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साहित्य समाज श्रौर जैन संस्कृत महाकाव्य
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द्विसन्धान की प्रेरणा के मूल स्रोत रामायण की रामकथा एवं महाभारत की पाण्डवकथा है । कवि ने श्लेष द्वारा समानान्तर रूप से राम कथा एवं पाण्डव कथा का जिस प्रकार वर्णन किया है वास्तव में वह श्राश्चर्यजनक एवं रमणीय बन पड़ा है। निम्नलिखित पद्य में कवि ने श्लेष द्वारा व्याकरण एवं चाप-विद्या का सुन्दरता से वर्णन किया है
पदप्रयोगे निपुणं विनामे सन्धी विसर्गे च कृतावधानम् । सर्वेषु शास्त्रेषु जितश्रमं तच्चापेऽपि न व्याकरणं मुमोच ॥ १
द्विसन्धान महाकाव्य के कई पद्य कालिदास के रघुवंश तथा मेघदूत, भारवि किरात एवं माघ के शिशुपालवध से भी प्रभावित हैं ।
द्विसन्धान महाकाव्य में युद्धकला एवं अन्य सैन्य गतिविधियों का महत्त्वपूर्ण चित्रण हुआ है । इसके अतिरिक्त तत्कालीन ऐश्वर्य-भोग, स्त्री- विलास, मदिरापान श्रादि सामन्तवादी युगीन चेतना का भी महाकाव्य में चित्रण प्राप्त होता है । दूसरे शब्दों में द्विसन्धान महाकाव्य तत्कालीन सामन्ती-प्रवृत्तियों का एक सुन्दर दर्पण है । समाज शास्त्रीय दृष्टि से द्विसन्धान में प्राचीन भारतीय शिक्षण पद्धति, राजतान्त्रिक सिद्धान्त, युद्ध प्रक्रिया एवं लोक-जनजीवन के महत्त्वपूर्ण उल्लेख प्राप्त होते हैं ।
(३) महासेनकृत प्रद्युम्नचरित (९७४ ई० ) -
प्रद्युम्नचरित के रचयिता महाकवि असग हैं । महाकाव्य के अन्त 'श्री सिन्धुराजसत्कवि महत्तश्री पप्र्पटगुरोः पण्डितश्री महासेनाचार्यस्य कृते' के उल्लेख
यह प्रतीत होता है कि कवि ने सिन्धुल के महामात्य पर्पट की प्रेरणा से प्रेरित होकर इस महाकाव्य की रचना की होगी । नेमिचन्द्र शास्त्री का विचार है कि महासेन किसी न किसी रूप में मुंज तथा सिन्धुल से सम्बद्ध थे । यह सूचना प्रद्युम्नचरित की प्रशस्ति से प्राप्त होती है । इस कारण मुंज ( ६७४ ई०) के समकालिक होने के कारण महासेन का समय पड़ता है ।
९७४ ई० मानना उचित जान
प्रद्युम्नचरित महाकाव्य में चौदह सर्ग हैं । महाकाव्य के प्रतिपाद्य विषयों के अनुरूप वर्ण्य विषय निबद्ध किए गए हैं। प्रद्युम्नचरित के नायक प्रद्युम्न हैं । जैन मान्यता के अनुसार प्रद्युम्न २४ कामदेवों में से एक है । प्रद्युम्नचरित की कथा पौराणिक है तथा यह महाकाव्य भी पौराणिक शैली में निबद्ध महाकाव्य है । अश्वघोष के सौन्दरनन्द एवं बुद्धचरित, कालिदास के मेघदूत एवं कुमारसम्भव, भारवि के किरात एवं माघ के शिशुपालवध से प्रद्युम्नचरित प्रभावित है ।
१. द्विसन्धान, ३.३६