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वादों (='इज्मो' ) के बारेमें वही बात याद रहे जो लेखके भारंभमें दाँयें और बॉयें रहनेवाले गिरोहोंके बावत कही गई है। एक इज्म है, तो दूसरा भी है। दूसरा है, तो तीसरा भी है । इस भाँति वे उतने ही अनगिनत हो जायें जितने कि आदमी, तो भी चैन हो । क्योंकि तब कोई इज्मका शिकार न होगा, सब अपने अपने इज्मोंके स्वामी होगे। लेकिन जब तक यह नहीं होता तब तक 'इज्म' के नामपर जितनी कट्टरताएँ हैं, सब मिथ्याभिमान हैं।
प्रगतिमें वादकी कट्टरता बह जाती है, जैसे काई बह जाती है।
प्रगति भीतरसे आती है और बाहरको होती है । शुरूसे ही उसे अपनेसे बाहर टटोलना और सावित करना निरर्थक है । ऐसी चेष्टा इस वातका द्योतक है कि हमारे ही दिमागके भीतर जीवनका पानी बहते-बहते कहीं बँध गया है। __यहाँतक आकर हम एक प्रयोजनीय क्लास-रूमका-सा प्रश्न बनाकर अपनेसे पूछे कि आखिर इधर-उधरका यह सब तो हुआ, लेकिन, लेखक महोदय, हमको मालूम तो यह करना है कि प्रगतिके लिए हम क्या करे ?
तो मैं उस प्रयोजनार्थी विद्यार्थीसे कहूँगा कि भाई, अब तुम खुद मालूम कर लो कि प्रगतिके लिए क्या करो । तुम्हारे लिए जो काम प्रगतिका होगा, वह काम तुम्हारे सिवाय किसी भी दूसरेके लिए उस भाँति प्रगतिका नहीं हो सकेगा। तुम जो हो, और तुम जहाँ हो, वह न दूसरा है, न वहाँ दूसरा है। इससे हरेक अपना स्वधर्म देखे, अपनी विसात देखे, अपना जी देखे । तब अपना प्रगतिशील कर्तव्य पानेमें उसे अड़चन न होगी। २३२