहाँ वह चाहें, ले जायेंगे । रातको जब आदमी सोयेगा, तव प्रकृति उसे थपकेगी । आदमी दिन-भर अपने बीचमें खड़े किये विभेदोके झगड़ोंसे झगड़कर जब हारेगा और हारकर सोयेगा, तब उसकी बन्द पलकोपर प्रकृति स्वप्न लहरायेगी । उन स्वप्नोंमे रङ्क सोनेके महलोंमे वास करे तो कोई राजा उसे रोकने नहीं आयेगा । वह वहाँ सब सुख -सम्भोग पायेगा । राजा अगर उन स्वप्नोंमे सङ्कटके मुँहमें पड़ेगा और क्लेश भोगेगा तो कोई चाटुकार उसे इससे बचा नहीं सकेगा । राजा, अपनी आत्माको लेकर, मात्र स्वयं होकर ही अपनी नींद पायेगा । तब वह है और उसके भीतरका अव्यक्त है । तव वह राजा कहाँ है ? — मात्र वेचारा 1 है । इसी प्रकार नींदमे वह रङ्क भी मात्र अपनी यात्माके सम्मुख हो रहेगा । तब वह है और उसमे सन्निहित व्यक्त है । तब वह बेचारा कहाँ रङ्क है ! वह तब प्रकृत रूपमे जो है, वही है।. उस रात्रिकी निस्तब्धतामे, प्रकाशके महाशून्यमे और प्रकृतिकी चौकसीमें अपनी मानवीय अस्मिताको खोकर, सौंपकर मानव, शिशु बनकर, सो जाता है। पर फिर दिन ध्याता है। तब आदमी कहता है कि वह जाग्रत् है । वह कहता है कि तब वह सावधान है । और जाग्रत् और सावधान बनकर वह मानव कहता है कि मानवतामें श्रेणियाँ है, भेद तो मिथ्या स्वप्न था, सार अथवा सत्य तो भेद है। तव वह कहता है कि मैं चेतन उतना नहीं हूं, जितना राजा हूँ अथवा रक हूँ । स्वप्नसे हमारा काम नहीं चलेगा, काम ज्ञानसे चलेगा । ज्ञानका सच्चा नाम विज्ञान है । और वह विज्ञान यह है कि 1 १६४ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जरूरी भेदाभेद मैया तो गरीब हूँ या अमीर हूँ । दिनमे क्या अब उसने आँखें नही खोल ली है ? दिनमें क्या वह चीजोंको अधिक नहीं पहचानता है ? दिन रातकी तरह अँधेरा नही है; वह उजला है । तारे अँधेरेका सत्य हो, पर जाप्रत् अवस्थामे क्या वे झूठ नहीं है ! देखो न, कैसे दिनके उजालेमे भाग छिपे है ! जाग्रत् दिनके सत्यको कौन त्याग सकता है ? वही अचल सत्य है, वही ठोस सत्य है । और वह सत्य यह है कि तारे नही है, हम है । हमी है और हम जाग्रत् है । और सामने हमारे हमारी समस्याएँ है । अतः मनुष्य कर्म करेगा, वह युद्ध करेगा, वह तर्क करेगा, वह जानेगा । नीद ग़लत है और स्वम भ्रम है | यह दुःखप्रद है कि मानव सोता है और सोना अमानवता है। अँधेरी रात क्या गलत ही नहीं है कि जिसका सहारा लेकर आसमान तारोंसे चमक जाता है, और दुनिया धुंधली हो जाती है ? हमे चारों ओर धूप चाहिए, धूप जिससे हमारे आसपासका छुट- बड़पन चमक उठे और दूरकी सब आसमानी व्यर्थता लुप्त हो जाय । मैं जानता हूँ, यह ठीक है । ठीक ही कैसे नहीं है ? लेकिन क्या यह भूल भी नहीं है ? और भूलपर स्थापित होनेसे क्या सर्वथा भूल ही नहीं है ? क्या यह ग़लत है कि नींदसे हम ताजा होते हैं और दिन-भरकी हमारी थकान खो जाती है ? क्या यह गलत है कि हम प्रभातमे जब जीतने और जीनेके लिए उद्यत होते है, तब सन्ध्यानन्तर नींद चाहते है ? क्या यह नहीं हो सकता कि स्वप्नोंमें हम अपनी थकान खोते है, और फिर उन्हीं स्वप्मोकी राह अपने ताजगी भी भरते है ? क्या यह नहीं हो सकता कि दिनमे हम व्यक्तके साथ इतने जड़ित और अव्यक्तके प्रति इतने जड़ होते है कि रातमें अव्यक्त, १६५ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्तको शून्य बनाकर, स्वयं प्रस्फुटित होता है और इस भाँति हमारे जीवनके भीतरकी समताको स्थिर रखता है ! क्या यह भी नहीं हो सकता कि हम स्वप्नमें विभेदको तिरस्कृत करके अभेदका पान करते और, उसीके परिणाममें, उठकर विभेदसे युद्ध करनेमें अधिक समर्थ होते है ? क्या यह नहीं हो सकता कि रातपर दिन निर्भर है, और रात न हो तो दिन दूभर हो जाय ? क्या यह नहीं है कि विभेद तब तक असत्य है, असम्भव है, जब तक अभेद उसमें व्याप्त न हो ! क्या___ पर, रात बीत रही है, और मेरी आँखोंमें नीद नहीं है । ओः, यह समस्त क्या है? मै क्या हूँ! मै कुछ नहीं जानता, मैं कुछ नहीं जानूंगा । मै सब हूँ। सबमें हूँ। तभी कहीं घण्टा बजा-ए-क । जैसे अँधेरेमें गूंज गया, ए-एक । मैं उस गूंजको सुनता हुआ रह गया । पूँज धीमे धीमे विलीन हो गई, और सन्नाटा फिर वैसे ही सुन्न हो गया । मैंने कहा'एक !' मैने दोहराया—' एक, एक, एक । ' मैने दोहराना जारी रक्खा और नींद कुछ मेरी ओर उतरने लगी । अब मै सोऊँगा । मैं सोऊँगा । बाहर अनेकताके बीच एक बनकर स्थिर शान्तिसे क्यों न मैं सो जाऊँगा ! मै चाहने लगा, मैं सोऊँ । पर तारे हँसते थे और हँसते थे, और मेरी आँखोमें नींद धीमे ही धीमे उतरकर आ रही थी। दिनके साढ़े दस बजे होगे । मै मेजपर बैठा था तभी मुंशीजी आये । लाला महेश्वरनाथजीकी जो शहरके इधर-उधर और कई Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जरूरी भेदाभेद तरफ फैली हुई जायदाद है, उस सबकी देख-भाल इन मुंशीजीपर है। मुंशीजी बड़े कर्म-ज्यस्त और संक्षिप्त शब्दोंके आदमी है। विनयशील बहुत है, बहुत लिहाज रखते हैं। पर कर्तव्यके समय तत्पर हैं। ___ मुंशीजीने कहा- मुझे माफ कीजिएगा । ओः, मैने हर्ज किया ! पर हाँ,-वह, यह तीसरा महीना है। आप चेक कब भिजवा दीजिएगा ? रायसाहब कहते थे बात यह है कि पिछले दो माहका किराया मैंने नहीं दिया । दिया क्या नहीं, दे नहीं पाया। मैने मुंशीजीकी ओर देखा । मुझे यह अनुग्रह कष्टकर हुआ कि मुंशीजी अब भी अपनी विनम्रता और विनयशीलताको अपने काबूमें किये हुए है । वह धमकाकर भी तो कह सकते है कि लाइए साहब, किराया दीजिए। यह क्या अधिक अनुकूल न हो। यह सोचता हुआ मैं फिर अपने सामने मेजपर लिखे जाते हुए कागजोंको देखने लगा। मुंशीजीने कहा- मेरे लिए क्या हुकुम है ! पर मेरी समझमें न आया कि उनके लिए क्या हुक्म हो । अगर (मैंने सोचा ) इनकी जगह खुद (रायसाहब ) महेश्वरजी होते, तो उनसे कहता कि किरायेकी बात तो फिर पीछे देखिएगा, इस समय तो आइए सुनिए कि मैने इस लेखमें क्या लिखा है। महेश्वरजीको साहित्यमें रस है और वह विचारवान् है, विचारवानसे आशय यह नहीं कि किराया लेना उन्हे छोड़ देना चाहिए । अभिप्राय यह, कि वह अवश्य ऐसे व्यक्ति है कि किरायेकी-सी छोटी बातोंको पीछे रखकर १६७ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह सैद्धान्तिक गहरी वातोपर पहले विचार करें । लेकिन, इन मुंशीजीको मैं क्या कहूँ? क्या मैंने देखा नहीं कि किरायेकी वातपर सदा यह मुंशीजी ही सामने हुए हैं, और रायसाहबसे जब जब साक्षात् होता है, तब इस प्रकारकी तुच्छता उनके आस पास भी नहीं देखनेमें आती और वह गम्भीर मानसिक और आध्यात्मिक चर्चा ही करते है। हुक्मकी प्रार्थना और प्रतीक्षा करते हुए मुंशीजीको सामने रहने देकर मैं कुछ और जरूरी बातें सोचने लगा। मैने सोचा कि मैं जानता हूँ कि मुझे काम करना चाहिए और मैं काम करता हूँ। सात घण्टे हर एकको काम करना चाहिए । मै साढ़े सात घण्टे करता हूँ। जो काम करता हूँ वह उपयोगी है। वह बहुत उपयोगी है। वह काम समाजका एक जरूरी और बड़ी जिम्मेदारीका काम है। क्या मैं स्वार्थ-बुद्धिसे काम करता हूँ? नहीं, स्वार्थ-भावनासे नही करता । क्या मेरे कामकी बाजार-दर इतनी नहीं है कि मै जरूरी हवा, जरूरी प्रकाश और जरूरी खुराक पाकर जरूरी कुनबा और जरूरी सामाजिकता और जरूरी टिमागियत निवाह सकें ! शायद नहीं । पर ऐसा क्यों नहीं है ! और ऐसा नहीं है, तो इसमें मेरा क्या अपराध है? अपने कामको मैंने व्यापारका रूप नहीं दिया है । आजका व्यापार शोपण है। मैं शोपक नहीं होना चाहता। __ इसी दुनिया, पर दूसरी जगह, मेरे जैसे कामकी बहुत कीमत और कदर भी है । मेरे पास अगर मकान नहीं है और मकानमें १६८ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जरूरी भेदाभेद रहनेका एवज देनेके लिए काफी पैसा नहीं है, तो इसका दोष किस भॉति मुझमे है, यह मै जानना चाहता हूँ। __मै जानना चाहता हूँ कि समाज जब कि मेरी तारीफ भी करता है, तो जीवन और जीवनके जरूरी उपादानोसे मैं वञ्चित किस प्रकार रक्खा जा रहा हूँ ! मैं जानना चाहता हूँ कि अगर मकानका किराया होना जरूरी है, तो यह भी जरूरी क्यों नहीं है कि वह रुपया मेरे पास प्रस्तुत रहे? वह रुपया कहाँसे चलकर मेरे पास आवे, और वह क्यों नहीं आता है ! और, यदि वह नहीं आता है, तो क्यो यह मेरे लिए चिन्ताका विषय बना दिया जाना चाहिए और किस नैतिक आधारपर यह मुंशीजी सरकारसे फरियाद कर सकते है कि मै अभियोगी ठहराया जाऊँ और सरकारी जज बिना मनोवेदनाके कैसे मुझे अभियुक्त ठहराकर मेरे खिलाफ डिग्री दे सकता है ! और समाज भी क्यो मुझे दोषी समझनेको उद्यत है ! क्या इन रुपयोंके बिना महेश्वरजीका कोई काम अटका है ! इन किरायेके रुपयोपर उनका हक़ बनने और कायम रहनेमे कैसे आया? रुपया उपयोगितामें जाना चाहिए कि विलासितामे ! वह समाज और सरकार क्या है जो रुपयेके बहावको विलाससे मोड़कर उपयोगकी ओर नहीं ढालती ? ___ क्या कभी मैने महेश्वरजीसे कहा कि वह मुझे मात्र रहने दें? क्यों वह मुझसे किराया लेते है!-न लें। ___ नहीं कहा तो क्यों नहीं कहा ? क्या यह कहना जरूरी नहीं है !....लेकिन, क्या यह कहना ठीक है ? १६९ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मै अगर इस चीजसे इनकार कर दूँ और फल भुगतनेको प्रस्तुत हो जाऊँ, तो इसमें क्या अनीति है ? क्या यह प्रयुक्त हो !..... इतनेमे मुंशीजी ने कहा कि उनको और भी काम हैं । मैं जल्दी 1 फरमा दूँ कि चेक ठीक किस रोज भेज दिया जायगा । ठीक तारीख मैं फरमा दूँ जिससे कि— ( मैने सोचा ) यह मुंशीजी इतने जोरके साथ अपनी विनय आखिर किस भाँति और किस वास्ते थामे हुए है ? प्रतीत होता है कि अब उनकी विनयकी वाणीमे कुछ कुछ उनके सरकारानुमोदित अधिकार- गर्वकी सव्यङ्ग मिठास भी आ मिली है । मैंने कहा न, 1 कि मुंशीजी बहुत भले आदमी है। यह अच्छी तरह जानते हुए भी कि पैसेके वकील और सरकार के सवेतन कर्मचारियोंके बलसे वह मेरा लोटा-थाली कुर्क करा सकते है, यह जानते हुए भी (-या, ही) वह विनय- लज्जित है । मै जानता हूँ कि कर्तव्यके समय वह कटिबद्ध भी दीखेंगे, फिर भी मेरा उनमें इतना विश्वास है कि मै कह सकता हूँ कि उस समय भी अपनी लज्जाको और अपने तकल्लुफको वह छोड़ेंगे नहीं । इसीका नाम वजेदारी है । I मैंने कहा - मुंशी साहब, आपको तकलीफ हुई । लेकिन अभी 1 । तो मेरे पास कुछ नहीं है । - तो कब तक भिजबा दीजिएगा ? मैंने कहा— आप ही बताइए कि ठीक ठीक मैं क्या कह सकता हूँ । बोले तो ? 'तो' का मेरे पास क्या जवाब था । मैंने चाहा कि हँसूँ । १७० Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जरूरी भेदाभेद उन्होंने कहा कि रायसाहबने फरमाया था कि मै इत्तला दूं कि बहुत दिन हो गये है । न हो तो, और मकान देख लें।। मैने हँसकर कहा-और मकान ! लेकिन किराया तो वहाँ भी देना होगा न ? मुश्किल तो वही है। मुंशीजी सहानुभूतिके साथ मेरी ओर देखते रह गये।। मैने उन्हें देखकर कहा-खैर, जल्दी ही में किराया मिजवा दूंगा। -~-जी हाँ, जल्दी भिजवा दीजिएगा । और आयन्दासे तीस तारीख तक भिजवा दे तो अच्छा । रायसाहबने कहा था मैंने कहा- अच्छा मुंशीजी फिर आदाब बजा लाकर चले गये । उनके चले जानेपर . मैंने पुनः अपने लेखकी ओर ध्यान किया जो लाजिमी तौरपर .. जबर्दस्त लेख होनेवाला था। १७१ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपयोगिता शायद चौथी क्लासमें आकर अंग्रेजीकी पहली किताबके पहले सबकमें हमने पढ़ा-'परमात्मा दयालु है । उसने हमारे पीनेके लिए पानी बनाया, जीनेके लिए हवा, खानेके लिए फल-मेवा, आदि आदि।' पढ़कर वह सीधी तरह हमें पचा नहीं । हम भोले नहीं थे। बच्चे तो थे, पर बुद्धिमान् किसीसे कम नहीं थे। पूछा-क्यों मास्टरजी, सब कुछ ईश्वरने बनाया है ! । मास्टरजी बोले-~-नहीं तो क्या ? जहाँ हम पढ़ते थे वहाँ हवा आधुनिक थी। बालकोंमे स्वतंत्र बुद्धि जागे, यह लक्ष्य था। हमने कहा-तो उस ईश्वरको किसने बनाया है ? और उस ईश्वरने कहाँ बैठकर किस तारीखको यह सब कुछ बनाया है ! मास्टरजीने कहा-पढ़ो पढ़ो । वाहियत बातें मत करो। जी हाँ, वाहियात वात ! पहलीमें नहीं, दूसरीमें नहीं, तीसरीमें नहीं, चौथी क्लासमें हम थे । हमें धोखा देना आसान न था। और कुछ जाने न जानें, इतना तो जानते ही थे कि ईश्वर वहम है । यह भी जानते थे कि ईश्वरने सभ्यताका बहुत नुकसान किया है । वह पाखंड है । उससे छुट्टी मिलनी चाहिए । सो, उस सबकपर हमने मास्टरजीको चुप करके ही छोड़ा । मास्टरजीकी एक भी बात हमारे ' १७२ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ on आँखोंसे और स्थूल वुद्धिसे यह बात इतनी सहज सत्य मालूम होती है कि जैसे अन्यथा कुछ हो ही नहीं सकता । अगर कुछ प्रत्यक्ष सत्य है तो यह ही है। पर आज हम जानते हैं कि यह वात यथार्थ नहीं है । जो यथार्थ है उसे हम तभी पा सकते हैं जब अपनेको विश्वके केंद्र माननेसे हम ऊँचे उठे ।-अपनेको मानकर भी किसी भाँति अपनेको न मानना आरंभ करें। सृष्टि हमारे निमित्त है, यह धारणा अप्राकृतिक नहीं है। पर उस धारणापर अटक कर कल्पनाहीन प्राणी ही रह सकता है । मानव अन्य प्राणियोंकी भॉति कल्पनाशून्य प्राणी नहीं है। मानवको तो यह जानना ही होगा कि सृष्टिका हेतु हममें निहित नहीं है। हम स्वयं सृष्टिका भाग हैं । हम नहीं थे, पर सृष्टि थी। हम नहीं रहेंगे, पर सृष्टि रहेगी। सृष्टिके साथ और सृष्टिके पदार्थोके साथ हमारा सच्चा संबंध क्या है ? क्या हो? मेरी प्रतीति है कि प्रयोजन और 'युटिलिटी' शब्दसे जिस संबंधका बोध होता है वह सच्चा नहीं है। वह काम-चलाऊ भर है। वह परिमित है, कृत्रिम है और बंधनकारक है। उससे कोई किसीको पा नहीं सकता। सच्चा संबंध प्रेमका, भ्रातृत्वका और आनन्दका है । इसी संबंधों पूर्णता है, उपलब्धि है और श्राह्लाद है; न यहाँ किसीको किसीकी अपेक्षा है, न उपेक्षा है । यह प्रसन्न, उदात्त, समभावका संबंध है। पानी हमारे पीनेके लिए वना है, हवा जीनेके लिए, आदि. १८० Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपयोगिता कथन शिथिल दृष्टिकोणका है। अतः यह कथन पक्ष सत्य ही है। ऊँचे उठकर उसकी सचाई चुक जाती है और वह असत्य हो सकता है । हमारे लौकिक ज्ञान-विज्ञान - शास्त्र जबतक इस 'युटिलिटी' ( = उपयोगिता ) की धारणापर खड़े है तबतक मानना चाहिए कि वे ढहकर गिर भी सकते है । उनकी नींव गहरी नहीं गई । वे शास्त्र अभी सामयिक है और शाश्वतका उनको आधार नही है । पानी हमारे पीनेके लिए बना है, यह कहना पानीकी अपनी सचाईको बहुत परिमित कर देना है। इसका अर्थ यह है कि जबतक मुझे प्यास न हो तबतक पानी निरर्थक है । अपनी प्यासके द्वारा ही यदि हम पानीको ग्रहण करते हैं तो हम पानीको नही पाते, सिर्फ अपनी प्यास बुझाते है । पानीकी यथार्थता तक पहुँचनेके लिए यह आवश्यक है कि हम अपनी प्यास बुझानेकी लालसा और ग़रज़की आँखोंसे पानीको न देखें, उससे कुछ ऊँचा नाता पानीके साथ स्थापित करे । जिसने पानीके संबंध में किसी नवीन सचाईका आविष्कार किया, जिसने उस पानीको अधिक उपलब्ध किया और कराया, वह व्यक्ति प्यासा न रहा होगा । पानीके साथ उसका संबंध अधिक आत्मीय और स्नेह - स्निग्ध रहा होगा । वह पानीका ठेकेदार न होगा । वह उसका साधक और शोधक रहा होगा । जिस व्यक्तिने जाना और बताया कि पानी H2O ( = दो भाग हाइड्रोजन, एक भाग आक्सीजन ) है उसने हमसे ज्यादा पानीकी उस सचाईको प्राप्त किया है । यहकह कर और यहीं १८१ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रुक कर कि पानी हमारे पीनेके लिए बना है, हम उसकी भीतरी सचाईको ( उसकी आत्माको ) पानेसे अपनेको वंचित ही करते है। स्पष्ट है कि पानीको H,0 रूपमें देखने और दिखानेवाला व्यक्ति पीनेके वक्त उस पानीको पीता भी होगा। पर कहनेका मतलब यह है कि उस पदाथके साथ उस आविष्कर्ताका सम्बन्ध मात्र प्रयोजनका नहीं था, कुछ ऊँचे स्तरपर था। प्रयोजनका माप हमारा अपना है । हम सीमित है, बहुत सीमित हैं, परंतु विश्व वैसा और उतना सीमित नहीं है । इसलिए, विश्वको अपने प्रयोजनों के मापसे मापना आस्मानको अपने हाथकी बिलादसे नापने जैसा है। पर सच यह है कि हम करें भी क्या ? नापनेका माप हमारे पास अपनी बिलाँद ही है । तिसपर नापनेकी तबीयतसे भी हमारा छुटकारा नहीं है । नाप-जोख किये बिना हमारे मनको चैन नहीं । नाप नाप कर ही हम बढ़ेगे । एकाएक मापहीन अकूल अनंतमें , पहुँच भी जाये तो वहाँ टिकेंगे कैसे ? बेशक यह ठीक है । नाप नाप कर बढ़ना ही एक उपाय है। हमारे पास लोटा है तो लोटे-भर पानी कुएँसे खींच ले और अपना काम चलावें । ध्यान तो बस इतना रखना है कि न आस्मान बिलाँद जितना है, न कुएंका पानी लोटा-भर है। -बिलाँदमे आस्मानको म पकड़ें, न लोटेमें कुएको समेटें! प्रयोजन होना गलत नहीं है। दुनिया प्रयोजन नहीं रखेंगे तो शायद हमें रोटी मिलनेकी नौबत न आयगी । पर प्रयोजनके १८२ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपयोगिता हाथो सचाई हाथ आनेवाली नहीं है, यह बात पक्के तौरपर जान लेनी चाहिए । जो कुछ है उसकी गर्दनपर अपने प्रयोजनका जूआ जा चढ़ानेसे हमारी उन्नतिकी गाड़ी नहीं खिंचेगी। जीवन ऐसे समृद्ध न होगा । साहित्यको, कलाको, धर्मको, ईश्वरको, सब कुछको प्रयोजनमें जाननेकी चेष्टा निष्फल है। यह नहीं कि वे निष्प्रयोजन हैं पर श्राशय यह कि उन सत्योंकी सचाई प्रयोजनातीत है । लोक- कर्ममें इस तथ्यको श्रोझल करके चलने से हम ख़तरे में पड़ सकते हैं। पर मनुष्यका धन्य भाग्य यह है कि उसकी मूर्खताकी क्षमता भी परिमित है। हमारे समाजमें साठ वर्षसे ऊपरके वृद्धोंकी उपयोगिता कितनी है ? अगर वह तौलमे उतनी मूल्यवान् नहीं है कि जितना उनके पालनमे व्यय हो जाता हो, तो क्या यह निर्णय किया जा सकता है कि उन सबको एक ही दिन आरामके साथ समाप्त करके स्वर्ग खाना कर दिया जाय ? समाज-व्यवस्थाका हिसाब-किताब शायद दिखावे कि इस भाँति इंतज़ाममें सुविधा और सफाई होगी पर यह नहीं किया जा सका और न किया जा सकता है । यदि अब तक कही यह नही किया जा सका तो निष्कर्ष यह है कि उपयोगिताशास्त्र फिर अपनी उपयोगितामें किसी महत्तत्त्वका प्रार्थी है। एक बार एक प्रामिष भोजनके प्रचारकने निरुत्तर कर देनेवाली बात सुनाई। उन्होने कहा कि अगर बकरे खाए न जायँ तो बताइए उनका क्या किया जाय ? कोई उपयोग तो उनका है नहीं । तिसपर वे इतने बहुतायत से पैदा होते और इतने बहुतायतसे बढ़ते हैं कि १८३ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अगर उन्हें बढ़ने दिया जाय तो वे आदमीकी जिन्दगीको असंभव बना दे । फिर बढ़कर या तो वे भूखे मरे, जो कि निर्दयता होगी, नही तो वे दुनियाकी खाद्य सामग्रीको खुद खा-खाकर पूरा कर देंगे और फूलते जायेंगे । ऐसे दुनियाका काम कैसे चल सकता है ! इसलिए, मांस खाना लाज़िम है। __यह लाज़िम होनेकी बात वह जानें। लेकिन, मानव-प्राणियों के प्रति दयाई होकर वकरोंको खा जाना होगा, यह बात मेरी समझमें नहीं आई। पर उनकी दलीलका उत्तर क्या होगा ? उत्तर न भी बने, पर यह निश्चित है कि वह दलील सही नहीं है, क्योंकि उसका परिणाम अशुद्ध है। मानव-तर्क अपूर्ण है और मैं कभी नहीं समझता कि उस तलके तोके आधारपर आमिष अथवा निरामिष भोजनका प्रचार-प्रतिपादन हो सकता है। 'अहं' को केंद्र और औचित्य-प्रदाता मानकर चलनेमें बड़ी भूल यह है कि हम बिसार देते है कि दूसरेमें भी किसी प्रकारका अपना 'अहं' हो सकता है। हम अपनी इच्छाओंका दूसरेपर आरोप करते हैं और जब इसमें अकृतार्थ होते हैं तो झीकते-झल्लाते है । असलमें यह हमारा एक तरहका बचपन ही है । हमारा मन रखनेके लिए तमाम सृष्टिकी रचना नहीं हुई है और हम अपना मन सब जगह अटकाते है !--ऐसे दुख न उपजे तो क्या हो ! छुटपनकी बात है । तब हमने पाठशालामें सीखा ही सीखा था कि धरती नारंगीके माफ़िक गोल है । सोचा करते थे कि इस तरह तो अमरीका हमारे पैरोंके नीचे है और हमको बड़ा अचरज होता था कि अमरीकाके लोग उल्टे कैसे चलते होंगे ? वे गिर क्यों नहीं Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपयोगिता पड़ते ? क्योकि वे धरतीपर पैरोके बल खड़े थोड़े ही हो सकते हैं, वे तो मानों धरतीसे नीचेकी और अधर लटके हुए हैं । उस समय हम अपनेको बड़ा भाग्यशाली मानते थे कि हम भारत-भूमिमे पैदा हुए, अमरीकामे पैदा नही हुए, नहीं तो उल्टे लटके रहना पड़ता ! आज भी जाने-अनजाने हममेसे बहुतोंका वही हाल है। जिन धारणाओंको पकड़ कर हम खड़े है, हमे जान पड़ता है कि सच्ची सचाई वहीं है, शेष सबके हाथों बस झूठ ही झूठ आकर रह गया है । पर जैसे कि ऊपर उदाहरणमें ऊँच-नीचकी हमारी भ्रान्त कल्पना ही हमारी परेशानीका कारण थी वैसे ही अन्य हमारी अहंकृत कल्पनाएँ हमारे वैर-विरोधका कारण होती है । स ऊपरके चित्रमें ३ को पृथ्वीका केंद्र मानिए। अ, ब, स और द उस पृथिवीपर चार अलग बिन्दुओपर खड़े हुए चार व्यक्ति है । क्या वे अपनी अपनी जगहपर किसी तरह भी ऊँचे-नीचे या कमअधिक है ? असलमें उनका अपनी ऊँच-नीचकी धारणाके हिसाबसे १८५ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरेको नापना बिलकुल गलत होगा। जिस धरतीपर वे खड़े हैं उसका केद्र (अंतरात्मा ) ३ है। उनकी सब प्रतीतियाँ, सव गतियाँ अन्ततः अपनी सिद्धिके लिए उस ३ विन्दुकी अपेक्षा रखती हैं । वह ३ विन्दु सबसे समान दूरीपर है । वह सबको एक-सा प्राप्य अथवा अप्राप्य है। सब प्रकारका भेद उस केंद्र-विन्दु ३ में जाकर लय हो जाता है । वहाँसे आगे कोई दिशा नहीं जाती । सब दिशाएँ वहाँसे चलती है और वहीं समाप्त होती है। अ३ स अपने आपमें कोई रेखा नहीं है । कोई दिशा या कोई ऐसी रेखा नही हो सकती जिसके एक सिरेपर वह (जीवनका) केंद्र-विन्दु विराजमान् न हो। इसलिए अ ३ स चाहे एक सीधी रेखा दीख पड़ती हो, पर वह भ्रांति है;-वैसा है नहीं। वृत्तकी परिधिपरके सब विन्दु माध्याकर्पणद्वारा ३ के प्रति आकृष्ट हैं । उस आकर्पणके ऐक्यके कारण ही पृथ्वी थमी हुई है। ३ सबका स्रोत-बिन्दु है, समस्तका अन्तरात्मा है । वहॉ जाकर किसीकी भिन्न सत्ता नहीं रहती। इस प्रकार अ और स इन दो बिन्दुओंसे प्रतिकूल दिशाओं में चलनेवाली दोनों रेखाएँ ३ में ही गिरती हैं । और वे दोनों असलमें प्रतिकूल भी नहीं है, दोनों अनुकूल हैं, क्योंकि दोनों अपने केंद्रकी ओर चल रही है। __चित्रसे प्रकट है कि किस प्रकार अ, व, स और द अपने अपने विशिष्ट विन्दुओं (अहं) को केंद्र मान लें तो उन व्यक्तियों का जीवन भ्रान्त ही हो जायगा और उस जीवनको कोई दिशा न प्राप्त होगी। हमारे लौकिक शास्त्र और लौकिक कर्म बहुधा इसी अहं-चक्रमें पड़कर विफल हो जाते हैं। अपने घरके घड़ेके पानीमे जो हम १८६ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपयोगिता श्रस्मानका अक्स देखते है उसीको आस्मान और उतनेहीको श्रस्मानका परिणाम मान लेते है । अगर हम यह भूल न करें तो उस आस्मानके प्रतिबिंबसे बहुत लाभ उठा सकते है । पर अक्सर इतनी समझ हमें नहीं होती और हम अपना अलाभ अधिक कर डालते है । यह भी विचारना चाहिए कि हमारे घरके घड़ेमें प्रतिबिम्बित होना आस्मानकी सार्थकता नहीं है । उसकी सत्ताका हेतु यह नहीं है । अपने विम्ब धारण करना तो उस घड़ेका पानीका गुणविशेष है । उतना ही आकाशका धर्म और अर्थ मान बैठना उस महारहस्यमय आकाशसे प्राप्त हो सकनेवाले अगाध आनन्दसे अपनेको वंचित कर लेना है । दूसरे शब्दोमे, वह मानवकी महान् मूर्खता है । पर इस अनंत शून्याकाशको में बाँधकर रक्खूँ, तो कहाँ ? देखूँ, तो कैसे ? – आँखें वहाँ ठहरती ही नहीं। वह अति गूढ़ है, अति शून्य है । अपने घड़ेके भीतरके उस प्रतिविम्बमे मै बिना कंपनके झाँक तो सकता हॅू। यह नील धवल महाशून्याकाश, नहीं तो, मुझसे देखा नहीं जाता, जाना नही जाता । कैसे मानूँ कि मै बहुत अकेला हूँ, बहुत छोटा हूँ । वह असीम है, वारापार उसका कहाँ है ? और मैं उसे देखूँ क्यों नहीं ? इसलिए, मै उसे अपने घटके शांत पानीमे ही उतार कर देखूँगा । मैं ज़रूर वही करूँ । वही एक गति है और वही उपयोगिताकी उपयोगिता है । इससे आगे उपयोगिताको दौड़ाना अपनी सवारीके टट्टूको १८७ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हवामें भगाना है। ऐसे, टट्टू मुंहके बल गिरेगा और सवारकी भी खैर नहीं है। दिल्ली नगरमें बच्चोंके लिए दूधकी ज़रूरत है और सावनमें ये चादल फिर भी पानी ही बरसाते हैं ! आकाश सूना खड़ा है, क्यों नहीं गुच्छेके गुच्छे अंगूर टपका देता है ! हमें ज़रूरत अंगूरोंकी है और आकाश निरुपयोगी भावसे बेहयाईके साथ कोराका कोरा खड़ा है ! ये बादल और आस्मान दोनों निकम्मे हैं । उनसे कोई वास्ता मत रक्खो । जो उनसे सरोकार रखते है उनका वायकाट कर दो । ये तारे, रातमें चमकनेवाली यह दूधिया आकाश-गंगा, वह वीली चोटियाँ, वह मचलती हवा, वह प्रातः सायं क्षितिजसे लगकर बिखर रहनेवाले रंग-बिरंगे रंग, ये सब वृथा हैं। हमको पैसेकी सख्त ज़रूरत है, रोटीकी वेहद भूख है। और इन सब चीजोसे न रोटी मिलती है, न कौड़ी हाथ आती है। वे अनुपयोगी हैं । मत देखो उनकी तरफ | इंकार कर दो उन्हें । उनसे समाजका क्या लाभ ? और हम हिसाब-बहीमें लाभ चाहते हैं, लाम ! ___ तो ऐसी पुकार, कहना होगा कि, निरी बौखलाहट है। वह उपयोगिताकी भयंकर अनुपयोगिता है। २८८ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवसायका सत्य एक रोज एक भेदने मुझे पकड़ लिया। बात यों हुई। मै एक मित्रके साथ बाज़ार गया था। मित्रने बाजारमें कोई डेढ़ सौ रुपये खर्च किये । सो तो हुआ, लेकिन जब घर आकर उन्होंने अपना हिसाब लिखा और खर्च-खाते सिर्फ पाँच रुपये ही लिखे गये, तब मैंने कहा, 'यह क्या ?' बोले, 'बाकी रुपया खर्च थोड़े हुआ है। वह तो इन्वेस्टमेण्ट है।' इन्वेस्टमेण्ट ! यानी खर्च होकर भी वह खर्च नहीं है। कुछ और है। खर्च और इस दूसरी वस्तुके अन्तरके सम्बन्धमें कुछ तो अर्थकी झलक साधारणतः मेरे मनमें रहा करती है, पर उस वक्त जैसे एक प्रश्न मुझे देखता हुआ सामने खड़ा हो गया। जान पड़ा कि समझना चाहिए कि खर्च तो क्या, और 'इन्वेस्टमेण्ट' क्या? क्या विशेषता होनेसे खर्च खर्च न रहकर यह 'इन्वेस्टमेण्ट' हो जाता है ! उसी भेदको यहाँ समझकर देखना है और उसे तनिक जीवनकी परिभाषामे भी फैलाकर देखेंगे। रुपया कभी जमकर बैठनेके लिए नहीं है। वह प्रवाही है। अगर वह चले नहीं तो निकम्मा है। अपने इस निरन्तर भ्रमणमे वह कहींकहीसे चलता हुआ हमारे पास आता है। हमारे पाससे कही और चला जायगा। जीवन प्रगतिशील है, और रुपयेका गुण भी गतिशीलता है। रुपयेके इस प्रवाही गुणके कारण यह तो असम्भव है कि हम उसे रोक रक्खे । पहले कुछ लोग धनको ज़मीनमे गाड़ देते थे । गड़ा Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुआ धन वैसा ही मुर्दा है जैसे गड़ा हुआ आदमी । वह बीज नहीं है कि धरतीमें गड़कर उगे। गाइनेसे रुपयेकी आब बिगड़ जाती है, फिर भी, उसमे प्रत्युत्पादनकी शक्ति है बीजसे कहीं अधिक,यद्यपि वह भिन्न प्रकारकी उत्पादन शक्ति है । उस शक्तिको कुण्ठित करनेसे आदमी समाजका अलाम करता है। खैर, रुपयेको गाड़कर निकम्मा बना देने या उसे कैदखानेमें बन्दी करके डाल देनेकी प्रवृत्ति अब कम है। रुपया वह है कि जमा रहने-भरसे सूद लाता है। सूद वह इसलिए लाता है कि कुछ और लोग उस रुपयेको गति-शील रखते हैं, वे उससे मुनाफा उठाते है। उसी गति-शीलताके मुनाफेका कुछ हिस्सा सूद कहलाता है। रुपया गतिशील होनेसे ही जीवनोपयोगी है। वह हस्तान्तरित होता रहता है। वह हाथमें आता है तो हाथसे निकलकर जायगा भी। अगर हमारे जीवनको बढ़ना है तो उस रुपयेको भी व्यय होते रहना है। लोकन उस व्ययमें हमने ऊपर देखा कि कुछ तो मात्र 'व्यय है, कुछ आगे बढ़कर 'पूँजी हो जाता है,-'इन्वेस्टमेण्ट' हो जाता है। समझना होगा कि सो कैसे हो जाता है! कल्पना कीजिए कि दिवाली आनेवाली है और अपनी अपनी माँसे राम और श्यामको एक-एक रुपया मिला है। राम अपने रुपयेके कुछ खिलौने, कुछ तसवीरें और कुछ फुलझड़ी वगैरह ले आया है । श्याम अपने बारह आनेकी तो ऐसी ही चीजें लेता है पर चार आनेके वह रङ्गीन पतले कागज लेता है। उसने शहरमें कन्दील बिकते देखे हैं। उसके पिताने घरमें पिछले साल एक कन्दील Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवसायका सत्य बनाया भी था। श्यामने सोचा है कि वह भी कन्दील बनायेगा और बनाकर उन्हे बाजारमें बेचने जायगा। सोचता है कि देखे, क्या होता है। ____रामने कहा-श्याम, यह कागज तुमने क्या लिये है ? इसके बदलेमे वह मेम-साहबवाला खिलौना ले लो न, कैसा अच्छा लगता है। श्यामने कहा-नहीं, मै कागज ही लूँगा। रामने अपने हाथके मेम-साहबवाले खिलौनेको गौरवपूर्ण भावसे देखा और तनिक सदय भावसे श्यामको देखकर कहा- अच्छा। __रामने श्यामकी इस कार्रवाईको नासमझी ही समझा है। रामके चेहरेपर प्रसन्नता है और उसने मेम-साहबवाले अपने खिलौनेको विशिष्ट रूपसे सामने कर लिया है। __रामके घरमे सब लोग खिलौनोंसे खुश हुए है। उसके बाद वे खिलौने टूट-फटके लिए लापरवाहीसे छोड़ दिये गये है। उसी भाँति फुलझड़ियों से जलते वक्त भाँति-भाँतिकी रंगीन चिनगारियाँ छूटी है । जलकर फिर फुलझड़ियाँ समाप्त हो गई है। उधर यही सब श्यामके घर भी हुआ है । पर इसके बाद श्याम अपने रंगीन कागजोंको लेकर मेहनतके साथ उसके कन्दील बनानेमें लग गया है। ___ यहाँ स्पष्ट है कि श्यामके उन चार आनोंका खर्च खर्च नहीं है, वह पूँजी (= investment ) है। अब कल्पना कीजिए कि श्यामकी बनाई हुई कन्दीलें चार आनेसे ज्यादहकी नहीं बिकीं। कुछ कागज खराब गये, कुछ बनानेमें Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खूबसूरती नहीं आई। हो सकता था कि वे चार आनेसे भी कमकी बिकतीं । अच्छी साफ बनतीं तो मुमकिन था, ज्यादहकी भी बिक सकती थी। फिर भी, कल्पना यही की जाय कि वह चार ही आनेकी बिकी और श्याम उन चार आनोंके फिर खील-बताशे लेकर घर पहुँच गया। .. इस उदाहरणमें हम देख सकते हैं कि रामको दिये गये एक रुपयेने उतना चक्कर नहीं काटा। श्यामके रुपयेने जरा ज्यादह चक्कर काटा । यद्यपि अन्तमें श्यामका रुपया भी, सोलह आनेका ही रहा और इस बीच श्यामने कुछ मेहनत भी उठाई। रामका रुपया भी बिना मेहनतके सोलह आनेका रहा । फिर भी, दोनोके सोलह आनेके रुपयेकी उपयोगितामें अन्तर है। वह अन्तर श्यामके पक्षमें है और वह अन्तर यह है कि जब रामने उसके सोलहों आने खर्च किये थे, तब श्यामने उसमेंके चार आने खर्च नहीं किये थे, बल्कि लगाये थे। उस लगाने का मतलब यही कि उसको लेकर श्यामने कुछ मेहनत भी की थी और रुपयेका मूल्य अपनी मेहनत जोड़कर उसने कुछ बढ़ा दिया था। हम कह सकते है कि श्यामने रामसे अधिक बुद्धिमानीका काम किया और श्याम रामसे होनहार है। मान लो, कि उसकी कन्दीले धेलेकी भी नहीं बिक सकी; फिर भी, यही कहना होगा कि श्याम रामसे समझदार है। उसने स्वयं घाटेमें रहकर भी रुपयेका अधिक मूल्य उठाया। प्रत्येक व्यय एक प्रकारकी प्राप्ति है। हम रुपये देते हैं तो कुछ और चीज़ पाते हैं। ऐसा हो नहीं सकता कि हम दे और लें नहीं। और कुछ नहीं, तो यह गर्व और सम्मान ही हम लेते हैं कि हम १९२ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवसायका सत्य कुछ ले नहीं रहे है। बिना हमें कुछ प्रति-फल दिये जब रुपया चला जाता है, तब हमें बहुत कष्ट होता है। रुपया खो गया, इसके यही माने है कि उसके जानेका प्रतिदान हमने नहीं पाया । जब रुपया गिर जाता है, चोरी चला जाता है, डूब जाता है, तब हमको बड़ी चोट लगती है। एक पैसा भी, बिना प्रतिदानमें हमे कुछ दिये, हमारी जेबसे यदि चला जाय तो उससे हमें दुःख होता है। यो, चाहे हजारों हम उड़ा दें। उस उड़ा देनेमें दरअसल हम उस उड़ानेका आनन्द तो पा रहे होते है। इस भाँति प्रतिफलके बिना कोई व्यय असम्भव है। किन्तु, प्रतिफलके रूपमे और उसके अनुपातमें तर-तमता होती है । और उसी तर-तमताके आधारपर कुछ व्यय अपव्यय और कुछ और व्यय 'इन्वेस्टमेण्ट' हो जाता है। ' ऊपर श्यामका और रामका उदाहरण दिया गया । श्यामने अपने रुपयेमेसे चार आनेका प्रतिफल जान-बूझकर अपनेसे दूर बना लिया। उस प्रतिफल और अपने चार आनेके व्ययके बीचमे उसने कन्दील ' बनाने और उसे बाजारमे जाकर बेचने आदि श्रमके लिए जगह बना छोड़ी। इसीलिए, वह चार आनेका 'इन्वेस्टमेण्ट' कहा गया और श्यामको बुद्धिमान् समझा गया। परिणाम निकला, प्रत्येक खर्च वास्तवमे पूंजी है यदि उस व्ययके प्रतिफलमें कुछ फासला हो और उस फासलेके बीचमें मनुष्यका श्रम हो । इसीको दूसरे शब्दोंमे यह कह सकते हैं कि मनुष्य और उसके व्ययके प्रतिफलके बीचमें आकाक्षाकी सङ्कीर्णता न हो। अपनी तुरन्तकी अभिलाषाको तृप्त करनेके लिए जो व्यय है, वह उतना ही Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोरा व्यय अथवा अपव्यय है और उतना ही कम अर्जनीय, इन्वेस्टमेंट अथवा सद्व्यय है । अर्थात् प्रतिफलकी दृष्टिसे अपने व्ययमें जितनी दूरका हमारा नाता है, उतना ही उस व्ययको हम अर्जनीय या इन्वेस्टमेण्टका रूप देते हैं। इस बात से अगले परिणामपर पहुँचे, इससे पहले यह जरूरी है कि इसको ही खुलासा करके समझें । हमारे पास रुपया है, जो कि हमारे पास रहनेके लिए नहीं है। वह अपने चक्करपर है । हमारे पास वह इसलिए है कि हमारी जरूरतोंको मिटाने में साधन बनने के बाद हममें अतिरिक्त स्फूर्ति डालने और हमें श्रम प्रवृत्त करनेमे सहयोगी बने । हम जीये और कार्य करें। इस जीवन - कार्यकी प्रक्रियामें ही रुपयेकी गतिशीलता घटित और सार्थक होती है। स्पष्ट है कि रुपया असल अर्थमें किसीका नहीं हो सकता । वह चाँदीका है । वह प्रतीक है । उसका बँधा मान है । वह एक निश्चित सामर्थ्यका द्योतक है। सामर्थ्य, याने इनर्जी (energy)। जब तक वह रुपया इनर्जीका उत्पादक है, तभी तक वह ठीक है। जब इनर्जी उससे नहीं ली जाती, उसे अपने आपमें माल और दौलत समझकर बटोरा और जमा किया जाता है, तब वह रोगका कारण बनता है। जिसको इन्वेस्टमेण्ट कहा जाता है, वह उस रुपयेके इनर्जी रूपको कायम रखनेकी ही पद्धति है। उसका व्यय होते रहना गति - चक्रको बढ़ाने और तीव्र करनेमें सहायक होता है । हाँ, हम देखते है कि वह ठहरता भी है। वास्तवमे कोई गति अवस्थानके १९४ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवसायका सत्य बिना सम्भव नहीं होती। चेतन व्यक्त होनेके लिए अचेतनका आश्रय लेता है। इनर्जी अपने अस्तित्वके लिए 'डेड मैटर' की प्रार्थिनी है । पर जैसे नींद जागरणके लिए आवश्यक है, नींद अपने आपमें तो प्रमाद ही है, जागरणकी सहायक होकर ही वह स्वास्थ्यप्रद और जरूरी बनती है, वैसे ही वह व्यय है जो किसी कदर पैसेके चक्रको धीमा करता है । किन्तु, प्रत्येक व्यय यदि अन्तमें जाकर इन्वेस्टमेण्ट नहीं है, तो वह हेय है। हम भोजन स्वास्थ्यके लिए करते है और सेवाके कार्यके लिए हमें स्वास्थ्य चाहिए । इस दृष्टि से भोजनपर किया गया खर्च इन्वेस्टमेण्ट बनता है । अन्यथा, रसनालोलुपताकी वजहसे भोजनपर किया गया अनाप-शनाप खर्च केवल व्यय रह जाता है और वह मूर्खता है । वह असलमे एक रोग है और भाँति-भाँतिके सामाजिक रोगोंको जनमाता है। जहाँ जहाँ व्ययमे उपयोग-बुद्धि और विवेक बुद्धि नहीं है, जहाँ जहाँ उसमे अधिकाविक ममत्व-बुद्धि और विषय-बुद्धि है, वहाँ ही वहाँ मानो रुपयेके गलेको घोंटा जाता और उसके प्रवाहको अवरुद्ध किया जाता है। सचा व्यवसायी वह है जो कि रुपयेको काममें लगाता है और अपने श्रमका उसमें योग-दान देकर उत्पादन बढ़ाता है। सचा आदमी वह है जो कर्म करता है और कर्मके फलस्वरूप और कर्म करता है । हम देखते आ रहे हैं कि वह व्यक्ति रुपयेका मूल्य उठाना नहीं जानता जो उसे, बस, खर्च करता है । रुपयेकी कीमत तो वह जानता है जो उसे खर्च करनेके लिए ही खर्च नहीं करता यानी अपने ऊपर नहीं खर्च करता है, प्रत्युत मेहनत Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करनेके लिए खर्च करता है। रुपयेके सहारे जितना अधिक श्रमउत्पादन किया जाय, उतनी ही उस रुपयेकी सार्थकता है। . हमने ऊपर देखा कि पैसेका पूँजी" बन जाना और खर्चका इन्वेस्टमेण्ट हो जाना उसके प्रतिफलसे अपना . यथासाध्य अन्तरं रखनेका नाम है । स्पष्ट है कि वैसे फासलेके लिए किसी कदर बेगरज़ीकी जरूरत है। मनुष्यकी गरज़ उसे दूरदर्शी नहीं होने देती । गरजमन्द पैसेके मामलेमें सच्चा बुद्धिमान् नहीं हो सका । हम यह भी देख सकेंगे कि मनुष्य और उसकी ज़रूरतोंके बीचमें जितना निस्पृहताका सम्बन्ध है, उतना ही वह अपने इन्वेस्टमेण्टके बारेमें गहरा हो सकता है । जो आकांक्षा-त्रस्त है, विषय-प्रवृत्त है, वह रुपयेके चक्रको तङ्ग और सङ्कीर्ण करता है। वह समाजकी सम्पत्तिका हास करता है । वह इनर्जीको रोकता है और, इस तरह, विस्फोटके .साधन प्रस्तुत करता है। प्रवाही वस्तु प्रवाहमें स्वच्छ रहती है। शरीरमे खून कहीं रुक जाय तो शरीर-नाश अवश्यम्भावी है। जो रुपयेके प्रवाहके तटपर रहकर उसके उपयोगसे अपनेको. स्वस्थ और सश्रम बनानेकी जगह उस प्रवाही द्रव्यको अपनेमें खींचकर सञ्चित कर रखना चाहता है वह मूढ़ताका काम करता है। वह उसकी उपयोगिताका हनन करता और अपनी मौतको पास बुलाता है। ___ आदर्श अलग। हम यहाँ व्यवहारकी बात करते है, उपयोगिताकी बात करते हैं। दुनिया क्यों न स्वार्थी हो ! हम भी स्वार्थकी ही बात करते हैं। प्रत्येक व्यक्ति क्यों न समृद्ध बने ! यहाँ भी उसी समृद्धिकी बात है। हम चाहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति व्यवसायी हो. Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवसायका सत्य और हर एक व्यवसायी गहरा और अधिकाधिक होशियार व्यवसायी बने। हम यह देखते हैं कि व्यवसायी ही है जो मालदार है । यह अहैतुक नहीं है। यह भी हम जान रक्खें कि कोई महापुरुष, ऊँचा पुरुष अव्यवसायी नहीं होता; हाँ, वह जरा ऊँचा व्यवसायी होता है। यहाँ हम यही दिखाना चाहते है कि दुनियामें अच्छेसे अच्छा सौदा करना चाहिए। कोई हरज नहीं अगर दुनियाको हाट ही समझा जाय । लेकिन जिसके बारेमें एक भक्त कविकी यह उक्ति उलहने में कहीं जा सके कि उसने ‘कौड़ीको तो खूब सँभाला, लाल रतनको छोड़ दिया । . उस आदमीको बता देना होगा कि लाल रतन क्या है और क्यों कौड़ीसे उसे सन्तुष्ट नहीं होना चाहिए । हमारी गरज़ आँखोंको बाँध देती है । ईश्वरकी ओरसे मनुष्यकी अज्ञानताके लिए बहुत सुबिधा है। बहुत कुछ है जहाँ वह भरमा रह सकता है। लेकिन भ्रमनेसे क्या बनेगा ! हम अपने ही चक्कर में पड़े है। जैसे फुलझड़ी जलाकर हम रङ्ग-बिरङ्गी चिनगारियाँ देखते हुए खुश हो सकते है, वैसे ही अगर चाहें तो अपनी ज़िन्दगी में आग लगाकर दूसरोंके तमाशेका साधन बन सकते है। लेकिन पैसेका यही उपयोग नहीं है कि उसकी फुलझड़ी खरीदी जाय, न जीवनका उपयोग ऐश और विलास है । धन सञ्चयसे अपना सामर्थ्य नहीं बढ़ता । —धनका भी सामर्थ्य कम होता है, अपना भी सामर्थ्य कम होता है । इनर्जीको पेटके नीचे रखकर है । ऐसे विस्फोट न होगा, तो क्या होगा ? सोनेमें कुशल नहीं १९७ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैसा खर्चके लिए नहीं है। पैसा संवर्धनके लिए है। संवर्धन, यानी जीवन-संवर्धन । धनका व्यय जहाँ संवर्धनोन्मुख नहीं है, वहाँ वह असामाजिक है, अतः पाप है । विलासोन्मुख व्ययसे सम्पत्ति नहीं; दीनता बढ़ती है। ___धनमें गृद्धि उस धनकी उपयोगिताको कम करती है। प्रतिफलमें हमारी गरज जितनी कम होगी, उतना ही हमारी और उसके बीच फासला होगा। उस फासलेके कारण वह फल उतना ही बृहद् और मानवके उद्यमद्वारा वह उतना ही गुणानुगुणित होता जायगा । वही गम्भीर और सत्य व्यवसाय है जहाँ कर्मका और व्ययका प्रतिफल दूर होते होते अन्तिम उद्देश्यमें अभिन्न, अपृथक् हो जाता है, जहाँ इस भाँति फलाकांक्षा है ही नहीं । विज्ञानके, व्यवसायके और अन्य क्षेत्रोके महान् पुरुष वे हुए हैं, जिन्होंने तात्कालिक लामसे आगेकी बात देखी, जिन्होंने मूल-तत्त्व पकड़ा और जीवनको दायित्वकी भाँति समझा, जिन्होंने नहीं चाहा विलास, नहीं चाहा आराम, जिन्होने सुखकी ऐसे ही परवाह नहीं की, जैसे दुखकी । उनका तमाम जीवन ही एक प्रकारको पूजी, एक प्रकारकी समिधा बन गया। उनका जीवन बीता नही,वह हविष्य बना और सार्थक हुआ। क्योकि वे एक विचारके प्रति, आदर्शक प्रति, एक उद्देश्यके प्रति, समर्पित हुए। अर्थशास्त्रके गणितको फैलाकर भी हम किसी और तत्त्व तक नहीं पहुंच पाते। यों अर्थशास्त्र अपने आपमें सम्पूर्ण स्वाधीन विज्ञान नहीं है । वह एकाकी स्वतन्त्र नहीं है। अब वह अधिकाधिक राजनातिगत है, पॉलिटिक्स है। पॉलिटिक्स अधिकाधिक १९८ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवसायका सत्य समाज-शास्त्र (Social science ) है । समाज-शास्त्र अधिकाधिक मानस-शास्त्र (Psychology) से सापेक्ष्य होता जाता है। मानस-शास्त्रकी भी फिर अपने आपमें स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। क्योंकि, व्यक्ति फिर समाजमें है और जो कुछ वह अब है, उसमें समाजकी तात्कालिक और तादेशिक स्थितिका भी हाथ है । इस तरह फिर वह मानस-शास्त्र, प्राणि-शास्त्र और समाज-शास्त्र आदिपर अन्तरअवलम्बित है। आदि। अर्थ-शास्त्रके आंकिक सवाल बनाने और निकालनेमें हम उसके चारों ओर कोई बन्द दायरा न खड़ा कर लें। ऐसे हम उसी चक्करके भीतर चक्कर काटते रहेंगे, और कुछ न होगा। यह ठीक नहीं है । यह उस विज्ञानको सत्यकी समस्ततासे तोडकर उसे मुरमा डालनेके समान है। ऊपर हमने देखा है कि व्यावहारिक रुपये-पैसके उपयोगका नियामक तत्त्व लगभग वही है, जो गीताका अध्यात्म मन्त्र हैअनासक्ति, निष्कामता । इस निष्कामताकी नीतिसे कर्मका प्रतिफल नष्ट नहीं होता, न वह ह्रस्व होता है। प्रत्युत्, इस भाँति, उसके तो असंख्य गुणित होनेकी सम्भावना हो जाती है। अत्यन्त व्यावहारिक व्यवहारमें यदि वह तत्त्व सिद्ध नहीं होता है जो कि अध्यात्मका तत्त्व कहा जाता है, तो मान लेना चाहिए कि वह अध्यात्म असिद्ध है, अ-यथार्थ है । अध्यात्म नहीं चाहिए, पर व्यवहार तो हमें चाहिए । व्यवहार-असङ्गत अध्यात्मका क्या करना है। वह निकम्मा है। गीतामे भी तो कहा है-'योगः कर्मसु कौशलं ।' इस दृष्टिसे व्यक्ति न कह पायेगा कि सम्पत्ति उसकी है। इसमें Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पत्तिकी बाढ़ रुकेगी । खून रुकनेसे रोग होगा और फिर अनेक उत्पातों का विस्फोट होगा । 4 हमें अपने व्यवहारमें व्यक्तिगत भाषासे क्रमशः ऊँचे उठते जाना होगा । हम कहेंगे सम्पत्ति व्यक्तिकी नहीं, वह सहयोग समितियोंकी है। कहेंगे, वह श्रमियोंकी है | कहेंगे, वह समस्त समाजकी है, जो समाज कि राष्ट्र-सभामें प्रतिबिम्बित है । कहेंगे कि वह राष्ट्रकी है। आगे कहेंगे कि राष्ट्र क्यों, वह समस्त मानवताकी है । इसी भाँति 'हम बढ़ते जायँगे । अन्त तक हम देखते जायेंगे कि बढ़नेकी अब भी गुञ्जाइश है । किन्तु, ध्यान रहे कि निराशाका यहाँ काम नहीं, व्यग्रताका भी यहाँ काम नहीं । हम पानेके लिए तैयार रहें कि यद्यपि बुद्धिसङ्गत (rational ) आदर्शमें बढ़-चढ़कर हम मानवतासे आगे विश्व-समष्टि तक पहुँच गये हों, तब भी सङ्घर्ष बना ही है । बात यह है कि समष्टि कहनेसे व्यष्टि मिटता नहीं है । व्यक्ति भी है । वह अपने निजमें अपनेको सत्ता अनुभव करता है । समष्टि हो, पर वह भी है। उसे इनकार करोगे, तो वह समष्टिको इनकार कर उठेगा । चाहे उसे इसमें मिटना पड़े, पर वह स्वयं अपनेको कैसे न माने ? ऐसी जगह मालूम होगा कि व्यक्तित्वकी धारणाको ब्रह्माण्डमें भी चाहे हम व्याप्त देखें, पर पिण्डमें भी उसे देखना होगा । और, उस समय हम विश्व-समष्टिके शब्दोंसे भी असन्तुष्ट होकर कहेंगे कि जो है, सव परमात्माका है । सब परमात्मा है । यह मानकर व्यक्ति अपनी सत्तामे सिद्ध भी बनता है और वह सत्ता समष्टिके भीतर असिद्ध भी हो जाती है । विचारकी दृष्टिसे तो हम देख ही लें कि इसके बिना समन्वय नही है । इसके इधर-उधर समाधान भी कहीं २०० Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवसायका. सत्य और नहीं है । प्राइवेट सम्पत्तिके भावका उन्मूलन तभी सम्भव है जब हम माने कि व्यक्तिकी इच्छायें भी उसकी अपनी न होंगी, वह सर्वांशतः परमात्माके प्रति समर्पित होगा। इसलिए, लोगोंसे कहना होगा कि हाँ, सोशलिज़ेशनके लिए तैयार रहो । तैयार क्यों, उस ओर बढ़ो । लेकिन मालूम होता है कि सोशलिज़ेशनवालोंसे भी कहना होगा कि देखो भाई, उसके आगे भी कुछ है। उसके लिए भी हम सब उद्यत रहें, सचेष्ट रहें। फार्मूला कुछ बनाया है, इसमें हरज नहीं । पर फार्मूला फार्मूला है । फार्मूलासे कहीं बहुत चिपट न जाना । ऐसे वह बन्धन हो जाता है। m २०१ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूर और पास जब दूरबीन पहले-पहल हाथ आई तब विलक्षण अनुभव हुआ । सुना था उससे दूरकी चीज़ पास दीख श्राती है । लेकिन मैने देखा तो पासकी चीज़ दूर हो गई थी। पीछे पता चला कि मैने दूरबीनको उल्टी तरफ से देखा था ! फिर सीधी तरफसे देखा तो बात सही थी । दूरकी चीज़ बेशक पास दीखती थी । लेकिन इस ग़लतीसे भी लाभ हुआ । जब पासकी चीज़को दूर बनाकर देखा था तब दृश्यकी सुन्दरता बढ़ गई जान पड़ती थी । दूरकी चीज़ पास या जानेसे दृश्यमें मोहकता उतनी न रह गई थी। पता चला - - दूरी मोह पैदा करती है, — Distance lends charm; दूरी मिट जाय तो सुन्दरताके बोधके लिए गुंजायश नहीं रहेगी । यह तो राह चलनेकी बात हुई । लेकिन जिस विचित्र अनुभवका जिक्र यहाँ करना है वह यह है कि जो चीज़ एक पोरसे दूरको पास करती है, वही दूसरी श्रोरसे पासको दूर बना देती है । अर्थात्, दूर होना और पास होना ये कोई निश्चित स्थितियाँ नहीं हैं । वे अपेक्षापेक्षी है । उनमें अदल-बदल हो सकता है । " दूरबीनकी मदद से ऐसा होता ही है। लेकिन बिना दूरबीनके भी आँख नित्य प्रति ऐसा करती है, यह भी सही है । आँखमें | तर - तमताकी शक्ति है । जो पासकी चीज़को देखती है वही आँख कुछ दूरकी चीज़ भी देख लेती है, आँखकी नसें यथानुरूप फैल - सिकुड़कर खकी इस शक्तिको कायम रखती है । २०२ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूर और पास वस्तुओंका मूल्य भी इसपर निर्भर करता है कि हम उनसे कितने पास अथवा कितने दूर है। क्योकि, दूरी और निकटता निश्चित मानके तत्त्व नहीं है, इसीसे किसी वस्तुका एक ही मूल्य नहीं है। वह मूल्य अलग अलग लोगोंकी निगाहमें अलग अलग है और देश-कालके अनुसार घटता-बढ़ता रहता है। __दूरकी बड़ी चीज़ छोटी लगती है, पासकी छोटी बड़ी । आँखके आगे दो उँगली खड़ी कर ले तो सूरज ढंक जाता है । पर सूरज बहुत बड़ा है, दो उँगलियोंकी चौड़ाई उसके सामने भला क्या है ? फिर भी, पास होनेसे मेरे हिसाबसे दो उँगलियाँ सूरजसे बड़ी बन जाती है और सूरजको देखनेसे रोक सकती हैं। पासका पेड़ बड़ा दीखता है, दूरका पहाड़ उभरी काली लकीर-सा दीखता है। __ परिणाम निकला कि बाहरी छुट-बड़पन कोई निश्चित मानका तत्त्व नहीं है, वह प्रयोजनाश्रित तथ्य ही है। ___ इसलिए, असल प्रश्न यह हो रहता है कि हमारी तर-तमताकी शक्ति कितनी है ? आँखकी दृष्टिकी वह शक्ति तो परिमित ही है, लेकिन मनकी दृष्टिकी शक्तिका परिमाण वैसा बँधा नहीं है। बह उत्तरोत्तर बढ़ाया जा सकता है। मनकी दृष्टि-शक्तिका नाम है, कल्पना। ___ जो नहीं दीखता, कल्पना उसे भी देखती है। जो पास है, कल्पना उसे भी दूर बना सकती है। जो बहुत दूर है, कल्पना उसे भी खींचकर प्रत्यक्ष कर देती है। कल्पना दूरबीनकी भाँति बड़ी उपयोगी चीज़ है । पर उसके २०३ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपयोगकी विधि आनी चाहिए । अन्यथा वह कीमती खिलोनेसे अधिक कुंछ नहीं रह जाती। पर नहीं, वह हर हालतमें कीमती खिलोनेसे अधिक है। कीमती खिलौना तो ज्यादहसे यादह टूटकर रह जायगा । पर कल्पना खुद नहीं टूटती, आदमीको तोड़ती है। उसका गलत उपयोग हुआ तो वह आदमीको तोड़-मोड़कर पशु बना सकती है। उसके ठीक इस्तेमालसे आदमी देवता बन जाता है। इसलिए, कल्पना खिलौना नहीं है और उससे खेलने में सावधान रहना चाहिए। दूरबीन जिसके पास पैसा है वही बाज़ारसे ले सकता है, पर कल्पना तो सभीको मिली है। उसके लिए किसीको भी किसी बाज़ारमें भटकना नहीं है । वह भीतर मौजद है । सवाल इतना ही है कि उसका इस्तेमाल होता रहे और वह मैली न हो और न ढीलीढाली हो जाय । ठीक कामके लायक रहे और वह बहके नहीं। . - सच बात यह है कि जैसे निगाह खराब होनेका मतलब यही है कि उसमें दूरको ठीक दूर और पासको ठीक पास देखनेकी शक्ति, नहीं रह गई,है वैसे ही बुद्धिकी खराबीका मतलब सिवा इसके कुछ नहीं है कि कल्पनाकी लचक उसमें कम हो गई है। " हमारा रोज़का अनुभव है कि अगर अपने ही हाथको हम अपनी आँखोके बहुत निकट लाते चले जायें तो अन्तमें आँख' काम नहीं ; देगी और मालूम होगा कि जैसे हाथ रहा ही नहीं है। किसी भी तसवीरको हम पाससे और पास देखनेका आग्रह करके उसे सिर्फ धब्बा बना दे सकते हैं। यहाँ तक कि उसे अपनी आँखसे बिल्कुल सटा लेकर कह सकते हैं कि वह कुछ भी नहीं है, क्योंकि २०४ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'दूर और पास हमें कुछ भी नहीं दीखता है । इस भाँति हरेक सुन्दरता ज़रूरतसे अधिक पास ले लेनेपर असुन्दर और फिर असत् हो जायगी ।. . __इसलिए, हमारा प्रत्येकके प्रति एक प्रकारका सम्मानका अन्तर चाहिए ही । उस अन्तरको मिटाकर भोगकी निकटता पैदा की कि वहाँ सुंदरता भी लुप्त हुई। __यह रोज़का ही अनुभव है। हम चीजोंको देखते है और वे सुन्दर लगती हैं । सुन्दर लगती हैं, तो हम उन्हें चाहने लगते है। चाहने लगते है तो उन्हें पानेकी लालसा करते है । इस लालसाको बुद्धिसे हम उन्हें छूते है,-पकड़ते है, अर्थात् उन्हें मर्यादासे अधिक अपने निकट ले लेते है। परिणाम होता है कि हमारा संभ्रम मिट जाता है और जिसको मनोरम मानकर चाहा था वह धीमे धीमे बीभत्स हो जाता है और हमारे चित्तको ग्लानि होने लगती है । तब उकता कर उसे छोड़ हम दूसरी ओर लपकते है। पर वहाँ भी वही होता है और वहाँ भी अन्ततः ग्लानि हाथ आती है। • अनुभवमें आया है कि जिस जगहमें हमें बिल्कुल दिलचस्पी नहीं हुई है, वहाँके फोटोग्राफ लुभावने हो जाते है। खंडहर हमारी निगाहमें खंडहर है लेकिन उसीका चित्र कमी हमारे लिए इतना सुन्दर हो जाता है कि हम सोच भी नहीं सकते थे। ___ यह इसीलिए कि फोटोग्राफ़से हमारी पर्याप्त अलहदगी है। फोटोग्राफमे हम उस दृश्यको एकत्रित भावमें देख सकते है। आग्रह वहाँ हमारा मंद है। वहाँ हमारे मनकी स्थितिसे विलग भी उसकी सत्ता है । मानों उस चित्रका अस्तित्व ही नहीं, व्यक्तित्व है। २०५ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणाम यह कि दूरी भी कभी बिल्कुल नष्ट नहीं हो जानी चाहिए । दूरी बिलकुल न रहे तो आँख बिलकुल न देख पाये, बुद्धि बिलकुल न समझ पाये । और मनपर जोर इतना पड़े कि ठिकाना नहीं और तिसपर भी चहुँ ओर सिवा अँधेरेके कुछ न प्रतीत हो । सब वस्तुओं, सब स्थितियों, सब दृश्यों और व्यक्तियोंके प्रति यह समादरकी दूरी इष्ट है । इसको विनय-भाव कहिए, अनासक्ति कहिए, समभाव कहिए, असंलग्नता कहिए, दृष्टिकी वैज्ञानिकता कहिए, चाहे जिस नामसे इसे पुकारिए | संबंध में एक प्रकारकी तटस्थता ही चाहिए। जो भी हम छू रहे, देख रहे, चाह रहे है, ध्यान रखना चाहिए कि उसका अपना भी स्वत्व है । वह प्रयोजनीय पदार्थ ही नहीं है । वह भी अपने-आपमें सजीव और सार्थक हो सकता है । उसमें भी वह है, जो हममें है । एक ही व्यापक तत्त्व दोनोमें है। जो हम है वही वह है । इसलिए किसी अविनयका अथवा श्राहरणका संबंध हमारा कैसे हो सकता है ? संबंध प्रेम, ध्यानंद और कृतज्ञताका हो सकता है । जिसको कल्पना कहा, उसका इसी जगह उपयोग है । जो हम हैं वह तो कोई भी नहीं है । हम जैसे बुद्धिमान् हैं, 1 क्या कोई दूसरा वैसा हो सकता है ? साफ बात तो यह है कि हम हमी हैं । कोई भला हम जैसा क्या होगा ? असंस्कारी अहंकारी बुद्धि इसी प्रकार सोचती है । लेकिन इससे यही सिद्ध होता है कि ऐसा सोचनेवालेकी कल्पनाशक्ति क्षीण हो गई है । कल्पना हमें तुरन्त बता देती है कि हम अनेकोंमें एक हैं और अपने में अहंकार अनुभव करनेका तनिक भी २०६ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूर और पास अवकाश नहीं है । वह कल्पना हमें बताएगी कि दूसरेमें भी अहंकार हो सकता है, और है, और उस अहंकारका ख़याल रखकर चलना ही ठीक होगा । वह कल्पना हमें सबके अलग अलग स्थान समझने में मदद देगी और सुझायगी कि समस्तके केन्द्र हम नहीं हैं जैसा कि हम आसानीसे समझ लिया करते हैं । वैसी तटस्थताकी दूरी जगत् और जगत्की वस्तुओं के साथ स्थापित करनेके बाद आवश्यक है कि हम उनसे भावनाकी निकटता भी अनुभव करें। दूरी तो है ही, पर निकटता और भी घनिष्ठ भावसे आवश्यक है । वैसी निकटताका बोध जीवनमे नही है तो जीवनमें कुछ रस भी नहीं है । जिस शक्तिसे यह हो, उसका नाम है भावना | यह भावना प्रभेद - मूलक है । यह दोको एक करती है, यह दूरीको नष्ट करती है । 'नष्ट करती है' का आशय यह कि उसके फासले को यह रससे भर देती है । जब पहले पहल खुर्दबीनमेंसे झाँक कर देखनेका अवसर हुआ था, तो आश्चर्यमे रह जाना पड़ा था। बाहर कुछ भी नहीं दीखता था, एक नन्हा, — बहुत ही नन्हा सा पत्तेका खण्ड डैस्कपर रक्खा था । वह है, इसमें भी शक हो सकता था। उसकी हस्ती कितनी थी । साँस उसपर पड़े तो बेचारा उड़कर कहाँ चला जाय, पता भी न चले । लेकिन, खुर्दबीनमेसे जब देखता हूँ तो देखता हूँ कि क्या. कुछ वहाँ नहीं है ! जो आश्चर्यकारक है, जो महान् है, वह सभी कुछ बहॉपर भी है । एक दुनियाकी दुनिया उस पत्तेके खंडके भीतर समाई है ! वह पत्तेका ट्रक क्या कभी पूरी तरह जाना जा सकेगा ? उसमें २०७ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कितना रहस्य है, कितना सार ! उसमें क्या अगाध ज्ञेयता नहीं है ? जाने जाओ, जानें जाओ, फिर भी जाननेको वहाँ बहुत कुछ शेष रह ही जायगा । खुर्दबीनमेंसे उस बिंदी -भर पत्तेको मैने इतना फैला हुआ देखा कि मानों वहीं विश्व हो। उसमें मानों नगर थे, मैदान थे, समन्दर थे । लेकिन वहाँसे आँख हटानेपर क्या मैने नहीं देख लिया कि हरी-सी - बूँद - जितने आकारके उस पत्तेकी सत्ता इस जगत् में इतनी हीन है, इतनी हीन है कि किसी भी गिनती के योग्य नहीं है ! - " फिर भी वह है, और नहीं कहा जा सकता कि अपनेमें वह ' स्वतंत्र सृष्टि नहीं है। वह खंड वैसा ही स्वयं हो सकता है जैसा मैं, अपने स्वयं हूँ । तब मैं कैसे उसके प्रति अविनयी हो सकता हूँ ? I • यहीं भावनाकी आवश्यकता है। कल्पनाने मुझे मेरा स्थान बताया और सबका अपना अपना स्थान बताया । उसने मुझे स्वतंत्रता दी, उसने अपनी ही मर्यादाओंसे मुझे ऊँचा उठाया, उसने मुझे अनंत तक पहुँचने दिया और मेरी सांतताके बन्धनकी जकड़को ढीला कर दिया । 1 , भावना उसी मेरी व्यापकतामें रस प्रवाहित करेगी । उसमें अर्थ डालेगी। जो दूर हैं, उसे पास खींचेगी। भावनासे प्राणोंमें 'उभार आएगा और जिसे कल्पनाने संभव देखा था, भावना उसीको सत्य बनाएगी। 'जो ब्रह्माण्ड में है पिण्डमें भी वह सभी कुछ है । ब्रह्माण्डको छनेकी ओर कल्पना उठी, तो भावना उसी सत्यको पिण्डमे पा लेने की साधिका हुई। | Extensity ( = विस्तृति ) मे नहीं, Intensity २०८ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूर और पास ( घनता ) द्वारा ही वह सम्पूर्णको अपनाएगी । दर्शनकी मर्यादा अगम है, पर प्रीति-भक्तिकी क्षमता उससे भी गहरी जायगी । प्राणोंका उभार ( =Tension ) कल्पनाकी उड़ानसे अधिक सार्थक हो सकेगा । उससे उपलब्धि गम्भीर होगी । कल्पना और भावना ये दोनों ही जीवनकी प्रगतिके मूलमें हैं । दोनों अनिवार्य है, दोनों अमूल्य हैं। पर दोनोंका ख़तरा भी बहुत है । दोनोसे मनुष्य विराट्की ओर बढ़ता है, पर इन्हींसे वह अपना विनाश भी बुला सकता है । भावनासे जब हम परस्परमें ' क्लेश-क्लिष्ट ' दूरी पैदा करते हैं और कल्पनाहीन बुद्धिसे लालसाजनित निकटतामें रमण करते है, तब ये ही दोनों शक्तियाँ हमारी शत्रु हो जाती है और हमारा अनिष्टसाधन करती है। जो मेरे पास है, वह मेरा स्वत्व नहीं है, क्योंकि उसका अपने में अलग स्वत्व भी है। कल्पनाहीन होकर हम प्राणको ऐसे पाते है, मानो उसकी सार्थकता हमारे निकट प्राप्त होने में ही है । यह हमारी भूल है और इससे हमारी अपनी ही प्राप्तिका रस हस्व होता है। यही मानवका मोह और अहंकार है । दूसरी ओर भावनाको हम दुर्भावना बना उठते हैं और उसके सहारे परस्परकी निकटता नहीं बल्कि दूरी बढ़ा लेते है । मन ही एक हो सकता है, तन अनेक हैं । पर मन हम फटने देते है, और तनकी निकटताके कामुक होते है । नतीजा इसका विनाश है । जो दूर है उसे दूर, जो पास है उसे पास जानना होगा । फिर भी जानना होगा कि दूर है वह भी पास है और जो पास मालूम होता है, उसे भी दूर रखनेकी आवश्यकता हो सकती है । तन १४ २०९ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जुदा जुदा हैं, आत्मा एक है। आत्मैक्यको कल्पनाद्वारा प्राप्य और भावनाद्वारा सुलभ बनाना होगा । और अपनी एवं सबकी देहकी अभिन्नताके प्रति सम्मान और संभ्रमका भाव रखना होगा। सबके स्वत्वका आदर करना होगा, किसी स्वत्वका आहरण एवं अपहरण गर्हित समझना होगा। यही दूर और पासका भेद है । इस दूर और पासकी तर-तमताका भेद हमने खोया तो समझो अपनेको ही खोया। उसको जानकर हम अपनेको पानेका प्रयत्न करें, यही शुम है। AAAA २१० Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरा अ-बुद्धिवाद सुना जाता है कि शुतुरमुर्ग जो अफ्रीकाके रेतीले मैदानोंमें होता है विचित्र प्राणी है। वह जब शत्रुकी टोह पाता है तो और कुछ करता नहीं, रेतमें मुँह दुबका लेता है । शत्रु फिर निरापद भावसे माकर उसका काम तमाम कर देता है। वह जानवर शुतुरमुर्ग इस भाँति शांतिपूर्वक मरता है । हम लोग शायद उसकी मरनेकी पद्धतिसे सहमत नहीं हैं। उसका मरना हमारे मनसे कोई ग़लत बात नहीं है । उसकी बेवकूफीकी सज़ा ही समझिए जो मौतके रूपमें उसे मिलती है। ऐसे वह न मरे तो अचरज । मरना तो उसका उचित ही है । और हम मनुष्य जानते है कि शुतुरमुर्ग मूर्ख प्राणी है । मूर्ख तो वह हो; लेकिन इतना कहकर बातको हम टालें नहीं । उसे मूर्ख कह देकर आदमी शायद स्वयं अपने को कुछ बुद्धिमान् लग आता हो। पर हमें इसमें सन्देह है कि दूसरेको मूर्ख कहने के आधारपर खुद बुद्धिमान् बननेका ढंग ठीक है । तिसपर वह शुतुरमुर्ग क्यों मूर्ख है ? और हम क्यों नहीं हैं ? और मूर्ख होनेमें सुभीता यदि हो तो फिर हरज क्या है ? – आदि बातें सोचनेकी है । घरमें एक छोटी बच्ची है । नाम अभी है मुन्नी । सदा खेलती रहती है। एक खेल उसे प्रिय है । वह मुन्नी किसी सूखती हुई धोती या बक्स या कुर्सी के पीछे होकर मुँह ढककर चिल्लाएगी'अम्माँ ! सुन्नीको ढूँढो ।' अगर अम्माँ एक बारमें ध्यान नहीं देगी २११ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो मुन्नी उससे उलझ पड़ेगी । कहेगी-अम्माँ, अरी अम्माँ, देख । ' और जब अम्माँ उसकी ओर मुखातिब होगी तब सामने दूर जाकर मुँहकी ओट करके कहेगी, 'मुन्नी नहीं है, अम्माँ । मुन्नी नहीं है, मुन्नीको ढूँदो।' तब मुन्नीकी अम्माँ भी सारे कमरेमें इधर-उधर, कभी कलमदानके नीचे, कभी होल्डरके निबमें, ग्लासमें या सूईके नकुएमें, यहाँ-वहाँ और जहाँ-तहाँ खोज मचाती हुई मुन्नीको ढूँढ़ती है, कहती जाती है,-'अरे मुन्नी कहाँ है ? (कपड़ेको उलट-पलटकर) अरे कहाँ है ? मुन्नी, ओ मुन्नी !" __ और मुन्नी सामने खड़ी-खड़ी चोरी-चोरी अम्माँके यत्नोंकी विफलता देखकर और उसमें रस लेकर मुंहको दोनों हाथोंसे ढककर कहती है-'मुन्नी नहीं है, अम्माँ । मुन्नी नहीं है । ढूँढ़ो।' अम्माँ बहुतेरा ढूँढ़ती है, पर सामने खड़ी हुई मुन्नी नहीं मिलती। ओह ! जाने कितनी देर बाद वह मिलती है । मिलनेके बाद ही दो कदम भागकर फिर मुँह दुबकाकर खड़ी हो जाती है, कहती है'अम्माँ, मुन्नी फिर नहीं है, और ढूँढ़ो।' मुन्नीको इस खेलमें बड़ा आनन्द आता है। हमें भी आनन्द आता है। हम कहते है-'मुन्नी है।' और वह भागकर किसी वस्तुकी ओट लेकर कहती है-'मुन्नी नहीं है।' अपनी आँखे बन्द करके समझती है, वह नहीं रही है। ___ अभी तक ऐसा अवसर नही आया कि हमारे मनमे इच्छा हुई हो, कि उसको बुलाकर विद्वत्तापूर्वक समझावें । कहें, कि पगली सुन, तेरे देखने और दीखनेपर औरोकी अथवा तेरी सचा निर्भर नहीं है Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरा अ-बुद्धिवाद यथार्थता समझ, लड़की, और मूर्खता छोड़ | ऐसा हमने अब तक नहीं किया और अचरज यह है कि ऐसा न करनेके लिए कभी अपनेको मूर्ख भी हमने नहीं माना। इस खेलको हमने प्रसन्नता पूर्वक खेल लिया है और कभी यह नहीं सोचा है कि मूर्खता ग़लत चीज़ है और हमे मुन्नीका उससे उद्धार करना ही चाहिए । हमें सन्देह है कि मुन्नीको यदि हम अपनी बुद्धिमत्ता देने लग जायँ तो वह उसे नहीं लेगी। इतना ही नहीं, वरन् वह उस हमारी बुद्धिमत्ताको मूर्खता समझेगी और अपनी मूर्खताको स्पष्ट रूपमें तर्कशुद्ध ज्ञान जानेगी । " हम कैसे जानते है कि मुन्नी ग़लत है ? जब वह कहती है कि वह नहीं है ' तब भी वह ग़लत कहाँ कहती है; क्योकि जैसा जानती है वैसा ही तो कहती है । वह ( उस समय ) जानती ही यह है कि 'वह नहीं है । ' वास्तव वास्तविकता तत्सम्बन्धी हमारी धारणासे भिन्न क्या वस्तु . है ? भिन्न होकर वह है भी या नहीं ? यह अभी निर्णय होने में नहीं आया । न कभी आयेगा । अकाट्य - रूपमे हम यह कह सकते है कि सम्पूर्ण सत्य मानव के लिए चिर-प्राप्य, अतः चिर-शोध्य है । वह सत्य क्या मनुष्यसे बाहर भी व्याप्त नहीं है ? जो बाहर भी है वह मनुष्यके भीतर ही कैसे समायेगा ! उस सर्वव्यापी सत्यकी मानव-निर्मित धारणाएँ ही मानवीय ज्ञान - विज्ञान है, वे स्वयंमें सत्य नहीं है । अपने सब ज्ञानके मूलमे 'हम' है । वह ज्ञान सत्य है तो । बस हमारा होकर है । हमारा नहीं, तब वह हुआ न हुआ एक-सा है । हर सत्यको अपनी सत्ताके लिए हमपर इस निमित्त निर्भर रहना २१३ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . होगा, कि हम उसे जानें। यह बात साफ है । इसको समझनेसे कोई इनकार नहीं कर सकता, न कोई दार्शनिक इस बातकी मान्यतासे बाहर पहुँच सकता है । जब ऐसा है, जब हमसे अलग होकर सचाई कुछ है ही नहीं, अथवा है तो नहीं जैसी है, तो यह अप्रामाण्य बनता है कि हम शुतुरमुर्गको गलत और अपनेको ठीक कहें । शुतुरमुर्गको तो शायद हम ठीक न कह सकेंगे । उसको ठीक कहने के लिए हमें अपनेको इनकार करना होगा । हम तो दोनों को देखते हैं न - शुतुरमुर्गको भी, उसके शत्रुको भी— इस लिए रेतमें सिर दबाकर शत्रुसे बचनेकी शुतुरमुर्गकी चेष्टाको हम सही कैसे कह सकते हैं ? और शतुरमुर्गके गलत होनेका प्रमाण उसीके हकमें यह भी है कि शत्रु आकर उसे दबोच लेता है । इस लिए यह तो असंभव है कि शुतुरमुर्ग ठीक हो । लेकिन जब वह ठीक नहीं है तब हम भी ठीक कैसे हो सकते हैं, यह विचारणीय है । हो सकता है कि हमारी हालत शुतुरमुर्गसे इतनी ही भिन्न हो, कि हम शुतुरमुर्ग न होकर आदमी हैं । अन्यथा कैसे कहें, कि यथार्थ में हम दोनोंमें बुद्धिकी अपेक्षा खासी समता नहीं है । मान लिया जाय कि शुतुरमुर्ग बुद्धिसे शुतुरमुर्ग है, लेकिन बात - चीत आदमी है । तब क्या वह हमको मूर्ख नहीं समझेगा ? ' जो दीखता है, उतना ही है। जो नहीं दीखता है, वह इसीलिए तो नही दीखता कि नहीं है ' -- शुतुरमुर्गके ज्ञानका तल यह है । हम मानव उसे थोथे अज्ञेयवादी, अदृष्टवादी जान पड़ेंगे । जो अज्ञात है, उसके होनेमें क्या प्रयोजन ? वह न हुआ भला । वह नहीं ही है । २१४ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरा अ-बुद्धिवाद और शुतुरमुर्गके निकट जो दृश्य है, उतना ही ज्ञात है, उतना ही ज्ञेय है । अतः जितना दीखता है, उसके अतिरिक्त कुछ और है ही नहीं, यह होगा उस मानवरूपी शुतुरमुर्गका जीवन-सिद्धान्त । तदनुरूप उसकी जीवन-नीति भी यह हो जाती है कि-'जो अनिष्ट है, उसे मिटानेका सीधा उपाय है उसे न देखना । अनिष्टपर इसी भाँति विजय होगी । अनिष्ट यों ही असत् होगा । इस लिए और कुछ करनेकी आवश्यकता नहीं है, जब भय हो अथवा सन्देह हो, तब आँख मीच लो । भयकी आशंका और सन्देहकी शंकासे इस भाँति मुक्ति प्राप्त होगी।' ___ अब, क्या मानव-बुद्धि-द्वारा-निर्मित तर्क-सम्मत नीति भी लगभग इसी प्रकारकी नहीं है ? उस नीतिपर चलनेसे शुतुरमुर्ग शत्रुसे नहीं बच पाता । शत्रुको उलटे अपनी ओरसे वह सुविधा पहुँचाता है और बेमौत मर जाता है । अतः कहा जा सकता है कि वह नीति विफल है, भ्रांत है। हम भी खुद ऐसा मानते हैं। __ पर उस नीतिकी ( जो आज मानव-नीति भी हो रही है) वकालतमें यह कहा जा सकता है कि मरना तो सबको है। कौन नहीं मरता ? असल दुश्मन मौत है। किसी औरको दुश्मन भला क्यों मानें । कोई हमें क्या मारेगा। बात तो यह है, कि मौत हमें मारती है। जिसे दुश्मन मानते हो वह तो यम देवताका साधन है, वाहन है । असलमें तो भाग्यके पंजेमें सब हैं । यम उसी भाग्यका प्रहरी है। उसके आघातसे तो बचकर भी बचना नही है । मौत हमें आ दबोचेगी ही । प्रश्न उससे बचनेका नहीं है, और मुँह २१५ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुबका लेनेसे क्या शुतुरमुर्ग सचमुच मयसे छुटकारा नहीं पाजाता ? फिर वह मर भी जाय तो क्या ? • मानना होगा कि प्रश्न अन्तमें किसी भी शत्रुसे बचनेका उतना नहीं है। उतना क्या, बिलकुल भी नहीं है। तमाम प्रश्न (उसके) भयसे बचनेका है । यह तो हम जानते ही हैं कि डरकर हम चाहे कितना ही भागें, हटें, छिपें, पर मौतके चंगुलसे बचना नहीं होगा। इस प्रकारके सब प्रयत्न निष्फल होंगे । अतः एक ही लक्ष्य हमारे सामने रह सकता है और वह यह कि मरनेकी घड़ी हम सीधे ढंगसे मर जायँ, पर मरनेसे पहले थोड़ा भी न मरे, अर्थात् , मरनेके भयसे बचे रहें। ___ क्या यही लक्ष्य नहीं है ? और क्या इसी लक्ष्यके साधनमें मनुष्यने धर्म-शास्त्र, नीति-शास्त्र, कला-विज्ञान आदि नहीं आविष्कृत किये ! फिर शुतुरमुर्गको मूर्ख क्यों कहते हो? _शुतुरमुर्गके वकीलके जवाबमें क्या कहा जावे ! पर एक तो भयसे बचनेकी पद्धति स्वयं भयका भय है । यह शुतुरमुर्गकी है। अधिकांशमें मानवके थन भी उसी पद्धतिके है । पर दूसरा, भयको निर्भयतासे जीतनेका उपाय है। इसमें भयसे छिपा नहीं जाता, उसपर विजय पाई जाती है । उसका सामना किया जाता है। शुतुरमुर्गने अपनेको रेतमें गाड़ लिया और भयसे बचा लिया। इस भाँति वह सहज भावसे मर गया। आदमीने धर्मकी सृष्टि की, उसमें अपनेको गाड़ लिया और राम-नाम लेता हुआ कृतार्थ भावसे मर गया । धर्मसे उतरकर उसने कर्तव्य, देश-भक्ति, त्याग, बलिदान आदि-आदि अन्यान्य मंतव्योकी सृष्टि की, जिनके भीतर निगाह गाड़े २१६ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरा अबुद्धिवाद रखकर वह हार्दिकतापूर्वक मर गया। असल में सब बात मरते समय सहज भाव रखनेकी है । जो जितना निर्भय है, सरल भावसे मर सकता है, वह उतना ही सफल है। लेकिन स्पष्ट है कि इसके लिए बुद्धिकी निगाहको बाँधकर कहीं न कहीं गाड़ लेना जरूरी है। हाँ, जरूर गाड़ लेना जरूरी है । पर इसमें और शुतुरमुर्गकी क्रियामे अन्तर हो सकता है। एक भय-जन्य है तो दूसरी श्रद्धाप्रेरित हो सकती है । एक प्रकारके मतवादी है जो तर्कपूर्वक सिद्ध करते है कि आँख चारों ओर देखनेके लिए है । बुद्धि स्वतन्त्र है । व्यक्तित्व चौमुखी है । श्रद्धाअन्धी वस्तु है । किसी भी अज्ञेय वस्तुका पल्ला पकड़कर नहीं बैठना होगा । सब कुछ तोलना होगा । ये लोग डिजाइनर है और तरह-तरहकी साइन्सोंके चौखूँटे नकशे बनाकर दिया करते है । ऐसे लोग ज्ञान-विज्ञानकी बहुत छान-बीन करते देखे जाते है । उनका जीवन विवेचन-शील, संभ्रांत और सुखमय होता है। ये लोग सब बातोको तोलते, जाँचते और परखते हैं । किसीपर श्रद्धा नहीं रखते, किसीपर फिर अश्रद्धा भी नहीं रखते । उदार, संयत, सीधे-सादे रूढ़िपर चलनेवाले जीव ये होते है । लेकिन मौतका इन्हें बड़ा भय होता है। दूसरेकी भी और अपनी भी मौतका। मौतकी व्याख्या तटस्थ भावसे ये करते हैं; पर उसकी ओर निगाह नहीं उठने देते । ये श्रद्धाके कायल नहीं। इससे इनकी जीवन-नीति भयके आधारपर खड़ी होती है । भयमेंसे नियम-कानून, पुलिस-फौज, अदालत-जेल, शासन- अनुशासन, अस्त्र-शस्त्र आदि चुनते है । भय अद्भुत रूपमें सहनशील है । वह जबर्दस्त शक्तिको २१७ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्पन्न करता है । भय-जात साहस और भय-जात बलमें आसुरी अवलता है। भय एक दृष्टि से उपकार भी करता है। उससे निमीकताकी अनिवार्य आवश्यकता प्रकट होती है। भय निस्सन्देह उन्नतिके मार्ग में बहुत जरूरी है। पर मय उभय है। उससे मौत पास खिंचती है। वह मौतको न्योता है। श्रद्धासे शास्त्र-पुराण, साहित्य-विज्ञान, कला-दर्शन, क्रान्ति और बलिदान वनते हैं । श्रद्धा मौतको प्रेम भी कर सकती है । इस लिए नहीं कि वह मौत है। बल्कि इस लिए कि श्रद्धा जानती है कि मृत्यु जीवनकी दासी है। श्रद्धा जानती है कि यदि जीर्णकी मौत है तो इसी निमित्त किं नूतनकी सृष्टि हो और जीवन उत्तरोत्तर पल्लवित हो। श्रद्धा आँख नहीं मीचती। वह आँख खोले रखकर मौतमें जीवनके संदेशको और शत्रुमें बंधुको पहचानती है। हम कह सकते है कि वह श्रद्धा है तो मनुष्य शुतुरमुर्ग नहीं है। पर हम उस मतवादीसे कैसे पार पायें जो मनुष्यको इतना तर्क-संगत और विज्ञान-शुद्ध बनाना चाहता है कि श्रद्धा उसके पास न फटके । तब हम उस बुद्धिवादीको शुतुरमुर्गका वकाल कहते हैं। ___ मुझे इसमें संदेह है कि आँख एक ही क्षणमें चारों ओर देखती है। मुझे प्रतीत होता है कि वह एक पलमें एक ही ओर देखती है। और मुझको ऐसा भी मालूम होता है कि हमारी बुद्धिमें दृश्यको Perspective देखनेकी शक्ति न हो तो आँख देखकर भी कुछ न देख सके । Perspective की शक्ति अर्थात् दृश्यकी विभिन्नतामें एकता देखनेकी शक्ति । इसी प्रकार व्यक्तित्वको चहुँमुखी होनेके लिए एक निष्ठाकी आवश्यकता है। शंकाके सामर्थ्य के लिए निश्शंकित २१८ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरा अ-बुद्धिवाद चित्त चाहिए और अन्वयकी शक्तिके लिए समन्वयकी साधना चाहिए। मुझे इसमें बहुत संदेह है कि वह बुद्धि जो चारों ओर जाती है, किसी भी ओर दूर तक जा सकती है । मुझे इसमें भी बहुत सन्देह है कि जिसको श्रद्धाका संयोग प्राप्त नहीं है, वह बुद्धि कुछ भी फल उत्पन्न कर सकती है, बुद्धि अपने आपमें बन्ध्या है। वह भयमसे उपजी है और भयाश्रित बुद्धि लगभग शुतुरमुर्ग-जैसी है। उससे निस्सन्देह मदद बहुत भी मिलती है। उसकी मददसे व्यक्ति थोड़ी बहुत निर्भयता भी सम्पादन करता है; पर वह अंततः मनको उठाती नहीं है और स्वयं भी विकारहीन नहीं है। किसी बृहत्तर अज्ञेयमे अपनेको गाड़ देनेसे हम अपनेक संकुचित नहीं बनाते। अपनी बुद्धिके भीतर रत रहनेसे जैसे हम हव होते हैं उसी भॉति श्रद्धापूर्वक विराट् सत्ताके प्रति समर्पित हो रहनेसे हम मुक्तिकी ओर बढ़ते हैं। धर्म, आदर्श, बलिदान आदिकी भावनाएँ मनुष्यकी इसी प्रकार अभ्युदय स्वर्तिका फल है और वह इन भावनाओंद्वारा अपने ही घरेसे ऊँचा उठता है। शुतुरमुर्गकी कथा मनुष्यपर ज्योंकी त्यों लागू है, अगर वह भयको जीतनेके लिए अपनी भयाक्रान्त धारणाओमें ही दुबकता है। साधारणतया हम उस कथाके उदाहरणके प्रयोगसे बाहर नहीं होते । लेकिन हम बहुत कुछ बाहर हो जाते हैं जब कि अपने बचावकी चिन्ता नही करते प्रत्युत् ( मालूम होनेवाले ) शत्रुके सम्मुख बढ़ चलते हैं। शत्रुको जब हम अपनेसे मिच देखते ही नहीं और उससे भागनेकी जरूरत नहीं समझते, तब हमारी बुद्धि स्वस्थ रहती है । तब हम धीर, प्रसन्न, प्रेम भावसे उसे अपनाते है। २१९ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फिर इसमें चाहे हमें उसके हाथों मौत ही मिले । पर मौतमें हार नहीं है, हार तो भयमें है । मौत तो जीवन-तत्त्वकी प्रतिष्ठामें नियुक्त एक सेविका मात्र ही है। __ हमारे घरकी जो मुन्नी अपनी आँखें मूंद कर समझ लेती है कि वह नहीं रही, असलमें वह हममें से अधिकांशकी बुद्धिको प्रतिनिधि है। न देखना, न होना नहीं है और हम बहुधा इसी चक्करमें पड़े हैं। बुद्धि पग-पग पर हमें बहकाती और फुसलाती है। वह प्रवंचना है, वह भयकी प्रतिक्रिया है । भय उपयोगी है, यदि वह श्रद्धा और प्रार्थनाकी ओर ले जाय । श्रद्धा भयका काट है। भय संहारक है (जैसा कि वह है) यदि वह अस्त्र-शस्त्र और अहंभावकी ओर ले जाता है। हम जान रखें कि एक साहस है जो भयमेंसे उपजता है। वह आवेशयुक्त, ज्वराक्रान्त और पर्याप्तसे अधिक तीखा होता है । वह दूसरेको डराकर अपनेको साहस सिद्ध करता है। वह चमत्कृत भयका प्रतिरूप है। हमारी बुद्धि भी अहंजन्य भीरु साहसिकताको अपनाती और पोसती है; पर वह साहस सस्ती चीज़ है और नकली है। वैसी साहसिकता भीरता नहीं भी हो तो प्रमत्तता अवश्य है। शराब पीकर जो दुर्बल बड़ी डींगें हाँकता है, वह डोंगें उसकी उस दुर्बलताको ही व्यक्त करती हैं। कृपया कोई उन्हें वल न समझे। हमारी बुद्धि बड़ी ठगिनी है। क्षीण-शक्ति पुरुप क्यों शराबकी ओर जाता है ? इसीलिए कि वह अपनेको ठगना चाहता है । नहीं तो अपनी ही क्षीणता उसे असह्य होती है। कुछ देर तकके लिए क्यों न हो वह अपनेसे बचनेके लिए नशेका सहारा पकड़ता है। बुद्धि हमें बताती है कि हम हम हैं और वह अमुक हमारा २२० Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरा अबुद्धिवाद शत्रु है और वह दूसरा भी हमारा शत्रु है – इस भाँति वह हमें वह भीतर है । भीतर बाँधे बैठी है। वह और हमें भयके बदला लेनेके नाना भरमाती है । पर हमारा शत्रु बाहर कहाँ, बाहरके द्विभेदपर हमारी बुद्धि अपना किला हमें परस्पर व्याप्त अभेद तो देखने ही नहीं देती मार्गसे अपने उन इस या उस शत्रुसे बचने या उपाय निरंतर सुझाती रहती है । पर ये सब शुतुरमुर्ग या शिकारीके उपाय हैं। वे सब मौतके निमंत्रणके उपाय है। शुद्ध बुद्धि व्यवसायात्मिका है और वह श्रद्धोपेत है । वह श्रभेदकी झाँकी देती है। वह विनीत बनाती है। वह जगत्के प्रति दृढ़ और परमात्मा के प्रति व्यक्तिको कातर बनाती है। उससे व्यक्ति अटूट, अजेय और अमर बनता है। वह मरता है पर अमर होनेके लिए, क्योंकि मृत्युमें उसे संकोच नहीं होता। ऐसी बुद्धि श्रज्ञेयमेसे रस लेती है और उसीमें अपना समर्पण करके रहती है। वह इस भाँति क्रमशः प्रशस्त और मुक्त होती जाती है । २२१ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर प्रश्न निर्मोह और अबुद्धिवादका साथ कैसा ? मोह यह हार्दिक विकार है । श्रद्धा भी हृदयका वैसा ही विकार है । अतः जहाँ आप निर्मोह चाहेंगे, वहाँ विवेक बुद्धि आयेगी ही। और तव उसके आते ही भोली भक्तकी भावना-जिसमें हृदय ही अधिक हो और बुद्धि कम-~-कैसे पाई जा सकती है ? उत्तर- इस प्रश्नमें कुछ गलतफहमी है। पहले उसका दूर करना आवश्यक है। अबुद्धिवाद शब्दको जो मैने एक आध जगह प्रयोग किया है, उसका अभिप्राय यह कदापि नहीं कि बुद्धिके मुकाबलेमें किसी अबुद्धिका वाद मै चाहता हूँ। वुद्धिके मै विरुद्ध नहीं। किन्तु बुद्धिवादवाली बुद्धि तो निरी अबुद्धि है। अर्थात्, बुद्धिवादका ही नामकरण मैंने अबुद्धिवाद किया है। जिससे मेरा अभिप्राय है कि-Rationalism is an irrationalism | वादको कंधेपर विठाकर जो बुद्धि चलती है वह मेरी दृष्टिसे अबुद्धि है। इसलिए बुद्धिवादको ही मैं निरा अबुद्धिवाद कहता हूँ। . . मेरे इन सफाईके शब्दोंके लिहाजसे आप देखेंगे कि ऊपरका प्रश्न फिर ठहरता ही नहीं। ___ मोह हार्दिक विकार है, लेकिन श्रद्धा वैसा एक विकार इस लिए नहीं है कि वह विवेक-विपरीत नहीं है। वह श्रद्धा तो विवेकका पूरक है । अतः श्रद्धा विकार नहीं, संस्कार है। वेशक जहाँ निर्मोह है वहाँ विवेक बुद्धि तो पहलेसे है ही। जिसको भक्तकी भोली भावना कहो, उस भावनाका भोलापन विवेकबुद्धिके योगसे दहक कर स्फुलिंगके समान तेजस्वी हो जाता है। उसमें हृदय और बुद्धिके कम अधिक होनेका प्रश्न ही नहीं रहता, क्योंकि उस श्रद्धा वे दोनों पूरेके पूरे समाये रहते हैं। २२२ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होगे कि वे अविभाज्य रूपमें एक ही हैं ? और सच, वे बीचमें कटे हुए कहाँ हैं। इसीसे मै कहता हूँ कि काल एक है । और सोचिए, एक दिन भी क्या है ? २४x६०x६० सेकंडोंका जोड़ ही नहीं है ? लेकिन क्या सिर्फ जोड़ ही है ? क्या सब सेकंड अलग-अलग है और दिन उनका ढेर ? ऐसा नहीं है ।' दिनकी एक स्वतंत्र सत्ता है। सेकंड उसके २४x६० x ६० वें खण्डकी २४X६०४६० कल्पना- संज्ञा मात्र है । इसी भाँति तीनों दिनोंकी भी एक प्रखण्ड सत्ता है, शनि रवि सोम तो उसी एकके तिहाई तिहाई कल्पित भागोंके नामकरण- मात्र है । ऊपरके कथनसे एक बात स्पष्ट होती है । वह यह कि तमाम गतिमें एक संगति है । जो तत्त्व आज और कलके बीच फासलेकी अपेक्षा गति है वही उन दोनोमें मध्यवर्ती एकताकी अपेक्षा संगति है । अतीतका हमारे पास नहीं हिसाब, भविष्यका नहीं ज्ञान और वर्तमान तो छन छन रंग बदल ही रहा है। फिर भी, हम एक ही बार जान लें कि उन सबमें एक अखण्डता है, एक संगति है । भूत वर्तमानसे विच्छिन्न नहीं है और वह भूत भविष्यके भी विरुद्ध नही है । इन दोनोंमें परस्पर विरोध देखकर चलना ऐतिहासिक विवेकशीलता (= Historical Sense ) के विरुद्ध है । पक्षोके संतुलन के समय यह बात भूलनी नहीं चाहिए कि अतीतके श्राधारपर वर्तमानको समझना ही जिस भाँति बुद्धिमत्ता और विद्वत्ता है, उसी भाँति वर्तमानकी स्वीकृतिके श्राधारपर भविष्यकी निर्माण धारणा बनाना वास्तविक शिल्प - कौशल है । प्रगति निर्माण में है । प्रगति भूतके ऐसे अवगाहन और भविष्यके २३० " Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रगति क्या? ऐसे आवाहनमे है जिनसे उनका वर्तमानके साथ ऐक्य पुष्ट हो । प्रगतिशील वह है जो निर्माता है और निर्माता वह है जिसके मनमें उस ऐक्यकी स्वीकृति है । कालके प्रवाहमें जो संगति नहीं देखता, जो उस प्रवाहके तलपर उठती हुई लहरोंके संघर्षमें खो जाता है, जो उस संघर्षको धारण करनेवाली अनवच्छिन्न एकताको नहीं देखता, वह किस भाँति निर्माता होगा ! निर्माता नहीं तो वह प्रगतिशील भी कहाँ हुआ? गति अनिवार्य है । उसके भीतर संगति अनिवार्य है। प्रगति संगतिके अनुकूल ही हो सकती है। उसमें प्रतिकूलता टिक नहीं सकती । जैसे बहती हुई धाराके वेगमें उछलकर कुछ पानीके कण मौजसे किसी भी दिशामे उड़ते रह सकते हैं, वैसे ही इतिहासकी गणनामे न आनेवाली कुछ बूदें बहक कर इधर उधर जा सकती है। पर, इतिहासकी धाराका प्रवाह तो एक और एक ही ओर है और वह 'ओर' स्वयं इतिहासमें से स्पष्ट है । प्रगति उसी ओर सहयोगिनी होती है। ___ गतिका शिकार होना प्रगति नहीं है। ठीक यही वस्तु है (गतिका यह शिकार होना) जो प्रगतिसे प्रतिकूल है । समयके गंभीर प्रवाहके ऊपर फैशनेबिल आधुनिकताओकी लहरें भी चलती हैं। आज उनका नाम यह वाद है तो कल वह वाद हो जाता है। किन्तु प्रगतिके शरीरपर वाद वैसे ही हो सकते है, जैसे मानवशरीरपर लोम । पर जैसे उन लोमोंमें मानव नहीं है वैसे ही 'वादों' में प्रगति नहीं है । प्रगति कमी उन वादों तक सिहर कर, कभी उनके बावजूद और अधिकतर उनको सहती हुई चलती है। २३१ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वादों (='इज्मो' ) के बारेमें वही बात याद रहे जो लेखके भारंभमें दाँयें और बॉयें रहनेवाले गिरोहोंके बावत कही गई है। एक इज्म है, तो दूसरा भी है। दूसरा है, तो तीसरा भी है । इस भाँति वे उतने ही अनगिनत हो जायें जितने कि आदमी, तो भी चैन हो । क्योंकि तब कोई इज्मका शिकार न होगा, सब अपने अपने इज्मोंके स्वामी होगे। लेकिन जब तक यह नहीं होता तब तक 'इज्म' के नामपर जितनी कट्टरताएँ हैं, सब मिथ्याभिमान हैं। प्रगतिमें वादकी कट्टरता बह जाती है, जैसे काई बह जाती है। प्रगति भीतरसे आती है और बाहरको होती है । शुरूसे ही उसे अपनेसे बाहर टटोलना और सावित करना निरर्थक है । ऐसी चेष्टा इस वातका द्योतक है कि हमारे ही दिमागके भीतर जीवनका पानी बहते-बहते कहीं बँध गया है। __यहाँतक आकर हम एक प्रयोजनीय क्लास-रूमका-सा प्रश्न बनाकर अपनेसे पूछे कि आखिर इधर-उधरका यह सब तो हुआ, लेकिन, लेखक महोदय, हमको मालूम तो यह करना है कि प्रगतिके लिए हम क्या करे ? तो मैं उस प्रयोजनार्थी विद्यार्थीसे कहूँगा कि भाई, अब तुम खुद मालूम कर लो कि प्रगतिके लिए क्या करो । तुम्हारे लिए जो काम प्रगतिका होगा, वह काम तुम्हारे सिवाय किसी भी दूसरेके लिए उस भाँति प्रगतिका नहीं हो सकेगा। तुम जो हो, और तुम जहाँ हो, वह न दूसरा है, न वहाँ दूसरा है। इससे हरेक अपना स्वधर्म देखे, अपनी विसात देखे, अपना जी देखे । तब अपना प्रगतिशील कर्तव्य पानेमें उसे अड़चन न होगी। २३२ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम परिमित प्राणी है । जान पड़ता है, इतिहासके भीतर भी हमी है। हमी वह है। आदिम मनुष्यने जो भोगा और जो किया, उसके बाद प्राग-ऐतिहासिक और ऐतिहासिक युगोंके दीर्घकालमें भी जो उसने भोगा, किया और पाया, उसकी वह तमाम अनुभूति, तमाम उपलब्धि, तमाम ज्ञान और उसकी वह समस्त साधना आज हमारे जीवनमे बजि-रूपसे व्याप्त है । उसीके फलस्वरूप हम आज है। नितान्त एकाकी स्वतन्त्र हम अपने-आपमे क्या हैं ? इस दृष्टिसे चाहे हम परिमित हो, फिर भी अनन्त है। हम कालसे भी नहीं बँधे है और न प्रान्तसे ही । शत-सहस्र शताब्दियों हममे मुखरित होती है और हमारा दायित्व बड़ा है। क्या हम भावी बदल सकते है ? क्या हम अपने भी मालिक हैं ! क्या हम अपने-आपमे भाग्य-बद्ध भी नहीं हैं ? क्या हमको माध्यम बनाकर कुछ और महत्तत्त्व नही व्यक्त हो रहा है जो हमसे अतीत है ? हमारा समस्त यत्न अन्ततः किस मूल्यका हो सकता है ! अनन्तकाल और अगाध विस्तारके इस ब्रह्माण्डमें एक व्यक्तिकी क्या हैसियत है ? ___ ऊपरकी बात कही जा सकती है और उसका कोई खण्डन भी नहीं हो सकता । वह सत्य ही है। उस महा-सत्यके तले हमें विनीत ही वन जाना चाहिए । जब वह है, तब मै कहाँ ? तब अहङ्कार कैसा ? जब हम (अपने आपके) सचमुच कुछ भी नहीं है, तब और किसको क्षुद्र माने? नीच किसको माने ? तुच्छ किसको जानें! हम उस महासत्यकी अनुभूतिके तले अपनेको शून्य ही मान रखनेका तो अभ्यास कर सकते है। २४० Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानवका सत्य और बस । अहङ्कारसे छुट्टी पानेसे आगे हम उस महा सत्ताके बहाने अपनेमे निराशा नहीं ला सकते, हम निराशामें प्रमाद-प्रस्त नहीं बन सकते, अनुत्तरदायी नहीं बन सकते, भाग्य-वादी नहीं बन सकते। यह भी एक प्रकारका अहंकार है। प्रमाद स्वार्थ है, उच्छंखलता भी स्वार्थ है । हम जब देखने लगें कि हमारा अहङ्कार एक प्रकारसे हमारी जड़ता ही है, अज्ञान है, माया है, तब हम निराशामें भी पड़ सकनेके लिए खाली नहीं रहते। निराशा एक विलास है, वह एक व्यसन है, नशा है। नशीली चीज़ कड़वी होती है, फिर भी लोग उसका रस चूसते हैं। यही बात निराशामें है। निराशा सुखप्रद नहीं है। फिर भी लोग हैं जो उसके दुखकी चुस्की लेते रहनेमें कुछ सुखकी झोंकका अनुभव करते हैं। जिसने इस महासत्यको पकड़ा कि मैं नहीं हूँ, मैं केवल अव्यतके व्यक्तीकरणके लिए हूँ, वह भाग्यके हाथमे अपनेको छोड़कर भी निरन्तर कर्मशील बनता है। वह इस बातको नहीं भूल सकता कि कर्म उसका स्वभाव है और समस्तका वह अङ्ग है। वह (साधारण अर्थोमे ) सुखकी खोज नहीं कर करता, सत्यकी खोज करता है। उसे वास्तवके साथ अभिन्नता चाहिए। इसी अभिन्नताकी साधनामे, इस अत्यन्त वास्तवके साथ एकता पानेके रास्तेमें जो कुछ भी विपत्ति उसपर आवे, जो ख़तरा, जो दुःख उसे उठाना पड़े, वह सब हर्षसे स्वीकार करता है। अपना सुख-दुख तो उसके लिए कुछ होता ही नहीं । इसलिए, उसका सुख समस्तताके साथ अविरोधी सुख होता है। इस जगत्में विलास दूसरेकी पीड़ापर परिपुष्ट होता हुआ देख पड़ता है। वैसा विलास-मय सुख निरहंकारी मानवके लिए अत्यन्त त्याज्य बनता है। ૨૪૨ करता है। उसे वास्तवक के साथ एकता पानसे उठाना पड़े, Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमने देखा कि चीजें बदलती है; देखा कि वे प्राकृतिक विकासक्रमके अनुसार बदलती है; देखा कि किसी व्यक्तिकी अथवा घटनाकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है । और भी देखा कि किसी व्यक्तिके लिए अपने ही ऊपर केंद्रित होने और अपने ही लिए रहनेका अवकाश नहीं है। ( अपने माने हुए) सुखसे चिपटने और दुखसे दूर भागनेकी छुट्टी भी व्यक्तिको नहीं है । विकास जब अपने आपको चरितार्थ कर रहा है तब व्यक्तिके लिए वीचमें अपने सुख-दुख पैदा कर लेना उचित नहीं है। जीवनकी स्वीकृति व्यक्तिका धर्म है, यों चाहे तो क्लेश उपस्थित करके वह अपनेको मार भी सकता है। यह हमने देखा । अब प्रश्न होता है कि व्यक्ति अपनेको संवेदनहीन बनानेकी कोशिश करे, क्या यही यथार्थ है ! अपनी इन्द्रियोंको क्या मार लेना होगा ? अपनी भावनाओंको तपस्याद्वारा कुचल ही देना होगा ! अपने भीतरकी सुन्दर और असुन्दर, ग्राह्य और घृण्य, आनन्दकारी और ग्लानिजनक, 'सु' और 'कु', यह सब विवेक-भावना क्या व्यर्थ है ? अनादि-कालसे हमारे भीतर एक वस्तुको हर्षसे अपनाने और दूसरीको दृढ़तासे वर्जित रखनेकी जो अंतस्थ सहज बुद्धि है, वह क्या व्यर्थ है ! क्या सबसे मुँह मोड़कर काय-क्लेशमे 'स्टॉइक रेजिनेशन' (Stoic resignation) में बन्द हो जाना होगा ? क्या संवेदनहीन, प्रभावहीन बननेकी ही साधना व्यक्तिके लिए सिद्धि होगी ? और ऐसा हुआ है। लोगोने अपनेको कुचलनेमें सिद्धि मानी है। उन्होंने अपनेसे इनकार किया है, दुनियासे इनकार किया है ૨૪૨ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानवका सत्य मोर एक प्रकारसे 'न' कारकी साधना की है। उन्होने 'मै अपनेको कुचल दूँगा ' ऐसा संकल्प ठानकर कुचलनेपर इतना जोर दिया है कि वे भूल गये है कि इसमे 'मैं' पर भी आवश्यक रूपमे जोर पड़ता है । 'मै ' कुचलकर ही रहूँगा, यह ठान ठानकर जो कुचलने में जोर लगाता है, उसका वह जोर असल में 'हं' के सिंचनमे जाता और चहींसे आता है। इस प्रकार, तपस्याद्वारा अपनेको कुचलने में आग्रही होकर भी उल्टे अपने सूक्ष्म अहंको अर्थात् 'मै ' को, सींचा और पोषा जाता है । जो साधना दुनियासे मुँह मोड़कर उस दुनियाकी उपेक्षा और विमुखतापर अवलंबित है वह अन्तमें मूलतः अहंसेवनका ही एक रूप है । जो विराट्, जो महामहिम, सब घटनाओं मे घटित हो रहा है, उसकी ओरसे विमुखता धारण करनेसे आत्मैक्य नहीं प्राप्त होगा । चीजें बदल रही है और उनकी ओरसे निस्संवेदन, उनकी ओरसे नितान्त तटस्थ, नितान्त असंलग्न और अप्रभावित रहनेकी साधना आरम्भसे ही निष्फल है । व्यक्ति अपने आपमें पूर्ण नहीं है, तब सम्पूर्णका प्रभाव उसपर क्यों न होगा ! प्रभाव न होने देनेका हठ रखना अपनेको अपूर्ण रखनेका हठ करने जैसा है, जो कि असंभव है । आदमी अपूर्ण रहनेके लिए नहीं है, उसे पूर्णताकी ओर बढ़ते ही रहना है । इसलिए जगद्गतिसे उपेक्षा-शील नहीं हुआ जा सकेगा । उससे अप्रभावित भी नही हुआ जा सकेगा । यह तो पहले देख चुके कि अपनेको स्वीकार करके उस जगद्गति से इनकार नही किया जा सकता। इसी भाँति यह भी स्पष्ट हुआ कि उधरसे निगाह हटाकर २४३ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवल अपने ऊपर उसे केन्द्रित करके स्वयं अप्रभावित बने रहने में भी सिद्धि नहीं है । परिवर्तनोंको संपन्न तब यही मार्ग है ( लाचारीका नहीं, मोक्षका ) कि हम घटनाओं को केवल स्वीकार ही न करें, प्रत्युत उन्हें स्वयं घटित करें । क्या वास्तवके साथ ऐक्य पाना ही हमारा लक्ष्य और वही हमारी सिद्धि नही है ? वह वास्तव ही घटनाओं में घटित बनकर व्यक्त हो रहा है । तब हमारा अपना व्यक्तीकरण भी इन घटनाओं में ही होगा। हम कर्म करेंगे, यह जानकर नहीं कि वैसा किये विना गुज़ारा नहीं; यह मानकर भी नहीं कि वैसा हमे करना चाहिए: बल्कि यह अनुभव करते हुए कर्म करेंगे कि हम उसके स्रष्टा हैं। परिवर्तनको स्वीकार भर करने के लिए हम नहीं हैं। उन 'करनेके लिए भी हम है । विकास हो और वह हाथ में लेकर विकसित कर जाय, इसकी प्रतीक्षा करते नहीं बैठना होगा । हम स्वयं विकासमे प्रबुद्ध होगे और उसे सिद्ध करेंगे। हम स्रष्टाकी प्रकृतिके समभागी है। हम केवल उपादान, उपकरण ही तो नहीं है। हम कर्ता भी है । चीजें बदलती है, वे सदा बदलती रही हैं, यहाँतक ही मनुष्यका सत्य नहीं है । मनुष्यका सत्य यह भी है कि हम चीज़ोंको बदलते है, हम उन्हें बदलते रहेंगे । मनुष्य परिवर्तनीय है, इसीलिए तो कि वह परिवर्तनकारी है । मनुष्य विकासशील है, क्योकि वह विकासशाली है । वह कर्मवेष्टित क्यों है ? क्योकि वह कर्मका स्रष्टा भी है। विकास हमें अपने २४४ wwwwwmm Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य, शिव, सुंदर 'सत्यं शिवं सुंदरं' यह पद आजकल बहुत लिखा-पढ़ा जाता है । ठीक मालूम नहीं, कौन इसके जनक है। जिनकी वाणीमें यह स्फुरित हुआ वह ऋषि ही होगे। उनकी अखंड साधनाके फल-स्वरूप ही, भावोत्कर्षकी अवस्थामें, यह पद उनकी गिरासे उद्गीर्ण हुआ होगा। लेकिन कौन-सा विस्मय कालांतरमें सस्ता नहीं पड़ जाता ? यही हाल ऋषि-वाक्योंका होता है। किंतु महत्तत्त्वको व्यक्त करनेवाले पदोंको सस्ते ढंगसे नहीं लेना चाहिए। ऐसा करनेसे अहित होगा | आगको जेबमे रक्खे फिरनेमें खैर नहीं है । या तो जो जेबमें रख ली जाती है वह आग ही नहीं है, या फिर उसमें कुछ भी चिनगारी है तो वह जेबमे नहीं ठहरेगी। सबको जलाकर वह चिनगारी ही प्रोज्ज्वल बनी दमक उठेगी। ___ 'सत्यं शिवं सुंदरं' पदका प्रचलन घिसे पैसेकी नाई किया जा रहा है । कुछ नहीं है, तो इस पदको ले बढ़ो । यह अनुचित है। यह असत्य है । अनीतिमूलक है। शब्द कीमती चीज़ है। आरंभमे वे मानवको बड़ी वेदनाकी कीमतमें प्राप्त हुए। एक नये शब्दको बनानेमें जाने मानव-हृदयको कितनी तकलीफ़ झेलनी पड़ी होगी। उसी बहुमूल्य पदार्थको एक परिश्रमी पिताके उड़ाऊ लड़केकी भाँति जहाँ तहॉ असावधानीसे फेंकते चलना ठीक नहीं है । अकृतज्ञ ही ऐसा कर सकता है। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' सत्यं शिवं सुंदरं ' पदसे हम क्या पाएँ, क्या लें, यह समझने का प्रयास करना चाहिए । उस शब्दकी मारफत, यदि हम कुछ नहीं लेते हैं और हमारे पास देने को भी कुछ नहीं है तो उस पदके प्रयोगसे आसान से बचा जा सकता है । ऐसी अवस्थामें बचना ही लाभकारी है। | महावाक्योमे गुण होता है कि वे कभी अर्थसे खाली नहीं होते । कोई विद्वान् उनके पूरे अर्थको खींच निकालकर उन शब्दोको खोखला नहीं बना सकता । उन वाक्योंमें आत्मानुभवकी अटूट पूँजी भरी रहती है । जितना चाहो उतना उनसे लिये जाओ फिर भी मानों अर्थ उनमें लबालब भरा ही रहता है। असल में वहाँ अर्थ उतना नहीं जितना भाव होता है। वह भाव वहाँ इसलिए अक्षय है कि उसका सीधे आदि-स्रोतसे संबंध है । इसीलिए ऐसे वाक्यो में जब कि यह खूबी है कि वे पंडितके लिए भी दुष्प्राप्य हो तब उनमे यह भी खूबी होती है कि वे पंडितके लिए भी, अपने बितमुताबिक, सुलभ होते है । भावार्थ यह कि ऐसे महापदोंका सार, अपने सामर्थ्य जितना ही हम पा सकते, दे सकते है । यहाँ जो ' सत्यं शिवं सुंदरं ' इस पदके विवेचनका प्रयास है उसको व्यक्तिगत आस्था - वुद्धिके परिमाणका द्योतक मानना चाहिए । सत्य, शिव, सुंदर ये तीनो एक वजनके शब्द नहीं है। उनमें क्रम है और अंतर है। सत्य-तत्त्वका उस शब्दसे कोई स्वरूप सामने नहीं आता । सत्य, सत्य है | कह दो सत्य ईश्वर है । वह एक ही बात हुई । पर वह २४६ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य, शिव, सुंदर कुछ भी और नहीं है। वह निर्गुण है । वह सर्वरूप है, संज्ञा भी है, भाव भी है । सत्का भाव सत्य है। जो है वह सत्यके कारण है, उसके लिए है । इस दृष्टिसे असत्य कुछ है ही नहीं । वह निरी मानव-कल्पना है। असत् , यानी जो नहीं है। जो नहीं है उसके लिए यह 'असत्' शब्द भी अधिक है। इसलिए 'असत्य' शब्दमें निरा मनुष्यका आग्रह ही है, उसमें अर्थ कुछ नहीं है। आदमीने काम चलानेके लिए वह शब्द खड़ा कर लिया है। यह कोरी अयथार्थता है । ___ इसी तरह 'सत्यता' शब्द भी यथार्थ नहीं है । वह शब्द चल पड़ा तो है पर केवल इस बातको सिद्ध करता है कि मानव-भाषा अपूर्ण है। जो है वह सत् । जो उसको धारण कर रहा है वह सत्य । अब 'शिव' और 'सुंदर' शब्दोंकी स्थिति ऐसी नहीं है। शिव गुण है, सुंदर रूप है । ये दोनो सम्पूर्णतया मानवात्माद्वारा ग्राह्य तत्त्व है । ये रूपगुणातीत नहीं है, रूपगुणात्मक है। ये यदि संज्ञा है तो उनके भाव जुदा है,-शिवका शिव-ता और सुंदरका सुंदर-ता। और जब वे स्वयंमें भाव है तब उन्हें किसी अन्य तत्वकी अपेक्षा है-जैसे 'यह शिव है', 'वह सुंदर' है। 'यह' या 'वह' उनके होनेके लिए जरूरी है। उनकी स्वतंत्र सत्ता नहीं है। ____ ऊपरकी बात शायद कुछ कठिन हो गई। मतलब यह कि सत्य निर्गुण है । शिव और सुंदर उसीका ध्येय रूप है। सत्य ध्येयसे भी परे है । वह अमूर्तीक है। शिव और सुंदर उसका मूर्तीक स्वरूप है। निर्गुण, निराकार, अंतिम सचाईका नाम है सत्य । वही तत्त्व ૨૪૭ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानवकी उपासनामें सगुण, साकार, स्वरूपवान् बनकर शिव और सुंदर हो जाता है। सत्यकी अपेक्षा शिव और सुंदर साधना-पथ हैं, साध्य नहीं । वे प्रतीक है, प्रतिमा हैं। स्वयं आराध्य नहीं हैं, आराध्यको मूर्तिमान करते है। शिव और सुंदरकी पूजा यदि अज्ञेय सत्यके प्रति आस्था उदित नही करती, तो वह अपने आपमें अहं-पूजा है। वह पत्थर-पूजा है । वह मूर्तिपूजा सच्ची भी नहीं है। सच्ची मूर्तिपूजा वह है जहाँ पूजकके निकट मूर्ति तो सच्ची हो ही, पर उस मूर्तिकी सचाई मूर्तिसे अतीत भी हो । ___ इस निगाहसे शिव और सुंदर मंजिलें है, मकसूद नहीं हैं। इष्ट-साधन है, इष्ट नहीं है । इष्ट भी कह लो, क्यों कि इष्ट देवकी राहमें है। पर यदि राहमें नहीं हैं तो वे अनिष्ट है। ___ लेकिन यहाँ हम कहीं गड़बड़में पड़ गये मालूम होते हैं । जो सुंदर है वह क्या कभी अनिष्ट हो सकता है ? और शिव तो शिव है ही । वह अनिष्ट हो जाय तो शिव ही क्या रहा! ___ बात ठीक है। लेकिन शिवका शिवत्व-निर्णय मानव-बुद्धिपर स्थगित है । सुन्दरका सौन्दर्य-निरूपण भी मानव-भावनाके ताबे है । मानव-बुद्धि अनेक रूप है। वह देश-कालमें बंधी है । इसलिए ये दोनो (शिव, सुंदर) अनिष्ट भी होते देखे जाते है । इतिहासमें ऐसा हुआ है । अब भी ऐसा हो रहा है। सत्य स्वयं-भू है, एक है, उसे आलंबनकी आवश्यकता नहीं है। सब विरोध उसमें लय हो जाता है। उसके भीतर द्वित्वके लिए स्थान नहीं है । वहाँ सब 'न'कार स्वीकार्य है। २४८ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य, शिव, सुंदर शिव और सुंदरको आलंबनकी अपेक्षा है । अशिव हो, तभी शिव संभव है । अशिवको पराजित करनेवाला शिव । यही बात सुंदरके साथ है । असुंदर यदि हो ही नहीं तो सुंदर निरर्थक हो जाता है। दोनो बिना द्वित्वके संभव नहीं है । ___ संक्षेपमें हम यों कहे कि सत्य अनिर्वचनीय है। उसपर कोई चर्चा-आख्यान नहीं चल सकता । वह शुद्ध चैतन्य है। वह समप्रकी अंतरात्मा है। और जिनपर बातचीत चलती और चल सकती है, वे है शिव और सुंदर । हमारी प्रवृत्तियोंके व्यक्तिगत लक्ष्य ये ही दो है-शिव और सुंदर। __ सत्य अनंत है, अकल्पनीय है । अतः हम जो कुछ जान सकते, चाह सकते, हो सकते हैं, वह सब एकांगी सत्य है । दूसरी दृष्टिसे वह असत्य भी हो सकता है । सम्पूर्ण सत्य वह नहीं है। इस स्वीकृतिमेंसे व्यक्तिको एक अनिवार्य धर्म प्राप्त होता है। उसको कहो, प्रेम । उसीको फिर अहिंसा भी कहो, विनम्रता भी कहो। यदि मूलमे यह प्रेमकी प्रेरणा नहीं है तो शिव और सुंदरकी समस्त आराधना भ्रांत है । सुंदर और शिवकी प्राप्तिके अर्थ यात्रा करनेकी पहली शर्त यह है कि व्यक्ति प्रेम-धर्ममें दाक्षित हो ले। प्रेम कसौटी है । सुंदर और शिवके प्रत्येक साधकको पहले उसपर कसा जायगा। जो खरा उतरेगा वह खरा है । जो खोटा निकलेगा, वह खोटा है। प्रत्येक मानवी प्रवृत्तिको इस शर्तको पूरा करना होगा । जो करती २४९ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, वह विधेय है; जो नहीं करती, वह निपिद्ध है। सुंदरके नामपर अथवा शिवके नामपर जो प्रवृत्ति प्रेम-विमुख वर्तन करेगी वह मिथ्या होगी। दूसरे शब्दोभे वह अशिव होगी, असुंदर होगी,-चाहे तात्कालिक 'शिव'-वादी और सुंदरं 'वादी कितना भी इससे इनकार करे। . असलमें मानवकी मूल वृत्तियाँ मुख्यतः दो दिशाओंमे चलती हैएक वर्तमानके हृदयकी ओर, दूसरी भविष्यके आवाहनकी ओर । एक . रोहक, दूसरी पारलौकिक । एकमें आनंदकी चाह है, दूसरीमें मंगलकी खोज है । एकका काम्य देव सुंदर है, दूसरीका आराध्य देव शिव है। ___ यम-नियम, नीति-धर्म, योग-शोध, तपस्या-साधना, इनके मूलमें शिवकी खोज है। इनकी आँख भविष्यपर है। साहित्य-संगीत, मनीपा-मेधा, कला-क्रीड़ा,-इनमें सुंदरके दर्शनकी प्यास है । इनमे वर्तमानको थाह तक पा लेनेकी स्पर्धा है। आरंभसे दोनों प्रवृत्तियोमें किंचित् विरोध-भाव दीखता आया है। शिक्के ध्यानमें तात्कालिक सौन्दर्यको हेय समझा गया है। यही क्यों, उसे वाधा समझा गया है। उधर प्रत्यक्ष कमनीयको हाथसे छोड़कर मंगल-साधनाकी वहकमें पड़ना निरी मूर्खता और विडंबना समझी गई है। तपस्याने क्रीडाको गर्हित वताया है और उसी दृढ़ निश्चयके साथ लीलाने तपस्याको मनहूस करार दिया है। दोनों एक दूसरीको चुनौती देती और जीतती-हारती रही हैं। __यह तो स्पष्ट ही है कि शिव और सुंदरमें सत्यकी अपेक्षा कोई विरोध नहीं है । दोनो सत्यके दो पहल है । दोनों एक दूसरे के पूरक . हैं। पर अपने अपने-यापमे सिमटते ही दोनोमे अनबन हो रहती २५० Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य, शिव, सुंदर है । और इस तरह भी, वे दोनों एक प्रकारसे परस्पर सहायक होते हैं, क्योंकि दोनों एक दूसरे के लिए अंकुश ( = Check) रखते है । मनुष्य और मनुष्य- समाजके मंगल - पक्षको प्रधानता देनेवाले नीति-नियम जब तब इतने निर्मम हो गये है कि जीवन उनसे संयत होनेके बजाय कुचला जाने लगा है। तब इतिहासके नाना कालोमें, प्रत्युत प्रत्येक कालमे, जीवनके आनंद - पक्षने विद्रोह किया है और वह उभर पड़ा है। इधर जब इस भोगानंद - पक्षकी अतिशयता हो गई है तब फिर आवश्यकता हुई है कि नियम-कानून फिर उभरे और जीवनके उच्छृंखल अपव्ययको रोक कर संयत कर दें। इस कथनको पुष्ट करनेके लिए यहाँ इतिहासमेंसे प्रमाण देनेकी श्रावश्यकता नहीं है। सब देशो, सब कालोका इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है। स्वयं व्यक्तिके जीवनमें इस तथ्यको प्रमाणित करनेवाले अनेकानेक घटना-संयोग मिल जायँगे । फिर भी, वे प्रमाण प्रचुर परिमाण में किसीको स्थापत्य - कला, वास्तु कला, साहित्य-संगीत, मठमंदिर, दर्शन -संस्कृति और इधर समाज-नीति और राजनीतिके क्रमिक विकासके त्र्अध्ययनमे जगह जगह प्राप्त होंगे । व्यक्तित्वके निर्माणमें प्रवृत्तिका और निवृत्तिका समान भाग है । जहाँ शिव प्रधान है - वहाँ निवृत्ति प्रमुख हो जाती है । वहाँ वर्तमानको थोड़ा-बहुत क़ीमतमे स्वाहा करके भविष्य बनाया जाता है। जहाँ सुंदर लक्ष्य है वहाॅ प्रवृत्ति मुख्य और निवृत्ति गौरा हो जाती है । वहाँ भविष्यपर बेफिक्रीकी चादर डालकर वर्तमानके रसको छककर लिया जाता है। वहाँ ज्ञान लक्ष्य नहीं है, प्राप्ति भी लक्ष्य नहीं है, मग्नता २५१ • Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और विस्मृति लक्ष्य हैं । वहाँ सुखकी संभाल नहीं है, काम्यमें सब कामनाओं समेत अपनेको खो देनेकी चाह है । पहली साधना है, दूसरा समर्पण है। आरंभमें जो संकेतों कहा वही यहाँ स्पष्ट कहें कि आनन्द-हीन साधना उतनी ही निरर्थक है जितना साधना-हीन आनन्द निष्फल है। वह सुंदर कैसा जो शिव भी नहीं है, और शिव तो सुंदर है ही। इस दृष्टिसे मुझे प्रतीत होता है कि सुंदरको फिर शिव-ताका ध्यान रखना होगा और शिवको सत्याभिमुख रहना होगा। शिव सत्यामिमुख है तो वह सुंदर तो है ही। अर्थात् , जीवनमें सौदर्योन्मुख भावनाओंका नैतिक (= शिवमय) वृत्तियोंके विरुद्ध होकर तनिक भी चलनेका अधिकार नहीं है। शुद्ध नैतिक भावनाओको खिमाती हुई, उन्हें कुचलती हुई जो वृत्तियों सुंदरकी लालसामें लहकना चाहती हैं वे कहीं न कहीं विकृत है। सुंदर नीति-विरुद्ध नहीं है । तब यह निश्चय है कि जिसके पीछे वे आवेशमयी वृत्तियाँ लपकना चाहती है वह 'सुंदर' नहीं है । केवल छमाभास है, सुंदरकी मृगतृष्णिका है।। __सामान्य बुद्धिकी अपेक्षासे यह समझा जा सकता है कि शिवको तो हक है कि वह मनोरम न दीखे, पर सुंदरको तो मंगल-साधक होना ही चाहिए । जीवनका संयम-पक्ष किसी तरह भी जीवनानंदके मध्य अनुपस्थित हुआ कि वह आनंद विकारी हो जाता है। __ अपने वर्तमान समाजकी अपेक्षामें देखें तो क्या दीखता है ! स्वभावतः वे लोग जिनका जीवन रंगीन है और रंगीनीका लोलुप है, जिनके जीवनका प्रधान तत्त्व आनंद और उपभोग है, जो स्वयं २५२ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्धतिका आविष्कार किया । जब यह हो गया, तब वह धीमे-धीमे भाषाका महत्त्व भूलने लगा । जो आत्म-दानका साधन था, वह आत्म-वंचनाका वाहन बना । व्यक्ति उसमे भावनासे अधिक अपना अहंकार गुंजारने लगा । जहॉ यह है, वहीं भाषाका व्यभिचार है । वैसा लिखना केवल लिखना है, वह साहित्य नहीं है। जो हमारे भीतरकी अथवा किसीके भीतरकी रूद्ध वेदनाको, पिंजरबद्ध भावनाओंको, रूप देकर आकाशके प्रकाशमे मुक्त नहीं करता है, जिसमे अपने स्वका सेवन है और दान नहीं है, वह भी साहित्य नहीं है। साहित्यका लक्षण रस है, रस प्रेम है। प्रेम अहंकारका उत्सर्ग है । इससे साहित्यका लक्षण ही उत्सर्ग है। प्रश्न-लेकिन स्थायी साहित्य कौन-सा ? उच्च साहित्य कौन-सा ? उत्तर-स्थायी साहित्य वह, जिसमे मानवकी अधिक स्थायी वृत्तियोका समर्पण हो । जिसमें जितना ही रूपका दान है, शरीर सौन्दर्यका दान है, उसका आनद उतना ही अल्पस्थायी है । ऐन्द्रियिकताकी अपीलवाला साहित्य क्षणस्थायी है। हृदयका उत्सर्ग अधिक स्थायी है । इससे भी ऊपर है अपने सर्व-स्वका उत्सर्ग | जहाँ अपने प्रियको पानेकी कामनाका भी उत्सर्ग है, जहाँ सर्वस्वसमर्पण है, वहॉ सर्वाधिक स्थायी तत्त्व है । उसी तत्त्वके मापसे हम लोग मरणगील अथवा अमर इन सशाओसे साहित्यका, विवेक किया करते हैं। इसी प्रकार जहाँ हमारे जितने ऊँचे अंशका उत्सर्ग है, वहॉ साहित्यमे उतनी ही उच्चता है। प्रश्न- क्या साहित्य समयानुसार बदलता रहता है ? उत्तर-साहित्यका रूप तो समयानुसार बदलेगा ही, पर उसकी आत्मा वही एक और चिरतन है । मानवीय सब कुछ बदलता है । पर मरणशील मानवोके वीचमे एक अमर सत्य भी है । क्षण-क्षणमे जैसे एक निरन्तरता है वैसे ही खण्ड-खण्डमे एक अखण्डता है। उसी निरंतरताकी अभिव्यक्ति क्षणोमे होती है। क्षण स्वयं तो क्षणजीवी ही हैं, पर वे क्षणातीतको भी धारण कर रहे हैं । यही बात साहित्यके मामलेमे भी समझना चाहिए । उसका सब कुछ बदलेगा, वह हर घडी बदल रहा है; पर उसका तत्त्व अपरिवर्तनीय है। प्रश्न-यहा आपका रूपसे क्या मतलब है ? क्या रूपका मतलब साहित्यके बाह्य कलेवरसे है ? २६० Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य उत्तर --- हॉ, रूपसे मेरा वही भावार्थ है। उसमें भाषा, शैली, मुहावरे, व्यंजनाके और साधन, सब आ जाते हैं। इधर एक नई चीज़ पैदा की जा रही है, जिसको कहते हैं 'टेकनीक ' । वह आत्मासे तोड़कर साहित्यको नियमित शास्त्रका रूप देना चाहती है। उसको भी मैं साहित्यके परिवर्तनीय रूपोंमे गिनता हूँ। प्रश्न --- साहित्यका तो शायद आत्मासे सम्बन्ध है और रहना ही चाहिए; 'फिर यह ' टेकनीक'का साहित्यसे आत्माको अलग करना ठीक है ? उत्तर -- इसको समझनेके लिए आप अपनेको लीजिए। आपका आत्मासे संबंध है या नहीं ? और आप शरीरमें भी हैं या नहीं ? अब अगर मैं यह कहूँ कि जितने अधिक आप आत्मा हैं और जितने अधिक उस आत्माके अविरुद्ध आपका शरीर है उतने ही अधिक आप महान् है तो क्या ऐसा कहने मे कुछ अयथार्थ होगा ! इस जगतमें कुछ प्राणी हैं जो सिरके बालोंको तरह-तरहके लच्छोंमें काढते हैं; अंगोपांगको प्रकार - प्रकारसे सुसज्जित रखते हैं और शरीरको आभूषित रखने में पर्यास चिन्ता व्यय करते हैं । उस शरीर-सज्जाका योग लगभग आत्मासे होता ही नहीं। मैं उसको क्या कहूँ ? क्या मैं यह न कहूँ कि उस साज-सज्जा में जीवनकी शुद्ध कला अभिव्यक्त नहीं होती। वहाँ जो है वह कुछ नकली- सा है । साहित्यमें भी ऐसा हो सकता और हुआ करता है । मूल भावके प्रति अपेक्षाकृत उदासीन होकर हम उसके अंगोपागोंकी परिसजामें लुभा पड़ेंगे तो हम साहित्यके नामपर ठेठ असाहित्यिक हो चलेंगे, ऐसा मेरा विश्वास है। देखिए न आज, नायिकाभेदकी चर्चा में कहॉ तक औचित्य रह गया है ? वह क्या व्यसनकी हदतक नहीं पहुँच गई थी ? साहित्यको एक शास्त्र अथवा एक विद्या बनाना इस खतरेसे खाली नहीं है । आजकल स्पेश्यलाइजेशनकी ( विशेषीकरण की ) प्रवृत्ति बहुत है। हर बातका एक अलग शास्त्र है। इससे फायदा तो होता है। आविष्कारोंकी सूझ इसी पद्धतिसे हाथ आती है। लेकिन जब कि पदार्थ-ज्ञानको इस तरह भेद - विभेदोंमें विभक्त करके देखनेमें कुछ लाभ भी है, तब यह नहीं भूल जाना चाहिए कि वास्तव जीवनमें वैसे खण्ड हैं नहीं । जीवन एक समूचा तत्त्व है। साहित्यके हर विभागमें साहित्यकता उतने ही अंशमें है, जहाँतक कि उसमे जीवन-स्पंदन है । २६१ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानसिक संकीर्णताका विष फैलानेवाली पुस्तकोंका प्रचार ही मैं निषिद्ध ठहरा दूँ । उनसे समाजका बड़ा अकल्याण होता है । प्रश्न - मुग़ल- कालमें राजपूतोको उत्साह दिलाने के लिए उस समय के कवियोंने जो साहित्य रचा- वह भी क्या आपकी ऊपर कही गई व्याख्यामें आ जाता है ? उत्तर- इस प्रश्नमें एक भूल मालूम होती है। उपयोगिताकी दृष्टिसे आपके लिए उपयोगी वस्तु वही हो सकती है, जो कल या परसों अनुपयोगी हो जाय । जिसमे अनुपयोगी होनेका सामर्थ्य नहीं वह वस्तु उपयोगी ही नहीं । जिसने शूरता और बलिदानका ओज-दान किया वह साहित्य निर्जीव नहीं रहा होगा । उसकी सजीवता असदिग्ध है । किन्तु यदि उसके साथ यह भी मिलता हो कि यवनको मारो और आज उस ' यवन' शब्दकी ध्वनिमें एक विशिष्ट जातिका बोध समाविष्ट रहता है तो कहना होगा कि वह अश ग़लत है। आज वह ओज-संचारी भी नहीं हो सकता । अमुकको विरोधमें रखकर यदि हम अपने भीतर शक्ति पाते हैं, तो वह शक्ति नहीं है, वैर है । साहित्य प्रेमोत्सर्गकी शक्ति देता है । द्वेष और घृणाकी शक्ति देनेवाला उतने ही अंश में असाहित्य है । -तबकी परिस्थितियोंमें विशिष्ट रूपसे उपयोगी पड़नेवाले साहित्यका हक है कि वह आजके लिए अनुपयोगी हो जाय । उस ज़मानेका बहुत-सा साहित्य हमारे बढते हुए जीवनका अब भी साथ नहीं दे पा रहा है और छूटता जा रहा है। प्रश्न - तो क्या आपका मतलब यह है कि उस समय के साहित्यको निकाल दिया जाय ? यदि यही मतलब हो तो भूषणादि कवियोकी बहुत-सी कविताएँ निकल जायेगी । उत्तर—यह मतलब तो कैसे हो सकता है कि एक झाड़ूसे सबको साफ दिया जाय। हॉ, यह तो ठीक ही है कि पुराना सब कुछ जीवनकी गति के -साथ निभ नहीं सकता । निकाल देनेकी बात तो शासन-प्राप्त लोग करें । मैं तो यही कहने योग्य हॅू कि जो लेन और पाने योग्य है उसको लेने और पानेमें, जो छूटने योग्य है वह स्वयंमेव छूट जायगा । आज अगर हिन्दीमे भी भूषणसे अधिक रवीन्द्र पढ़े जाते हैं तो क्या मैं इसको भूपणका अपमान समझू ! दिन आ सकता है कि रवीन्द्र भी एक दिन न पढ़े जायँ । लेकिन इन बातो में मानापमानका प्रश्न ही कहाँसे उठता है ? यदि आज, आज ही रातके बारह चजे खत्म हो जायगा, कलंके दिन बिल्कुल शेष न रहेगा, तो क्या किसी | 1 २७० Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य सेवीका अहंभाव प्रकार भी यह इस आजके 'आज' की अवगणना है ! ऐसा नहीं है । 'आज' का तो अर्थ ही यह है कि वह कल न रहेगा और यह उस 'आज' को भी मालूम होना चाहिए। उसके पक्ष में यह दावा पेश करना कि नहीं, इस आजके 'आज' को हम तो सनातन तत्त्वकी भाँति सदा कायम रक्खेंगे - यह दावा पहलेसे ही अपने आपमें हारा हुआ है। भूषण आदिके प्रथ मैंने समीक्षाबुद्धिपूर्वक नहीं देखे हैं । वस्तुतः देखे ही नहीं हैं। बस जहाँ-तहाँ कुछ देखा है। उनके किस अंशको रखकर किस अंशको अपने साथसे छूटने देना है, यह तो किसी हिन्दीके शाता विद्वानसे पूछनेकी बात है । प्रश्न - तो आप शायद शिवा बावनीको उड़ा देनेके पक्षमे हैं ? उत्तर - मैंने कहा न, इस बारे में कुछ कहनेका मैं अधिकारी नहीं हूँ । मोह-पूर्वक न मुझे कुछ रखना है न निकालना है। इस प्रश्नका निर्णय निर्मोही वृत्तिसे जो हो कर लेना चाहिए। साहित्य सेवीका अहंभाव प्रश्न --- हम साहित्य-सेवी कैसे बन सकते हैं ? उत्तर - अच्छी बातोंके सोचने और फिर उन अच्छी बातोंके लिखने । अपनेको औरोंमें खोने और दूसरोंको अपनेमें पानेसे । प्रेमकी साधनासे और अहंकारके नाशसे । प्रश्न - लेकिन साहित्यकोंमें तो अहंभाव कुछ विशेष ही पाया जाता है! उत्तर—- यह तो मैं मान लूँगा कि लेख आदि लिखनेवालोंमें अहंभाव हुआ करता है। उसकी पहली वजह यह है कि वे अपनेको पाना चाहते हैं । वे दुनियाके प्रार्थी होकर नहीं जीना चाहते, खुद होकर जीना चाहते हैं । जो बनी हुई मान्यतायें हैं, वे ही उनको मान्य नहीं होतीं । वे उन्हें स्वयं बनानेका कष्ट उठाना चाहते हैं। जबतक उनकी वे मान्यतायें बनती रहती हैं, तबतक लगभग आवश्यक ही है कि वे न झुकनेकी चिन्ता रक्खें । जो सत्य पा लिया गया है, उतनेहीसे उनकी पूर्ति नहीं होती अथवा कहो वे अपनी निजकी साधनाद्वारा भी उसे अपने दिलके भीतर पाना चाहते हैं । वे २७१ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जब मैं कलह-वृत्तिका समूल नाश संभव मानता हूँ तब हाँ, एक चीज़का नाश नहीं है। वह चीज़ है युद्ध । युद्धको असंभव बना दे, तो जीवन भी असंभव ठहरता है। हम सॉस लेते हैं, तो इसमे भी संघर्ष, इसमें भी हिंसा है। लेकिन इससे पहली बात खंडित नहीं होती। वह इसलिए कि जीवन अलबतह युद्ध-क्षेत्र है। लेकिन समूच युद्ध-क्षेत्रको धर्म-क्षेत्र बनाया जा सकता है। मनुष्यताका त्राण इसीमें है। अर्थात् युद्ध किया जाय किन्तु धर्म-भावसे । कर्मके क्षेत्रमे कलह-हीन वृत्ति असंभव नहीं है, ऐसा मैं मानता हूँ। और चूंकि ऐसा मैं मानता हूँ इससे शान्ति प्रस्थापनके सतत प्रयत्नोकी अचूक निष्फलतासे भी मुझे निराश नहीं हो जाना होगा। प्रश्न-यह तो माना कि काम और अर्थ (=Sex and Money ) को आजके जमानेने जरूरतसे ज्यादा महत्त्व दिया है। पर क्या आप कोई व्यावहारिक (=Practical ) तरीके सुझा सकते हैं जिनसे उनका महत्त्व घट सके ? उत्तर-जिसको पूरे अर्थोंमे व्यावहारिक (=Practical ) कहें शायद ऐसा कोई तरीका इस वक्त मैं नही सुझा सकता। प्रैक्टिकल शब्दमें ध्वनि आती है कि उपाय संगठित हो, साधिक हो । उस प्रकारके संघ या संगठनकी योजना पेश करनेके लिए मेरे पास नहीं है । इस प्रकारका संकल्प (=Will) उत्पन्न हो जाय तो उस आधारपर संगठन भी अवश्य हो चलेगा । मेरा काम इस संकल्पको जगानेमे सहायक होनेका ही है। संकल्प जगा कि मार्ग भी मिला . क्खा है | The Will Shall have its way. जैसे पहले कहा, यहॉ भी अमोघ उपाय यह है कि व्यक्ति अपनेसे आरंभ करे । मैं मानता हूँ कि अब भी मानवीय व्यापारोको हम मूलतः देखे तो उनका आधार काम और अर्थमे नहीं, किसी और ही अन्तस्थ वृत्तिमे मिलेगा। उदाहरणार्थ परिवारको ही देखिए । परिवार समाजकी इकाई है, शासन-विधान (-State) की मूल पीठिका है। परिवारमे सब लोग क्या काम और अर्थक प्रयोजनको लेकर परस्पर इकडे मिले रहते हैं १ माता-पुत्र, पिता-पुत्री, माई-बहिन आदि नातोके बीचमें इस कामार्थ-रूप प्रयोजनको मुख्य वस्तु मानना परिवारकी पवित्रताको खींचकर नरकमें ला पटकनेके समान होगा। मैं कहता हूँ कि वह कामार्थी प्रयोजनका नाता दोको एक नहीं कर सकता । अधिकसे अधिक वह , दोको समझौतेके भावसे कुछ समयतक पास-पास रख सकता है। किंतु आपसमे २८० Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध प्रश्नोंका समाधान ऐक्य साधे बिना जगतका त्राण नहीं । इससे कामार्थमयी इच्छाओसे ऊँचे उठे बिना काम न चलेगा। अत उपाय यह बना कि हम व्यक्तिशः अपने वैयक्तिक जीवनमे इस प्रकारकी संकीर्ण वृत्तियोको लेकर आगे न बढे । इन वृत्तियोका सहसा लोप तो न होगा, लेकिन इतना हो सकता है कि उन वृत्तियोको लेकर हम सार्वजनिक विक्षोम पैदा न करे । अर्थात् , जब हम क्रोध लोभके वशीभूत हो, तो मानो अपने भीतर सकुचकर अपने कमरेमे अपनेको मूंद ले । अपनेसे बाहर जब हम आवं तब प्रेम-पूर्वक ही वर्तन करे। दूसरे शब्दोमे इसका यह अर्थ होता है कि यो तो हम पूरी तरह निःस्वार्थ नहीं हो सकते, पर स्वार्थको लेकर हम सीमित रहें और सेवा-भावनाको लेकर समाजमें और सार्वजनिक जीवनमे आवें । अपरिग्रह, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, ये तीन व्रत हमे इस सिद्धान्त-रक्षामे मदद देंगे। प्रश्न-परमात्मा क्या है ? क्या वह निरी कल्पनाका, बुद्धिका, हृदयक स्वनिर्मित विकार नहीं है ? भयकी भावनाओपर समस्त धर्मोंका प्रारम हुआ, यह बात यदि सच है तो अब सुबुद्ध मानवको पुनः उसी भयात आदिम ज्ञान-हीन जन्तुकी ओर मुड़ने और वैसे ही बननेका ही क्या यह परमात्म-पूजा-भाव नहीं है ? ___ उत्तर-परमात्मा क्या है यह पूछते हो? तो सुनो-जो है, परमात्म है। मैं हूँ ? तुम हो? तो हम दोनो जिसमे हैं वह परमात्मा है। हम दोनो जिसमें होकर दो नहीं हैं, एक हैं, वह परमात्मा है। नहीं, परमात्मा विकार नहीं है । उसको छोड़नेसे, हॉ, शेष सब कुछ विकार हो जाता है। विकार इस लिए भी नहीं है कि हमारी सारी कल्पना, हमारी सारी बुद्धि, हमारे सारे हृदयकी शक्तिद्वारा भी वह निर्मित नहीं हुआ। हम उसका निर्माण नहीं कर सकते । कल्पना, बुद्धि, हृदयद्वारा हम उसको ग्रहण ही कर सकते हैं। उसकी प्रतीतिको हम बनाते नहीं है, वह प्रतीति तो हमारे मन-बुद्धिपर हठात् छा जाता है। जो हमारे द्वारा निर्मित है वह बेशक हमसे दूसरेके लिए और हमारे कालसे दूसरे कालके लिए विकार हो जाता है। लेकिन ध्यान रहे कि मनुष्यों अथवा जातियोद्वारा उनकी पूजा भक्ति अथवा, २८१, Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहेंगी। और मुल्कोने देखते देखते अपनी अपनी भाषाओंको सर्व-सम्पन्न बना लिया है। एक बेर सोचा कि अपनी ही भाषामें अपनेको व्यक्त करेगे, और जब राष्ट्र-भरने यह सोचा, तब राष्ट्रकी राष्ट्र-भाषाको समय होनेमे देर क्या लगेगी? प्रश्न-हिन्दी साहित्यको पुष्ट और रुचिकर बनानेके लिए आपकी रायमें कौन-कौन से उपाय होने चाहिए ? उत्तर-मैं तो एक ही उपाय जानता हूँ। यह मैं लेखककी हैसियतसे कहता हूँ, ऐडमिनिस्ट्रेटरकी हैसियतसे नहीं। और लेखककी हैसियतसे जो मैं उपाय जानता हूँ वह यह है कि छोटे संकुचित स्वार्थसे मैं बाहर निकलूं, मेरी सहानुभूतिका क्षेत्र व्यापक हो । कमसे मैं विमुख न रहूँ, जो सोचूँ पूरे हृदयसे सोचूं । अपनेको बचाऊँ नहीं, और अपने जीवनमें अपने आदर्शको उतारूँ। मेरा प्रेम मेरे साहित्यको रुचिकर बनायेगा । अपने विश्वासोके प्रति मेरी लगन और तत्परता मेरे साहित्यको पुष्टता देगी। ___ इसके अतिरिक्त आपके प्रश्नपर मैं किसी दूसरी दृष्टिसे अभी यहॉ विचार नहीं करना चाहता। ७-९-३६ www २२. Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुछ पत्रोंके अंश भाई भाचवेळी न कि किताबख जीवनकी १-८-३५ पत्र मिला।...... मेरे बारे में यह बात आप जान लें कि किताबोंमें मेरी पहुँच कम है । इस लिए मेरा जवाब थोड़ा और सादा ही हो सकता है। जीवनसे कलाको तोडकर मैं नहीं देख पाता । सत्याभिमुख जीवनकी अभिव्यक्ति कला है । शब्दाकित अभिव्यक्ति साहित्य है। आप देखें, जीवनके साथ 'सत्याभिमुख विशेषण मैंने लगाया है। अर्थात् जो इम है, वही हमारा जीवन नहीं है । जो होना चाहते हैं, हमारा वास्तव जीवन तो वही है । जीवन एक अभिलाषा है । जब कलाके संबंधमे 'जीवन' शब्दका उपयोग करता हूँ तब उसे आप उस चिर-अभिलाषाकी परिभाषामें ही समझें। उस अर्थमें समझनेसे जीवन और कलाका विरोध, या Parallelism उड़ जाता है। क्या जो होना चाहते हैं, वही हम हैं ? क्या कमी भी वैसे हो सकेंगे? स्पष्टतः, नहीं। किन्तु इसका क्या कभी भी यह मतलब है कि aspiration व्यर्थ है ? यह मतलब करना तो सारी गति और चेयको मिटा देना है। आदर्श और व्यवहारमें अंतर है । वह अंतर एक दृष्टिसे अनंतकालतक रहेगा। उस दृष्टिसे वह अनुलंघनीय भी है। किंतु इसीलिए तो उस अंतरको कम करना और भी अनिवार्य है। आदर्श अप्राप्य है, क्या इसीसे उसके साथ एकाकारता पानेके दायित्वसे हमारी मुक्ति हो जाती है। इसीसे कलाको 'कला के ही क्षेत्रकी वस्तु न मानने देकर उसे जीवन में उतारनेकी वस्तु कहते रहना होता है। जो कला वास्तवसे असम्बद्ध होकर ही जी सकती है, वास्तवके स्पर्शसे जो सर्वथा छिन-भिन्न हो रहती है, मेरे निकट तो वह हस्व-प्राण है। मैं उसे गिनतीमे नहीं लाता । कला अपने भीतर मरी श्रद्धाकी शक्तिसे 'वास्तव 'को संस्कृत करनेके लिए है, उससे परास्त होनेके लिए नहीं। २९१ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कला मात्र स्वप्न नहीं । वह वास्तवके भीतर रमी हुई वास्तविकता है, जैसे शरीरके भीतर रमी हुई आत्मा । वह अधिक वास्तव है। जिस आदर्श-क्षेत्रको हम कलात्मक चेतनासे स्पर्श करते हैं, जिस स्वर्गकी हम इस प्रकार झॉकी पाते हैं और उसके आह्वादको व्यक्त करते हैं, क्या उस स्वर्गमे अपने इस समग्र शरीर और शारीरिक जीवनके समेत पहुंचे बिना हम तृप्त हो ? तृप्त नहीं हुआ जा सकेगा । इसीसे तमाम जीवनके जोरसे कलाको पाना और वहाँ पहुँचना होगा। Oscar Wilde, को मैंने कुछ पढा है । मैं उसे भटक गया हुआ व्यक्ति समझता हूँ | विचारकी सुलझन उसकी विशेषता नहीं। अपनी रचनाओकी विविधतापर मैं अप्रसन्न नहीं हूँ। न उनमें कोई ऐसा विरोध देखता हूँ । हा, विविधता तो देखता ही हूँ और सबका विविध मूल्य मी ऑकता हूँ। 'एक टाइप' और 'राज-पथिक में स्थान भेद और मूल्य-भेद तो है ही । पर मेरी अपेक्षासे तो दोनेमि एक-सा ही सत्य है ।...... यह स्वीकार करना होगा कि मैं अपनी किन्हीं रचनाओंमे भाव-प्रवण अधिक हूँ, कहीं जीवन-समीक्षक विशेष । किन्तु कहानियोके साथ मैं अपना सम्बन्ध चिन्तापूर्वक स्थिर नहीं करता हूँ और अपनी सभी रचनाओको मैं प्रेम करना चाहता हूँ। _ मैं चाहता हूँ, छोटी और तुच्छ वस्तु मेरे लिए कहीं कुछ रहे ही नहीं । धूलके कनमे भी मै उस परम प्रेमास्पद परम रहस्यको क्यों न देख लेना चाहूँ जिसे 'परमात्मा' कहते हैं । और वह परमात्मा कहाँ नहीं है ? आज कीचड़में ही उसे देखना होगा। यही आस्तिकताकी कसौटी है। मूर्तिमे तो अल्पश्रद्धावान् भी देख पाता है। कलाकार उसी अपरिमेय श्रद्धाका प्रार्थी है और तब कहॉ उसके हाथ Soiled हो सकते हैं। वह तो सब जगह अपूर्व महिमाके दर्शन कर और करा सकता है। यदि मैं खादकी उपयोगिताके सम्बन्धमे कुछ अपना मौलिक उपयोगी अनुभव लोगोको बता सकूँ तो यह मैं साहित्यिक जैनेन्द्र के लिए कलंककी बात नहीं समझंगा, प्रत्युत श्रेयकी बात ही समझूगा । हम क्यों कलाको छुई-मुई-सी वस्तु, hot house product, बनावें । वह २९२ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुछ पत्रोंके अंश शीशेमें बन्द प्रदर्शनकी वस्तु ही बनकर रहनेवाली क्यों बने, वह क्यों न महाप्राणवान्, सर्वथा अरक्षित, खुली दुनियामें अपने ही बलपर प्रतिष्ठित बनी खडी हो ? मेरी कल्पना है कि अपरके वाक्योंमें आपको अपने प्रश्नके सम्बन्धमें मेरी स्थितिका कुछ आभास प्राप्त होगा।...... ता. २५-९-३५ ....मुझे अपने कथनों में विरोध नहीं दीखता । अन्य विचारकोंके वाक्य जो आपने लिखे हैं, उनके साथ भी मेरी स्थितिका अविरोध बैठ सकता है। हमको मान लेना चाहिए कि जो शब्दों में आता है, सत्य उससे परे रह जाता है । उसकी ओर सकेत कर सकें, यही बस है । वह भला कहीं परिभाषामें बंधनेवाला है ! इससे लोगोके भिन मिन वक्तव्योंका भाव लेना चाहिए । मैं जिसे 'सत्य' शब्दसे बूझता हूँ, उसमें तो सत्ता मात्र समाई है । जगतका झूठ-सच सब उसमें है। 'वास्तव'से मेरा अभिवाय गैकिक सत्यस है जिसको भरनेके लिए सदा ही 'असत्य' की आवश्यकता होती है। जीवनमें तो द्वंद्व है ही, किन्तु लक्ष्य तो निद्वता है । जीवन विकासशील है। क्या कला जीवनसे अनपेक्ष्य ही रह सके ? ऐसी कला तो दंभको पोषण दे सकती है।... ता. २१-११-३५ ......मैं लिखना न छोड़े, हो जो हो, यह आप कहते हैं । आप ठीक हैं। लेकिन मैं अपने लिखनेको वैसा महत्त्व नहीं दे पाता । मैं नहीं लिखता, इससे साहित्यकी क्षति होती है, यह चिन्ता मुझे लगाये भी नहीं लगती । जब मुझमें वह भाव नहीं है, तब उसे ओढ़े क्यों ? मैं उसे अपने ऊपर ओढ़कर बैठना नहीं चाहता । साहित्यिक विशिष्ट व्यक्ति मैं अपनेको एक क्षणके लिए भी नहीं समझना चाहता । ऐसा समझना अनिष्ट है । ऐसी समझ, मैं देख रहा हूँ, बहुत अंशमै आज हिन्दीके साहित्यको हीन बनाये हुए है । मानों जो साहित्यिक है उसे कम आदमी होनेका अधिकार हो जाता है, अथवा कि वह उसी कारण अधिक आदमी है ! इसलिए मैं उस तरहकी बातको अपने भीतर प्रश्रय देना - Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं चाहता । पर, मैं तो देखता हूँ, मुझे अपने ही कारण लिखना नहीं छोड़ना है। क्योंकि जब साहित्यका जिम्मा मेरे ऊपर नहीं है तब मेरी अपनी मुक्ति तो मेरा अपना ही काम है । और कब आत्मव्यक्तीकरण मुक्तिकी राहमें नहीं है ? ' x xxx ____ता. ३१-८-३६ ...'राम-कथा' जैसी चीज़ मैं लिखना विचारता हूँ। लेकिन देखता हूँ कि मेरी राह जैसी चाहिए खुली नहीं है । मैं सोचा करता हूँ कि जब मेरे साथ यह हाल है, तब नवीन लेखकोकी कठिनाइयोका तो क्या पूछना। मैं तो अब पुराना, स्वीकृत भी हो चला हूँ। जो नये हैं, उनके हाथों नवीनता तो और भी कठिनाईसे वे लोग स्वीकार करेगे।............ कठिनाइयाँ जीवनका Salt हैं पर उनको लेकर व्यक्तिमे complexes पैदा होने लगते हैं । वही गड़बड़ है। उनसे बचना ।...... अब तुम्हारे सवाल, जो कभी शात न होंगे। सवाल है ही इसलिए नहीं कि वह शांत होकर सो जाय । वह सिर्फ इसलिए है कि अगले सवालको जन्म दे। यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए । वह दंभी नहीं तो मूढ है जो जताता है कि उसका प्रश्न हल हो गया। वह मुक्तावस्था है और मुक्तावस्था आदर्श है, अर्थात् वह एक ही साथ तर्कका आदि है और अंत है। तर्कके मध्यमे, और जीवनके मध्यमे, आदर्श-स्थितिका स्थान नहीं समझना चाहिए। इसलिए सवालका समाधान नहीं है, मात्र परिणति है । बाहरसे उसका मुख भीतरकी ओर फेरनेसे ऐसा परिणमन सहल होता है। इसलिए यह तो सिद्धान्त रूपसे मान लो कि सवालको फिर भीतरकी ओर मुड़ना होगा और हरेक उत्तर अपने आपमें स्वयं अन्ततः प्रश्नापेक्षी हो रहेगा । प्रश्नोत्तरद्वारा वस्तुतः हम परस्परको ही पावें; अधिककी अपेक्षा न रक्खे। कला हेतु-प्रधान होती है कि हेतु-शून्य ? मैं कहूँगा कि कलाकर अपनेमें देखे तो कला हेतु-प्रधान क्यों, हेतुमय होती है । कलाकृतिके मूलमें मात्र न रहकर उसका हेतु तो उस कृतिके शरीरके साथ आभिन्न रहता है । वह अणु-अणुमें व्याप्त है । कलाकारको दृष्टिसे कभी कला हेतु हीन (अर्थात् , नियमहीन, प्रभाव-हीन) हो सकती है ? और वह तो हेतु-प्राण - है । कलाकारके अस्तित्वका हेतु ही उसकी कलामे ध्वनित, चित्रित होता है। २९४ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुछ पत्रोंके अंश लेकिन बाहरकी दृष्टिसे मैं उसे सहेतुक कैसे मानूं? इस भाँति उसे सहेतुक मानना कलाकृति और कलाकारके बीचमें खाई खोदना जैसा है। मनुष्य और उसका धंधा, ये दो हो सकते हैं। पर मनुष्य और उसकी मनुष्यता (यानी, उसकी भावनाएँ) दो नहीं है। उसका व्यवसाय मनुष्यके साथ प्रयोजन-जन्य, मनुष्यता उसके साथ प्रकृति-गत है। जहाँ मानव अपनी घनिष्ठतामें, अपनी निजतामे, प्रकाशित है, वहाँ उतनी ही कला है । जहाँ अपनेसे अलग रखे हुए हेतुओंकी राहसे वह चलता है, और हेतुओके निर्देशपर रचता है, वहाँ उतनी ही कम कला है । कलामें आत्म-दान है। आत्मदान सबसे बड़ा धर्म है, सबसे बड़ी नीति है, सबसे बड़ा उपकार है, और सबसे बडा सुधार है । अतः कला सुधार, उपकार, नीति और धर्म, सबसे अविरुद्ध है और सबसे अपरिबद्ध है। इस प्रकार कला सत्यकी साधनाका रूप है। वह परम श्रेय है। कला तो निःश्रेयसकी साधिका ही है । जहाँ ऐसा नहीं है वहाँ वह भ्रात है। यह कहिए कि वहॉ कला ही नहीं है। 'बात यह है कि मानवका ज्ञान अपने संबंध बेहद अधूरा है। वह अपनी ही भीतरी प्रेरणाओंको नहीं जानता । यह सही नहीं है कि वह प्रयोजनको ही सामने रखकर चलता या चल सकता है । हेतु उसके भीतर संश्लिष्ट है, inherent है। जिसको अहं विकृतज्ञानमें हेतु मान उठता है, उसके प्रति वह सकाम होता है । वह, इस तरह, हेतु होता ही नहीं। मनमानी लोगोंकी गरजें उनके जीवनोकी वास्तव हेतु नहीं हैं। इस दृष्टिसे हेतुवाद एक बड़ा भारी मायाजाल है। जो जितना महत्पुरुष है वह उतनी ही दृढता और स्पष्टतासे जानता है कि व्यक्तिगत कारणसे कोई बड़ा ही कारण उसे चला रहा है। इतिहासके सब महापुरुष इसके साक्षी हैं। और मैं कहता हूँ कि इस व्यक्तिगत हेतुकी भावनास ऊपर उठनेपर ही सच्चे जीवनका आरंभ और सच्ची कलाका सुजन होता है। हेतुवादी वह संसारी है जो सासारिकतासे ऊँचा उठना नहीं चाहता । (और तुम पूछते हो कि) अगर कला Self-expression ही है तो फिर जीवनस उसका दायित्व क्या है ? Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैं तो आज कलाको Self-expression की परिभाषामें ही समझनेकी इजाज़त देना चाहता हूँ। यद्यपि इसमें ( समझने में ) खतरा है फिर भी उसी प्रकारकी परिभाषा यथार्थताके अधिक निकट और अंततः अधिक उपयोगी है। . पर, फिर भी वह तनिक भी उच्छृखल नहीं और अधिकसे अधिक दायित्वशील है । वह इसलिए कि जो हमारा भीतरी Self असली Self है वह बाहरी जगतके साथ अभेदात्मक है । हम असलमे विश्वके साथ एकात्म हैं । जितना अपनेको पायेंगे उतना ही, अनिवार्य और सहज रूपमें, विश्वको पायेंगे । इसलिए प्रत्येकका Self-expression, अगर वह अपने साथ सच्चा और जागरूक है, तो प्रेमात्मक ही हो सकता है, विद्वेषात्मक तो हो सकता ही नहीं । साधनामें जो आत्म-वंचना कर जाता है उसकी बात तो मैं करूँ क्या, पर साधक व्यक्तिका Self-expression कभी अहितकर नहीं हो सकता, और आर्टिस्ट साधक है। असल में साधक अनुभव करता है कि वासनाओंमें उसका सच्चा 'स्व' ही नहीं है और वह वासना-रसको अनायास छोड़ता चलता है । वह अतिसहज भावसे दायित्वशीलताकी ओर बढ़ता है और साथ ही विनम्रताकी ओर बढ़ता है । इस भॉति साधक आर्टिस्ट के लिए जरूरी हो जाता है कि वह इस बाहरकी कसौटीपर अपनी साधनाको कसता भी रहे-कि वह उच्छृखल, अविनयशील, अहंमन्य तो नहीं हो रहा है। रोगकी जड़ अहंमन्यता है और आर्टिस्ट अहंमन्यताका खोखलापन आरम्भसे ही देखता है। कला बुद्धिप्रधान हो कि भावप्रधान ? बलासे, कुछ भी हो । व्यक्तित्वमें बुद्धिका खाना कहाँ है और भावका कहाँ ? और जहाँ अपनी आत्माका ही दान है वहाँ बुद्धि अथवा भावको बच निकलनेकी जगह कहाँ है? और इन प्रश्नोंको लेकर क्या कहूँ ? कितना भी कहते जाओ तत्त्व उतना ही गहन रहता है । सत्यकी पुकार तो है कि आदमी सब नाते, सब बन्धन, तोड़ छूट पड़े। तब कुछ समझ मिले तो मिल भी सकती है। अन्यथा सब वृथा है। ___ अपनी ज़िदगीके बारे में क्या कहूँ? क्या कुछ उसमें कहने लायक है ? अभी तो मुझे कुछ पता नहीं |...... मैथिलीशरणजीको मैं क्या मानता हूँ ? हिन्दी कवियों में आज मैं समझो उन्हींको मान पाता हूँ। श्रद्धाके नाते उन्हें ही, समझके नाते यों औरोकी भी मान लेता हूँ। xxx x २९६ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुछ पत्रोंके अंश १९-९-३६ {...प्रोफेसरोका अविश्वास मैं समझ सकता हूँ। पर दिलसे अहंकार निकाल डालनेका तरीका ही यह है कि उसे हथेलीपर ले लिया जाय । जिसे निन्दासे डरना नहीं है, वह प्रशसासे डरे ? जो अपवादपर झल्लाते हैं, वे ही पर्यातसे अधिक संकुचित हो सकते हैं। पर वे दोनो एक रोग है-मीति और लालसा ।... ता. १९-२-३७ । ...जिसके प्रति मनमें प्रशंसा न हो उसके प्रति conscious झुकाव रखना सबी नीति है। 'नीति का मतलब पालिसी नहीं, कर्तव्य भी मैं लेता हूँ। क्योंकि आखिर तो आलोचनाकी जहमें अज्ञान ही है। इसीसे जवाहरलालजीकी आलोचना वैसी लिखी गई जैसी लिखी गई ।... ...शरद समाजके प्रति निर्मम है, पर व्यक्तिके प्रति निर्मम क्यों न हुआ जा सके ? सच्ची निर्ममता मैं तो उसे जाने जो समाजके लिए व्यक्तिको तजे, समाजको ज्ञानके लिए, शानको तथ्यके लिए, और इस प्रकार अपने सब कुछको अखंड-सत्यके लिए। 'अश्रुमती गौतम' क्यो माई ? सीधी बात है कि माई इससे भाई । उसमें tendency मेरे मनकी है । लेकिन एक बात है । आत्म-त्याग एक वस्तु है, आत्म-त्यागकी भावना बिल्कुल दूसरी वस्तु । जहाँ यह भावना प्रधान है वहाँ आदर्श-'वाद' है। और ध्यान रखना चाहिए कि आदर्श-'वाद' भी और वादोंकी तरह थोथा होता है। 'वाद' नहीं चाहिए, स्वयं आदर्श चाहिए। आत्म-त्यागको एक doctrine एक Dogma. बनाकर व्यक्ति सचमुच स्वार्थी होने में मदद पाता है। तुम्हारी 'अश्रुमती गौतम, मुझे प्रतीत होता है, आदर्शकी अपनी 'धारणा'से चिपटी रही। आदर्शको ही पकड़ती तो उससे चिपट नहीं पाती । क्योंकि आदर्श, जितने बढ़ते हो, उतना ही स्वयं बढ़ते जाता है। इसलिए आदर्शकी ओर यात्रा करनेवाला व्यक्ति सदा मुक्त रहता है, उसका स्वभाव खुलता ही जाता है। जब कि आदर्श-'वादी' व्यक्ति अपने । 'स्व'के घेरेको और मजबूत ही बनाता है। पर जैसे 'अ-रूप की आराधना नहीं होती, आराधना स्वयं अ-रूपको स्वरूप दे देती है, वैसे ही जाने-अनजाने २९७ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुद्धि वादानुगामिनी होती है। और अनुमती, मुझे बहुत खुशी है, किसी doctrine की नहीं, एक idea. (गौतम-idea) की अनुगामिनी है। Idea. सप्राण वस्तु है। उसकी रेखाएँ बॅधी नहीं हैं इसीसे । भाई द्रविडजी, उपन्यासके बारेमें मेरी जो वृत्ति है वह वैज्ञानिक शायद न हो । पर मुझे तो वही उपलब्ध है। उसमे जिसे Characterization कहा जाता है, उसे लगभग बिल्कुल भी स्थान नहीं है । मुझे उस शब्दके भावका पता नहीं मिला ।' इससे पात्रको सागोपाग करनेकी ओर मेरा ध्यान नहीं जाता। क्या एक पात्र अपने आपमे कुछ भी चीज़ है ? असली चीज़ मेरी निगाहमें पात्रोंका पारस्परिक संबंध है, न कि पात्र स्वयं | relationship | मुझे विचारणीय बात मालूम पड़ती है, न कि persons । इससे सुबोधपर मैं अटकता नहीं । आपके सुझानेपर भी उसकी एकागिता मुझे खटकती नहीं । व्यक्ति क्या एकागीके अतिरिक्त सर्व-संपूर्ण हो भी सकता है ? असलमें सुबोधका व्यक्तित्व ( अथवा कि किसी भी एकका व्यक्तित्व ) खींच उठाना मेरा लक्ष्य नहीं है । अमुकके relations में किसी एकके relations क्या है, इसे दिखाते दिखाते यदि मैं कहीं भी आत्माके गहरे तलको जा छूता हूँ तो यही मेरे लिए बहुत है। उपन्यासकारके नाते, इससे अधिक मेरा इष्ट भी नहीं है। असलमे मैं पक्का उपन्यासकार नहीं हूँ। शायद कुछ whims हो जिन्हें छोड़ना नहीं चाहता। कहा जा सकता है कि लिखता है तो उन whims को ही निबाहने आर पुष्ट करनेके लिए। .........आपकी बात ठीक है । जीवनको जीते और बॉटते चलना चाहिए । इसी राइमें बहुत-कुछ आ जाता है। सस्नेह-जैनेन्द्र . . xxxx भाई द्रविडजी, २-९-३७ प्रश्नके बारे में यही कि अशेयकी स्थितिमें मैं थोड़ा सुधार सुझाना चाहूंगा। , उनका वाक्य है Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुछ पत्रों के अंश · "The creation of an artist always äriges from a state of unbalance....... Etc." यह वाक्य यो हो“An artist rises from the state of......Bte." सुधारके पक्षमें यह कारण उपस्थित है"That the state of unbalance, itself, is not creative. पर नहीं। ऊपरका लिखना व्यर्थ है। उसे कया समझिए । अब मैं समझा कि मैं गलत समझा । प्रश्न आर्टिस्टका नहीं, आर्टिस्टके creations का है। पहले मैने जाना कि artist के creation (जन्म) का सवाल है । खैर। अब स्थितिको मैं यूं समझता हूँ । कोइलेसे आग होती है । वह (आग') सदा कोइलेस (लकडी आदिसे) होती है, यह भी कह दीजिए। दोनोंमें छठ बात कोई नहीं है। लेकिन यह कहनेसे आगकी प्रकृतिपर प्रकाश पड़ता है, सो नहीं । कोइला मलिन हो, आग सदा उज्ज्वल है। आर्टिस्टका unbalance एक प्रकारका conditional antecedent है। पर आग जैसे कोइलेको पार कर देती है, वैसे ही creation unbalance को मिटानेके लिए है। कोइला तो पत्थर है,-दियासलाई उसमें आग दिखाती है। creation के मामलेमें वह दियासलाई है क्या ? जो रवींद्रनाथने कहा वह उस creationकी आगमें दियासलाई-वाला तत्त्व समझा जाय | unbalance उसमें कोइला-रूपक तत्त्व है ।...... ......Unbalance is inherent, is implicit. No man is in perfect harmony, can ever be in complete unision, with his environs. All experience unbalance. But everybody is not an artist. So, unbalance does not lead to creation direct. It cannot. It is a principle of disintegration. What it does is to stimulate our senses and sharpen our seeking. It makes ug miss balance and be acutely conscious of the want of it. It is only thus that it 'belps creation. It is Faith, working through doubt, २९९ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ which creates. Doubts necessitate faith which, when born, devoures all of them and nourishes and flourishes on them. We ought not to confuse them both, though ever they are to be found close to each other. Creation rises out of unbalance with a sure poise of balance and grace......... खींद्रबाबूका कथन ठीक दिशाम है, यद्यपि उसमें content विशेष नहीं है। मेरी निजकी स्थिति ऊपरके वाक्योंमें कुछ आ जाती है। असलमें इन मामलोंमें objective approach से बचना चाहिए। सलेह-जैनेन्द्र Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पणिय Page #197 --------------------------------------------------------------------------  Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०३ १ साहित्य क्या है? इस लेखमें, साहित्यकी सृष्टिके मूलकी मनोविज्ञानिक आवश्यकता बताकर, साहित्यके स्वरूपको समझाया गया है । साहित्यके आरम्भका मूल तत्व है 'स्व' की विश्वके साथ अभेद अनुभूति । 'अपने स्वयंका अतिक्रमण कर,' आत्मसमर्पणका पाठ शेष विश्वसे सीखकर, तथा अपने क्षुद्रत्वकी अनुभूतिसे त्रस्त होकर विराटताकी अनुभूति जगानेकी जो व्यग्रता मनुष्यम है, उसीसे साहित्य उत्पन्न हुआ है । अतः साहित्य, और कुछ नहीं, इसी सत्योन्मुख प्रगतिशीलता और अनुभूतिशीलताकी अभिव्यक्ति है। लेखक मानव-जीवनकी संभावना द्वित्वसे निर्मित विग्रह, संघर्ष और पुनः समझौतमे मानता है। वैज्ञानिक डार्विन इसीको परिस्थिति के अनुरूप बननेका (adaptation) उत्क्रान्ति-तत्त्व मानता है। मानव-जीवनकी इसी कर्मशीलताको आत्मिक भूमिपर देखें तो, एककी अनेकमे और फिर उन अनेकोकी भा किसी विराट् एकमे मिल जानेकी जो चाह है उसे ही साहित्यकी प्रेरणा मानना होगा । अतः साहित्य जीवनकी प्रश्नमयताका समाधान है, जीवनका अभेदोन्मुख कर्म है। लेखककी भूमिकास दो बातोंका पता चलता है । एक सजीव मुमुक्षुवृत्तिका जो ब्रह्मसूत्रकारके ' अथातो जिज्ञासा' की तरह है। हर वस्तुको जाननेसे पहले 'क्यों ? 'क्या ? 'किसलिए? आदि प्रभोंका मनमें स्वभावतः उठना अपेक्षित है। दूसरी बात है विचार-स्वातंत्र्यमें अटूट विश्वास जिसके लिए रोम्याँ रोला महाशय उत्सुक रहते हैं। लेखक विचारोंको किसी भी प्रकार परिबद्ध या जडवादी बना हुआ नहीं देखना चाहता । उनके मतमें विचारनैश्चित्य बुरा नहीं है पर विचारका स्थिर होकर बॅध रहना तो उसके जीवनके लिए बाधक है। साहित्यकी अनेक परिभाषाओंमेसे जैनेन्द्रकी परिभाषाके साथ दो परिभाषायें तोलनीय हैं और वे यहॉ दी जाती हैं-'साहित्य जीवनकी समीक्षा है, (-मैथ्यू आरनाल्ड ) मनुष्य जातिकी संचित शान-राशिका कोष साहित्य है, (-आ• महावीरप्रसाद द्विवेदी)। ६ मनुष्यकी बुद्धिके साथ अहंकारके जागरणकी कया सांख्यदर्शनमें बहुत अच्छी तरह रूपकद्वारा व्यक्त की गई है। सख्यके अनुसार मुक्त पुरुष शुद्ध Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० साहित्य-परिषद जैनेन्द्रजीने जो भाषण दिया था, उसके ये कुछ अंश हैं। प्रेस में बराबर रिपोर्ट न छपनेसे इन दो पृष्ठोंमे कुछ अशुद्धियाँ रह गई हैं। इस भाषण में बतलाया गया है कि साहित्यिकका पंडित होना आवश्यक बात नहीं है। क्या जाने वह उचित भी न हो । हिन्दीके कई संत -कवियोंको लिखनापढ़ना बिल्कुल नहीं आता था। कबीर और सूर संप्रदाय के सभी कवि ऐसे थे जो भजन रचते और गाते थे । वे कविता ' लिखा ' नहीं करते थे, ' कहा करते थे । " C Poets open new windows in the soul ' ( =कवि आत्मामें नये वातायन खोल देते हैं) सैम्युएल बटलरकी यह उक्ति इसी संदर्भ में पड़ी जाय । साथ ही 'हिन्दी में सजीव साहित्यकी आवश्यकता' शीर्षक श्री 'अज्ञेय' की अपील ('विशाल भारत' ) और जैनेन्द्रका उसपर नोट भी पढा जाय । ८ लेखकके प्रति यह संदेश बच्चोंके पत्र 'पीयूष ' के लिए लिखा गया था। ९ संपादक के प्रति है । इस चिडीकी विचार-प्रवर्तकता और 'स्यादवाद 'मय तर्क-पद्धति महत्त्वपूर्ण ('विद्या' में प्रकाशित ) १० आलोचकके प्रति मैं इसे जैनेन्द्रजीके सर्वोत्तम लेखोंमें गिनता हूँ। यह बहुत सुलझी हुई और क्रमबद्ध सफाई है । उनके ' सुनीता ' उपन्यासपर भिन्न भिन्न व्यक्तिओद्वारा जो तरह तरहकी आलोचनायें हुईं थीं उनको, संक्षेपमे, उनके सापेक्ष महत्त्वानुसार उत्तर देनेका प्रयत्न किया गया है । बुद्धिद्वारा जीवनके आह्लादको ग्रहण करनेकी जो मानवी क्षमता है वह, जहाँ मनुष्य मुमुक्षु न रहकर वादी और ज्ञानाग्रही होने लगता है, वहीं कम हो जाती है। इसीको लेखक जैनेन्द्रजीने अपने सामने रक्खा है । बौद्धोंकी तरह स्वामी रामने एक जगह कहा है- whosoever grasps loses. यही तत्त्व इस पुस्तकसे झलक रहा है । इस लेखकी तीसरी बात ज्ञानकी अपेक्षा - कृति ( = Relativity ) है । • रविबाबूकी ' घरे बाहिरे' और 'सुनीता' का जो संतुलन जैनेन्द्रजीने Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया है उससे पाठक सब अशोमैं सहमत न भी हो सके, तो भी, उपन्यासकारसे क्या अभीप्सित है इस बारेमें पाठकको उनसे मत-भेद नहीं हो सकता। ऑस्कर वाइल्डने झूठसे आतंकित करनेके मोहमें अपने 'मृषाका हास' (Decay of Lying ) नामक निबंधमें कहा है-'यदि उपन्यासकार समझता है कि उसके पात्र जीवनसे लिये गये हैं तो यह गर्वकी नहीं प्रत्युत 'शर्मकी बात है।' रवीन्द्रनाथने अपने 'साहित्य' नामक निबन्ध-संग्रहके 'ऐतिहासिक उपन्यास' शीर्षक लेखमे सत्य और कल्पनाका कहाँ तक मिश्रण उपयुक्त है, इसपर चर्चा की है । यह सब पृ० ५७ के साथ साथ पढ़ा जाय । जहाँ क्या लिखूसमस्याका जिक्र है, वहाँ विलियम जेम्सक मनोविज्ञानशास्त्रमे 'स्व-पर-समस्या' नामक अध्यायका आरम्म याद आता है । साथ ही यह कहना होगा कि जैनेन्द्रजीका विज्ञानको पूर्णतः ऑब्जेक्टिव माननेका दावा सब वैज्ञानिकोंके लिए न्यायोचित नहीं है। , एक जगह 'माया' का प्रयोग आया है । शंकरके समान जर्मन दार्शनिक फिन्टेने भी यही कहा था कि 'ससीमका असीमानुबोध सदैव सीमाबद्ध ही होगा, क्योंकि शान हमारी सीमा है।' वैसे ही जैनेन्द्रजीसे कहा जा सकता है कि श्रद्धा • भी हमारी उसी प्रकारकी सीमा हो सकती है। परंतु वे निष्ठाको छद्म नहीं समझते, क्योकि उनके मतमें वह हार्दिक निर्धान्ततापर निर्भर है। ' अन्तमै आलोचकके लिए दी हुई नर्म नसीहत बड़ी उपयोगी वस्तु है। ('हंस' में प्रकाशित) ११ जीवन और साहित्य २१ मार्च १९३६ की सायंकालको लाहोरमें राष्ट्रभाषा-प्रचारक संघके अन्तर्गत लाजपतराय हालमें दिया गया भाषण । 'सत्य अन्तिम नहीं है' (पृ. ६५)। लेनिनने भी एक जगह कहा है'Nothing is final' | यहाँ जैनेन्द्र जो सदा जीवन और साहित्यका लक्ष्य सत्योन्मुखता बताते हैं, वे उसको ' अन्तिम नहीं' कहकर विरोधाभासमें उतरते जान पड़ते हैं। परन्तु उनका मूल तत्त्व 'सत्य अपेक्षाकृत है, यह समझनेपर विरोधामास नहीं रहता। सुकरातके संबंधमें यूनानकी एक जोगिनने कह दिया था कि वही यूनानका Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० प्रथम मूल-वृत्ति माना है और जो डरसे डरनेका प्रयत्न करते हैं वे निश्चय डरसे बचना चाहते हैं । ( पृ० २१८ ) श्रद्धाका अर्थ अंध मोह नहीं है । विशुद्ध श्रद्धा निर्भीक होती है । ऐसे ही मीरा कहती थी ' संतन ढिग बैठ बैठ, लोकलाज खोई...। ' " मौतके संबध में ' चढा मन्सूर शूलीपर पुकारा इश्कबाजोको, यहॉ जिस जिसमें हिम्मत हो वही खम ठोककर आये ' किंवा रवीद्रनाथका 'मरण जे दिन आसे दुवारे, की दिन उहारे' या कबीरका ' मरण रे तुहुं मम श्याम समान अथवा उमर खय्यामका फर्राश-अज़लका रूपक, या मैथिलीशरणजीकी ' यशोधरा' का 'मरण सुंदर बन आया री, शरण मेरे मन भाया री' या श्रीमती महादेवी वर्माका ' ओ जीवनके अंतिम पाहुन ' या ' एक भारतीय आत्मा' का ' अरी ओ दो जीवनकी मेल' आदि याद हो आते हैं। ' वासासि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ' गीता के इसी अमर संदेशको हॅसते हॅसते कहते हुए कन्हाई दत्तका वज़न फॉसीके तख्तेपर बढ गया था । यह सब श्रद्वाका फल है । लखके अन्तमे मेरे द्वारा पूछा हुआ प्रश्न लेखके दृष्टिकोणको और भी स्पष्ट कर देता है । ( 'हस' मे प्र० ) २३ प्रगति क्या ? लखनऊमै काग्रेसके साथ साथ 'प्रोग्रेसिव राईटर्स' या प्रगतिशील लेखक संघकी औरसे एक जलसा हुआ था । उसके द्वारा प्रगतिशीलताके संबंधमे जो गलत धारणायें हम अपने राष्ट्र-जीवनमें पोस रहे हैं उनका विरोध जैनेन्द्रने अपने भाषणमे किया था । वही विचार यहाँ लिखित हैं । ( पृ० २२५ ) बोज़ान्क्वे जैसे आधुनिक आदर्श-वादी तार्किक (=Idealistic Logicians) 'न' कारका स्वतंत्र अस्तित्व नहीं मानते । कैटने देश और कालको मनुष्यकी बौद्धिक इयत्तायें, शर्तें या ( catagories of understanding ) माना था जिनसे परिज्ञान- सामग्री छन कर आती है और भाव-रूप पकड़ती जाती है । हमारा ज्ञान देश-काल- सीमाओंसे स्वतंत्र नहीं है। किन्तु इसीसे हमें अपने को स्वतंत्र सत्ताधिकारी नहीं मानना चाहिए, जैनेन्द्रका यह तर्क ' कॉम्ट' जैसे स्वीकारवादी (= Positivist ) और 'धूम' जैसे शंकावादीने नहीं माना था। पर वह कथा बारीक है और बहुत है । विशेष Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२१ 5 जिज्ञासु ए० अलेक्ज़ेंडरकी f Time, Space and Deity' (काळ, आकाश और देवता ) पुस्तक पढें ! देश-कालके मापदंडोंसे अलिप्त, मात्र आकाशकी, अलग कोई शून्यसत्ता है, ऐसा बौद्ध मानते थे । परंतु सामान्य मनुष्य न यह समझ पाता है न प्रतीत कर सकता है । " डायोनिसस नामक ग्रीक दार्शनिक जीवन मे ऊब कर एक पीपेके अंदर औंधा मुँह करके बैठता था । वैसे ही ग्रीक - दर्शनमें दो विचार धाराये चली थीं। एक ओर परमेनाईडस और उसके शिष्य थे जो कहते थे “ सब स्थिर है, सब स्थिर है ।" दूसरी तरफ हेराक्लाईटसके शिष्य थे जो कहते थे "सब परिवर्तनशील है, सत्र परिवर्तनशील है । " ऐसे ही 'गतिके शिकार' यानी गत्यध बौद्धो में शून्यवादी भी थे जो कहते थे, 'क्षणिकम्, क्षणिकम्, सर्वम् क्षणिकम् ' । ( पृ० २२९ ) कार्ल मार्क्सने हेगेलके ' डायलेक्टिक्स' शब्द में ऐतिहासिक विशेषण जोड़कर अपना एक नया ऐतिहासिक भौतिकवाद ( = Historical materialism ) पैदा किया था। जैनेन्द्र उसके विरुद्ध एक अभौतिक किंतु चिर-प्रस्तुत ऐतिहासिक श्रृंखलाको लक्षित कर रहे हैं । " ( पृ० २३० ) गणितके उदहरणसे ग्रीक स्थिरतावादी दार्शनिक 'जीनो के बहुत विचित्र तर्ककी याद आ गई। वह कहता है कि, 'समझिए, कोई तीर यहाँसे फेका गया। वह प्रत्येक क्षण देशके प्रत्येक अणुर्भे स्थिर रहेगा,- यह खंडशः देखनेसे पता चलता है; इसलिए, तीर चलता ही नहीं।' 'गति भ्रम है, ' इस तत्वपर जीनो अपने ग़लत एकान्तवादकी वजहसे पहुँचा था । साराश, प्रगति- विचारमे जैनेन्द्र, नकारात्मक पद्धति, एकान्तवाद तथा अतीतको भुला देनेकी नीति गलत समझते हैं। ('हंस' में प्र०) २४ मानवका सत्य इस लेख से श्रीसुमित्रानंदन पंतकी सर्वोत्तम कविता ' परिवर्तन' की याद आ जाती है। टेनीसनकी पंक्ति Men may come and men may go, but I go on for ever ' और शेलीकी 'बादल' ('cloud') कवितामै ' I change, but never die ' का भी भावार्थ इसी प्रकार है । मनोविज्ञान भी मनकी दो मूल वृत्तियाँ मानी हैं; एक संग्राहक, दूसरी रचना"शील । संग्राहक वृत्तियोका संचय जहाँ विद्यमान् चेतनाके तल-पृष्ठ में गया कि वह मिटता हुआ जान पडता है । पर वास्तवमें मिटता कुछ भी नहीं । २१ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेदनाके साथ एकात्म वैषम्य व्यक्त और अव्यक्त व्यक्तरूप व्यक्ति और समाज व्यक्ति और समष्टि व्यक्तिकी अद्वितीयता व्यक्ति मूल व्यक्तिच व्यक्तित्व और व्यक्ति व्यक्तित्व, शून्य व्यक्तित्व, स व्यथा विसर्जन व्यवसायशीलता व्यवसायशीलता, सच्चीव्यय और प्रतिफल और प्राप्त व्यय और श्रम व्यवहारवादिता व्याकरणकी चिन्ता व्यापार व्यापार शोषण है वृत्तियाँ, रसग्राही वृत्तियाँ, रेरिफाइड (Ranfied ) वाइसराय शक्तिपूजा शब्दज्ञान श ३३३ १९ शाश्वत ३७ शासन-शक्तिका आतंक १६५ शांति - प्रस्थापन २८४ शिल्प कौशलकी विद्वत्ता २७४ शिवा बावनी शोषण शंकासे मुक्ति २०० ४९ १५८ श्रद्धा २१८ श्रद्धा, अंधी ११८ श्रद्धाका माध्यम १४ श्रद्धोपेत बुद्धि १४ ર १५ १९५ १९३ १९२ सच्चिदानंद १९३ सत् ५२ ५४ १३६ -- २६ सत्-असत् ९८ सत्, निरपेक्ष - कामना १३२ सत् शक्ति १६८ सत्य श्रद्धाशून्य, संदेहग्रस्त श्रद्धा स्नेहका वल श्रद्धाहीन बुद्धि, बंध्या और लँगड़ी ३८,२१९ श्रुति-स्मृति २६३ सत्य, अखंड सत्य अभेदात्मक है सत्य - आग्रह | सत्य और वास्तव सत्य अंतिम नहीं है ८४ ६९ सत्यकी प्रतिष्ठा सत्यचर्या शब्दकी कीमत २४५ शचन्द्र चट्टोपाध्याय १०१,२९७ सत्य चेष्टा शरीरकी रुकावट, सत्यज्ञान मार्गमें १०६ सत्य धर्म शहीद २७५ सत्य पूजा २३९ ලදි r २६२ २७१ ७७ २१५ २१८ २१७ १४५ २२१ २३ ७‍ ૨૮૪ २४७ ४८ १७ १३ २२ २९७ ३९ २९ २९३ ६५ १७ ३५ જ ૨૦૪ २४ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- _