Book Title: Jain Nyayashastra Ek Parishilan
Author(s): Vijaymuni
Publisher: Jain Divakar Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 14
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org के लिए | भारतीय दर्शन में न्याय-विद्या | ५ (ख) अपने मत पर किए गए, आरोप, आक्षेप या दोष के निवारण Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (ग) विरोधी के मत एवं सिद्धान्त के खण्डन के लिए | वाद, जल्प, वितण्डा, कथा और सम्वाद भी तर्कशास्त्र के ही अंगभूत हैं । प्रत्येक सम्प्रदाय हो अपनी रक्षा के लिए तथा विरोधी पर आक्रमण करने के लिए तर्कशास्त्र का भरपूर उपयोग करता था । वादविद्या और वादशास्त्र का अध्ययन करता था । तीर्थंकर के शिष्यों में वादी-प्रतिवादी शिष्य भी होते थे, जिनका संघ में आदर-सत्कार एवं सम्मान होता था । ब्राह्मण परम्परा में, बौद्ध परम्परा में और जैन परम्परा में भी शास्त्रार्थी विद्वानों का होना परम आवश्यक माना जाता था । शास्त्रार्थ में विजय प्राप्त करना धर्म की प्रभावना का एक प्रधान अंग था । प्रमाण - शास्त्र का विभाजन प्रमाण के बिना प्रमेय की सिद्धि नहीं हो सकती । प्रमेय की सिद्धि आवश्यक है और वह प्रमाण से ही होती है । प्रमाण शब्द का अर्थ भी यही है, जिससे प्रमेय का यथार्थ ज्ञान हो, वह प्रमाण है । प्रत्येक सम्प्रदाय को प्रमाण स्वीकार करना ही पड़ता है। तर्क दर्शन का अंग है । अतएव दर्शन के वर्गीकरण के आधार पर तर्क का भी वर्गीकरण किया जा सकता है । भारतीय धर्म की, दर्शन की और संस्कृति की मूल में दो धाराएं रही हैं-ब्राह्मण और श्रमण | वेदानुकूल और वेद - प्रतिकूल । वेदसम्मत और वेदविरोधी । पहले को आस्तिक और दूसरे को नास्तिक कहने की एक परम्परा चल पड़ी है । पर यह एक भ्रान्त धारणा है । जैन और बौद्ध, नास्तिक नहीं, आस्तिक हैं। क्योंकि वे लोक और परलोक में विश्वास करते हैं । कर्म और कर्मफल में विश्वास करते हैं । आत्मा की सत्ता में विश्वास करते हैं । केवल वेद में विश्वास न करने भर से यदि नास्तिकता थोपी जाती है, तो वैदिक लोग भी नास्तिक क्यों नहीं ? क्योंकि वे जैन आगमों में और बौद्ध पिटक में विश्वास नहीं करते । अतः दर्शन, प्रमाण और तर्क का विभाजन इस पद्धति से करना उचित होगा - ब्राह्मण तर्क, बोद्ध तर्क और जैन तर्क । दूसरा प्रकार यह भी हो सकता है - ब्राह्मण तर्क और श्रमण तर्क । संस्कृति और सम्प्रदाय के आधार पर ही इस प्रकार का विभाजन करना न्याय संगत कहा जा सकता है, और उचित भी यही है । भारतीय दर्शन के सम्प्रदाय दर्शन का उद्भव संशय अथवा जिज्ञासा से माना जाता है । तथ्य For Private and Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 ... 186