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नय-निरूपणा | ६७
... -जुसूत्र नय-जो विचार क्षण-मात्र ग्राही होता है, वह ऋजु सूत्र नय कहा जाता है। यह अतीत और अनागत को गौण करके केवल वर्तमान को ही ग्रहण करता है । जैसे जो क्षणिक है, वह सत् है । क्यों कि क्षण मात्र स्थायी होता है, पर्याय । यह नय पर्याय को ही ग्रहण करता है।
५. शब्द नय-जो विचार काल, कारक, लिंग और वचन के भेद से एक ही शब्द का अर्थभेद मानता हो, वह शब्द नय है। जैसे कि भारत था, है और रहेगा। इस नय की दष्टि में भारत तीन देश हैं, केवल एक देश नहीं रहता।
६. समभिरूढ़ नय -- जो विचार पर्यायवाचक शब्दों में भी अर्थभेद करता है, वह नय समभिरूढ़ होता है। जैसे समुद्र, सागर तथा रत्नाकर । तीनों पर्यायवाचक शब्द हैं और तीनों का अर्थ भा एक है, फिर भी यह नय व्युत्पत्ति के आधार पर अर्थभेद करता है ।
७. एवंभूत नय-जो विचार वर्तमान क्रिया-परिणत पदार्थ को ही मानता है, वह एवंभूत नय है । जैसे जो सेवाकार्य में रत है, उसको ही सेवक कहता है, जो राज्य सिंहासन पर बैठा है, वही राजा है। ____ इस प्रकार यदि ये सातों नय अपने-अपने विषय को ग्रहण करें और दूसरे का विरोध न करें, तो ये सुनय कहे जाते हैं । यदि ये सब परस्पर विरोध करते हैं, तो ये दुर्नय कहे जाते हैं । यह नयों की व्यवस्था है।
तत्त्वार्थसूत्र में नय तत्त्वार्थ सूत्र के प्रथम अध्याय के सूत्र ३४ और ३५ में, नयों के भेदों का कथन है। उसमें नय का सामान्य लक्षण नहीं दिया गया। भेद इस प्रकार हैं-नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र और शब्द । मूल भेद पाँच हैं। नैगम के दो भेद हैं, और शव्द के तो न भेद हैं। नैगम नय के दो भेद हैं.देश-परिक्षेपी और सर्व-परिक्षेपी । शब्द के तीन भेद इस प्रकार हैं-साम्प्रत, समभिरूढ़ तथा एवंभूत ।
नय के भेदों की संख्या के विषय में तीन परम्पराएं रही हैं। सात भेद वाली परम्परा आगम और दिगम्बर ग्रन्थों की है। दूसरी परम्परा तत्वार्थ सूत्र और उसके भाष्य की है, जिसमें नयों के पाँच भेद होते हैं। तीसरी परम्परा आचार्य सिद्धसेन दिवाकर की है, जिसमें नयों के छह भेद हैं। नैगम को छोड़कर शेष छह भेद स्वीकार हैं।
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