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भारतीय दर्शन में न्याय-विद्या | ५
(ख) अपने मत पर किए गए, आरोप, आक्षेप या दोष के निवारण
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(ग) विरोधी के मत एवं सिद्धान्त के खण्डन के लिए |
वाद, जल्प, वितण्डा, कथा और सम्वाद भी तर्कशास्त्र के ही अंगभूत हैं । प्रत्येक सम्प्रदाय हो अपनी रक्षा के लिए तथा विरोधी पर आक्रमण करने के लिए तर्कशास्त्र का भरपूर उपयोग करता था । वादविद्या और वादशास्त्र का अध्ययन करता था । तीर्थंकर के शिष्यों में वादी-प्रतिवादी शिष्य भी होते थे, जिनका संघ में आदर-सत्कार एवं सम्मान होता था । ब्राह्मण परम्परा में, बौद्ध परम्परा में और जैन परम्परा में भी शास्त्रार्थी विद्वानों का होना परम आवश्यक माना जाता था । शास्त्रार्थ में विजय प्राप्त करना धर्म की प्रभावना का एक प्रधान अंग था । प्रमाण - शास्त्र का विभाजन
प्रमाण के बिना प्रमेय की सिद्धि नहीं हो सकती । प्रमेय की सिद्धि आवश्यक है और वह प्रमाण से ही होती है । प्रमाण शब्द का अर्थ भी यही है, जिससे प्रमेय का यथार्थ ज्ञान हो, वह प्रमाण है । प्रत्येक सम्प्रदाय को प्रमाण स्वीकार करना ही पड़ता है। तर्क दर्शन का अंग है । अतएव दर्शन के वर्गीकरण के आधार पर तर्क का भी वर्गीकरण किया जा सकता है । भारतीय धर्म की, दर्शन की और संस्कृति की मूल में दो धाराएं रही हैं-ब्राह्मण और श्रमण | वेदानुकूल और वेद - प्रतिकूल । वेदसम्मत और वेदविरोधी । पहले को आस्तिक और दूसरे को नास्तिक कहने की एक परम्परा चल पड़ी है । पर यह एक भ्रान्त धारणा है । जैन और बौद्ध, नास्तिक नहीं, आस्तिक हैं। क्योंकि वे लोक और परलोक में विश्वास करते हैं । कर्म और कर्मफल में विश्वास करते हैं । आत्मा की सत्ता में विश्वास करते हैं । केवल वेद में विश्वास न करने भर से यदि नास्तिकता थोपी जाती है, तो वैदिक लोग भी नास्तिक क्यों नहीं ? क्योंकि वे जैन आगमों में और बौद्ध पिटक में विश्वास नहीं करते । अतः दर्शन, प्रमाण और तर्क का विभाजन इस पद्धति से करना उचित होगा - ब्राह्मण तर्क, बोद्ध तर्क और जैन तर्क । दूसरा प्रकार यह भी हो सकता है - ब्राह्मण तर्क और श्रमण तर्क । संस्कृति और सम्प्रदाय के आधार पर ही इस प्रकार का विभाजन करना न्याय संगत कहा जा सकता है, और उचित भी यही है । भारतीय दर्शन के सम्प्रदाय
दर्शन का उद्भव संशय अथवा जिज्ञासा से माना जाता है । तथ्य
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